04 Apr

Hotel Wonder View Udaipur

उदयपुर और माउंट आबू घूमने चलें?

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अंततः वह क्षण भी आया जब उस प्रतीक्षालय की दीवारों पर लगे हुए इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले बोर्ड पर हमारी फ्लाइट का ज़िक्र आया और सभी यात्रियों को बस में बैठने हेतु उद्‌घोषणा की गई। पत्नी ने कहा कि बस की क्या जरूरत है, पैदल ही चलते हैं तो उसके जीजाजी ने कहा कि चिंता ना करै ! टिकट नहीं लगता। मैं एयरपोर्ट की बस में बैठते ही कैमरा लेकर ठीक ऐसे ही एलर्ट हो गया जैसे बॉर्डर पर हमारे वीर जवान सन्नद्ध रहते हैं। दो – तीन मिनट की उस यात्रा में वायुयान तक पहुंचने तक भी बीस-तीस फोटो खींच डालीं!

जब अपने वायुयान के आगे पहुंचे तो बड़ी निराशा हुई! बहुत छोटा सा (सिर्फ 38 सीटर) जहाज था वह भी सफेद पुता हुआ। मुझे लगा कि मैं छः फुटा जवान इसमें कैसे खड़ा हो पाउंगा ! सिर झुका कर बैठना पड़ेगा! एयर डैक्कन एयरलाइंस के इस विमान में, जिसका दिल्ली से उदयपुर तक का हमने सिर्फ 1201 रुपये किराया अदा किया था, हम अन्दर प्रविष्ट हुए तो ऐसा नहीं लगा कि सिर झुका कर चलना पड़ रहा है। सिर्फ बाहर से ही ऐसा लग रहा था कि जहाज में घुस नहीं पाउंगा। खैर अन्दर पहुंच कर अपनी सीटें संभाल लीं। मुझे खिड़की वाली सीट चाहिये थी सो किसी ने कोई आपत्ति दर्ज़ नहीं की। अन्दर सब कुछ साफ-सुथरा था। एयरहोस्टेस भी ठीक-ठाक थी। यात्रा के दौरान सुरक्षा इंतज़ामों का परिचय देने की औपचारिकता का उसने एक मिनट से भी कम समय में निर्वहन कर दिया। सच तो यह है कि कोई भी एयरलाइंस, यात्रा के शुभारंभ के समय दुर्घटना, एमरजेंसी, अग्नि शमन जैसे विषय पर बात करके यात्रियों को आतंकित नहीं करना चाहती हैं पर चूंकि emergency procedures के बारे में यात्रियों को बताना कानूनन जरूरी है, अतः इसे मात्र एक औपचारिकता के रूप में फटाफट निबटा दिया जाता है। यात्रियों को समझ कुछ भी नहीं आता कि किस बटन को दबाने से ऑक्सीज़न मास्क रिलीज़ होगा और उसे कैसे अपने नाक पर फिट करना है। एमरजेंसी लैंडिंग की स्थिति में क्या-क्या करना है और कैसे – कैसे करना है। अगर कभी दुर्घटना की स्थिति बनती है तो यात्रियों में हाहाकार मच जाता है, वह निस्सहाय, निरुपाय रहते हैं, कुछ समझ नहीं पाते कि क्या करें और क्या न करें! मेरे विचार से इसका कोई न कोई मध्यमार्ग निकाला जाना चाहिये। अस्तु !

कुछ ही क्षणों में हमारे पायलट महोदय ने प्रवेश किया और बिना हमारा अभिनन्दन किये ही कॉकपिट में चले गये। उनके पीछे – पीछे एयरहोस्टेस भी चली गई पर जल्दी ही वापस आ गई और हमें अपनी अपनी बैल्ट कसने के निर्देश दिये। मैने अपनी पैंट की बैल्ट और कस ली तो श्रीमती जी ने कहा कि सीट की बैल्ट कसो, पैंट की नहीं ! अपनी ही नहीं, मेरी सीट की भी। मैने एयरहोस्टेस को इशारा किया और कहा कि मेरी सीट की बैल्ट कस दे। (सिर्फ 1201 रुपये दिये हैं तो उससे क्या? आखिर हैं तो हम वायुयान के यात्री ही ! एयरहोस्टेस पर इतना अधिकार तो बनता ही है!) अब मुझे भी समझ आ गया था कि सीट बैल्ट कैसे कसी जायेगी अतः पत्नी की सीट की भी बैल्ट मैने कस दी। मुझे खिड़की में से अपने जहाज की पंखड़िया घूमती हुई दिखाई दीं, द्वार पहले ही बन्द किये जा चुके थे। एयर स्ट्रिप पर निगाह पड़ी तो पुराना चुटकुला याद आया। “जीतो ने संता से अपनी पहली हवाई यात्रा के दौरान खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा कि बंता ठीक कहता था कि हवाई जहाज की खिड़की से झांक कर देखो तो जमीन पर चलते हुए लोग बिल्कुल चींटियों जैसे लगते हैं! संता ने जीतो को झिड़का, “अरी बुद्धू ! ये चींटियां ही हैं, अभी जहाज उड़ा ही कहां है!” चलो खैर !

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A Tale of Two Temples

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The Bala Balaji temple is a standing testimony to the devotion and perseverance of a humble coconut vendor called Ramaswami. Every year, he used to visit Tirupati and place a share of his annual income at the feet of Lord Venkateswara as his offering. In 1966, the priests there refused to place the offerings at the feet of the idol and understandably, Ramaswamy was upset thinking that the rejection was by the Lord himself.

That night, Lord Balaji appeared in Ramaswamy’s dream and told him to build a shrine in his hometown itself. Ramaswamy installed framed photographs of Lord Venkateswara and his consort Padmavati in his shop. He would feed the people who visited his shrine without charging any money. In course of time, the temple attracted hundreds of devotees and Ramaswamy had sufficient funds to build a temple. The construction was completed in 1991 and the idols were installed an consecrated by Chinna Jeeyar Swamiji, a famous Vaishnavite saint.

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मथुरा एवं गोकुल – नन्हे कन्हैया की मधुर स्मृतियाँ………..

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गोकुल की गलियों का ग्वाला, नटखट बड़ा नंदलाला

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यादगार सफर चकराता का – 2

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सुबह सुबह जल्दी सब उठ गए और दूर पहाड़ियों से सूरज देवता के दर्शन करने लगे, सचमुच बड़ा ही मनभावन नज़ारा था। नहा धोकर हमने होटल वाले से आस पास की जगहो के बारे मैं पूछा तो कुछ ढंग का नहीं लगा तो सबने विचार किया के चलो मसूरी चलते हैं, आज रात वहीं रुकेंगे। इसके बाद सबने नाश्ता कर के थोड़ी बहुत फोटोग्राफी करने के बाद प्रस्थान कर दिया। अब हम लोगों की मंज़िल थी यमुना पल और केंपटी फॉल, पहले ही इरादा कर लिया था की टाईगर फॉल का बदला केंपटी फॉल मैं लेंगे। नाश्ता करके तो चले ही थे इसलिए कहीं रुके नहीं॥ रुके सीधा यमुना पल जाकर जब सबको जोरों से भूक की तलब लगी। यमुना पल को पार करते ही किनारे पर दाहिने हाथ पर एक छोटी सी दुकान हैं खाने के बारे मैं यूहीं पूछ लिया तो पता चला के खाना भी मिल जाएगा॥ अब सबको भूख भी ज़ोरों से लगी थी इसलिए मांगा लिया। खाने मैं थाली थी जिसमे दाल, चावल और गोभी की सब्जी थी। और पूछने पर पता चला की मछ्ली की सब्जी भी मिलेगी और वो भी ताज़ा। दुकान के मालिक ने बताया की सीज़न मैं यहाँ पर काफी भीड़ रहती हैं जिसकी वजह से बाकी दुकानें भी खुली रहती हैं, लेकिन अब सब बंद हैं शायद बाद मैं खुल जाये |

वहाँ पर शायद राफ्टिंग भी होती होगी क्यूंकी जगह जगह बोर्ड भी लगे हुये थे। खैर खाना खाया और जब दाम पूछे तो सब दंग रह गए। एक थाली का दाम था 20 रु जिसमे दाल, चावल, गोभी की सब्जी और 4 रोटी। और 1 प्लेट फिश करी सिर्फ 50 रु की कुल मिलकर 200 -250 का खर्चा रहा होगा। जिसमे कोल्ड ड्रिंक और चिप्स वागेरह भी थे। ऐसा स्वादिष्ट खाना और इतने कम दाम में तो शायद हमने पूरे टूर में नहीं खाया। खाने वाले का शुक्रिया अदा करके हम लोग मसूरी की तरफ वापस चल दिये॥ और पहाड़ों की सुंदरता के मज़े लेते रहे। शायद भरे पेट में वो ज्यादा अच्छे लग रहे थे। शाम करीब 3 बजे हम लोग केंपटी फॉल पहुंचे और बिना एक पल गवाएँ दौड़ पड़े फॉल की तरफ, मैं तो अभी 10 दिन पहले भी आया था लेकिन तब फॉल में नहाया नहीं था इसीलिए मुझे सबसे ज्यादा जल्दी थी। 2-3 घंटे तसल्ली से हम सब झरने का आनंद लेते रहे लेकिन जैसे ही शाम बढ्ने लगी हम लोग की ठिठुरन बदने लगी और एक एक करके सब बाहर आ गए॥ अब दूसरा काम था मसूरी पहुँचकर एक अच्छा सा कमरा लेना और इस काम को सोनू बड़िया कर सकता था, क्यूंकी वो भी 2-3 बार मसूरी आ चुका था। मसूरी पहुंचर हमने “दीप होटल “ मैं एक कमरा लिया। होटल काफी अच्छा था, साफ सूथरा और पार्किंग भी थी।

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Trip to Harsil (Haridwar, Rishikesh, Narender Nagar, Uttrakashi)

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Trekking and walking by road is the best thing if you want to feel the naturalness of small places like Harsil. It was cold in the morning but still walk was very pleasant. My kids enjoyed trekking a lot. We reached back our room and taken hot water bath. We went for the breakfast and enquired locals where and what to visit in Harsil.
After taking breakfast we packed lunch and snacks for kids and visited the following travel spots with the help of local villagers. They are:

Dharali which is 3 Kms away from Harsil and easily approachable by road
Mukwas village is 1 Km away from Harsil, is the home of Goddess Gangotri during winters because due to heavy snowfall all the ways towards Gangotri Dham are closed.
Sattal is a 3 kms from Dharali and 7 kms from Harsil. Sattal is a cluster of seven different lakes where you can reach by road or go by trekking. The journey towards Sattal is beautiful and full of picturesque views.

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हरिद्वार और देहरादून का तूफानी दौरा – २

हरिद्वार और देहरादून का तूफानी दौरा – २

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मेरा विचार था कि बुद्धा टैंपिल मेरे 1980 में देहरादून छोड़ देने के बाद अस्तित्व में आया है किन्तु जब मैने भाई से पूछा तो उसने बताया कि पहले ये इतना लोकप्रिय नहीं हुआ करता था अतः हम लोग पहले यहां आया नहीं करते थे। पिछले कुछ वर्षों से, जब से ISBT यहां पास में बनी है और इस क्षेत्र में जनसंख्या भी बढ़ गई और बाज़ार भी बन गये तो लोगों को पता चला कि ऐसा कोई सुन्दर सा मंदिर भी यहां आसपास में है। क्लेमेंटाउन में स्थित इस बौद्ध मठ के बारे बाद में मैने जानने का प्रयास किया तो इसके महत्व की अनुभूति हुई। यह मठ तिब्बत के विश्वविख्यात बौद्ध मठ की प्रतिकृति है और इसकी सबसे बड़ी विशेषता इसके मुख्य भवन की दीवारों पर मौजूद भित्तिचित्र हैं, कलाकृतियां हैं जिनके माध्यम से भगवान बुद्ध के जीवन की अनेकानेक घटनाओं को अंकित किया गया है। (इनका चित्र लेना मना है)। इसका निर्माण वर्ष 1965 में हुआ बताया जाता है। लगभग पचास कलाकार तीन वर्ष तक इन दीवारों पर स्वर्णिम रंग के पेंट से कलाकृतियां बनाते रहे हैं तब जाकर यह कार्य पूरा हुआ। बहुत दूर से ही इस मंदिर का स्तूप दिखाई देता है जो 220 फीट ऊंचा है। यह जापान की वास्तुकला शैली पर आधारित है। इस मुख्य भवन में पांच मंजिलें हैं और हर मंजिल पर भगवान बुद्ध की व अन्य अनेकानेक प्रतिमायें भी स्थापित की गई हैं। यह मानव की स्वभावगत कमजोरी है कि वह जिस कला को देखकर प्रारंभ में चकित रह जाता है, बाद में उसी कला के और भी अगणित नमूने सामने आते रहें तो धीरे-धीरे उसका उत्साह भी कम होता जाता है। बहुत ज्यादा ध्यान से वह हर चीज़ का अध्ययन नहीं कर पाता। पहली मंजिल पर स्थित कलाकृतियों और प्रतिमाओं को देखने में हमने जितना समय लगाया उससे थोड़ा सा ज्यादा समय में हमने बाकी चारों मंजिलें देख लीं ! शायद इसकी एक मुख्य वज़ह ये है कि हम उन सब कलाकृतियों को समझ नहीं पा रहे थे और हमें सब कुछ एक जैसा सा लग रहा था। कोई गाइड यदि वहां होता जो एक-एक चीज़ का महत्व समझाता तो अलग बात होती।

मुख्य मंडप में से निकल कर सीढ़ियां उतर कर लॉन में आये तो बायें ओर भी एक स्तंभ दिखाई दिया। लॉन में एक धर्मचक्र स्थापित किया गया है। आपने तिब्बतियों को अपने हाथ में एक धर्मचक्र लिये हुए और उसे हाथ की हल्के से दी जाने वाली जुंबिश से निरंतर घुमाते हुए देखा होगा। वे पोर्टेबल धर्मचक्र वास्तव में इसी धर्मचक्र की अनुकृतियां हैं। इस स्तूप में लगभग 500 लामा धार्मिक शिक्षा ग्रहण करते हैं। बताया जाता है कि तिब्बत के बाद यह एशिया का सबसे बड़ा स्तूप है।

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हरिद्वार और देहरादून का तूफानी दौरा

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तो साब! ऐसे बना हमारा हरिद्वार का प्रोग्राम जिसमें मेरा कतई कोई योगदान नहीं था। घर के ताले – कुंडे बन्द कर के हम चारों अपनी बुढ़िया कार में बैठे, रास्ते में सबसे पहले पंपे पर गाड़ी रोकी, पांच सौ रुपल्ली का पैट्रोल गाड़ी को पिलाया, गाड़ी में फूंक भरी (मतलब हवा चैक कराई) और हरिद्वार की दिशा में चल पड़े! मारुति कार में और चाहे कितनी भी बुराइयां हों, पर एक अच्छी बात है! हवा-पानी-पैट्रोल चैक करो और चल पड़ो ! गाड़ी रास्ते में दगा नहीं देती !

चल तो दिये पर कहां ठहरेंगे, कुछ ठिकाना नहीं ! गर्मी के दिन थे, शनिवार था – ऐसे में हरिद्वार में बहुत अधिक भीड़ होती है। नेहा इतनी impulsive कभी नहीं होती कि बिना सोचे – विचारे यूं ही घूमने चल पड़े पर बच्चों की इच्छा के आगे वह भी नत-मस्तक थी! मन में यह बात भी थी कि अगर हरिद्वार में कोई भी सुविधाजनक जगह ठहरने के लिये नहीं मिली तो किसी न किसी रिश्तेदार के घर जाकर पसर जायेंगे! “आपकी बड़ी याद आ रही थी, कल रात आपको सपने में देखा, तब से बड़ी चिन्ता सी हो रही थी ! सोचा, मिल कर आना चाहिये!” अपनी प्यारी बड़ी बहना को छोटी बहिन इतना कह दे तो पर्याप्त है, फिर आवाभगत में कमी हो ही नहीं सकती!

कार ड्राइव करते हुए मुझे अक्सर ऐसे लोगों पर कोफ्त होती है जो ट्रैफिक सैंस का परिचय नहीं देते। मैं यह कह कर कि “इन लोगों को तो गोली मार देनी चाहिये” अपना गुस्सा अभिव्यक्त कर लिया करता हूं! बच्चे मेरी इस आदत से परिचित हैं और उन्होंने अब इसे एक खेल का रूप दे दिया है। जब भी सड़क पर कुछ गलत होता दिखाई देता है तो मेरे कुछ कहने से पहले ही तीनों में से कोई न कोई बोल देता है, “आप शांति से ड्राइव करते रहो! गोली तो इसे हम मार देंगे।” मुझे भी हंसी आ जाती है और गुस्सा काफूर हो जाता है।

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The Untouched beauty of Kerala – Athirapally and Vazahal waterfall

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We were enjoying our car ride on this wonderful route. Then after one hour or so our driver took a turn and we reached at one beautiful place. The place has beautiful landscape, water bodies, small reservoir and a small tea shop and Restroom. (What I remember the place name as Nature’s Resort (but unfortunately I am unable to find this place on internet). It’s a picturesque spot and one can actually enjoy by going into water as water level is very low here.

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Motorcycle Diaries. Road to Munsiyari…here we come…

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By now, Nitin was up and ready with his arms and ammunition – the Camera! Gaurav guided him to a viewpoint they constructed right the top of the hill, located at a 5-minutes trek. Nitin came back with amazing set of images – spectacular mountain panorama of evergreen Himalayan ranges and valleys. The views of major peaks like Chaukhamba, Panchachuli, Nanda Devi, Nanda Kot, and Kedarnath are distinctly visible from there. Sitting leisurely at the camp, one couldn’t even fathom what vista laid just a five-minute trek ahead! This was a clear sky day, which offered a 180-degree Himalayan view. I must share with all readers here that such vast panoramic view can been seen only from Binsar and Kausani in Uttarakhand. In fact, there is a location called the ‘Zero Point’ here, which offers amazing views of the magnificent range. Binsar also offers an excellent view of Almora town.

As we sipped the superbly made herbal tea, prepared from the herbs grown in-house, Gaurav helped us with sourcing five litres of petrol from Almora through his contacts. This was done as the next filling-station was at Berinag, another 65kms ahead. Since we rode almost 430kms on day one, I didn’t want to take risk of running on an empty fuel tank in case of any exirgency.

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Motorcycle Diaries. Road to Munsiyari…Ride to Binsar

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Well, I must share that I have travelled on some very lonely stretches; this was proved to be the scariest of all. Completely dark it was, we brothers rode our bikes non-stop in the only source of lights – the bikes’ headlights! This was a typical forest track, and rains made it all the more difficult to negotiate the ride. We stopped several times to check the signal of the phone – no respite. What made us ride ahead in this pitch dark jungle located upon the mounts in the dead of rainy night was the my belief/experience – people in hills don’t lie! After all, the guard had said that the forest track would end in 13kms and route to Dhaulchhina would emerge!

Bang on right he was! Just as my bike’s meter clocked 13kms, we came out to a neat tarmac. By now, we were completely drenched and shivering. And it didn’t help that there weren’t any signage that could guide us to either left or right. Fortunately, mobile phone’s signals were back and we called the Camp to locate the address.

30minutes later, amidst heavy rains, we arrived at Dhaulchhina, a hamlet where Binsar Eco Camp was located above a hillock.

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धनोल्टी , सहस्त्रधारा ,ऋषिकेश और फिर हरिद्वार

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रात की नीरवता मे गंगा की लहरो की तट की पैकडियो से टकराने की आवाज आ रही थी. इसी बीच मेरी श्रीमती जी ढुढती हुई आ गयी. आते ही बोली यहाँ कहाँ लेटे हो, मै बोला क्या करू यहाँ पर ठंडक है इसलिये इन सबके साथ यहीं लेट गया हूँ पर नींद तो आ नही रही है. बोली चलो बस मे ही आरम करना. यहाँ के ठंडे फर्श पर लेटे रहे तो कमर अकड जायगी. अब मुझे लगा, इससे तो अच्छा वापस दिल्ली चलते हैं, यहाँ परेशन होने से क्या फायदा. इतनी रात मे भी कई लोग गंगा नहा रहे थे. मैने गंगा का जल अपने उपर छिड़का और बस मे पहुंचकर जब सबसे वापस दिल्ली चलने के लिये कहा तो कुछ लोग बोले जब इतना परेशान हो ही चुके हैं तो अब कल गंगा नहाकर ही चलेंगे. मैने कहा ठीक है जैसी तुम सबकी मर्जी. बस मे बैठे हुए पता नही कब नींद लग गयी. दिन निकल आने के बाद ही नींद खुली.

अब सभी हर की पोड़ी पर चल दिये. तभी हमारे साथ के मनोज जी हर की पोड़ी के सामने बने धर्मशाला मे दो कमरे तय कर आये. बोले 500-500 रुपये मे मिल रहे हैं लेना है. मैने कहा ले लो भई थोड़ी देर के लिये ही सही बरसात के करण गंगा का पानी मटमैला था कुछ लोग नखरे करने लगे. पर बाकी सभी ने तो गंगा मे ढंग से स्नान किया. . नहा कर तैयार होने मे ही सभी को दस बज गये. अब भी कुछ एक तैयार नही हुए थे, मैने कहा मै तो नाश्ता कर के बस मे बैठने जा रहा हूँ तुम सब लोग भी जल्दी से आ जाओ. जब इतने सारे लोग होते हैं तब सारे अपनी- अपनी मर्जी चलाते हैं. करीब 12 बजे बस मे पहुंचे. अब वापस दिल्ली लौटना था.

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यादगार मसूरी – धनोल्टी की यात्रा

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जन्माष्टमी का दिन होने के करण मेरी श्रीमती जी ने व्रत रखा था. शाम ढल चुकी थी मैने सोंचा कुछ फल वगैरह ला दू. होटेल से बाहर आकर पूछने पर पता लगा थोड़ा सा आगे बस स्टॅंड है वहां पर फल मिल सकते हैं. थोड़ा सा आगे जाने पर भी दुकाने नही नजर आई फिर वहां से गुजरते पहाड़ी लोगो से पूछा, उनका वही जबाव , बस थोड़ा सा आगे चले जाओ. हमारे जैसे लोगो के लिये पहाड़ो पर 100-200 गज चलना ही काफी दूर हो जाता है पर पहाड़ी लोग एक किलोमीटर की दूरी भी थोड़ा सा आगे ही बताते है. जैसे-तैसे बस स्टॅंड पहुँचा. यहाँ पर केवल 2-3 दुकाने ही थी जिसमे से एक मे थोड़ी सी सब्जी, फल रखे थे. फल खरीद कर वापस लौटते समय तक शाम काफी गहरी हो गयी थी. बरसात का मौसम होने के कारण बादलो ने आस-पास का वातावरण ढक दिया था. दूर का साफ नही दिख रहा था. इस समय सड़क पर कोई चहलकदमी नही हो रही थी. मेरे आगे – आगे दो लड़के बाते करते हुए जा रहे थे अन्यथा वातावरण मे नीरवता छाई हुई थी. मै तेज कदमो से होटेल की तरफ बढ रहा था. ऐसे समय पर पुरानी बाते याद आ जाती हैं. इससे पिछले वर्ष मै मुक्तेश्वर गया था. मुक्तेश्वर उत्तराखंड मे ही एक हिल स्टेशन है. यहाँ से नेपाल की तरफ का हिमालय दिखता है. तो बात कर रहा था मुक्तेश्वर की ( बताना आवश्यक हो गया था , कई लोग मुक्तेश्वर के नाम से ग़ह्र मुक्तेश्वर समझने लगते हैं.) यहाँ मै रेड रूफ रिज़ॉर्ट मे ठहरा था. रिज़ॉर्ट के मलिक मिस्टर. प्रदीप विष्ट से बातो ही बातो मे पता लगा की शाम के समय कभी-कभी रिज़ॉर्ट के सामने ही बाघ आ जाता है. उन्होने एक बाघ की फोटो भी अपने रिज़ॉर्ट मे लगा रखी थी जो कि जाड़े के समय उनके रिज़ॉर्ट के सामने बैठा हुआ धूप सेक रहा था. उनके रिज़ॉर्ट के पास ही एक महिला को होटेल है. बताने लगे कि एक दिन शाम का अंधेरा ढल गया था, वह अपनी कार से मेरे रिज़ॉर्ट के सामने से गुजर रही थी कि तभी अचनक बाघ उनकी कार के सामने आकर खड़ा हो गया. उन्होने ने कार के ब्रेक लगाये, बाघ थोड़ी देर तक खड़ा कार को घूरता रहा फिर छलांग मार कर दूसरी तरफ चला गया. इस समय मुझे वही बात याद आ रही थी कि कहीं यहाँ पर भी अचनक बाघ आ गया तब क्या करेंगे. चलते समय होटेल वाले से पूछना भूल गया था कि इस इलाके मे बाघ तो, वह नही है. खैर रास्ते मे बाघ तो नही मिला, सकुशल होटेल पहुंच गया. अगर मिल जाता तो गया था श्रीमती जी के खाने का इंतजाम करने और बाघ के खाने का इंतजाम कर बैठता. वापस आकर पहले होटेल वाले से पूछा पता लगा यहाँ पर बाघ नहीं है.

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