Dehradun

Trek to Nag tibba

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We started at 4:30 from Gurgaon – our usual time of leaving. It gives us an extra edge in avoiding the Delhi traffic. But still at this hour there were trucks plying in the middle of the road. Sometimes, I think what economic super power we are going to become when we can’t build a simple bypass to avoid Delhi. Anyway, we continued. In around 3 hours we reached Muzafarnagar bye pass. Now there are 2 routes to go from here.

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Rain Fury in Chakrata, Uttarakhand in June 2013 (Part I)

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We made ourselves comfortable in the tents, opened our bags to change the clothes but got the shock of our life as all the clothes inside the bag were equally wet like the clothes we were wearing. I decided to continue with my present set of clothes which got dried with my body heat in next two hours. The camp guys brought a battery driven LED light which ware barely emitting any light, some pakoras and masala tea by 7:30 pm in the evening. Our gang enjoyed these snacks and felt a little relieved and energetic, since we have not ate anything after breakfast. The Sun was setting behind the hills quickly and with the absence of electricity and inability to light the fire outside due to rain, darkness was building up inside the camp and outside. The sound of rain smashing against the camp started to scare us. Rajesh the dabangg, got dumb struck, the thing that was enthusing voice in him were the never ending songs of Gurdeep ‘Dil ro raha hai…’ to which Rajesh was getting irritated and saying ‘yaar chup ho ja, tere aise gaano ki wajah se hi itni barish ho rahi hai‘. Rest of us were enjoying this cat fight between the two and were trying to be back in holiday mood. Sanjay and me were quite sure that rain will subside by morning and we will be able to visit Tiger Fall. All were keen to visit Tiger Fall, but there was no voice coming out from dabangg bhai’s mouth. By 9 pm dinner was served, and post-that we slipped inside the quilts after closing the zipper inside tent. Very soon the camp got quite warm inside assuring us that atleast we will manage to have a decent sleep. We keep chit chatting inside our camp and occasionally across the camp of Gurdeep and Arun. The rain kept turning mightier with the darkness of night, and at a point we were not able to hear each other’s voice because of deafening collision sound between rain drops and tent. With prays for God, we slept in a hope of better tomorrow.

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Family Trip to Mussoorie and Rishikesh: Ambala to Mussoorie

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Cycle Rickshaws are available from this point for Municipality Garden, Library Chowk, Kempty bus stand etc. These Rickshaws are not allowed in market area beyond this point .Horse riding is also available from this point and it was allowed in market area also. We took some snacks there and after spending some good time there we start returning to our hotel through same market again.

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अन्नू भाई चला चकराता …पम्म…पम्म…पम्म (भाग- 2 ) रहस्यमई मोइला गुफा

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ये सब देखकर हम तो मानो जैसे स्कूल से छुटे, छोटे छोटे बच्चो की तरह दोड़ते भागते , गिरते पड़ते जब उस मंदिर नुमा ढांचे तक पहुचे तो एक बार को तो उसे देखकर हम तीनो सिहर से उठे। वो एक लकड़ी का बना मंदिर ही था पर उसमे न कोई मूर्ति न घंटा , हाँ उसमें इधर उधर  किसी जानवर के पुराने हो चुके  सिंग , कुछ बर्तन से टंगे हुए थे और एक लड़की का ही बना पुतला दरवाजे से बाहर जो की कोई  द्वारपाल सा लग रहा था। मन ही मन उस माहोल और जगह को प्रणाम कर अपने साथ लाये मिनरल वाटर की  बोतल से उन्हें जल अर्पण किया और परिकर्मा कर बड़े इत्मिनान से वहां बैठ दूर दूर तक फैली वादियों और शान्ति का मजा लेने  लगे। थोड़ी देर बाद सोचा  के चलो ताल में नहाते है फिर कुछ खा पीकर गुफाओ को ढूंढ़ेगे।

पानी का ताल जो की थोडा और आगे था जल्दी ही दिखाई दे गया लेकिन वहां पहुँच कर नहाने का सारा प्रोग्राम चोपट हो गया। कारण उसमे पानी तो बहुत था परन्तु एक दम मटियाला। सो सिर्फ उसके साथ फोटो खीच कर ही मन को  समझा लिया। अब बारी  गुफा ढूंढने की तो लेकिन वहां चारो और दूर दूर तक कोई गुफा तो नहीं अपितु मकेक बंदरो के झुण्ड घूम रहे थे। जो की हम पर इतनी कृपा कर  देते थे की हम जिस दिशा में जाते वो वहां से दूर भाग जाते थे। हम तीनो काफी देर अलग अलग होकर  ढूंढते  रहे पर हमें तो कोई गुफा नहीं दिखी सिर्फ शुरू में आते हुए एक छोटा सा गड्ढा नुमा दिखाई दिया  था।

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On the way to Kedarnath

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Srinagar received its name from Sri Yantra, a mythical giant rock, so evil that whoever set their eyes on it would immediately die. The rock was believed to have taken as many as thousand lives before Adi Shankaracharya, in the 8th century AD, as a part of an undertaking aimed to rejuvenate the Hindu religion across India, visited Srinagar and turned the Sri Yantra upside down and hurled it into the nearby river Alaknanda. To this day, this rock is believed to be lying docile in the underbelly of the river. That area is now known as Sri Yantra Tapu.

On the way to Srinagar we saw a broken bridge which was built recently across Alaknanda and damaged too during construction. Six labourers die during that time thereafter the construction was not restarted.
We all were enjoying our journey in our own ways as some were busy in clicking pictures of the natural beauty of Uttrakhand , some were sleeping as we got up early in the morning & kids were busy in singing and playing cards.

After 35 kms from Srinagar we reached Rudarprayag , named after Shiva (Rudra). Here Alaknanda river from Badrinath and Madakani river from Kedarnath meet.

From Rudarprayag the road separated for Kedarnath & Badrinath, left road goes to Kedarnath & right one towards Badrinath.

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A nature walk

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A nature walk through the lush woods will throw up many surprises, especially if you have an interest in nature. That’s what had exactly happened to a team of 34 grown-ups during a training camp on a windy winter morning and returned with loads of memory to cherish throughout their life.

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यादगार सफर चकराता का – 2

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सुबह सुबह जल्दी सब उठ गए और दूर पहाड़ियों से सूरज देवता के दर्शन करने लगे, सचमुच बड़ा ही मनभावन नज़ारा था। नहा धोकर हमने होटल वाले से आस पास की जगहो के बारे मैं पूछा तो कुछ ढंग का नहीं लगा तो सबने विचार किया के चलो मसूरी चलते हैं, आज रात वहीं रुकेंगे। इसके बाद सबने नाश्ता कर के थोड़ी बहुत फोटोग्राफी करने के बाद प्रस्थान कर दिया। अब हम लोगों की मंज़िल थी यमुना पल और केंपटी फॉल, पहले ही इरादा कर लिया था की टाईगर फॉल का बदला केंपटी फॉल मैं लेंगे। नाश्ता करके तो चले ही थे इसलिए कहीं रुके नहीं॥ रुके सीधा यमुना पल जाकर जब सबको जोरों से भूक की तलब लगी। यमुना पल को पार करते ही किनारे पर दाहिने हाथ पर एक छोटी सी दुकान हैं खाने के बारे मैं यूहीं पूछ लिया तो पता चला के खाना भी मिल जाएगा॥ अब सबको भूख भी ज़ोरों से लगी थी इसलिए मांगा लिया। खाने मैं थाली थी जिसमे दाल, चावल और गोभी की सब्जी थी। और पूछने पर पता चला की मछ्ली की सब्जी भी मिलेगी और वो भी ताज़ा। दुकान के मालिक ने बताया की सीज़न मैं यहाँ पर काफी भीड़ रहती हैं जिसकी वजह से बाकी दुकानें भी खुली रहती हैं, लेकिन अब सब बंद हैं शायद बाद मैं खुल जाये |

वहाँ पर शायद राफ्टिंग भी होती होगी क्यूंकी जगह जगह बोर्ड भी लगे हुये थे। खैर खाना खाया और जब दाम पूछे तो सब दंग रह गए। एक थाली का दाम था 20 रु जिसमे दाल, चावल, गोभी की सब्जी और 4 रोटी। और 1 प्लेट फिश करी सिर्फ 50 रु की कुल मिलकर 200 -250 का खर्चा रहा होगा। जिसमे कोल्ड ड्रिंक और चिप्स वागेरह भी थे। ऐसा स्वादिष्ट खाना और इतने कम दाम में तो शायद हमने पूरे टूर में नहीं खाया। खाने वाले का शुक्रिया अदा करके हम लोग मसूरी की तरफ वापस चल दिये॥ और पहाड़ों की सुंदरता के मज़े लेते रहे। शायद भरे पेट में वो ज्यादा अच्छे लग रहे थे। शाम करीब 3 बजे हम लोग केंपटी फॉल पहुंचे और बिना एक पल गवाएँ दौड़ पड़े फॉल की तरफ, मैं तो अभी 10 दिन पहले भी आया था लेकिन तब फॉल में नहाया नहीं था इसीलिए मुझे सबसे ज्यादा जल्दी थी। 2-3 घंटे तसल्ली से हम सब झरने का आनंद लेते रहे लेकिन जैसे ही शाम बढ्ने लगी हम लोग की ठिठुरन बदने लगी और एक एक करके सब बाहर आ गए॥ अब दूसरा काम था मसूरी पहुँचकर एक अच्छा सा कमरा लेना और इस काम को सोनू बड़िया कर सकता था, क्यूंकी वो भी 2-3 बार मसूरी आ चुका था। मसूरी पहुंचर हमने “दीप होटल “ मैं एक कमरा लिया। होटल काफी अच्छा था, साफ सूथरा और पार्किंग भी थी।

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हरिद्वार और देहरादून का तूफानी दौरा – २

हरिद्वार और देहरादून का तूफानी दौरा – २

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मेरा विचार था कि बुद्धा टैंपिल मेरे 1980 में देहरादून छोड़ देने के बाद अस्तित्व में आया है किन्तु जब मैने भाई से पूछा तो उसने बताया कि पहले ये इतना लोकप्रिय नहीं हुआ करता था अतः हम लोग पहले यहां आया नहीं करते थे। पिछले कुछ वर्षों से, जब से ISBT यहां पास में बनी है और इस क्षेत्र में जनसंख्या भी बढ़ गई और बाज़ार भी बन गये तो लोगों को पता चला कि ऐसा कोई सुन्दर सा मंदिर भी यहां आसपास में है। क्लेमेंटाउन में स्थित इस बौद्ध मठ के बारे बाद में मैने जानने का प्रयास किया तो इसके महत्व की अनुभूति हुई। यह मठ तिब्बत के विश्वविख्यात बौद्ध मठ की प्रतिकृति है और इसकी सबसे बड़ी विशेषता इसके मुख्य भवन की दीवारों पर मौजूद भित्तिचित्र हैं, कलाकृतियां हैं जिनके माध्यम से भगवान बुद्ध के जीवन की अनेकानेक घटनाओं को अंकित किया गया है। (इनका चित्र लेना मना है)। इसका निर्माण वर्ष 1965 में हुआ बताया जाता है। लगभग पचास कलाकार तीन वर्ष तक इन दीवारों पर स्वर्णिम रंग के पेंट से कलाकृतियां बनाते रहे हैं तब जाकर यह कार्य पूरा हुआ। बहुत दूर से ही इस मंदिर का स्तूप दिखाई देता है जो 220 फीट ऊंचा है। यह जापान की वास्तुकला शैली पर आधारित है। इस मुख्य भवन में पांच मंजिलें हैं और हर मंजिल पर भगवान बुद्ध की व अन्य अनेकानेक प्रतिमायें भी स्थापित की गई हैं। यह मानव की स्वभावगत कमजोरी है कि वह जिस कला को देखकर प्रारंभ में चकित रह जाता है, बाद में उसी कला के और भी अगणित नमूने सामने आते रहें तो धीरे-धीरे उसका उत्साह भी कम होता जाता है। बहुत ज्यादा ध्यान से वह हर चीज़ का अध्ययन नहीं कर पाता। पहली मंजिल पर स्थित कलाकृतियों और प्रतिमाओं को देखने में हमने जितना समय लगाया उससे थोड़ा सा ज्यादा समय में हमने बाकी चारों मंजिलें देख लीं ! शायद इसकी एक मुख्य वज़ह ये है कि हम उन सब कलाकृतियों को समझ नहीं पा रहे थे और हमें सब कुछ एक जैसा सा लग रहा था। कोई गाइड यदि वहां होता जो एक-एक चीज़ का महत्व समझाता तो अलग बात होती।

मुख्य मंडप में से निकल कर सीढ़ियां उतर कर लॉन में आये तो बायें ओर भी एक स्तंभ दिखाई दिया। लॉन में एक धर्मचक्र स्थापित किया गया है। आपने तिब्बतियों को अपने हाथ में एक धर्मचक्र लिये हुए और उसे हाथ की हल्के से दी जाने वाली जुंबिश से निरंतर घुमाते हुए देखा होगा। वे पोर्टेबल धर्मचक्र वास्तव में इसी धर्मचक्र की अनुकृतियां हैं। इस स्तूप में लगभग 500 लामा धार्मिक शिक्षा ग्रहण करते हैं। बताया जाता है कि तिब्बत के बाद यह एशिया का सबसे बड़ा स्तूप है।

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हरिद्वार और देहरादून का तूफानी दौरा

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तो साब! ऐसे बना हमारा हरिद्वार का प्रोग्राम जिसमें मेरा कतई कोई योगदान नहीं था। घर के ताले – कुंडे बन्द कर के हम चारों अपनी बुढ़िया कार में बैठे, रास्ते में सबसे पहले पंपे पर गाड़ी रोकी, पांच सौ रुपल्ली का पैट्रोल गाड़ी को पिलाया, गाड़ी में फूंक भरी (मतलब हवा चैक कराई) और हरिद्वार की दिशा में चल पड़े! मारुति कार में और चाहे कितनी भी बुराइयां हों, पर एक अच्छी बात है! हवा-पानी-पैट्रोल चैक करो और चल पड़ो ! गाड़ी रास्ते में दगा नहीं देती !

चल तो दिये पर कहां ठहरेंगे, कुछ ठिकाना नहीं ! गर्मी के दिन थे, शनिवार था – ऐसे में हरिद्वार में बहुत अधिक भीड़ होती है। नेहा इतनी impulsive कभी नहीं होती कि बिना सोचे – विचारे यूं ही घूमने चल पड़े पर बच्चों की इच्छा के आगे वह भी नत-मस्तक थी! मन में यह बात भी थी कि अगर हरिद्वार में कोई भी सुविधाजनक जगह ठहरने के लिये नहीं मिली तो किसी न किसी रिश्तेदार के घर जाकर पसर जायेंगे! “आपकी बड़ी याद आ रही थी, कल रात आपको सपने में देखा, तब से बड़ी चिन्ता सी हो रही थी ! सोचा, मिल कर आना चाहिये!” अपनी प्यारी बड़ी बहना को छोटी बहिन इतना कह दे तो पर्याप्त है, फिर आवाभगत में कमी हो ही नहीं सकती!

कार ड्राइव करते हुए मुझे अक्सर ऐसे लोगों पर कोफ्त होती है जो ट्रैफिक सैंस का परिचय नहीं देते। मैं यह कह कर कि “इन लोगों को तो गोली मार देनी चाहिये” अपना गुस्सा अभिव्यक्त कर लिया करता हूं! बच्चे मेरी इस आदत से परिचित हैं और उन्होंने अब इसे एक खेल का रूप दे दिया है। जब भी सड़क पर कुछ गलत होता दिखाई देता है तो मेरे कुछ कहने से पहले ही तीनों में से कोई न कोई बोल देता है, “आप शांति से ड्राइव करते रहो! गोली तो इसे हम मार देंगे।” मुझे भी हंसी आ जाती है और गुस्सा काफूर हो जाता है।

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स्वर्ण मंदिर – लंगर और रामबाग पैलेस

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लंगर से बाहर निकल कर पुनः वही प्रश्नचिह्न सम्मुख आ खड़ा हुआ – “अब क्या?“ अचानक मुझे याद आया कि एक मित्र ने रामबाग समर पैलेस यानि, महाराजा रणजीत सिंह के महल का ज़िक्र किया था और कहा था कि मैं उसे अवश्य देख कर आऊं। रिक्शे वालों से पूछना शुरु किया तो सबने 30 रुपये बताये। मुझे लगा कि अमृतसर के रिक्शे वालों को तीस का आंकड़ा कुछ ज्यादा ही पसन्द है। रामबाग पैलेस चलने के लिये एक रिक्शा कर लिया। स्वर्ण मंदिर में हर किसी को कार सेवा में तन्मयता से लगे हुए देखते देखते, मुझे लग रहा था कि यह रिक्शावाला भी तो इस विशाल समाज के लिये एक अत्यन्त उपयोगी कार सेवा ही कर रहा है। अतः उसके प्रति सम्मान की भावना रखते हुए मैं रिक्शे में ऐसे सिमट कर बैठा जैसे मेरे सिमट कर बैठने मात्र से मेरा 82 किलो वज़न घट कर 60 किलो रह जायेगा। मेरा वज़न घटे या न घटे ये तो वाहेगुरु जी की इच्छा पर निर्भर है, पर मुझे उम्मीद है कि उन्होंने मेरी भावनाओं को तो अवश्य ही समझ लिया होगा।

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धनोल्टी , सहस्त्रधारा ,ऋषिकेश और फिर हरिद्वार

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रात की नीरवता मे गंगा की लहरो की तट की पैकडियो से टकराने की आवाज आ रही थी. इसी बीच मेरी श्रीमती जी ढुढती हुई आ गयी. आते ही बोली यहाँ कहाँ लेटे हो, मै बोला क्या करू यहाँ पर ठंडक है इसलिये इन सबके साथ यहीं लेट गया हूँ पर नींद तो आ नही रही है. बोली चलो बस मे ही आरम करना. यहाँ के ठंडे फर्श पर लेटे रहे तो कमर अकड जायगी. अब मुझे लगा, इससे तो अच्छा वापस दिल्ली चलते हैं, यहाँ परेशन होने से क्या फायदा. इतनी रात मे भी कई लोग गंगा नहा रहे थे. मैने गंगा का जल अपने उपर छिड़का और बस मे पहुंचकर जब सबसे वापस दिल्ली चलने के लिये कहा तो कुछ लोग बोले जब इतना परेशान हो ही चुके हैं तो अब कल गंगा नहाकर ही चलेंगे. मैने कहा ठीक है जैसी तुम सबकी मर्जी. बस मे बैठे हुए पता नही कब नींद लग गयी. दिन निकल आने के बाद ही नींद खुली.

अब सभी हर की पोड़ी पर चल दिये. तभी हमारे साथ के मनोज जी हर की पोड़ी के सामने बने धर्मशाला मे दो कमरे तय कर आये. बोले 500-500 रुपये मे मिल रहे हैं लेना है. मैने कहा ले लो भई थोड़ी देर के लिये ही सही बरसात के करण गंगा का पानी मटमैला था कुछ लोग नखरे करने लगे. पर बाकी सभी ने तो गंगा मे ढंग से स्नान किया. . नहा कर तैयार होने मे ही सभी को दस बज गये. अब भी कुछ एक तैयार नही हुए थे, मैने कहा मै तो नाश्ता कर के बस मे बैठने जा रहा हूँ तुम सब लोग भी जल्दी से आ जाओ. जब इतने सारे लोग होते हैं तब सारे अपनी- अपनी मर्जी चलाते हैं. करीब 12 बजे बस मे पहुंचे. अब वापस दिल्ली लौटना था.

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