धनोल्टी , सहस्त्रधारा ,ऋषिकेश और फिर हरिद्वार

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रात की नीरवता मे गंगा की लहरो की तट की पैकडियो से टकराने की आवाज आ रही थी. इसी बीच मेरी श्रीमती जी ढुढती हुई आ गयी. आते ही बोली यहाँ कहाँ लेटे हो, मै बोला क्या करू यहाँ पर ठंडक है इसलिये इन सबके साथ यहीं लेट गया हूँ पर नींद तो आ नही रही है. बोली चलो बस मे ही आरम करना. यहाँ के ठंडे फर्श पर लेटे रहे तो कमर अकड जायगी. अब मुझे लगा, इससे तो अच्छा वापस दिल्ली चलते हैं, यहाँ परेशन होने से क्या फायदा. इतनी रात मे भी कई लोग गंगा नहा रहे थे. मैने गंगा का जल अपने उपर छिड़का और बस मे पहुंचकर जब सबसे वापस दिल्ली चलने के लिये कहा तो कुछ लोग बोले जब इतना परेशान हो ही चुके हैं तो अब कल गंगा नहाकर ही चलेंगे. मैने कहा ठीक है जैसी तुम सबकी मर्जी. बस मे बैठे हुए पता नही कब नींद लग गयी. दिन निकल आने के बाद ही नींद खुली.

अब सभी हर की पोड़ी पर चल दिये. तभी हमारे साथ के मनोज जी हर की पोड़ी के सामने बने धर्मशाला मे दो कमरे तय कर आये. बोले 500-500 रुपये मे मिल रहे हैं लेना है. मैने कहा ले लो भई थोड़ी देर के लिये ही सही बरसात के करण गंगा का पानी मटमैला था कुछ लोग नखरे करने लगे. पर बाकी सभी ने तो गंगा मे ढंग से स्नान किया. . नहा कर तैयार होने मे ही सभी को दस बज गये. अब भी कुछ एक तैयार नही हुए थे, मैने कहा मै तो नाश्ता कर के बस मे बैठने जा रहा हूँ तुम सब लोग भी जल्दी से आ जाओ. जब इतने सारे लोग होते हैं तब सारे अपनी- अपनी मर्जी चलाते हैं. करीब 12 बजे बस मे पहुंचे. अब वापस दिल्ली लौटना था.

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यादगार मसूरी – धनोल्टी की यात्रा

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जन्माष्टमी का दिन होने के करण मेरी श्रीमती जी ने व्रत रखा था. शाम ढल चुकी थी मैने सोंचा कुछ फल वगैरह ला दू. होटेल से बाहर आकर पूछने पर पता लगा थोड़ा सा आगे बस स्टॅंड है वहां पर फल मिल सकते हैं. थोड़ा सा आगे जाने पर भी दुकाने नही नजर आई फिर वहां से गुजरते पहाड़ी लोगो से पूछा, उनका वही जबाव , बस थोड़ा सा आगे चले जाओ. हमारे जैसे लोगो के लिये पहाड़ो पर 100-200 गज चलना ही काफी दूर हो जाता है पर पहाड़ी लोग एक किलोमीटर की दूरी भी थोड़ा सा आगे ही बताते है. जैसे-तैसे बस स्टॅंड पहुँचा. यहाँ पर केवल 2-3 दुकाने ही थी जिसमे से एक मे थोड़ी सी सब्जी, फल रखे थे. फल खरीद कर वापस लौटते समय तक शाम काफी गहरी हो गयी थी. बरसात का मौसम होने के कारण बादलो ने आस-पास का वातावरण ढक दिया था. दूर का साफ नही दिख रहा था. इस समय सड़क पर कोई चहलकदमी नही हो रही थी. मेरे आगे – आगे दो लड़के बाते करते हुए जा रहे थे अन्यथा वातावरण मे नीरवता छाई हुई थी. मै तेज कदमो से होटेल की तरफ बढ रहा था. ऐसे समय पर पुरानी बाते याद आ जाती हैं. इससे पिछले वर्ष मै मुक्तेश्वर गया था. मुक्तेश्वर उत्तराखंड मे ही एक हिल स्टेशन है. यहाँ से नेपाल की तरफ का हिमालय दिखता है. तो बात कर रहा था मुक्तेश्वर की ( बताना आवश्यक हो गया था , कई लोग मुक्तेश्वर के नाम से ग़ह्र मुक्तेश्वर समझने लगते हैं.) यहाँ मै रेड रूफ रिज़ॉर्ट मे ठहरा था. रिज़ॉर्ट के मलिक मिस्टर. प्रदीप विष्ट से बातो ही बातो मे पता लगा की शाम के समय कभी-कभी रिज़ॉर्ट के सामने ही बाघ आ जाता है. उन्होने एक बाघ की फोटो भी अपने रिज़ॉर्ट मे लगा रखी थी जो कि जाड़े के समय उनके रिज़ॉर्ट के सामने बैठा हुआ धूप सेक रहा था. उनके रिज़ॉर्ट के पास ही एक महिला को होटेल है. बताने लगे कि एक दिन शाम का अंधेरा ढल गया था, वह अपनी कार से मेरे रिज़ॉर्ट के सामने से गुजर रही थी कि तभी अचनक बाघ उनकी कार के सामने आकर खड़ा हो गया. उन्होने ने कार के ब्रेक लगाये, बाघ थोड़ी देर तक खड़ा कार को घूरता रहा फिर छलांग मार कर दूसरी तरफ चला गया. इस समय मुझे वही बात याद आ रही थी कि कहीं यहाँ पर भी अचनक बाघ आ गया तब क्या करेंगे. चलते समय होटेल वाले से पूछना भूल गया था कि इस इलाके मे बाघ तो, वह नही है. खैर रास्ते मे बाघ तो नही मिला, सकुशल होटेल पहुंच गया. अगर मिल जाता तो गया था श्रीमती जी के खाने का इंतजाम करने और बाघ के खाने का इंतजाम कर बैठता. वापस आकर पहले होटेल वाले से पूछा पता लगा यहाँ पर बाघ नहीं है.

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यात्रा सालासर हनुमान जी

यात्रा सालासर हनुमान जी

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बीदासर से लौटते समय हम छापर गाँव उतर गये . मैने पूछा कितना चलना पड़ेगा, बोले करीब 2-3 किलोमीटर सड़क से अंदर की तरफ है. मै मन ही मन सोंच रहा था कि खेतो के बीच से , मिट्टी की पगडंडी से होते इनके यहाँ पहुचना होगा. पर करीब एक- दो किलोमीटर चलने के बाद भी खेत नजर नही आये. काफी बड़ी पक्की सड़क थी और सड़क के दोनो तरफ पक्के सीमेंट के अच्छे – अच्छे मकान बने हुए थे. मैने फिर पूछा अभी कितनी दूर तुम्हारा गॉँव है , वह बोले यह गाँव ही तो चल रहा है. मैने आश्चर्यचकित होकर कहा अगर यह गाँव है तो शहर कैसा होता है,

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केदारनाथ से बद्रीनाथ

केदारनाथ से बद्रीनाथ

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मस्तक पर लगे हीरे को देख कर ऐसा लग रहा था की हरे रंग का ज़ीरो वाट का वल्व जल रहा हो हम लोग थोड़ी देर वहाँ एक टक निहारते रहे तभी एक दंपति वहाँ विशेष पूजा के लिए आए. रावल जी मंत्रोचार करने लगे.

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हरिद्वार से केदारनाथ

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रुद्रप्रयाग से  9  किलोमीटर आगे  तिलवारा है यहाँ हम लोगो ने चाय पी.  10  मिनट का रेस्ट किया और फिर आगे  के लिए चल दिए. तिलवारा से  19  किलोमीटर आगे  अगस्तमुनि  है .  यहाँ अगस्तमुनि का आश्रम है.यहाँ पहुँचते हुए शाम ढलने लगी थी. हमारे बाईं ओर  मंदाकिनी सड़क के साथ साथ पत्थरो  के बीच अठखेलियाँ  करती हुई बह रही थी. बहुत ही खूबसूरत और मनमोहक द्रशय था. सामने के पहाड़ो की चोटियो  पर सूर्यास्त की किरणे  पड़ने से सुनहरे रंग से चमक रही थी.मन तो कुछ समय यहाँ पर रुक कर प्राक्रतिक  सौंदर्य को  देखने को हो रहा था पर ड्राइवर को अपनी मंज़िल पहुँचने की थी. अगस्तमुनि  से  19  किलोमीटर आगे  कुंड है यहाँ पहुँचते हुए अँधेरा छा  गया था. अब ड्राइवर अँधेरे मे बस चला रहा था. गुप्त काशी  को पार  कर लगभग 8 बजे सोन प्रयाग  से 7 किलोमीटर पहले हम सीतापुर पहुँच गये. यहाँ ड्राइवर ने रात मे रुकने के लिए एक होटेल के सामने बस रोक दी और बोला रात यहीं रुकेंगे ,  आप लोग सामने होटेल मे जाकर अपने लिए कमरा    देख कर तय कर लो. यह होटेल बहुत ही साधारण था कमरो मे एक अजीब सी गंध आ रही थी. मन मे विचार आया ड्राइवर को यहाँ  से कमीशन  मिलता होगा तभी यहाँ रोका है. मैने अपने लड़के से नज़दीक के दूसरे होटेल देखकर आने को कहा और स्वयं दूसरी तरफ जाकर होटेल देखने लगा. मुझे इस होटेल से 100 गज पहले एक नया बना हुआ साफ सुथरा होटेल मिल गया. इस  समय सीजन ना होने के कारण बिल्कुल खाली था. इस  समय तक इतने बड़े होटेल मे हमारा ही परिवार था. हमे 400 रुपये के हिसाब से 2 डबल बेड का एक रूम मिल गया. मैने बस के दूसरे यात्रियों से भी बोला इस बेकार से होटेल मे ना ठहर कर मेरे वाले होटेल मे ठहरे.पर वह सारे उसी होटेल मे ही ठहरे. रात  मे जब हम खाना खाने बाहर निकले  ,  मेरे से  कुछ घोड़े वाले घोड़ा तय करने के लिए कहने लगे. पहले तो मैने यह सोंचा था कि  गौरी कुंड से एक-दो किलोमीटर पैदल चलने के बाद अगर नहीं चला जाएगा तो घोड़े कर लेंगे पर अब जब यह लोग जिस तरह की बाते कर रहे थे उससे लगा कि तय  ही कर लेना चाहिए. आने जाने के लिए 800 रुपये प्रति घोड़ा तय हुआ.

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अमरनाथ यात्रा ( शेषनाग – पंचतर्णी – अमरनाथ गुफा – पहलगाम)

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शाम को हम लोग एक रेस्टौरेंट मे बैठे थे, मैने देखा एक पुलिस ऑफीसर भी वहाँ रेफ्रेशमेंट ले रहा है, तभी एक और ऑफीसर भी उसके पास आ कर बात  करने लगा, मेरी नज़र उस पर टिक गयी मॅ  देखना चाहता था की यहाँ होटेल वाले को खाने-पीने का बिल पेमेंट करते है या नही, थोड़ी देर मे देखा दोनो ऑफीसर  होटेल वाले के पास गये और पर्स निकाल कर पेमेंट करने लगे.ऐसे ही मार्केट मे टहलते हुए मैने देखा 2-4 खोँछे वाले सड़क किनारे खड़े है, यह यहाँ के मूल निवासी नही थे, यात्रा पर रोज़गार के चक्कर मे यहाँ पहुच गये थे, जिगयसा वश मैने उनसे पूछा  क्या यहाँ खड़े होने पर यहाँ की पुलिस तो नही परेशान करती है, उन लोगो ने  बताया  की म्युनिसिपल बोर्ड वाले डेली . 20 रुपये की रसीद काट देते है और कोई परेशान नही करता है.  सोचने लगा देहली और उसके आस-पास के शहरो मे सरकार को तो इन खोँछे वालो से कुछ मिलता नही है  हाँ पुलिस वालो की ज़रूर जेब गर्म हो जाती है. यहाँ आकर इस बात का अहसास होता है की अमरनाथ  की यात्रा के दौरान लोखो कश्मीरियो को रोज़गार मिलता है, स्टेट की इनकम बदती है,  हम 7 लोगो का घोड़े का खर्च 37500/- हुआ था जबकि कई स्थानो पर हम पैदल भी चले थे. इसके अलावा टॅक्सी , टेंट, होटेल, आदि कितने खर्चे. हम लोगो का प्रति व्यक्ति लगभग 8000 से 10000 खर्च आया था. एक तरह से यह यात्रा कितने कश्मीरियो के लिए आय का बड़ा साधन है,  परंतु फिर भी कुछ कश्मीरी लीडर वहाँ की जनता को गुमराह करके यात्रा के खिलाफ भाषण वाजी , विरोध प्रदर्शन करवाते रहते है. बहुत तकलीफ़ होती है जब इंसान अपने स्वार्थ के कारण दूसरो की रोज़ी रोटी  पर लात  मारता है.

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अमरनाथ यात्रा (पहलगाम – चंदनवाड़ी – शेषनाग )

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पिस्सू टॉप की चढ़ाई वास्तव मे एक  कठिन चढ़ाई   है. घोड़े  पर बैठे हुए डर  लग रहा था. इससे  पिछले  वर्ष हम केदारनाथ यात्रा पर गये थे , वाहा 14 किलोमीटर की चढ़ाई  है, हम उस रास्ते को देख कर सोचते  थे कि कितना कठिन रास्ता है परंतु यहा तो रास्ता ही नही था रास्ते के नाम पर उबड़ -खाबड़ पगडंडी है, कई जगह पर तो ऐसा लगा की अब गिरे तो तब गिरे. सबसे बरी दिक्कत तो तब होती है जब घोड़ा पहाड़ से नीचे को उतरता  है.ऐसा लगता है , कई लोग गिर भी जाते है, पिस्सू टॉप से शेषनाग के बीच एक बहुत सुंदर झरना गिर रहा है उसके थोड़ा पहले हमे घोड़े  वाले ने उतार दिया और बताया यहाँ से लगभग 1 किलोमीटर . आगे तक पैदल चलना होगा क्योकि घोड़े  से जाने का रास्ता नही है. अब हम पैदल आगे चल दिए, रास्ते  मे वर्फ़ के  ग्लेसियार के बाद  खूबसूरत झरना बह रहा था, 

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यमनोत्री से गंगोत्री

यमनोत्री से गंगोत्री

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देखा मंदिर के पास से ही भागीरथी बह रही है. यहाँ पर भागीरथ का छोटा सा मंदिर है. हम लोग भी भागीरथी के किनारे खड़े ही कर निहार रहे थे. सुबह के 7 बाज रहे थे धूप खिली हुई थी. आस पास का वातावरण बहुत सुंदर लग रहा था . कुछ लोग इस ठंडे मौसम मे भागीरथी मे स्नान कर रहे थे. मैने पत्नी से नहाने को कहा पर उनकी तो हिम्मत नही हुई.

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ग्वालियर में घुमक्कड़ी- जय विलास पैलेस

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इन सीढ़ियों से उतर कर हम महल के दूसरे भाग में पहुँचते हैं।  यहाँ पर उस समय सवारी में प्रयुक्त होने वाल तरह -तरह की बग्घी रखी हुई हैं। यहाँ पर उस समय सवारी में प्रयुक्त होने वाल तरह -तरह की बग्घी , डोली आदि रखी हुई हैं।

इसके साथ  ही महल के दूसरे भाग में हम पहुँचते हैं जिसे दरबार हाल के नाम से जाना जाता है।  यहाँ पर राजसी भोजनालय है जहाँ पर एक साथ बहुत सारे लोगो के खाने की व्यवस्था है।  मेहमानों के  साथ यहीं पर खाना खाने का प्रबन्ध है।  दरबार हाल की चकाचौंध उस समय के राज घराने के वैभव और विलासिता की दास्तान कह रहे थे।  इसकी छत में लटके विशालकाय झाड़ – फानूस का वजन लगभग तीन – तीन टन है।  इसकी छत इसका वजन उठा पायेगी या नहीं इसलिए छत के ऊपर दस हाथियो को चढ़ा कर छत की मजबूती की जाँच की गई थी।  दरबार हाल में जाने की सीढ़ियों के किनारे लगी रेलिंग कांच के पायो पर टिकी हुई है।  एक गार्ड यहाँ पर बैठा दर्शको को यही आगाह करवा रहा था कि रेलिंग को न छुए।

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हरिद्वार से यमनोत्री

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मंदिर पहुँच कर  गर्म कुंड मे स्नान किया. यहाँ पर काफ़ी भीड़ थी. पर स्नान मे कोई दिक्कत नही हुई. कुंड का  जल ज़्यादा गर्म ना हो इसलिए ठंडे पानी की  पतली धार कुंड मे गिर रही थी. और यह ज़रूरी भी था क्योकि इस कुंड से उपर दिव्य शिला पर जो कुंड है उसमे तो इतना गर्म पानी है कि सभी लोग पूजा के चावल उसमे पकाते है. जैसा कि  मैने पढ़ा था की दर्शन से पहले मंदिर के बाहर दिव्या शिला का पूजन करते है उसके बाद दर्शन के लिए जाते है. गर्म कुंड मे स्नान कर के कपड़े बदल ही रहा था कि  तभी पंडा लोग आ कर पूजा करने का आग्रह करने लगे. पूजा तो करनी ही थी मैने पूजा से पहले  पंडा से पूछ  लिया की कितने पैसे लोगे पर सभी कह रहे थे आप अपनी श्रधा  से दे देना. कई लोगो ने डरा दिया था की यहाँ पंडा लोग बहुत पैसे  ले लेते है. इसलिए मैने पहले ठहरा लेना उचित समझा. जब वह श्रधा  की बात करने लगे तो मैने कहा 201 रुपये दूँगा. वह बोले ठीक है अब हम अपने परिवार के साथ उनके  मंदिर के पास बने प्लेटफोर्म पर पहुचे. यहाँ पर बहुत सारे लोगो को पंडा लोग पूजा करवा रहे थे एक जगह बैठा कर पूजा करनी शुरू की. मै  समझा करता था कि   कोई शिला  होगी पर शिला तो कोई नज़र नही आई तब मैने पंडा जी से पूछा तो उन्होने बताया की जिस स्थान पर बैठे है यही दिव्या शिला है. पूजा के बाद पंडा जी ने कहा, अब आप लोग माँ  यमुना जी के दर्शन कर लो जब तक आपके चावल भी पक जाएँग. यमञोत्री मे प्रसाद  के रूप मे चावल गर्म कुंड मे पका कर यात्री ले जाते है. मंदिर मे ज़्यादा भीड़ नही थी माँ यमुना की मूर्ति काले पत्थर की  बनी है उनके साथ माँ  गंगा की भी मूर्ति स्थापित है. दर्शन कर  के बाहर आया तब तक पंडा गर्म कुंड मे पके हुए चावल की पोटली ले कर आ गये. मैने कही पढ़ा था की यहाँ एक ऋषि रहते थे जो रोज गंगा नहाने पहाड़ पार कर के गंगोत्री जाते थे जब वह काफ़ी उम्र  के हो गये और पहाड़ पार  कर जाना संभव नही हुआ तब माँ  गंगा से उन्होने प्राथना की तब गंगा वही प्रकट हो गई . कहते है यहाँ यमनोत्री मे एक धारा गंगा की भी  बहती है. मैने जब इस बारे मे पंडा जी से पूछा तब उन्होने अनभीग्यता प्रकट की. अब मैने सोचा की यहाँ तक आए है तो यमुना जी का जल तो ले चलना चाहिए. मंदिर के साथ से ही यमुना जी बह रही है. 1-2 लोग वहाँ पर जल ले रहे थे मैने भी एक बोतल मे जल भरा,  पत्नी और बच्चो को भी बुला कर यमुना जी के दर्शन कराए. एक तरह से यहाँ पर यमुना जी पहले दर्शन होते है. यमुना जी का जल एक दम स्वच्छ  पारदर्शी है और पीने मे बहुत अच्छा लगा यही जल दिल्ली पहुच कर किस अवस्था मे हम कर देते है यह तो दिल्ली वाले ही जानते है. जल इतना ठंडा था कि   बड़ी मुश्किल से बोतल मे भर पाया.

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सिक्किम, गंगटोक part-1

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सिक्किम में प्रवेश करते ही हमारे दोनों तरफ ही पांच – छह मंजिलो के मकानों की कतारे नजर आने लगी। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हम हिल स्टेशन पर हैं। सुन्दर साफ – सुथरा क़स्बा था। पहाड़ो के घुमावदार रास्तो से होते हुए लगभग 4.30 बजे हम गंगटोक पहुँच गए।
अब हमें शहर के अन्दर होटल डेन्जोंग जाना था पर पता लगा कि यह बड़ी टैक्सी शहर के अन्दर नहीं जा सकती। वहां पर जाने के लिए छोटी टैक्सी से ही जाना होगा और उसमे भी 4 लोगो से ज्यादा नहीं बैठ सकते। हाँ सुबह आठ बजे से पहले अवश्य यह टैक्सी वहां जा सकती हैं। शहर की परिवहन व्यवस्था इन छोटी टैक्सी पर ही टिकी हुई है। लोग या तो अपने वाहन से चलते है अन्यथा इन टैक्सी पर ही निर्भर रहते हैं। यहाँ पर ऑटो , टेम्पो , ग्रामीण सेवा आदि नहीं चलते हैं। सिर्फ छोटी कार वाली टैक्सी। इन छोटी टैक्सी का किराया भी ज्यादा नहीं है। पंद्रह रूपये सवारी के हिसाब से लोग सफर करते हैं।

हमें लाल बाजार, डेन्जोंग सिनेमा के साथ लगे हुए डेन्जोंग होटल जाना था , टूरिस्ट समझ कर हम लोगो से वहां पर टैक्सी वाले 150/- रूपये प्रति टैक्सी मांगने लगे। मैंने होटल फोन कर जानकारी ले लेना उचित समझा कि यह लोग ज्यादा पैसे तो नहीं मांग रहे हैं। होटल वाले ने बताया कि 90 – 100 रूपये से ज्यादा नहीं लगता है। आप लोग टैक्सी स्टैंड से बाहर आकर टैक्सी कर लो। टैक्सी स्टैंड से बाहर सड़क पर आये तो एक ने 100/- रूपये मांगे तो हमें लगा सही भाडा मांग रहा है उससे 4 लोग होटल रवाना हो गए दुसरे ने 80/- मांगे उसके बाद दो टैक्सी वाले 60/- रूपये में ही चल दिए। मतलब यह कि अगर आप मोल -भाव करना नहीं जानते या स्थानीय लोगो से नहीं पूछेंगे तो आपकी जेब ज्यादा हल्की हो जाएगी।

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ग्वालियर में घुमक्कड़ी – ग्वालियर का किला

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कुछ कदम आगे बढ़ता हूँ तो देखता हूँ कि किले की तरफ जाने वाली पतली सी सड़क के एक तरफ, पत्थर की चट्टानों को काट कर जैन समुदाय के तीर्थकरों कि मूर्तियां बनाई गईं हैं। इनमे से कई मूर्तियों भग्न अवस्था में थीं जिन्हे शायद किले पर विजय प्राप्त करने के बाद मद -मस्त मुस्लिम आक्रान्ताओ ने इस अवस्था में पहुँचाया था। यह बहुत ही कष्टप्रद विषय है कि इस्लाम को मानने वाले अविवेक में अपने विजयी दंभ को वह इन पत्थरो पर निकालने लगते है। एक तरफ तो यह मुग़ल अपने आप को कला प्रेमी के रूप में स्थापित करने की चेष्टा करते हैं और दूसरी तरफ चट्टानों पर की गई इन कलाकृतियों को नष्ट करते हैं। मंगलवार का दिन था इसलिए बहुत कम लोग ही किला घूमने के लिए जा रहे थे। छुट्टी का दिन होता तो शायद यहाँ पर भीड़ देखने को मिलती। वह दोनों युवक-युवती मुझे रास्ता बता कर तेजी से आगे बढ़ गए। मेरे पीछे एक विदेशी युवती भी चट्टानों को काटकर बनाये गए इन जैन तीर्थकारों को देखती हुई आ रही थी। मै धीरे – धीरे चढ़ाई पर चढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा था पर मुझे दूर – दूर तक किला कही नहीं दिख रहा था। इतनी चढ़ाई चढ़ने के बाद मन ही सोंच रहा था कि इतनी चढ़ाई पर किला बनाने का अभिप्राय शायद यही होता होगा कि जल्दी तो किसी दुश्मन की हिम्मत ही नहीं होती होगी इतनी चढ़ाई पर चढ़ कर हमला करने की और अगर किया भी तो पहले ही उसकी सेना इतनी पस्त हो चुकी होती है कि जीत की बहुत कम ही गुंजाइश होती होगी। दो – तीन सौ गज या कुछ ज्यादा की चढ़ाई चढ़ने के बाद एक और गेट दिखाई पड़ता है। किले के दूसरे गेट से करीब 200 गज आगे आने पर चढ़ाई ख़त्म हो जाती है। यहाँ पर भी एक गार्ड रूम है। यहाँ पर एक प्राइवेट टैक्सी वाला बैठा था। किला और किले के अंदर उसके आस – पास की जगह घुमाने के लिए इसने 250 रूपये मांगे। इतनी चढ़ाई चढ़ने के बाद अब और आगे चलने की हिम्मत नहीं हो रही थी। मैंने कहा कि पीछे भी कुछ एक लोग आ रहे हैं उनसे पूछ लो अगर वह लोग चले चलेंगे तो हम लोग आपस में शेयर कर लेंगे । तभी वह विदेशी युवती भी आ गई।ड्राइवर ने उसके पास जाकर शेयर टैक्सी किराये पर लेने के लिए कहा पर वह उसकी बात ठीक से समझी नहीं तब मैंने उससे कहा कि अगर हम लोग यह टैक्सी शेयर कर ले तो सब जगह घूम लेंगे। यह टैक्सी वाला 250 रूपये मांग रहा है आधे – आधे हम लोग दे देंगे। वह युवती भी शायद थक गई थी , वह राजी हो गई।

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