Mathura Vrindavan

ब्रज यात्रा – बरसाना गोवर्धन मथुरा वृन्दावन

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निधिवन, यमुना घाट और अन्य मंदिरों के दर्शन के बाद हमने अपने होटल से प्रस्थान किया और चल दिए वापस फरीदाबाद की ओर ! इस बार वृन्दावन आने का आनंद ही कुछ ओर रहा ! हम दिल्ली के आस पास के लोग एक ही दिन में वृन्दावन आना जाना कर लेते हैं, पर मैं समझता हूँ की एक दो रात यहाँ रुके तो बात कुछ ओर ही हो !

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वृन्दावन – राधा कृष्ण की रासलीला स्थली………….

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पागल बाबा मंदिर दर्शन के बाद अब हम पहुंचे श्री कृष्ण प्रणाम परम धाम मंदिर में। यह भी बहुत सुन्दर मंदिर था तथा यहाँ पर सशुल्क यन्त्र चालित झांकियां भी थीं, हमने भी झांकियां देखीं, कृष्ण भगवान के जीवन पर आधारित ये झांकियां बड़ी ही मनमोहक थी, बच्चों को तो यह शो इतना पसंद आया की वे मंदिर से बाहर निकलने को राजी ही नहीं हो रहे थे। अब हम फिर अपने वाहन में सवार हो गए थे, ये दोनों मंदिर तो मथुरा के ही बाहरी इलाके में थे अतः मैं सोच रहा था की अब शायद मथुरा की सीमा समाप्त होगी और फिर कुछ देर के बाद वृन्दावन शुरु होगा, लेकिन मेरा सोचना गलत साबित हुआ, अभी मथुरा समाप्त ही नहीं हुआ था और ड्राईवर ने कहा की वृन्दावन आ गया। मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा था की ऐसे कैसे वृन्दावन आ गया।

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Holi at Holy Place of Mathura-Vrindavan

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When you will reach Temple, you can see people doing arti at Temple gate, as inside of Temple was quite crowded. Then everyone was entering inside through bit random queue, Priests were throwing colors on crowd, even everyone was throwing colors inside temple to show their happiness in celebrating holi with Lord Krishna, It’s an unbelievable experience to be a part of this event. When you are there you can’t see everything but just feel the blessing of that divine environment.

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ब्रज भूमि भ्रमण : बरसाना-नंदगाँव में होली का हुड़दंग

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मथुरा-वृंदावन के मंदिरों के दर्शन के पश्चात सोमवार 11 मार्च, 2014 को बरसाना की यात्रा का कार्यक्रम बनाया. बरसाना की विश्वप्रसिद्ध लट्ठमार होली के दर्शन की उत्सुकता के कारण आज सुबह सभी लोग जल्दी-जल्दी उठकर तैयार होने लगे. मथुरा-वृंदावन-गोवर्धन आदि स्थानों की यात्रा का सौभाग्य तो कई बार मिला परन्तु बरसाना-नंदगाँव के स्थलों के भ्रमण का ये हमारा प्रथम अवसर था.
प्रातःकालीन दैनिक कार्यों के निवृत्ति और नाश्ते के पश्चात् बुआ जी-फूफा जी से विदा लेकर चलने कि तैयारी की. बरसाना तक पहुँचने के लिए गाडी और ड्राईवर की व्यवस्था के फूफा जी ने करवा दी थी. होली के रंग में रंगने के लिए राधारानी के जन्मस्थल बरसाना की और चल दिए.

बरसाना के होली महोत्सव में श्रीकृष्ण के स्थान नंदगाँव के निवासी बरसाना की गोपियों के साथ होली खेलने तथा राधारानी जी के मंदिर पर ध्वजारोहण के उद्देश्य से बरसाना में आते हैं. बरसाना में गोपियों द्वारा उनका स्वागत रंग-गुलाल के साथ-साथ लट्ठों (डंडों) द्वारा किया जाता है. नंदगाँव के निवासी भी स्वागत के इस तरीके से भली-भाँती परिचित होते हैं और वे रंग-गुलाल के साथ-साथ अपने बचाव के लिए बड़ी-सी मजबूत ढाल लेकर आते हैं. होली के इस अनोखे स्वरुप के कारण ही बरसाना की होली को लट्ठमार होली के नाम से पूरे विश्व में जाना जाता है. इसके अगले दिन बरसाना की गोपियाँ नंदगाँव में होली के लिए जाती हैं और नंदगाँव के निवासी रंग, अबीर, गुलाल से उनको तरह-तरह के रंगों में रंग देते हैं.मथुरा से लगभग 45 किलोमीटर दूर बरसाना जाते हुए रास्ते में गोवर्धन पर कुछ देर रूककर गिरिराज जी परिक्रमा मार्ग पर दंडवत और दानघाटी गिरिराज जी मंदिर को प्रणाम करके बरसाना की ओर चल दिए.

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ब्रज भूमि भ्रमण : मथुरा-वृंदावन के कुछ दर्शनीय स्थल

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निधिवन में विचरने के पश्चात् अभी भी मंदिरों के द्वार खुलने में पर्याप्त समय था. वृंदावन में आकर वृंदावनी लस्सी का मजा अगर नहीं लिया तो वृंदावन का भ्रमण अधूरा ही है. भूख भी लगी हुए थी तो कुछ खाने-पीने के साथ वृंदावनी लस्सी का मज़ा उठाने का यही सही समय था. बाकि बचे समय को श्री यमुना जी का तट पर व्यतीत करने का विचार कर पग यमुना तट की ओर चल पड़े. श्री यमुनाजी भगवान् श्रीकृष्ण की अनेक लीलाओं की साक्षी है. श्री यमुनाजी के तट पर बैठकर भगवन की चीर-हरण, कालिया-दमन आदि अनेक लीलाओं के दृश्य आँखों के सामने तैरने लगते हैं. श्री यमुना जी कि रेत में बच्चे क्रीड़ा करते हुए गीले रेत में सराबोर होकर आनंद के खजाने को खोदने लगे. और धीरे-धीरे समय मंदिरों के द्वार खुलने का हो गया.
सबसे पहले वृंदावन के प्राचीन श्री बांके बिहारी जी मंदिर के दर्शन के लिए मंदिर द्वार पर द्वार खुलने की प्रतीक्षा करने लगे. बांके बिहारी मंदिर भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। बांके बिहारी कृष्ण का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है। इसका निर्माण सन 1864 में स्वामी हरिदास ने करवाया था. वृंदावन में आने वाला प्रत्येक दर्शनार्थी इस मंदिर में श्री बांके बिहारी जी के दर्शन अवश्य करके अपने यात्रा को सफल करने का प्रयत्न करता है.

अन्य प्रसिद्ध मंदिरों में कृष्ण बलराम मंदिर (इस्कॉन टेम्पल) जो कि अंग्रेजों का मंदिर नाम से भी प्रसिद्द है. ISCON के संस्थापक स्वामी प्रभुपाद जी के आदेशानुसार इस मंदिर का निर्माण सन 1975 में करवाया गया. विश्वभर के प्रसिद्द इस्कॉन मंदिरों में से एक वृंदावन का ये एक अतिप्रसिद्ध मंदिर है. वर्षभर इस मंदिर में पूरे विश्व के कृष्ण-भक्तों का यहाँ आना-जाना लगा रहता है. मंदिर में प्रवेश करते ही स्वामी प्रभुपाद जी के महामंत्र (हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे. हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे) का मानसिक जाप स्वतः ही प्रारम्भ हो जाता है. मंदिर में सतत चलने वाला महामंत्र का संकीर्तन आगंतुकों को मंत्रमुग्ध कर दर्शन के साथ नर्तन करने को विवश कर देता है.

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वृन्दावन जहाँ कण-कण में कृष्ण बसते है।

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अब बात करते है इस्कान मंदिर की। यह मंदिर अपने आप में अत्यंत ही अनूठा है। यहाँ आपको भजन-कीर्तन मंडली के रूप में बहुत सारे विदेशी (अंग्रेज) श्रद्धालु दिखायी देते है जो हिन्दी भजनों को स्वयं गाते है और आप को मजबूर कर देते है श्री कृष्ण के रंग में रंग जाने को। विदेशी महिलाए ठेठ हिन्दुस्तानी संस्कृति में डूबी हुयी सी लगती है और इस बात का प्रमाण आपको तभी पाप्त हो जाता है जब आप उन के माथे पर लाल बिंदी, हाथो में चूडिया और शरीर पर गोपी वस्त्र देखते है। गोपी वस्त्र एक ख़ास तरह का परिधान है जो लगभग साडी का ही रेडीमेड रूप है। विदेशी पुरुष भी अपने सर के सारे बाल मुंडा कर और सफ़ेद अंगरखा पहन कर लींन है श्री कृष्ण के गुणगान मे। पाठको यह सोच कर ही मेरा मन प्रफुल्लित हो जाता है की विदेशी परम्परा को त्याग कर वर्षो से यह विदेशी नागरिक हमारे ही देश में हमारी ही संस्कृति की रक्षा में दिन रात लगे हुए है.

इस्कान मंदिर में कुछ पल बिताने के पश्चात अब सभी को भूख लगने लगी थी सो हमने होटल भारती में भोजन करना तय किया क्योंकि यहाँ इस होटल का नाम थोड़ा ज्यादा ही प्रसिद्द है। होटल के रेट ठीक-ठाक है किन्तु भोजन की गुणवता शायद उतनी अच्छी नही थी जितना लोगो के मुख से सुन रखा था। घूमते हुए हमें रात्रि के दस बज गए और नींद भारी आँखों से हमने अपनी धर्मशाला की तरफ रुख किया।

हमारी धर्मशाल के केयरटेकर, जो की वयवहार से बहुत ही नेक और सहायक थे ने हमें बताया की कुछ ही दूरी पर प्रेम मंदिर स्थित है जो की दर्शनीय होने के साथ ही कला की दृष्टि से अत्यंत ही मनोरम भी है। बस फिर क्या था, अगली प्रातः रविवार के दिन हम सभी निकल पड़े प्रेम मंदिर की वास्तुकला के दर्शन करने और उसके पश्चात कला के जिस रूप से हमारा साक्षात्कार हुया वह अविस्मरनीय है। मूर्ति कला और उन पर रंगों की छटा का अनूठा संगम आपको विस्मय कारी आभास करा देता है। इस मंदिर में केवल मूर्तिकला के माध्यम से ही श्री कृष्ण के जन्म से से लेकर कंस वध तक का वर्णन किया गया है जिसका कोई जवाब नही है। इस मंदिर की खूबसूरती का अंदाजा आप इन फोटो को देखकर लगा सकते है।

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सुनहरे अतीत की परछाईओं का एक गाँव: गोकुल

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और फिर आगे-आगे वो पंडित जी और उनके पीछे-पीछे हम सात लोगों का कारवाँ, गोकुल की गलियों में निकल पड़ा उस जगह को देखने के लिए जहाँ यमुना में आई बाद के बीच, नन्द बाबा वासुदेव और देवकी के नवजात शिशु को एक टोकरी में रख कर लाये थे और यहीं उसका लालन-पोषण हुआ| कौन जानता था उस वक्त कि ये बच्चा एक पूरे युग का भाग्य-विधाता होगा और कभी भविष्य में इन गलीयों को देखने के लिए दूर-दूर से लोग चल कर आयेंगे| गोकुल की गलियों में पाँव रखते ही आप इस आधुनिक दुनिया से इतर, बिलकुल ही पारम्परिक ग्रामीण दुनिया से रूबरू होते है, जिसके लिए शायद समय का चक्र रुका हुआ है या यूँ कहें जिन्होंने स्वयम ही अपने को उस काल से जोड़ कर रखा हुआ है, जब कृष्ण अपने बाल-गोपालों और गोपियों के साथ इन गलियों में खेला करते होंगे| यदि गलियों में बिछी तारकोल की काली पट्टी को छोड़ दें तो आज भी गोकुल का पूरा गाँव उसी दौर का नजर आता है| सड़क से 3 से 4 फुट ऊंचे मकान पर अर्थशास्त्र को ध्यान में रखते हुए, लगभग हर घर में एक छोटी सी दुकान, पांच गुणा पांच के आकार की जिनमे बहुतायत है हलवाइयों की! पर वो केवल लस्सी, पेड़े जैसी दो-तीन वस्तुएं ही रखते हैं | उत्तर प्रदेश में बिजली की स्थिति तो हम सब जानते ही हैं, सो हर दुकान के मालिक के हाथ में एक हाथ से ही झुलाने वाला पंखा! बाहर से आये हुए लोगों को देखते ही हर हलवाई अपनी गडवी में मथानी घुमाने लगता है और आपको यहाँ-वहाँ से आवाजें अपने कानों में पडती सुनाई देती है, “लस्सी- गोकुल की लस्सी …”! और फिर आपके जेहन में सूरदास की ये पंक्तियाँ कौदने लगती हैं –

“मुख दधि लेप किए
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥“
आखिर दूध, दही और मक्खन के बिना गोकुल की कल्पना कैसे हो सकती है !

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