
संजय गाà¤à¤§à¥€ राषà¥à¤Ÿà¥à¤°à¥€à¤¯ उदà¥à¤¯à¤¾à¤¨, मà¥à¤‚बई की पदयातà¥à¤°à¤¾ – “कानà¥à¤¹à¥‡à¤°à¥€ गà¥à¤«à¤¾â€
पर à¤à¤• बात थी. कानà¥à¤¹à¥‡à¤°à¥€ पहाड़ का वह सà¥à¤¥à¤¾à¤¨ बिलकà¥à¤² वीरान था. इतना वीरान कि गà¥à¤«à¤¾à¤“ं के अनà¥à¤¦à¤° अकेले जाने में à¤à¤¸à¤¾ महसूस हो कि कोई वहां पहले से मौजूद है, जो आपको निरंतर देख रहा है. उस वीरानी में मन में कई ख़याल आते हैं. जैसे कि कà¥à¤¯à¤¾ वहां जाने वाले का कोई समà¥à¤¬à¤¨à¥à¤§ पशà¥à¤šà¤¾à¤¤ काल में उस गà¥à¤«à¤¾ से था और उसी समà¥à¤¬à¤¨à¥à¤§ के सहारे वह इस जीवन में à¤à¥€ वहां लौट कर आया हो? उस अंतिम गà¥à¤«à¤¾ में बैठकर मैंने अपनी à¤à¤• कविता का पà¥à¤°à¤¥à¤® अनà¥à¤¤à¤°à¤¾ लिखा. इस कविता के दूसरे अंतरे बाद में मà¥à¤‚बई के अनà¥à¤¯ गà¥à¤«à¤¾à¤“ं की यातà¥à¤°à¤¾ में पूरà¥à¤£ हà¥à¤.
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