
सरिस्का के जंगल से भानगढ़ के रहस्यमय किले तक का सफ़र
गाइड से पूछने पर पता चला की हाल फिलहाल तो शेर की कोई हलचल वहा नहीं दिखी है, अब हम इतनी बार जंगल जा चुके है कि एक विशेषज्ञ की तरह ही गाइड और ड्राईवर से बात करते है। तभी हमारे ड्राईवर लकी ने १-२ बिस्कुट जीप से बाहर हिरनों की तरफ फ़ेंक दिए तो हमने तुरंत उसको डांटा, वो बोला सर कोई गलत चीज़ नहीं फेंकी है, इससे क्या नुकसान होगा। हमने बोला भाई वो प्राकृतिक चीज़े खाते है उनको ये गन्दी आदत मत डालो, अगर बाद मे उनकी इच्छा फिर से ये खाने की हुई तो कहा से लायेगे, किसी हिरन की मादा ने फरमाइश कर दी कि वही वाले बिस्कुट चाहिए तो उस बेचारे हिरन की गृहस्थी ही टूट जायेगी। वैसे मजाक अपनी जगह है लेकिन जंगल मे इस तरह से कुछ भी फेंकना गलत ही है। जैसी की उम्मीद थी कि कोई शेर नहीं दिखा इसलिए हमने ड्राईवर को भी बोल दिया कि वो बाहर चल सकता है और वैसे भी समय हो ही गया था। इस समय हमारे मन मे भानगढ़ जाने की प्रबल इच्छा थी क्योकि इतना कुछ सुन रखा था इन किलो के बारे मे कि अब इन्तजार नहीं हो रहा था। बाहर आते ही हमने जिप्सी ड्राईवर को बचे हुए २० ० ० रूपये दिए और अपनी गाड़ी मे बैठ गए और लकी को भी इशारा कर दिया कि जल्दी से भानगढ़ की तरफ चले।
भानगढ़ और सरिस्का के बीच की दूरी लगभग ७०-८० किलोमीटर है, सरिस्का से आगे थानागाजी, अजबगढ़ होते हुए भानगढ़ जाया जा सकता है। अभी कुछ भी खाने की इच्छा नहीं थी इसलिए हमने पहले भानगढ़ जाने का ही निश्चय किया फिर वहा से वापिस आने के बाद ही खाने के बारे मे कुछ सोचेगे वैसे भी ७०-८० किलोमीटर ही दूरी थी तो सोचा कि एक सवा घंटा ही लगेगा पहुचने मे लेकिन थोड़ी देर मे ही अच्छी सड़क का रास्ता खत्म हो गया और ख़राब रास्ता शुरू जो योजना थी उससे दुगना समय लगा पहुचने मे।
भानगढ़ के बारे मे कहा जाता है कि वहा की राजकुमार रत्नावती बहुत खूबसूरत थी और लोग उसके रूप के दीवाने थे, वही एक साधू भी था जो रत्नावती को बहुत चाहता था, वो साधू काले जादू मे माहिर था। एक बार राजकुमार बाजार मे इत्र खरीद रही थी तो उस साधू ने उस इत्र पर मंत्र पढ़ दिए जिससे कि वो इत्र लगाते ही राजकुमारी उसकी दीवानी हो जाए लेकिन राजकुमार इत्र देखते ही उसकी चाल समझ गयी और उसने वो इत्र की शीशी एक पत्थर पर पटक दी,