Weekend-Delhi

Unexplored Kasauli, Himachal Pradesh

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For Kasauli, you first have to reach Dharampur, and then turn left leaving NH22. The straight NH22 leads to Shimla, which is almost 60 kilometers further away. From Dharampur it is a mere 10 kms drive to Kasauli.

Kasauli is a relatively small town, a british cantonment establishment. Our resort was at Chabbal on Garkhal to Jagjit Nagar Road. The road is rather narrow, be cautious with your car while crossing the market place. In my case, there was a truck carrying pile of garbage appeared from the opposite side. And with cars in both sides, took quite some time to make the way. However, by around 2 PM we were at our destination.

We enjoyed the rest of the day just by relaxing in the resort, in the small play area. Witnessing the sunset from the balcony was quite tranquil for all us after some 7 hours of voyage.

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Trek to Nag tibba

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We started at 4:30 from Gurgaon – our usual time of leaving. It gives us an extra edge in avoiding the Delhi traffic. But still at this hour there were trucks plying in the middle of the road. Sometimes, I think what economic super power we are going to become when we can’t build a simple bypass to avoid Delhi. Anyway, we continued. In around 3 hours we reached Muzafarnagar bye pass. Now there are 2 routes to go from here.

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लैंसडाउन : अहँ ब्रह्मास्मि के पथ पर कुछ क्षण

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यहाँ-वहाँ कुछ नौजवान लडके-लडकियाँ खुले में ग्रुप बनाकर बैठे हैं, कुछ इधर-उधर घूम रहे है, कुछ छोटे बच्चे खरगोशों के पीछे भाग रहें हैं, कुछ तोते और चिड़ियाँ भी हैं, दूर तक फैला, खुला विशाल क्षेत्र, चारो तरफ चीड़ के पेड़, आपको जंगल में मंगल का नज़ारा देता है | एक कप गरमा-गरम अदरक वाली चाय, आपकी रास्ते की सारी थकान उतार देती है | यहाँ कोई रिसेप्शन या हॉल नही है, केवल सोने के लिए कमरे हैं, और आप खुले में बाहर बैठ कर पूरी तरह से प्रकृति को जी सकते हो | चाय पीते-पीते आपका कमरा तैयार हो जाता है | रिजोर्ट की ही तरह कमरा भी बहुत साधारण है, साधारण प्लास्टर की हुई दीवारें, टीन की छत, जिन पर अंदर से लकड़ी की सीलिंग लगी है, कमरे के साथ अटैच्ड टॉयलेट के अलावा, एक डबल बैड, दो सोफा-नुमा कुर्सियां, एक छोटी मेज़ और टीवी | कमरे में जाकर कपड़े बदलते हैं, पर कमरे में मन ही नही लगता, वो तो कमरे से बाहर निकलना चाहता है | मोबाइल के सिग्नल अक्सर यहाँ नही मिलते, BSNL अपवाद है | टीवी कोई देखना नही चाहता क्योंकि सारी प्रकृति तो बाहर बिखरी पड़ी है, वो कमरे में तो आएगी नही, अपितु हमे ही उसके पास जाना पड़ेगा, यदि कमरे की चार-दीवारों में ही बैठना होता, तो अपने घर सा सुख कहाँ ? असली नजारे देखने हैं तो बाहर निकलो, मिलो दूसरों से… धीरे-धीरे आपकी सबसे जान-पहचान होने लगती है, ज्यादातर युवा तो दिल्ली या गुडगाँव से ही हैं, कुछ हमारी तरह आज ही आये हैं, कुछ कल | पर जहाँ से अभी तक कोई भी बाहर ही नही गया ! कारण पूछा, तो कहने लगे बाहर क्या देखना है ? सब कुछ तो यहीं है, इतनी खूबसूरती तो यहीं बिखरी पड़ी है | इस रिजोर्ट के चारों तरफ कोई चारदीवारी नही है, बस बांस की खपच्चियों की दो-ढाई फुट ऊंची बाढ़ है, जिससे बगल का सारा जंगल भी इसी का भाग लगता है, और इस को और विशाल बना देता है |

इसी की बगल से दो कच्चे रास्ते, और आगे के गांवों की तरफ जा रहे है, कुछ लडके-लडकियाँ जिन्होंने शायद पहले कभी गाँव या जंगल नही देखा, घूमने जाना चाहते हैं, दिनेश का भतीजा जो रसोई के काम से शायद अब निवृत हो गया है, उनके साथ गाइड बनकर चलने को तैयार है, अपने साथ एक छड़ी और टॅार्च लेकर | छाता, छड़ी और टॅार्च ये ऐसी चीज़े हैं, जिन्हें लिए बिना कोई पहाड़ का वासी बाहर नही निकलता, जाने कब इनकी जरूरत पड़ जाये…. और इधर हम, लोगों से परिचय करते-करते रात के प्रोग्राम की उधेढ़-बुन में लगे हैं, रिजोर्ट के एक कोने की तरफ एक छोटा सा टेंट लग रहा है और उधर किचन के पीछे एक लड़का लकड़ियाँ फाड़ रहा है | दिनेश से पूछने पर पता चलता है आज इनके रिजोर्ट का एक साल पूरा होने की ख़ुशी में इन्होने अपने गाँव वालों और कुछ दूसरे जानकारों को पार्टी दी है, जिनसे साल भर बिज़नेस मिलता है | लकड़ियाँ रात को बोन-फायर के लिए काटी जा रही हैं, एक दूसरे किनारे पर डी-जे लग रहा है, कमरों के सामने की तरफ थोड़ी खुली सी जगह पर 3-4 लडके एक टेंट खड़ा कर रहे हैं, जो वैसा ही है, जैसा अक्सर मिलिट्री वालों के पास या फिर जंगल सफारी करने वालों के पास होता है | हमारे देखते ही देखते उन्होंने दो टेंट खड़े करके उनमे सामान रखना शुरू कर दिया- गद्दे, रजाई, टीवी, हीटर और बिजली का बल्ब ये देख कर के तो NCC के दिन याद आ गये | दिनेश से बात की, भैया हमे कमरा नही चाहिए, हमे तो यहीं सेट करो… आखिर एडवेंचर हो तो पूरा हो ! और फिर आखिर, जिनके लिए टेंट लगाया गया था, उन्हें टेंट के नुक्सान और कमरे के फायदे गिनाकर हमारा कमरा दे दिया गया | सबसे मज़ेदार तो उन्हें ये बताना था कि कई बार रात को यहाँ लक्कड़बग्गे भी आ जाते है, आखिर जंगल इसके साथ ही लगा हुआ है, इस बात ने मास्टर स्ट्रोक का काम किया और अपनी चाहत के अनुसार हम टेंट में शिफ्ट हो गये, आखिर जीवन में ऐसे मौके कितनी बार मिलते हैं…?

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The retreat of the tide

The Emerald Islands of Andaman and Nicobar-II

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Our plan was to take a government ferry to Havelock and halt there for two days. For our return journey we planned to take the Makruzz back to Port Blair. We had to wake up at 5 in the morning to catch the ferry which leaves at  6:30 am. The harbour at Port Blair is lively even at these early hours as it caters to to the goods coming in from the mainland, as well as from nearby countries like Thailand. The ferry which we were to travel on, was operated by the Shipping Corporation of India. Our reserved seats in the first class compartment akin to the Indian Railways chair car coaches made our travel comfortable. During the journey to Havelock, you are free to go on deck. Travelers can hear the soothing sound of the waves hitting the craft and enjoy the vast expanse of the ocean. The blue sea, and the green emeralds dotting them, complement each other, and add to the experience. After standing on deck for 15 minutes, we decided to get a quick nap. When we woke up, the ferry was docking at the Havelock Jetty. After getting off the ship, we were picked up by a taxi our friends had arranged.  We were dropped at our hotel, a government enterprise called the “Dolphin Hotel”. There are various grades of rooms available and it is important to reserve the rooms early.You may reserve the rooms through online payment on the website. Make sure to get a sea facing cottage. The drawback about Dolphin Hotel was  that though it was set in a nice sea-facing location, it did not have a beach.There are a multitude of options to stay at in at Havelock, which suit all budgets.

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Summer Road Trip – Birding in Lansdowne

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The next two days are packed with bird watching. The commonest of the birds around command our attention for they are new to us plains dwellers. The ubiquitous Himalayan Bulbul, Blue Whistling Thrush and the Russet Sparrows are everywhere. In fact, we do not see any house sparrows there at all! The Streaked Laughing thrush is trying to catch our attention by peaking at us from just beyond the tree trunk. The Black headed Jay is wandering around as common as the Rock Pigeon in the plains!

Meanwhile, two green birds fly up to a nearby tree. There is a distinct yellow on them and the flight indicates woodpeckers. We hurry and try to get in position for at least a record shot to identify the specie. The Lesser Yellownape it is! Hard on the heels of this pair is another pair, this one of the Brown fronted Woodpecker… birds are raining down on us hard and fast! The Himalayan Woodpeckers are also plentiful. The Grey headed Woodpecker makes an appearance… I am very happy. The bird count for the trip is increasing rapidly.

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आगरा: ताज की तरफ वाया सिकंदरा (अकबर का मकबरा)

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मुगलों के बनवाए कुछ मकबरे तो वाकई इतने बुलंद और आलीशान हैं कि आपको उनकी मौत से भी रश्क हो जाता है | इस काल की जितनी भी मुख्य इमारतें हैं, उनमे कुछ ना कुछ ऐसा जरूर है, जिस से आप उनकी भवन-निर्माण कला के मुरीद हो जाएँ, इस मामले में ये मकबरा भी आपको एक ऐसा नायाब पल देता है, जब आप, (चित्र में लाल घेरे वाले) पत्थर पर खड़े होकर जो भी बोलते हैं, वो इस के हर हिस्से में सुनाई देता है यानी कि आज के दौर का Public Address System. और आप हैरान तो तब रह जाते हैं जब इस स्पॉट से दो फुट दायें–बाएं या आगे-पीछे होने पर. आपकी आवाज केवल आप तक ही रह जाती है |

सदियों से, जो मौत इतनी डरावनी और भयावह समझी जाती रही है कि कोई अपनी मरजी से उसके पास तक नही जाना चाहता, उसे याद तक नही करना चाहता, ऐसे में उसकी यादगार को कायम रखने के लिए इतने भव्य और आलीशान मकबरों का निर्माण, वाकई कमाल की बात है |

मिर्ज़ा ग़ालिब का एक शेर इस मौके पर बेसाख्ता ही याद आकर लबों पर एक हल्की सी मुस्कान बिखेर देता है –

“ मत पूछ, के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे?, सोच के क्या रंग तेरा, मेरे आगे ! “

मिस्त्र के पिरामिड और ये मकबरे, ऐसा नही, कि मौत को कोई चुनोती देते हों या मौत पर इंसान की जीत का परचम फहराते हों, पर हाँ इतना जरूर है कि इन्हें देखने के बाद मौत इतनी भी बदसूरत नजर नही आती! बहरहाल सूरज अपना जलवा दिखाने को बेकरार हो रहा है, और घड़ी की सुईयां भी सरपट भाग रही हैं, ऐसे में हम फैसला करते हैं कि हमें अपनी ऊर्जा ताजमहल के लिए भी बचा कर रखनी है | अत:, हम जल्दी से अकबर के मकबरे को अपनी यादों में समेट, मुगलिया सल्तनत के एक बेताज बादशाह को उसकी फराखदिली और पंथ-निरपेक्षता के लिए उसे अपना आखिरी सलाम देते हुए, एक और मकबरे, ताजमहल को देखने आगरा की और कूच कर देते हैं…..

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Summer Road Trip – National Chambal Sanctuary, Morena

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We take a turn around the gardens which are alive with bird calls. The abundant peafowl with their splendid trailing tails compete with the woodpecker, kingfisher, parakeets and the babblers for our attention. Everything else takes a back seat as the children are uncomfortable in the heat of the day. When the situation does not improve till late evening and after nightfall (the ACs are not working in spite of the gensets!), we have dinner at the FRH (which is very good) and fall back to Morena for the night.

Picking up our guide at Devri, we are at the boat pool on the river by 0530hrs. The much anticipated safari is underway with all of us on the edge of our seats, craning for the first glimpse of wildlife. At that point, the sun has just risen and is casting a golden glow on the ragged ravines on the banks and the tranquil waters of the Chambal. Suddenly, the calm breaks and a gentle giant breaks the surface with an elegant roll… the Gangetic Dolphin! It is a blind creature which does all its hunting and navigation by sonar located in the bump on its head. Cameras are ready but shots are very elusive since the dolphins are very erratic sightings.

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सुनहरे अतीत की परछाईओं का एक गाँव: गोकुल

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और फिर आगे-आगे वो पंडित जी और उनके पीछे-पीछे हम सात लोगों का कारवाँ, गोकुल की गलियों में निकल पड़ा उस जगह को देखने के लिए जहाँ यमुना में आई बाद के बीच, नन्द बाबा वासुदेव और देवकी के नवजात शिशु को एक टोकरी में रख कर लाये थे और यहीं उसका लालन-पोषण हुआ| कौन जानता था उस वक्त कि ये बच्चा एक पूरे युग का भाग्य-विधाता होगा और कभी भविष्य में इन गलीयों को देखने के लिए दूर-दूर से लोग चल कर आयेंगे| गोकुल की गलियों में पाँव रखते ही आप इस आधुनिक दुनिया से इतर, बिलकुल ही पारम्परिक ग्रामीण दुनिया से रूबरू होते है, जिसके लिए शायद समय का चक्र रुका हुआ है या यूँ कहें जिन्होंने स्वयम ही अपने को उस काल से जोड़ कर रखा हुआ है, जब कृष्ण अपने बाल-गोपालों और गोपियों के साथ इन गलियों में खेला करते होंगे| यदि गलियों में बिछी तारकोल की काली पट्टी को छोड़ दें तो आज भी गोकुल का पूरा गाँव उसी दौर का नजर आता है| सड़क से 3 से 4 फुट ऊंचे मकान पर अर्थशास्त्र को ध्यान में रखते हुए, लगभग हर घर में एक छोटी सी दुकान, पांच गुणा पांच के आकार की जिनमे बहुतायत है हलवाइयों की! पर वो केवल लस्सी, पेड़े जैसी दो-तीन वस्तुएं ही रखते हैं | उत्तर प्रदेश में बिजली की स्थिति तो हम सब जानते ही हैं, सो हर दुकान के मालिक के हाथ में एक हाथ से ही झुलाने वाला पंखा! बाहर से आये हुए लोगों को देखते ही हर हलवाई अपनी गडवी में मथानी घुमाने लगता है और आपको यहाँ-वहाँ से आवाजें अपने कानों में पडती सुनाई देती है, “लस्सी- गोकुल की लस्सी …”! और फिर आपके जेहन में सूरदास की ये पंक्तियाँ कौदने लगती हैं –

“मुख दधि लेप किए
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥“
आखिर दूध, दही और मक्खन के बिना गोकुल की कल्पना कैसे हो सकती है !

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एक जिन्दा-दिल शहर मथुरा !!!

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भीड़-भढ़क़का, छोटी और तंग सड़कें, यहाँ-वहाँ पड़े कूड़े के ढेर, घंटो बिजली का गुल होना, मगर सब जाने दीजिये… ये शहर जिन्दा है क्यूंकि इस शहर की जिन्दादिली इसके लोग हैं, एकदम मस्त खुशगवार और धार्मिकता से औत-प्रोत… शहर में चप्पे-चप्पे पर छोटी-छोटी हलवाई की दुकाने |ढूध, दही, लस्सी और अपने विश्वविख्यात पेड़ों के अलावा ये शहर तो कचोडी और जलेबी की दुकानों से भी अटा पड़ा है| हर दस कदम पर ऐसी ही कोई छोटी सी दूकान… और खाने वालों की भीड़! ऐसा नही की खाने वाले सभी पर्यटक या तीर्थयात्री होते हैं, बल्कि हर जगह हमे स्थानीय लोग ही इन दुकानों पर मिले… और एक मजेदार बात, यहाँ अधिकांश दुकानों पर बैठने की सुविधा भी नही है…..बस पत्ते के कटोरे में कचोडी लीजिये या समोसा, उस पर आलू का बिना हल्दी का झोल, साथ में पेठे की कुछ मीठी सी सब्जी… जो चटनी का काम भी करती है, और यदि मीठे की इच्छा हो तो वो भी इसी तरह के दोने में| देखिये ये शहर तो पर्यावरण का भी कितना ख्याल रखता है, और अपने कुटीर उद्योगों का भी ! और चाय, लस्सी या दूध के लिए मिटटी के कसोरे(कुल्हड़), या जो भी आपके षेत्र में इनका नाम हो, हाजिर हैं ! दुर्भाग्यवश हम शहर वालों को ये नेमतें सिर्फ किसी अच्छी शादी की दावत में ही मिल पाती हैं| खैर हमारे लिए तो ये एक मजाक का सबब बना रहा कि शायद यहाँ कोई घर का खाना ही नही खाता, क्यूंकि घर पर बनाने से हैं भी किफ़ायती… दस से बारह रूप्पिया में दो कचोडी और साथ में आलू का झोल तथा पेठे की सब्जी. पांच रुपए में एक बड़ा सा जलेबी का पीस! बीस रूपये और खर्चो, तो कुलढ़ में ऐसी गाडी लस्सी कि उसके आगे हल्दीराम और बीकानेर वाला भी पानी मांगे !!!तीस- पैंतीस रुपल्ली में ऐसा नाश्ता, हम एनसीआर में रहने वालों के लिए तो सपना ही था| मजा आ गया भई मथुरा में तो ! वैसे, यहाँ के किसी होटल वगेरा में यदि आपको सब्जियां कुछ मीठी सी लगे तो हैरान मत होईएगा, क्यूंकि यहाँ गुजरात से बड़ी संख्या में तीर्थयात्री आते हैं, जो ऐसा खाना ही पसंद करते है | सडकों पर जगह-जगह बिकता ढोकला भी मथुरा में गुजराती लोगों की आमद को दर्शाता है… और वैसे भी मथुरा और द्वारिका दोनों कृष्ण से जुड़े हैं | अतः गुजरात में भी कृष्ण जी की वही धूम है जो उत्तर प्रदेश में! पुराणों में कृष्ण को सोलह कला परिपूर्ण बताया गया है जो कि किसी भी अवतार के लिए सर्वाधिक है, ऐसे में कान्हा और उनसे जुड़ा शहर कुछ तो अधिक मधुर होगा ही…

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ढेला (कॉर्बेट) से मरचुला की मस्ती का सफ़र (भाग – 2)

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पानी इतना साफ़ था की नीचे के पत्थर साफ़ चमक रहे थे। इतनी छोटी सी जगह पर इतना आनंद भी लिया जा सकता है, सोचा न था। धूप धीरे धीरे हलकी हो रही थी और पानी भी अब ज्यादा ठंडा लगने लगा था इसलिए सोचा कि अब यहा से चलना चाहिए। इसी बीच मनमोहन दो तीन बार पानी से निकला तो हर बार एक मच्छर उसको काटता था और वो चिल्लाता था और गालिया देता था। हम सब हँसते थे कि मच्छर को गोरी चमड़ी पसंद आ रही है लेकिन अब जैसे ही हम सभी पानी से बाहर निकले तो उस मच्छर ने मेरे पैर मे बहुत तेज काटा, अब चिल्लाने की बारी मेरी थी और हसने की मनमोहन की। खैर हमने जल्दी जल्दी कपड़े पहने और वहा से बाहर की और चल दिए।

पानी मे इतनी देर रहने के बाद अब काफी थकान महसूस हो रही थी इसलिए प्रदीप को भी बोला कि अब सीधे गेस्ट हाउस चले लेकिन उसने रास्ते मे गाड़ी एक लम्बे से ब्रिज के सामने रोक दी। जगह अच्छी थी लेकिन अब रुकने के मन ही नहीं था लेकिन फिर भी उतर गए की कुछ फोटो ही खीच ले। उतरने पर देखा कि वो केंद्रीय जल आयोग से सम्बंधित था। हम वहा पाँच दस मिनट ही रुके और फिर वापिस चल दिए। वापिस आते हुए हम मोहान से थोड़ा आगे ही निकले थे कि देखा वहा बहुत भीड़ थी, हम भी गाड़ी से बाहर आ गए तो पता चला कि हाथी का बच्चा झाड़ियो मे उलझ गया है, सड़क के एक तरफ जंगल ही था और उसमे थोड़ा सा अन्दर ही वो बच्चा फसा हुआ था और उसके पास हाथियों का पूरा झुण्ड था, उनको देखने के लिए ही वहा भीड़ जमा थी। लोग हाथियों को परेशान कर रहे थे और बार बार अन्दर जा रहे थे जो कि खतरनाक था अगर एक बार हाथी पीछे भाग लेते तो भगदड़ मच जाती। हाथियों ने बच्चे को झाड़ियो से छुड़ा लिया था लेकिन वो वही थे। हम लोगो ने वहा से निकलना ही सही समझा। रास्ते मे हमने रामनगर से जरूरी सामान ख़रीदा और वापिस गेस्ट हाउस की और चल दिए।

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ढेला (कॉर्बेट) की मस्ती और रोमांच

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हमें घुमते हुए वहा के गार्ड ने बोला कि सर यहाँ से बाहर मत जाइएगा, इस चारदीवारी की अन्दर ही रहना और पीछे के रास्ते से तो बाहर निकलना ही मत। हमने पुछा कि यहाँ भी डर है क्या तो उसने बोला साहब जी एक शेर तो रोज ही पीछे वाले रास्ते से जाता था और हाथी तो कई बार इन खेतो मे घुस चुके है। जोश मे तो थे ही तभी सोच लिया कि खाना खाकर एक चक्कर तो लगायेगे बाहर का। हम जल्दी से डाइनिंग रूम मे पहुचे, खाना तैयार था, दाजू ने तुरंत लड़को को परोसने का आदेश कर दिया। खाना मजेदार था। खाना खाकर हम वापिस कमरों मे आ गए और दाजू को भी अन्दर आने के लिए बोला। अन्दर आने पर हमने पूछा कि बाहर कहा तक जाया जा सकता है। वो पक्ष मे नहीं थे लेकिन हमने भी बोला कि हम अन्दर जंगल मे नहीं जायेगे सिर्फ बाहर सड़क तक तो जा सकते है और वैसे भी गाड़ी से बाहर तो निकलना नहीं था। । तब जाकर वो तैयार हुआ।

बारह से ज्यादा का समय हो रहा था और हम बाहर गाड़ी मे बैठे थे। आधा घंटा हम सड़को पर गाड़ी दौड़ाते रहे। वहा पेड़ो के बीच कच्चा रास्ता था जो दिन मे शोर्टकट के रूप में प्रयोग होता था, उस रास्ते से जब निकले तो रोंगटे खड़े हो गए बिलकुल सुनसान, सड़क भी कच्ची, डर लग रहा था कि अगर गाड़ी फस गयी तो निकालनी मुश्किल हो जायेगी क्योकि छोटी गाड़ी थी, अँधेरे मे हिरनों के झुण्ड भी दिखे जिनकी सिर्फ आखे चमक रही थी। वो अभी तक के सबसे यादगार और रोमांचक क्षण थे, शायद ऐसा रोमांच कभी जंगल मे भी नहीं आया था। प्रदीप का मन तो वापिस आने के लिए कर ही नहीं रहा था। एक बजे हम वापिस आये तो थोड़ी देर कमरों के बाहर ही बैठ गए कि कल कहा जाए। जिम कॉर्बेट के बिजरानी गेट से तो प्रवेश मिल सकता था लेकिन जो जानवर अन्दर दिखते थे वो बाहर ही दिख गए थे फिर ऐसा रोमांच भी हो गया था। इसलिए चार हजार रूपये खर्च करना अक्लमंदी नहीं लगी। प्रदीप ने बोला कि सर कल मे आपको मरचुला लेकर चलूगा, आपको जगह पसंद आएगी। मरचुला के बारे मे हमने कभी सुना नहीं था लेकिन कही तो जाना था इसलिए वही सही। जगह पक्की हो गयी तो हम भी अपने कमरों मे आ गए सोने के लिए।

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Rain Fury in Chakrata, Uttarakhand in June 2013 (Part I)

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We made ourselves comfortable in the tents, opened our bags to change the clothes but got the shock of our life as all the clothes inside the bag were equally wet like the clothes we were wearing. I decided to continue with my present set of clothes which got dried with my body heat in next two hours. The camp guys brought a battery driven LED light which ware barely emitting any light, some pakoras and masala tea by 7:30 pm in the evening. Our gang enjoyed these snacks and felt a little relieved and energetic, since we have not ate anything after breakfast. The Sun was setting behind the hills quickly and with the absence of electricity and inability to light the fire outside due to rain, darkness was building up inside the camp and outside. The sound of rain smashing against the camp started to scare us. Rajesh the dabangg, got dumb struck, the thing that was enthusing voice in him were the never ending songs of Gurdeep ‘Dil ro raha hai…’ to which Rajesh was getting irritated and saying ‘yaar chup ho ja, tere aise gaano ki wajah se hi itni barish ho rahi hai‘. Rest of us were enjoying this cat fight between the two and were trying to be back in holiday mood. Sanjay and me were quite sure that rain will subside by morning and we will be able to visit Tiger Fall. All were keen to visit Tiger Fall, but there was no voice coming out from dabangg bhai’s mouth. By 9 pm dinner was served, and post-that we slipped inside the quilts after closing the zipper inside tent. Very soon the camp got quite warm inside assuring us that atleast we will manage to have a decent sleep. We keep chit chatting inside our camp and occasionally across the camp of Gurdeep and Arun. The rain kept turning mightier with the darkness of night, and at a point we were not able to hear each other’s voice because of deafening collision sound between rain drops and tent. With prays for God, we slept in a hope of better tomorrow.

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