पुष्कर की यात्रा : कबीरा मन निरमल भया….

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न्दिर से बाहर आ जायो तो ये शहर वही है, जिसका तिलिस्म आपको चुम्बक की तरह से अपनी और आकर्षित करता है | शहर की आबो-हवा मस्त, गलियाँ मस्त, जगह-जगह आवारा घूमती गायें मस्त और सबसे मस्त और फक्कड़ तबियत लिये हैं इस शहर के आम जन और साधू | हर मत, सम्प्रदाय के साधू आपको पुष्कर की गलियों में मिल जायेंगे, हाँ, ये बात अलग है कि असली कौन है और फर्जी कौन इसकी परख आसान नही | मोटे तौर पर सबकी निगाह फिरंगियों पर होती है और फिर फिरंगी भी बड़े मस्त भाव से महीनो इनके साथ ही घूमते रहते हैं, पता नही भारतीय दर्शन के बारे में कितना वो जान पाते होंगे या कितना ये बाबा लोग उन्हें समझा पाते होंगे पर इन्हें देखकर तो पहली नज़र में कुछ यूँ लगता है जैसे गुरु और भक्त दोनों ही भक्ति के किसी ऐसे रस में लींन हैं जिसकी थाह पाना आसान नही, जी हाँ पुष्कर इस के लिए भी जाना जाता है | वैसे, ये बाबा लोग अपने इन फिरंगी भक्तों पर अपना पूरा अधिकार रखते हैं और आपको इन से घुलने-मिलने नही देते |

इस शहर की धार्मिकता, और आध्यात्मिकता के इस बेझोड़ और आलौकिक रस में डूबे-डूबे से आप आगे बढ़तें हैं तो घाट के दूसरी तरफ ही गुरु नानक और गुरु गोबिंद सिंह जी की पुष्कर यात्रा की याद में बना ये शानदार गुरुद्वारा है, पुष्कर में आकर इस गुरूद्वारे के भी दर्शन ! और ऊपर से लंगर का समय ! लगता है ऊपर जरुर कोई मुस्करा कर अपना आशीर्वाद हम पर बरसा रहा है…ज़हे नसीब !!!

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हिमाचल डायरी : रेणुका जी झील और पाँवटा साहेब की तरफ… भाग 4

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झील शब्द तो स्वयम में ही स्त्री लिंग है, इसलियें रेणुका नाम तो अपेक्षित है, परन्तु पूरे रास्ते भर हमे जो भी साइन बोर्ड दिखे, सभी पर झील का नाम रेणुकाजी लिखा हुआ है, हमे आश्चर्य तो है, परन्तु इससे एक अंदाजा भी लग जाता है कि सम्भवतः इसका कोई धार्मिक कारण अवश्य होगा, परन्तु इसके मिथकीय इतिहास से अभी तो हम सर्वथा अनभिज्ञ हैं, हमने तो केवल इतना भर सुना था कि इसकी आकृति एक लेटी हुई महिला सरीखी है और इसके काफी बढ़े हिस्से पर कमल के फूल खिलते हैं |

इधर हमारी यात्रा जारी है और अब जिस जगह पर पहुंचे हैं, वह परशुराम और रेणुकाजी का मन्दिर है | एक ही प्रांगण में रेणुकाजी के मन्दिर के साथ ही परशुरामजी का मन्दिर…, मस्तिक से स्मृति का धुंधलका मिटने लगा, याद आया कि रेणुका जी तो परशुराम की माता जी थी, कुछ हमने याद किया, कुछ इस मन्दिर से पता चला, तो कुल मिलाकर जो जानकारी इकट्ठी हुई, उसका सार कुछ इस प्रकार है-

हिमाचल के इसी पर्वतीय क्षेत्र के जंगलो की कंदराओं में ऋषि जमदग्नि अपनी पत्नी रेणुका के साथ एक आश्रम में रहते थे | असुर सहसत्रजुन की नीयत डोली और ऋषि पत्नी रेणुका को पाने की अभिलाषा में उसने ऋषि जमदग्नि का वध कर दिया | रेणुका ने अपने सत की रक्षा और दुष्ट असुर से बचने हेतु स्वयम् को जल में समाधिष्ठ कर लिया, बाद में परशुराम और देवतायों ने असुर का वध किया, और ऋषि व रेणुका को नव जीवन दिया और फिर ठीक उस जगह से एक जल धारा फूटी जिससे इस झील का निर्माण हुआ | मिथक कुछ भी हो, परन्तु आस पास के क्षेत्र के निवासियों में इस जगह का धार्मिक महत्व है और वह इस दंत कथा को मानते भी हैं इसका सबसे बढ़ा ज्वलंत प्रमाण तो यह ही है कि स्थानीय निवासी जब इस झील में नौका विहार के लिये जाते हैं तो अपने जूते-चप्पल किनारे पर ही उतार देते हैं |

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हिमाचल डायरी : दो पल के जीवन से… (Sirmour, Camp Rox)

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कुछ क्षण पहले तक जिस स्थान पर हमारे बीच मौन का साम्राज्य था वहाँ अब चुहलबाजी शुरू हो गयी है | जल में डूबे और उभरे पत्थरों पर बड़े ध्यान से पाँव जमा जमा कर, जगह बनाते बनाते तीनो इधर से उधर जा रहे है | नदी का ठंडा पानी, सुबह की शाँत, नीरव और पवित्र शान्ति और इस सबके बीच जिन्दगी की ख़ुशी और किलकारियाँ, शायद इससे बेहतर एक नये दिन की शुरुआत की परिकल्पना आप नही कर सकते !
कैम्प में लोग जाग रहे हैं, सुबह की चाय बन चुकी है, चाय की चुस्कियों के बीच टीवी पर समाचार चल रहे है कि यहाँ वहाँ पहाड़ो पर भारी बरसात जारी है और भूस्खलन से 50 से ज्यादा जाने जा चुकी हैं, तो उधर मैदानी क्षेत्रों में यही पानी बाढ़ का प्रकोप धारण कर तबाही मचा रहा है | इधर, इस हाल में जितने लोग हैं उनकी बातचीत का केंद्र भी यही परिस्थितीयां हैं | एक समूह इस बात से चिंतित है कि उन्हें आगे नारकंडा जाना था और कहीं अगर बीच राह में इस भूस्खलन की वजह से मार्ग ठप्प मिले तो ? बहरहाल, चाय के बाद अब समय है नहां धोकर तैयार होने का, जिससे दस बजे तक सब नाश्ते के लिये तैयार हो जायें | आज नाश्ते में आलू के परांठे, ब्रेड-जैम, उबले अंडे और चाय है | नाश्ते के बाद का समय एक्टिविटीज के लिए नियत है | ग्यारह बजे के लगभग, जो भी गेस्ट इसमे रुचि रखते हैं, एक नियत स्थान पर एकत्रित होना शुरू हो जाते हैं | जहाँ पहले सबको सुरक्षा उपकरणों पर एक डेमो दिया जाता है, और फिर एक के बाद एक पाँच ऐसी एक्टिविटीज हैं जिन से सभी प्रतिभागी गुजरते हैं, दो एक्टिविटीज शाम को चार बजे करवाई जायेंगी | एक्टिविटीज पूरी होने पर जलजीरा का पेय हाजिर है, जिसकी एक एनर्जी ड्रिंक के तौर पर सभी को बहुत आवश्यकता भी थी |

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हिमाचल डायरी : दो पल के जीवन से…  (Sirmour सिरमौर – भाग 2)

हिमाचल डायरी : दो पल के जीवन से… (Sirmour सिरमौर – भाग 2)

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शाम के छह साढ़े छह बजे का समय चाय का नियत है, कुछ मेहमानों के पास अपनी निजी, और कुछ कैम्प वालों के पास, कुल मिलकर इतनी छतरियां है कि सभी एक एक करके हाल में पहुँचते है | इस तरह के आयोजन का सबसे बड़ा लाभ यह है कि आप केवल अपने खोल में ही सिमटे नही रहते बल्कि अजनबी लोगो से मुलाकात होती है, कुछ नए दोस्त बनते है मोबाइल नम्बर भी लिए दिए जाते है और फिर एक दुसरे के सम्पर्क में रहने के वादे इरादे भी! यूँ तो ज्यादातर लोग गुडगाँव और दिल्ली के ही है, शायद इन्ही जगहों पर सबसे अधिक रोजगार के साधनों का सृजन भी हुआ है जिसकी वजह से देश विदेश से हजारो लोग अपने परिवेश को छोड़ कर इन शहरों में आये है, जिसकी वजह से एक नवधनाढ्य मध्यम वर्ग का उदय हुआ है, जो 1990 से पहले की भारतीय अर्थव्यवस्था में अनुपस्थित था | और, फिर ऐसे छुट्टी के अवसर पर दो चार दिन अपने PG में पड़े रहने से, या माल में घूमने से बेहतर है कि इस तरह का पर्यटन ही कर लिया जाये | एक बड़ा सा ग्रुप ऐसे ही लडके लडकियों का है, मगर वो अपनी ही दुनया में मगन है, उन सब की काटेज आस पास ही है, सो उनका अड्डा वहीं जमा रहता है | अपने ही म्यूजिक सिस्टम पर वो गाने लगा लेते है और नाचते रहते है | अपनी गिटार भी है, कभी कभी उस पर भी खुद ही गुनगुनाते रहते हैं, लडके हों या लडकियाँ, सिगरेट और शराब के शौक़ीन है और कैम्प के सहयोग से उनकी अनवरत सप्लाई उनके लिए चालू है | एक दूसरा ग्रुप दस लोगों का, दिल्ली से है, जो एक ही स्कूल से सन नब्बे के पास आउट है, और अब सभी अलग अलग कार्य क्षेत्रों में सलिंप्त है | मगर उल्लेखनीय बात है कि वो आज भी एक दूसरे के सम्पर्क में है | और, कभी कभी उन साथ बिताये गये अपने उन गुजरे लम्हों को याद करने के लिए, अपने परिवारों से अलग ऐसे प्रोग्राम बनाते रहते है | दिल्ली से हैं, और अधिकतर पंजाबी हैं, सो शुरूआती संकोच के बाद जब खुलते हैं तो फिर इतना खुल जाते हैं कि आप उनकी शाम की महफ़िल में ही अपने आप को जाम उठाये पाते है |

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हिमाचल डायरी : दो पल के जीवन से… (Sirmour सिरमौर – भाग 1)

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कांगो जोहड़ी में ही मुख्य सड़क से लगभग चार किमी नीचे की उतराई पर कैंप रोंक्स हमारी मंजिल है | हमे रास्ता दिखाने रिसोर्ट की तरफ से अपनी इनोवा गाड़ी लेकर सौरभ ( इस कैम्प के मालिक का बेटा} आया है और अब हमे इस कच्ची और पथरीली सडक पर बिना किसी सुरक्षा व वाले रास्ते पर जाना है | इस सडक पर गाड़ी बढ़ाते ही लैंसडाउन के हिल व्यू शांति राज रिसोर्ट की याद ताजा हो आई | बिलकुल वैसी ही सड़क मगर रास्ता उससे भी एक किमी और ज्यादा लम्बा, ऊपर से बारिश और गाड़ियों की लगातार आवाजाही के कारण बीच बीच में पानी के पोखर से बन गए हैं जिनमे से गुजरते डर लगता है कहीं आप की गाड़ी का पहिया न फँस जाये, मगर इसके सिवा कोई और चारा भी तो नही | नास्तिक पता नही कैसे इन लम्हों से पार पाते होंगे, मगर हम तो राम राम और वाहेगुरु वाहेगुरु करते और फिर से एक बार ये सोचते हुये कि  इस बार तो यहाँ आ गए अगली बार किसी ऐसी जगह नही आना, पिछले कुछ सालों से इसी तरह से अपने डर पर काबू पाते आ रहें है | रिसोर्ट की इनोवा आगे आगे चल रही है और पीछे पीछे हम मगर अभी तक तो रिसोर्ट का नामो निशाँ ही नही | मगर फिर दूर नीचे घाटी में पानी की कुछ टँकियां नजर आती है तो मन में आशा की एक नई लहर का संचार होता है जब इतना पहुँच गए तो वहाँ भी पहुँच ही जायेंगे और फिर हमसे आगे तो इनोवा है | हालांकि प्रकृति वही है और प्रकृति के नजारे भी, मगर अब जल्दी पहुँचने की हसरत में इसे भोगने का कोई इरादा नही, अन्यथा आप कहीं भी अपनी गाड़ी रोक कर यहाँ घंटो गुजार सकते हैं | परन्तु चाहत अब यही है कि बस अब ये रास्ता किसी तरह जल्दी से कट जाये |

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प्रताप गढ़ फार्म , झज्झर

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आप का तो निश्चित है कि सुबह वाली गलती नही दोहराएंगे, मगर बच्चे तो अपने मन की मर्जी के मालिक ठहरे, अत: उन्होंने उस मेन्यु को चुना जो उत्तर भारतीय शादियो में बहु-प्रचलित भी है और हिट भी | चाऊमिन के भारतीय संस्करण से लेकर दाल मक्खनी और शाही पनीर तक, मगर अपने राम ने तो निश्चित किया है, हम तो आज जीमेंगे उस खाने पर, जिसका स्वाद हम शहरी जिन्दगी की इस अंधी भागदौड़ में कहीं पीछे छोड़ चुके हैं, और यदि चाहें भी तो हमारी आज की डिज़ाइनर रसोइयाँ में न तो देसी चूल्हे के लिये कहीं कोई प्रावधान हो
सकता है और न ही हमारी आज की शरीके-हयात उन्हें बना सकती हैं| सो, चूल्हे की हल्की आँच पर सिकी मकई और बाजरे की देसी घी में तरबतर रोटी, साथ में लहसुन की चटनी और बनाने वाली हमारे गाँव देहात की ही कोई ग्रहणी, न कि कोई व्यवसायिक कारीगर, जैसा कि आप आजकल की शादियों में या फ़ूड फेस्टिवल में पाते हैं | वहाँ आप ऐसा खाना पा तो सकते हैं पर वो होता रस विहीन ही है, ये हमारा व्यक्तिगत अनुभव है कि जब तक खाने में अन्नपूर्णा के हाथ न लगें हों आपको तृप्ति नही हो सकती | जी भर इसके रसावादन के बाद मीठे के शौकीनों के लिये बाजरे की खिचड़ी बूरा उकेर कर और साथ में गर्म गर्म ढूध जलेबी | ऐसा खाना वास्तव में आपके केवल पेट को नही वरन आत्मा तक को भी तृप्त कर देता है | भले ही इस जगह के आस-पास की महिलायें चार पैसे कमाने और अपने परिवार को कुछ आर्थिक सहयोग प्रदान करने के लिये इस फार्म में रोज़गार पा लेती हैं मगर इसका सबसे बड़ा सकारात्मक पक्ष ये है कि यूँ लगता है कोई आपकी परिचित ही आपको प्रेम से बैठा कर खिला रही है, आपके किसी भी गुण का उपयोग कहीं भी हो आखिर काम तो काम है और हमारे जैसे और भी जो इस देशी खाने के शौक़ीन हैं, पूरी मोहब्बत और खलूस के साथ खा रहे हैं | आप को सबसे अच्छा यह देख कर लगता है कि नौजवान पीढ़ी के जो लडके-लडकियाँ भी यहाँ आये वो इन महिलायों को पूरे सम्मान के साथ आँटी-आँटी कह कर बुलाते रहे और थैन्कू थैन्कू कर जाने से पहले फोटो खिंचवाना न भूलते…. आखिरकार परम्पराएँ भी कोई चीज़ हैं…. That is why I love my India!!!

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एक यात्रा ऐसी भी… पीरान कलियर, पुरकाजी और रुढ़की का सफरनामा

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समय की सुईयां,  अपनी रफ़तार से आगे सरक रही हैं, अत: रात मे एक बार दुबारा से लौटने का वादा कर, पुरकाजी से विदा लेकर हम रूढ़की की तरफ बढ़ चले | रूढ़की शहर पार करके हरिद्वार की तरफ लगभग 24 किमी दूर पीरान कलियर गाँव पड़ता है जो यदि हरिद्वार की तरफ से आया जाये तो वहाँ से 12 किमी के आसपास है | सब कुछ ठीक चलते चलते अचानक ही हमारी गाड़ी की अगली खिड़की के पावर विंडो ने काम करना बंद कर दिया | सारे यत्न करके देख लिये, शीशा बीच में ही अटका पढ़ा था, फौरन रूड़की शहर वापिस लौटकर एक कार मैकेनिक को ढूँढा, जिसने अगले दरवाजे की सारी पैकिंग वगैरह खोल कर, सिद्ध किया कि इसका प्लग खराब हो गया है, अब ये तो बड़ा और झंझट का काम था, मगर उसने किसी तरह शीशा ऊपर चढ़ा दिया और कनैक्शन हटा दिया, जिससे कोई गलती से शीशा नीचे ना कर दे, क्यूंकि शीशा एक बार नीचे उतर कर ऊपर नही जा पाता | बहरहाल, चलताऊ काम हो गया, मगर इस सब में एक महत्वपूर्ण घंटा निकल गया | लेकिन अब हम निश्चिंत होकर अपनी कार कहीं भी खडी कर सकते थे | इस अकस्मात हुये अवरोध की वजह से हमारे पीरान गाँव पहुंचते-पहुँचते, शाम की धुंधिलका छानी शुरू हो गयी थी, अब समर समय के साथ भी था, अत: रुकने की जगह सब कुछ जल्दी जल्दी करना था | तमाम तरह के झंझावातों से पार पाते हुये, आखिरकार गौधूली की  बेला में हम इस गाँव में पहुंचे | बिल्कुल साधारण सा गाँव है, यूपी के तमाम दूसरे गाँवों की तरह ही, तरक्की से बिल्कुल अछूता, गाँव में अंदर की तरफ जाती कच्ची-पक्की सढ़क और दूर तक फैला मिटटी का मैदान | हाँ, गाँव के प्रवेश स्थान पर पत्थर का बना एक बड़ा सा गेट, इस गाँव की कुछ विलक्षणता की मुनादी सा करता प्रतीत होता है, मगर इतना समय नही निकाल पाये कि चंद पल रुक कर, इस गेट की फोटो उतार पाते, क्यूंकि जंग अब घड़ी की सुईओं के साथ भी थी, और इधर शाम अब अपना सुरमई रूप बदल, कालिमा की तरफ़ बड़ने को अग्रसर थी | अत: फोटो का मोह छोड़ सीधे इमाम साहब की खानकाह में सजदा करने पहुंचे | ऐसी रवायत है कि हजरत साबिर अली की दरगाह पर दस्तक देने से पहले इमाम साहब और शाह बाबा की दरगाह पर हाजिरी भरनी पडती है, और दोनों जगहें एक दूसरे से लगभग 2 किमी की दूरी पर हैं | पहले हमने यहीं इमाम साहब की दरगाह पर अपना सजदा किया और अपनी मन्नत का धागा बाँधा | बाहर सेहन में कितने ही धागे और अर्जियां लोग अपनी मनोकामनायों की पूर्ती हेतु बाँध गये थे |

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आमेर दुर्ग : चल खुसरो घर आपने….

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राजस्थान पर्यटन विभाग की तरफ से यहाँ आपको सपेरे, शहनाई वादक और सारंगी वादक बजाने वाले, कई लोक कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते भी मिल जायेंगे, हालांकि पहली नज़र में आपको ऐसा लग सकता है, कि यह सब पर्यटकों के मनोरंजन और उन्हें आकर्षित करने के लिये है, और इस से राजस्थान की संस्कृति झलकती है, लेकिन यदि आप जरा गौर से सोचें तो आपको इसके पीछे की सोच और मानसिकता पर हैरानी ही होगी | मेरी अपनी समझ से, इस सबका कुल मनोरथ यहाँ आने वाले उन यूरोपियन पर्यटकों के दिलों में बसी हिन्दुस्तान की उस छवि को पुख्ता भर करने से ज्यादा और कुछ नही है, जिसके वशीभूत वो आज भी हिन्दुस्तान को सपेरों, जादूगरों और मदारियों का देश ही समझते हैं, उनकी इन मान्यतायों और पूर्वाग्रहों को सच साबित करने के लिये ही, ऐसे कलाकार यहाँ बैठाये जाते हैं, जिनके साथ आप फोटो खिचँवा कर जब वापिस अपने देश पहुँचते हैं तो वहाँ के समाज को ऐसे चित्र दिखा कर साबित कर सकते हैं कि वास्तव में ही भारत आज भी उस दौर में ही है, जैसा कभी हमारे पूर्वज छोड़ कर आये थे ! इन सबके अलावा, इस दुर्ग में ही अलग-अलग दिशायों में खुलने वाले प्रवेश द्वारों में से त्रिपोलिया दरवाज़ा सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है, क्यूंकि यहाँ से तीन जगहों के लिये रास्ता निकलता है, जिनमे से एक रास्ता आमेर शहर की तरफ भी है |

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अज़मेर : अकथ कहानी प्रेम की…

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ऐसे ही एक सूफी दरवेश हुए हज़रत मोईनुद्दीन चिश्ती, जिनका जन्म 12वीं सदी का माना जाता है. वो पूर्वी ईरान से अजमेर में आकर बसे | अज़मेर, जयपुर से करीब 135 किमी दूर, एक पुराने इतिहास का शहर… ऐसा माना जाता है कि राजा अजयमेरु ने 7वीं शताब्दी में इस शहर का निर्माण करवाया था, अरावली की पर्वत माला में स्थित ये शहर सदियों से अपनी संस्कृति के लिए जाना जाता रहा, और 12वीं शताब्दी तक आते-आते इसका नाम अजमेरू से होता हुया अजमेर हो गया |

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चोखी-ढाणी, पुलिया और राम-राम सा का देस: जयपुर

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बात जब सड़क की हो रही है तो ट्रेफ्फिक और पुलिस की भी कर लें, यूँ लगता है जैसे जयपुर का सारा पुलिस अमला केवल परिवहन की व्यवस्था के लिए ही जिम्मेदार हो ! और ऐसे में यदि आपकी गाडी की नम्बर-प्लेट हरियाणा की है तो सावधान रहिये ! सीट-बेल्ट, मोबाइल पर बात करना, रेड लाइट पार कर जाना… भले ही आपके आस-पास से राजस्थान की अनेक गाड़ियाँ निकल जाएँ पर रोका केवल आपको ही जाएगा ! जयपुर में ऐसे बहुत से खट्टे-मीठे अनुभव हुए और कई बार तो ना चाहते हुए कुछ समझौते भी करने पड़े, एक तो पराया शहर, ऊपर से गाड़ी किसी और की… अपना शहर हो तो झेल भी लें पर यहाँ… समय की भी बंदिश है, परिवार भी साथ है, और इस कमज़ोर नस को हमारे भाई लोग भी बखूबी पहचानते हैं… एक बार तो थक हार कर एक हवलदार से तंज़ भी करना पड़ा, यूँ तो कहते हो ‘पधारो म्हारे देस’ और जब कोई सचमुच पधार ही जाये तो सारे मिलकर उसे लूटने में ही लग जाते हो…. बहरहाल ये बातें तो देश के हर हिस्से में हर किसी के साथ घटती ही रहती हैं, तो आइये अब आगे बढ़ते हैं…

चलिए ऐसा करते हैं, ज़रा शुरू से शुरुआत करते हैं, सोमेश एक छोटे भाई के अलावा एक बेहतरीन मेहमान नवाज़ भी निकला और साफ़ कह दिया कि बिना नाश्ते के नही जाना, दो-दो भाभियाँ हैं मिलकर बना लेंगी बाकी दिन भर आप जो मर्जी खाते रहना और फिर उसने हमे एक कागज़ पर घूमने की जगहों के अलावा उन सभी मशहूर जगहों और खान-पान के ठिकानों का पता भी दे दिया जो जयपुर में अपनी विशिष्टता रखते हैं ! इनमे से सबसे बेहतरीन था ‘स्टेचू सर्कल’ पर रात को क़ाफ़ी पीते हुये ‘हैंग आउट’ करना, जिसे आप जयपुर का मिनी इंडिया-गेट भी कह सकते हैं | सवाई जय सिंह का बुत लगा यह चौक स्थानीय तथा पर्यटकों के लिये एक प्रमुख आकर्षण का केंद्र है |

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लैंसडाउन : मिट्टी की सौंधी खुशबू समेटे गाँव का तीर्थाटन

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मेरे पिताजी ने अपनी CPWD की नौकरी के दौरान कुछ समय जोशीमठ से आगे ओली में गुजारा था और वो वहाँ ITBP के कैम्प में रुकते थे, दरअसल उन्हें वहाँ कुछ सरकारी भवनों के निर्माण से सम्बन्धित कार्य करवाने होते थे और उनकी मदद के लिये स्थानीय मजदूर, खलासी और बेलदार का काम करते थे जो उनका सामान इत्यादि लेकर चलते थे तथा अन्य कार्यों में भी मदद करते थे, उनसे अपनी बातचीत को वो अक्सर हमसे साझा करते थे, कुछेक जुमले जो स्थानीय लोग सुनाते थे, और आज भी मुझे याद हैं, वो कुछ इस प्रकार से थे कि “पहाड़ का वासा, कुल का नासा”, और, “जो नदी के किनारे बसते हैं, नदी उन्हें बसने नही देती” और यदि उन बातों को फिलहाल में केदारनाथ में हुई भयंकर आपदा के परिपेक्ष्य में देखें तो ये मानना ही पड़ेगा कि अपने क्षेत्रों की जटिल परिस्थतियों को वो ही बेहतर ढंग से जानते-समझते है |

मैं अपने इस आलेख में ऐसा कोई दावा नही करने जा रहा कि मुझे इन गाँवों के बारे में कोई जानकारी है या मै उनकी रोजमर्रा की दुश्वारियों को दूसरों की अपेक्षा अच्छी तरह समझता हूँ | अपितु मेरा तो ये आलेख ही स्वयम अपने आप पर ही तंज़ (व्यंग्य,कटाक्ष) है कि एक बार की चढ़ाई-उतराई ने ही हमारी ये हालत कर दी कि उसके बाद काफ़ी समय तक रुक कर आराम करना पड़ा | वस्तुतः मै इस आलेख के माध्यम से उन क्षेत्रों के वासियों और खास तौर पर महिलायों के जज्बे और उनकी हिम्मत को अपना नमन करता हूँ जो कि अपनी घर-ग्रहस्थी के अलावा बाज़ार के कामों और अपने जानवरों को भी सम्भालती हैं, जिन रास्तों पर चलते ही हमारी सांस फूल जाती है, वहाँ वो अपने सर पर घास के गटठर या जलावन के लिए लकड़ियाँ उठाये, बिना किसी शिकायत के चलती रहती हैं, वो बच्चे भी दाद के हकदार हैं जो अपने स्कूल तक पहुंचने के लिए कई-कई किलोमीटर इन कच्चे-पक्के रास्तों से गुजरते है, जिनमे कई पहाड़ी नदियाँ भी आती है और जंगली जानवरों का खतरा भी हरदम बना रहता है, पर वो अपने अदम्य साहस और मजबूत जिजीविषा के बलबूते सारी विपरीत परिस्थतियों के बावजूद अपने हौसले को बनाये रखते हैं |

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