11 Nov

Talakadu – Town of Lost Temples

Talakadu – Town of Lost Temples

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A town with an atmosphere rich in history, mythology, religion, belief and faith with the river Cauvery quietly flowing agelessly, a witness to the rise and fall of several kingdoms, to the fervent prayers and resonant chants of devotees, to the happiness and sadness in their hearts and to the progress of human civilization over time.

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Trip to Bhutan – Road trip from Siliguri to Thimpu

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It was getting dark so without wasting time, just after a cup of tea, we set off to experiment the capital street with a look-see walk. The street was clean and lined by weeping willow trees that looked very nice. The buildings were Bhutanese style architecture that had four to five storey. We walked through light drizzle along the stone paved sidewalk. Surprisingly a melodious and rhythmic Western music filled the air; the source of the melody was a small open air stand that was extension of the main street. It looked quite unusual to see Bhutanese boys in traditional dress playing and crooning Western Tuned Bhutanese songs. A group of about 100 young men and women, gathered around the band stand were gyrating with the melody and rhythm of the music. All were wearing Bhutanese traditional dress, no jeans, pants and skirts. The dress code is strict; men wear “Gho” a kimono like knee length gown type of dress, tied by a long kamarbandh with long shocks and shoes. Women’s dress is called, “Kira”, an elegant wrapped around skirt like with a check or brocade jacket for the top. Both Tibetan and Bhutanese dress is alike except for few variations. There is also the marked difference in the material used in Bhutan. Whereas Tibetan men and women fancy any type of clothing materials for their “Bakkhu”, Bhutanese use only the traditional and colorful Bhutan made check cloth material for their “Gho” and “Kira”.

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Toronto – Royal Ontario Museum (ROM)

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In the visitors guide we can find special mention of “ICONIC must see treasures of the ROM” of each level. Thus one can not miss the special display. We took almost 01 hour to complete level 1 itself. As usual we got tired and hungry so we went to Café at ROM.We were sure that we will not get anything vegetarian to eat and may be we have to returned with just eating French fries.

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एक जिन्दा-दिल शहर मथुरा !!!

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भीड़-भढ़क़का, छोटी और तंग सड़कें, यहाँ-वहाँ पड़े कूड़े के ढेर, घंटो बिजली का गुल होना, मगर सब जाने दीजिये… ये शहर जिन्दा है क्यूंकि इस शहर की जिन्दादिली इसके लोग हैं, एकदम मस्त खुशगवार और धार्मिकता से औत-प्रोत… शहर में चप्पे-चप्पे पर छोटी-छोटी हलवाई की दुकाने |ढूध, दही, लस्सी और अपने विश्वविख्यात पेड़ों के अलावा ये शहर तो कचोडी और जलेबी की दुकानों से भी अटा पड़ा है| हर दस कदम पर ऐसी ही कोई छोटी सी दूकान… और खाने वालों की भीड़! ऐसा नही की खाने वाले सभी पर्यटक या तीर्थयात्री होते हैं, बल्कि हर जगह हमे स्थानीय लोग ही इन दुकानों पर मिले… और एक मजेदार बात, यहाँ अधिकांश दुकानों पर बैठने की सुविधा भी नही है…..बस पत्ते के कटोरे में कचोडी लीजिये या समोसा, उस पर आलू का बिना हल्दी का झोल, साथ में पेठे की कुछ मीठी सी सब्जी… जो चटनी का काम भी करती है, और यदि मीठे की इच्छा हो तो वो भी इसी तरह के दोने में| देखिये ये शहर तो पर्यावरण का भी कितना ख्याल रखता है, और अपने कुटीर उद्योगों का भी ! और चाय, लस्सी या दूध के लिए मिटटी के कसोरे(कुल्हड़), या जो भी आपके षेत्र में इनका नाम हो, हाजिर हैं ! दुर्भाग्यवश हम शहर वालों को ये नेमतें सिर्फ किसी अच्छी शादी की दावत में ही मिल पाती हैं| खैर हमारे लिए तो ये एक मजाक का सबब बना रहा कि शायद यहाँ कोई घर का खाना ही नही खाता, क्यूंकि घर पर बनाने से हैं भी किफ़ायती… दस से बारह रूप्पिया में दो कचोडी और साथ में आलू का झोल तथा पेठे की सब्जी. पांच रुपए में एक बड़ा सा जलेबी का पीस! बीस रूपये और खर्चो, तो कुलढ़ में ऐसी गाडी लस्सी कि उसके आगे हल्दीराम और बीकानेर वाला भी पानी मांगे !!!तीस- पैंतीस रुपल्ली में ऐसा नाश्ता, हम एनसीआर में रहने वालों के लिए तो सपना ही था| मजा आ गया भई मथुरा में तो ! वैसे, यहाँ के किसी होटल वगेरा में यदि आपको सब्जियां कुछ मीठी सी लगे तो हैरान मत होईएगा, क्यूंकि यहाँ गुजरात से बड़ी संख्या में तीर्थयात्री आते हैं, जो ऐसा खाना ही पसंद करते है | सडकों पर जगह-जगह बिकता ढोकला भी मथुरा में गुजराती लोगों की आमद को दर्शाता है… और वैसे भी मथुरा और द्वारिका दोनों कृष्ण से जुड़े हैं | अतः गुजरात में भी कृष्ण जी की वही धूम है जो उत्तर प्रदेश में! पुराणों में कृष्ण को सोलह कला परिपूर्ण बताया गया है जो कि किसी भी अवतार के लिए सर्वाधिक है, ऐसे में कान्हा और उनसे जुड़ा शहर कुछ तो अधिक मधुर होगा ही…

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Burha luit tumi Burha luit buwa kiyo?

Summer Vacation: A beautiful river and a few Necklaces – IV

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These are some of the places of Kolkata, which you may like to visit if you travel to the city. There are good and there will be bad things in any city. There are plenty of examples or perception to believe the city is not worth a visit or a second look. Whatever I find attractive, may not be as attractive to you. Everyone has their own rights to judge things differently. However, there are so many places around in any city, not in Kolkata alone, to come and explore.

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Garden of Five senses: A Journey with Joy

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A sunny February day (13th Feb, 2013), we decided to visit and reached there around 12 noon. Took our tickets along with car ride tickets… started our journey with a 20 min battery car ride to every corner of the garden, it helped us from where we can start.

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ढेला (कॉर्बेट) से मरचुला की मस्ती का सफ़र (भाग – 2)

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पानी इतना साफ़ था की नीचे के पत्थर साफ़ चमक रहे थे। इतनी छोटी सी जगह पर इतना आनंद भी लिया जा सकता है, सोचा न था। धूप धीरे धीरे हलकी हो रही थी और पानी भी अब ज्यादा ठंडा लगने लगा था इसलिए सोचा कि अब यहा से चलना चाहिए। इसी बीच मनमोहन दो तीन बार पानी से निकला तो हर बार एक मच्छर उसको काटता था और वो चिल्लाता था और गालिया देता था। हम सब हँसते थे कि मच्छर को गोरी चमड़ी पसंद आ रही है लेकिन अब जैसे ही हम सभी पानी से बाहर निकले तो उस मच्छर ने मेरे पैर मे बहुत तेज काटा, अब चिल्लाने की बारी मेरी थी और हसने की मनमोहन की। खैर हमने जल्दी जल्दी कपड़े पहने और वहा से बाहर की और चल दिए।

पानी मे इतनी देर रहने के बाद अब काफी थकान महसूस हो रही थी इसलिए प्रदीप को भी बोला कि अब सीधे गेस्ट हाउस चले लेकिन उसने रास्ते मे गाड़ी एक लम्बे से ब्रिज के सामने रोक दी। जगह अच्छी थी लेकिन अब रुकने के मन ही नहीं था लेकिन फिर भी उतर गए की कुछ फोटो ही खीच ले। उतरने पर देखा कि वो केंद्रीय जल आयोग से सम्बंधित था। हम वहा पाँच दस मिनट ही रुके और फिर वापिस चल दिए। वापिस आते हुए हम मोहान से थोड़ा आगे ही निकले थे कि देखा वहा बहुत भीड़ थी, हम भी गाड़ी से बाहर आ गए तो पता चला कि हाथी का बच्चा झाड़ियो मे उलझ गया है, सड़क के एक तरफ जंगल ही था और उसमे थोड़ा सा अन्दर ही वो बच्चा फसा हुआ था और उसके पास हाथियों का पूरा झुण्ड था, उनको देखने के लिए ही वहा भीड़ जमा थी। लोग हाथियों को परेशान कर रहे थे और बार बार अन्दर जा रहे थे जो कि खतरनाक था अगर एक बार हाथी पीछे भाग लेते तो भगदड़ मच जाती। हाथियों ने बच्चे को झाड़ियो से छुड़ा लिया था लेकिन वो वही थे। हम लोगो ने वहा से निकलना ही सही समझा। रास्ते मे हमने रामनगर से जरूरी सामान ख़रीदा और वापिस गेस्ट हाउस की और चल दिए।

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ढेला (कॉर्बेट) की मस्ती और रोमांच

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हमें घुमते हुए वहा के गार्ड ने बोला कि सर यहाँ से बाहर मत जाइएगा, इस चारदीवारी की अन्दर ही रहना और पीछे के रास्ते से तो बाहर निकलना ही मत। हमने पुछा कि यहाँ भी डर है क्या तो उसने बोला साहब जी एक शेर तो रोज ही पीछे वाले रास्ते से जाता था और हाथी तो कई बार इन खेतो मे घुस चुके है। जोश मे तो थे ही तभी सोच लिया कि खाना खाकर एक चक्कर तो लगायेगे बाहर का। हम जल्दी से डाइनिंग रूम मे पहुचे, खाना तैयार था, दाजू ने तुरंत लड़को को परोसने का आदेश कर दिया। खाना मजेदार था। खाना खाकर हम वापिस कमरों मे आ गए और दाजू को भी अन्दर आने के लिए बोला। अन्दर आने पर हमने पूछा कि बाहर कहा तक जाया जा सकता है। वो पक्ष मे नहीं थे लेकिन हमने भी बोला कि हम अन्दर जंगल मे नहीं जायेगे सिर्फ बाहर सड़क तक तो जा सकते है और वैसे भी गाड़ी से बाहर तो निकलना नहीं था। । तब जाकर वो तैयार हुआ।

बारह से ज्यादा का समय हो रहा था और हम बाहर गाड़ी मे बैठे थे। आधा घंटा हम सड़को पर गाड़ी दौड़ाते रहे। वहा पेड़ो के बीच कच्चा रास्ता था जो दिन मे शोर्टकट के रूप में प्रयोग होता था, उस रास्ते से जब निकले तो रोंगटे खड़े हो गए बिलकुल सुनसान, सड़क भी कच्ची, डर लग रहा था कि अगर गाड़ी फस गयी तो निकालनी मुश्किल हो जायेगी क्योकि छोटी गाड़ी थी, अँधेरे मे हिरनों के झुण्ड भी दिखे जिनकी सिर्फ आखे चमक रही थी। वो अभी तक के सबसे यादगार और रोमांचक क्षण थे, शायद ऐसा रोमांच कभी जंगल मे भी नहीं आया था। प्रदीप का मन तो वापिस आने के लिए कर ही नहीं रहा था। एक बजे हम वापिस आये तो थोड़ी देर कमरों के बाहर ही बैठ गए कि कल कहा जाए। जिम कॉर्बेट के बिजरानी गेट से तो प्रवेश मिल सकता था लेकिन जो जानवर अन्दर दिखते थे वो बाहर ही दिख गए थे फिर ऐसा रोमांच भी हो गया था। इसलिए चार हजार रूपये खर्च करना अक्लमंदी नहीं लगी। प्रदीप ने बोला कि सर कल मे आपको मरचुला लेकर चलूगा, आपको जगह पसंद आएगी। मरचुला के बारे मे हमने कभी सुना नहीं था लेकिन कही तो जाना था इसलिए वही सही। जगह पक्की हो गयी तो हम भी अपने कमरों मे आ गए सोने के लिए।

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