Rajasthan

The state of Rajasthan is a blend of the traditional and the modern, with somewhere a medieval ambience still lingering on. The heritage monuments and traditional costumes rub shoulders with modern infrastructure and luxuries. Jaipur, the capital of Rajasthan is known as ‘The Pink City’ and is a treasure house of palaces, fortresses, monuments, museums, temples and gardens. The lakeside city, Udaipur, set in a valley surrounded by lush hills, is famous as ‘The Venice of the East.’ Jaisalmer situated in the heart of the Thar Desert, has a massive fort in yellow sandstone while Jodhpur lies at the foot of the soaring Mehrangarh fort. Jodhpur, Chittaurgarh, Bundi, Bikaner and Bharatpur all have a long and colourful history resounding with sagas of valour and heroism.
The Dargah of the Sufi saint Khwaja Moinuddin Chishti, at Ajmer, Brahma Temple at Pushkar and the stunning Jain temples at Ranakpur and Mt. Abu are holy places in Rajasthan.
Rajasthan’s nature reserves cover a broad spectrum with habitats ranging from the verdant and hilly Mt. Abu to the arid desert wastes of Thar. Some of them are Sariska Tiger Reserve, Desert National Sanctuary, Sambhar Salt Lake, Ranthambhore National Park and Bharatpur Bird Sanctuary. Rajasthan is well connected on the vast network of Indian railways and connected by well-maintained National Highways to its neighbouring states. The cities of a Jodhpur, Jaipur and Udaipur have airports. The best time to visit Rajasthan is during the winter months from October to March.

Ride to Rajasthan – Ahmedabad to Udaipur

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Last night I and all of us had switched off all alarms and put our phones on silent, as we could not afford any disturbance…. 08:00 am … oh … we need to get ready to move ahead, we were still 260 kms from Udaipur … but on second thought, we had covered 700 kms on day 1 … so 250 kms …. Huh … EASY !!! BUT …. Yeah … the but’s of the second day start …

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Ride to Rajasthan- Pune to Ahmedabad – Day 1

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We were all there, ready to rock n roll, and lined up for a photograph at the starting point … when to our horror, the Armed guard from the cantonment came running towards us …. “hey … yahan photo kheechna mana hai” (photography is not permitted here), we could not take panga with the armed forces and we like good citizens of the country started our machines … and with a roar of 4 RE, 1 Honda CBR, 5 pulsars moved from Rakshak Chowk. The Ride to Rajasthan Had officially started!!!

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Nathdwara-Bagaur Haveli-Return from Udaipur

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उदयपुर अपनी जिन झीलों के कारण विश्व प्रसिद्ध है उनमें फतेह सागर झील भी एक है। अगर आप सोच रहे होंगे कि फतेह सागर झील का निर्माण महाराणा फतेह सिंह ने किया होगा तो आप सरासर गलत हैं। इस कृत्रिम झील का निर्माण 1678 में महाराणा जय सिंह ने किया था। पर बाद में महाराणा फतेह सिंह ने इसका विस्तार किया और यह झील उनके नाम को समर्पित हो गई। उदयपुर के उत्तर-पश्चिम में और पिछोला झील के उत्तर में स्थित यह झील जयसमंद झील के बाद दूसरी कृत्रिम झील है जिसका निर्माण निश्चय ही उदयपुर को रेगिस्तानों के लिये प्रसिद्ध राजस्थान को सूखे से बचाने के लिये किया गया होगा। ढाई किमी लंबी, डेढ़ किमी चौड़ी और साढ़े ग्यारह मीटर तक गहराई वाली इस झील के मध्य में स्थित तीन टापुओं में से सबसे बड़े टापू पर नेहरू पार्क है। इस पार्क में जाने के लिये नाव का सहारा लिया जाता है। इन झील को पानी तीन मार्गों से मिलता है और एक मार्ग का उपयोग मानसून के दिनों में पानी की अधिकता से निपटने के लिये किया जाता है ताकि झील में से फालतू पानी को निकाला जा सके।

दूसरे वाले टापू पर सुन्दर सुन्दर से पानी के फव्वारे लगाये गये हैं और तीसरे टापू पर नक्षत्रशाला (solar observatory) है। हम लोग सिर्फ नेहरू पार्क तक ही सीमित रहे जिसमें नाव की आकार का एक रेस्टोरेंट भी बनाया गया है। लोग बताते हैं कि वहां पर एक चिड़ियाघर भी है, जिसकी अब मुझे याद नहीं है। हो सकता है उस समय वह न रहा हो या उसमें जानवर न होकर सिर्फ चिड़िया ही हों !

नेहरू पार्क से आप चाहें तो बोटिंग के मजे ले सकते हैं। वहां पर बहुत तेज़ भागने वाले हॉण्डा वाटर स्कूटर भी थे जिस पर जाट देवता जैसे पराक्रमी घुमक्कड़ झील की परिक्रमा कर रहे थे। वैसे यदि आप उस स्कूटर की सवारी करना नहीं जानते तो भी कोई दिक्कत नहीं है। उनका आपरेटर आपको ड्राइविंग सीट पर बैठा कर खुद सारे कंट्रोल अपने हाथ में ले लेता है। आप यदि स्टीयरिंग भी ठीक से नहीं पकड़ सकते तो मेरी तरह से आप भी इन सब झंझटों से दूर ही रहें।

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Ranthambore – Meeting the king of the jungle

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इस बार हमें 2 नंबर गेट से प्रवेश करना था और इस बार ड्राईवर व गाइड भी समझदार लग रहे थे उन्होंने हमें आश्वासन दिया की वो हमें इस बार बाघ दिखा देगे . वो रास्ते मै अपने अनुभव बता रहे थे थोड़ी देर बाद गणपति का मंदिर भी दिखा जिसकी बहुत मान्यता थी मंदिर के बाद जंगल मै प्रवेश किया, लगभग १० मिनट गाडी चलाने के बाद ही ड्राईवर और गाइड आपस मै बात करने लगे और उन्होंने गाडी बहुत तेज दौड़ा दी, हम कुछ समझ नहीं पाए लेकिन कुछ बोले नहीं, ५ मिनट बाद ही वो बोले की कैमरे निकाल लीजिये क्योकि सामने ही एक बाघ था जो पानी मै आराम कर रहा था,

उन्होंने बताया की ये मादा है,हम सभी बहुत रोमांचित महसूस कर रहे थे क्योकि हम बाघ के बहुत नज्दीक थे, अभी १० मिनट ही हुए थे की पीछे से वन अधिकारी की जिप्सी आ गयी जिसमे वो खुद नहीं था लेकिन उसके कुछ गेस्ट थे उसकी जिप्सी आने के सभी जिप्सियो को वहा से जाने का इशारा कर दिया गया, हमारे ड्राईवर ने भी गाडी आगे बढ़ा दी

हमने उसको मना किया की वो ऐसा क्यों कर रहा है तो बोला  कि अधिकारी साहेब ज्यादा देर खड़ा नहीं रहने देगे इसलिए थोड़ी देर बाद घुमा कर वापिस ले आऊगा बड़ा गुस्सा आया और मैंने उसको बोल भी की हम लोग पैसे खर्च करके इतनी दूर सिर्फ बाघ देखने आये है तो उसने बोला की आप इसकी शिकायत कर सकते है। 15 मिनट बाद हम वापिस उस्सी जगह आ गए उस समय वह सिर्फ 3  गाडी थी जिसमे एक अधिकारी की और बाकी 2 भी खास लोगो की ही थी।   देखकर फिर गुस्सा आया की वो खुद क्यों अभी तक वहा है लेकिन किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ा और लगातार उनकी गाडी ही बाघ के सामने रही।

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Exploring Udaipur City Palace

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आगे बढ़े तो छत से झांकने पर एक और प्रांगण दिखाई दिया। बताया गया कि यहां रवीना टंडन की शादी हुई थी। जरूर हुई होगी, हमें तो निमंत्रण मिला नहीं था शादी का, हमारी बला से! सच पूछो तो रवीना शादीशुदा है या कुंवारी है – हमें इसमें भी कोई रुचि नहीं है। हमारे लिये तो हमारी अपनी श्रीमती जी ही रवीना, ऐश्वर्या, माधुरी, सीता, सावित्री, गार्गी, विद्योत्तमा, तिलोत्तमा सब कुछ हैं। (यह लाइन मैने उनको पढ़वाने के लिये ही लिखी है!)

सिटी पैलेस को समझना हो तो आप कुछ कुछ यूं समझें कि ये एक लंबाई में बनाया हुआ महल-कम-दुर्ग-कम-होटल-कम-संग्रहालय है। अगर आप 49,999 रुपये तथा उस पर विलासिता कर यानि luxury tax और VAT दे सकते हैं तो आप फतेह प्रकाश पैलेस या शिव सागर पैलेस होटल में से किसी एक होटल में एक रात रुक भी सकते हैं। अगर आप सोनिया गांधी के दामाद हैं और रातोंरात अरबपति बन चुके हैं तो आप अपने बच्चों का विवाह भी इन HRH Heritage hotels में से किसी एक में आयोजित कर सकते हैं। पर अगर आप 30 रुपये में सिटी पैलेस म्यूज़ियम देखने आये हैं तो आप शानदार हवेलियां देखिये, कमरों में सजाये हुए पंखे, बिस्तरे, मूढ़े आदि देखिये, अद्‍भुत वास्तुकला देखिये, अंग्रेज़ पर्यटकों को निहारिये, 200 रुपये कैमरे के लिये देकर फोटो वगैरा खींचिये और संकरी गली से बाहर निकल लीजिये।

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Back to Udaipur-LokKala Mandal and Shilpgram

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शिल्पग्राम से हम बाहर निकले तो बाबू ने पास में ही, न जाने किस पार्क में गाड़ी ले जाकर खड़ी कर दी। बीच में एक फव्वारा, अच्छा हरा – भरा लॉन, अच्छे – अच्छे चेहरे थकान मिटाने के लिये काफी उपयुक्त सिद्ध हुए। घास पर लेटे रहे, कोल्ड-ड्रिंक पीते हुए चिप्स खाते खाते घंटा भर वहीं बिताया। जब सूर्यास्त हो गया तो महिलाओं को फिर हुड़क उठी कि बाज़ार चलते हैं। बाबू कुछ एंपोरियम में ले कर गया पर हम हर जगह यही शक करते रहे कि पता नहीं, कैसा सामान होगा, पता नहीं कितना महंगा बता रहे होंगे। मैने एक बार भी श्रीमती जी को जिद नहीं की कि ये सामान अच्छा है, खरीद लो! हम लोगों ने पहले ही तय कर रखा था कि यदि हम में से कोई कुछ खरीदना चाहेगा और दूसरा मना कर देगा तो वह चीज़ नहीं खरीदी जायेगी। इसके बाद पुनः हाथी पोल आये और श्रीमती जी ने दो जयपुरी रजाइयां खरीद ही डालीं जो वज़न में बहुत हल्की थीं और पैक होने के बाद उनका आकार भी बहुत कम रह गया था !

खाना पुनः बावर्ची में ही खा कर हम वापिस होटल वंडरव्यू पैलेस में पहुंच गये जहां हमारे नाम के दोनों कमरे बुक थे। अगला दिन हमने तय कर रखा था – सिटी पैलेस, बागौर की हवेली, नेहरू पार्क, और नाथद्वारा मंदिर देखने के लिये।

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Mount Abu Sight Seeing

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माउंट आबू भ्रमण के दौरान बहुत सारा समय हमने पीस पार्क में भी बिताया था। वहां घुसते ही सबसे पहले हमें ब्रह्माकुमारी वालों ने एक वीडियो दिखाया जिसका सार ये था कि ज़िन्दगी मिलेगी दोबारा – दोबारा अगर तुम नहीं करोगे अज्ञान से किनारा ! अज्ञान का अर्थ है – खुद को और इस शरीर को एकाकार समझ लेना। इस वीडियो के अनुसार हम आत्मा हैं जो इस शरीर के अन्दर, दोनों नेत्रों के मध्य भाग में, यानि भृकुटि में रहते हैं। हम यानि आत्मा, इस शरीर रूपी गाड़ी के ड्राइवर हैं। हम सब आत्मायें परमपिता परमात्मा के प्यारे बच्चे हैं, उनके अंश हैं। हम निरंतर यह स्मृति बनाये रखें कि हमारा और हमारे परमपिता परमात्मा का बाप-बेटे का नाता है तो हमें उनसे ऐसे ही स्नेह भाव उपजेगा जैसे किसी युवक को किसी अनजानी युवती से सगाई हो जाने के बाद उससे स्नेह उपजने लगता है। उसे कहना नहीं पड़ता कि भाई, कभी टाइम निकाल कर अपनी मंगेतर को भी याद कर लिया कर! वह खाते-पीते, सोते-जागते, उठते-बैठते हर समय अपनी मंगेतर को ही याद करता रहता है, उससे मिलने के ख्वाब देखा करता है। आजकल के लड़के तो मोबाइल में couple plan ले लेते हैं ताकि चौबीसों घंटे हॉटलाइन से जुड़े रहें। ठीक वैसे ही हमें यदि परमपिता परमात्मा से अपने संबंध का ज्ञान हो जाये तो हम हर समय उनकी स्मृति में ही रहेंगे। यह तब होगा जब हम सदैव यह याद करेंगे कि हम यह शरीर नहीं हैं बल्कि इस शरीर को संचालित करने वाली आत्मा हैं। हम सब विस्मृति की शिकार आत्मायें हैं जो यहां – वहां सुख की लालसा में भटकती रहती हैं जबकि वास्तविक सुख परमपिता परमात्मा से मिलन में है जो हम योग लगा कर किसी भी समय अनुभव कर सकते हैं । उसके लिये मरना कतई जरूरी नहीं है।

गुरु शिखर और अचलगढ़ नाम की दो पर्वत चोटियों के मध्य स्थित विशाल परिसर में विकसित इस पीस पार्क में न केवल अत्यन्त सुन्दर उद्यान हैं, रोज़ गार्डन हैं, झूले हैं, रॉक गार्डन है, पिकनिक के लिये और खेल कूद के लिये मैदान हैं बल्कि सबसे आनन्द दायक बात ये है कि इस पीस पार्क का प्रबंध अत्यन्त कुशल और सेवाभावी व्यक्तियों के हाथों में है। ब्रह्माकुमारी केन्द्र यानि मधुबन, ज्ञान सरोवर और शान्तिवन में तीन या अधिक दिनों के लिये नियमित रूप से शिविर लगते रहते हैं और एक दिन प्रशिक्षुओं को घुमाने के लिये भी नियत रहता है। पीस पार्क में भी वे कुछ घंटे बिताते हैं, यहां उनके लिये खेल-कूद व खाने-पीने की भी व्यवस्था की जाती है। ऐसे ही एक अवसर के चित्र यहां लगा रहा हूं।

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Mt. Abu – Sunset Point – Nakki Lake

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सूर्यास्त होगया तो मैने कहा कि चलो, खेल खतम, पैसा हज़म ! अब यहां से पैदल ही नीचे चलेंगे। लुढ़कते – लुढ़कते हम नीचे पहुंचे और टैक्सी में बैठ कर नक्की लेक की ओर चल दिये। इससे पहले मैं 2003 और 2005 में भी माउंट आबू गया था। वर्ष जून 2003 में तो नक्की लेक सूखी हुई मिली थी और उसमें हज़ारों मज़दूर पुरुष और महिलाएं तसले सिर पर लिये हुए घूम रहे थे। (उस समय की खींची हुई एक फोटो भी सौभाग्य से मिल गयी है जो अपने पाठकों के सौभाग्य के लिये संलग्न किये दे रहा हूं ।) परन्तु सौभाग्य से इस बार नक्की में भरपूर पानी था और नावों में लोग सवारी कर रहे थे। हमने भी एक नाव ले ली जिसे पैडल बोट कहते हैं । बेचारे दो पुरुष पैडल मारते हुए नाव को आगे बढ़ाते हैं और पीछे दो बीवियां आराम से झील का नज़ारा देखती हुई चलती हैं। संभवतः एक घंटे तक हम नक्की में यूं ही पैडल मारते घूमते रहे। इस नक्की लेक के बारे में बहुत प्रचलित किंवदंती, जो अक्सर पढ़ने को मिलती है वह ये है कि देवताओं ने एक खूंखार राक्षस से बचने के लिये नख से धरती में झील बना डाली थी । यही नहीं, नक्की झील को लेकर एक और रोमांटिक कहानी रसिया बालम की भी चली आ रही है जिसने एक राजकुमारी से विवाह की लालसा में एक रात में ही आधा किलोमीटर लंबी और चौथाई किमी चौड़ी और २०-३० फीट गहरी झील खोद डाली थी। हे भगवान, कैसे – कैसे राजा होते थे उस जमाने में! मुनादी करा दी कि जो कोई एक रात में नक्की झील खोद देगा, उससे अपनी बिटिया का ब्याह रचा दूंगा ! सौभाग्य से इस झील को खोदने के बाद भी रसिया बालम फिर भी कुंवारा ही रहा क्योंकि राजा की घोषणा को रानी ने वीटो कर दिया। राजा को रानी से डांट पड़ी सो अलग!

नक्की झील माउंट आबू के हृदय स्थल में स्थित है और यहां का प्रमुखतम आकर्षण है। माउंट आबू के बाज़ार मुख्यतः नक्की झील के आस-पास ही केन्द्रित हैं। बात सही भी है, जब सारे टूरिस्ट नक्की पर ही आने हैं तो दुकान कहीं और खोलने का क्या लाभ? एक और बड़ी विशेष जानकारी जो विकीपीडिया से प्राप्त हुई है, वह ये कि 12 फरवरी 1948 को यहां पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की अस्थियां विसर्जित की गई थीं और गांधी घाट का निर्माण किया गया था। पर मुझे याद नहीं पड़ता कि हमने नक्की झील पर कहीं गांधी घाट के दर्शन किये हों! सॉरी बापू ! अगली बार जायेंगे तो ऐसी गलती पुनः नहीं होगी! नक्की झील के आस-पास के एक रेस्टोरेंट में भोजन लेकर (कहां, ये याद नहीं ! भोजन कैसा था, ये तो कतई याद नहीं)। हम लोग वापिस ज्ञान सरोवर में आ पहुंचे और अपने – अपने कमरों में नींद के आगोश में समा गये। (किसी इंसान के आगोश में समाने की तो वहां अनुमति भी नहीं थी !)

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उदयपुर – जगदीश मंदिर – माउंट आबू हेतु प्रयाण

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वहां से निकल कर अगला पड़ाव था – जगदीश मंदिर ! मैं चूंकि एक घंटा पहले यहां तक आ चुका था अतः मुझे बड़ा अच्छा सा लग रहा था कि अब मैं अपने परिवार के लिये गाइड का रोल निर्वहन कर सकता हूं। परन्तु पहली बार तो मैं मंदिर की सीढ़ियों के नीचे से ही वापिस चला गया था। ऊपर मेरे लिये क्या – क्या आकर्षण मौजूद हैं, इसका मुझे आभास भी नहीं था। मंदिर की सीढ़ियों के नीचे दो फूल वालियां अपने टोकरे में फूल – मालायें लिये बैठी थीं । माला खरीद कर हम सीढ़ियों पर बढ़ चले। भाईसाहब का कई वर्ष पूर्व एक्सीडेंट हुआ था, तब से उनको सीढ़ियां चढ़ने में असुविधा होती है। वह बोले कि मैं टैक्सी में ही बैठता हूं, तुम लोग दर्शन करके आओ। मैने कहा कि टैक्सी में बैठे रहने की कोई जरूरत नहीं। मुझे एक दूसरा रास्ता मालूम है मैं आपको वहां से मंदिर में ले चलूंगा। उसमें दो-तीन सीढ़ियां ही आयेंगी। वह आश्चर्यचकित हो गये कि मुझे इस मंदिर के रास्तों के बारे में इतनी गहन जानकारी कैसे है। वास्तव में, जब मैं पैदल घूम रहा था तो एक बहुत ढलावदार रास्ते से होकर मैं मंदिर के प्रवेश द्वार तक आया था। उस ढलावदार रास्ते पर भी जगदीश मंदिर के लिये छोटा सा प्रवेश द्वार दिखाई दिया था। भाईसाहब इतनी सारी सीढ़ियां नहीं चढ़ सकते थे क्योंकि उनका घुटना पूरा नहीं मुड़ पाता परन्तु ढलावदार रास्ते पर चलने में कोई दिक्कत नहीं थी। मेरी जिस ’आवारागर्दी’ को लेकर सुबह ये तीनों लोग खफा नज़र आ रहे थे, अब तीनों ही बहुत खुश थे। आखिर इसी ’आवारागर्दी’ (जिसे मैं घुमक्कड़ी कहना ज्यादा पसन्द करता हूं) की वज़ह से भाईसाहब को मंदिर के दर्शन जो हो गये थे।

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उदयपुर में पहला दिन और यादगार डिनर

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शाम के छः बज रहे थे और हमारा महिलावर्ग ’सोलह सिंगार’ करके उदयपुर भ्रमण के लिये पूरी तरह तैयार था। रिसेप्शन से इंटरकॉम पर संदेश आया कि ड्राइवर महोदय आ गये हैं और हम नीचे आ जायें। हम सब अपनी इंडिका टैक्सी में लद कर घूमने चल पड़े! टैक्सी से स्थानीय भ्रमण में मुझे एक दिक्कत अनुभव होती है और वह ये कि हम जिस शहर में घूम रहे होते हैं, उसके भूगोल से काफी कुछ अपरिचित ही रह जाते हैं। किसी शहर को ठीक से समझना हो तो स्टीयरिंग आपके हाथ में होना चाहिये तब आपको किसी स्थान का भूगोल समझ में आता है। अगर कहीं से मोटरसाइकिल या स्कूटर किराये पर मिल सके तो घूमने का सबसे बढ़िया और मजेदार तरीका वही है। परन्तु हमने तो पांच दिनों के लिये टैक्सी कर ली थी और मेरी पत्नी सहित सभी सहयात्रियों की प्राथमिकता सुविधापूर्ण यात्रा थी जिसमें कार के शीशे बन्द करके वातानुकूलित हवा खाना सबसे महत्वपूर्ण था। ऐसे में मैने तो हल ये निकाला था कि जहां भी मौका लगे, अकेले ही पैदल घूमने निकल पड़ो! घरवाले अगर होटल में आराम फरमाना चाहते हैं तो उनको होटल में ही रहने दो, अकेले ही घूमो मगर घूमो अवश्य । अस्तु!

पता नहीं, किधर – किधर को घुमाते फिराते हुए, और उदयपुर की शान में कसीदे पढ़ते हुए हमारे टैक्सी चालक हसीन महोदय ने जब टैक्सी रोकी तो पता चला कि हम सहेलियों की बाड़ी पर आ पहुंचे हैं। हसीन ने अपने यात्रियों के लिये गाइड के रूप में सेवायें प्रदान करना अपना पावन कर्तव्य मान लिया था अतः सहेलियों की बाड़ी के बारे में हमें बताया कि ये फतेह सागर लेक के किनारे पर स्थित एक आमोद गृह है जहां महारानी अपनी 48 सखियों के साथ जल विहार और किल्लोल किया करती थीं । आज कल जैसे पति लोग अपनी पत्नी को एक मीडिया फोन लाकर दे दिया करते हैं ताकि वह वीडियो गेम खेलती रहे और पति भी सुकून और शांति भरे कुछ पल घर में गुज़ार सके, कुछ-कुछ ऐसे ही 18 वीं शताब्दी में उदयपुर के महाराणा संग्राम सिंह ने अपने घर को संग्राम से बचाने के लिये अपनी महारानी और उनके साथ दहेज में आई हुई 48 युवा परिचारिकाओं के मनोरंजन के लिये सहेलियों की बाड़ी बनवा कर दे दी थी। यह एक विशाल बाग है जिसमें खूबसूरत फव्वारे लगे हुए हैं । फतेह सागर लेक इसकी जलापूर्ति करती है। हम जब यहां पर पहुंचे तो सूर्यास्त हो चुका था। बाग में कृत्रिम प्रकाश में हमें सहेलियों की बाड़ी का बहुत विस्तार से अध्ययन करने का मौका तो नहीं मिला पर कुछ बड़े खूबसूरत से फव्वारे वहां चल रहे थे जिनके बारे में विश्वस्त सूत्रों से यानि विकीपीडिया से ज्ञात हुआ है कि ये फव्वारे rain dance का आभास देने के लिये बाद में महाराणा भोपाल सिंह ने इंग्लैंड से मंगवाये और यहां पर लगवाये थे।

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Hotel Wonder View Udaipur

उदयपुर और माउंट आबू घूमने चलें?

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अंततः वह क्षण भी आया जब उस प्रतीक्षालय की दीवारों पर लगे हुए इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले बोर्ड पर हमारी फ्लाइट का ज़िक्र आया और सभी यात्रियों को बस में बैठने हेतु उद्‌घोषणा की गई। पत्नी ने कहा कि बस की क्या जरूरत है, पैदल ही चलते हैं तो उसके जीजाजी ने कहा कि चिंता ना करै ! टिकट नहीं लगता। मैं एयरपोर्ट की बस में बैठते ही कैमरा लेकर ठीक ऐसे ही एलर्ट हो गया जैसे बॉर्डर पर हमारे वीर जवान सन्नद्ध रहते हैं। दो – तीन मिनट की उस यात्रा में वायुयान तक पहुंचने तक भी बीस-तीस फोटो खींच डालीं!

जब अपने वायुयान के आगे पहुंचे तो बड़ी निराशा हुई! बहुत छोटा सा (सिर्फ 38 सीटर) जहाज था वह भी सफेद पुता हुआ। मुझे लगा कि मैं छः फुटा जवान इसमें कैसे खड़ा हो पाउंगा ! सिर झुका कर बैठना पड़ेगा! एयर डैक्कन एयरलाइंस के इस विमान में, जिसका दिल्ली से उदयपुर तक का हमने सिर्फ 1201 रुपये किराया अदा किया था, हम अन्दर प्रविष्ट हुए तो ऐसा नहीं लगा कि सिर झुका कर चलना पड़ रहा है। सिर्फ बाहर से ही ऐसा लग रहा था कि जहाज में घुस नहीं पाउंगा। खैर अन्दर पहुंच कर अपनी सीटें संभाल लीं। मुझे खिड़की वाली सीट चाहिये थी सो किसी ने कोई आपत्ति दर्ज़ नहीं की। अन्दर सब कुछ साफ-सुथरा था। एयरहोस्टेस भी ठीक-ठाक थी। यात्रा के दौरान सुरक्षा इंतज़ामों का परिचय देने की औपचारिकता का उसने एक मिनट से भी कम समय में निर्वहन कर दिया। सच तो यह है कि कोई भी एयरलाइंस, यात्रा के शुभारंभ के समय दुर्घटना, एमरजेंसी, अग्नि शमन जैसे विषय पर बात करके यात्रियों को आतंकित नहीं करना चाहती हैं पर चूंकि emergency procedures के बारे में यात्रियों को बताना कानूनन जरूरी है, अतः इसे मात्र एक औपचारिकता के रूप में फटाफट निबटा दिया जाता है। यात्रियों को समझ कुछ भी नहीं आता कि किस बटन को दबाने से ऑक्सीज़न मास्क रिलीज़ होगा और उसे कैसे अपने नाक पर फिट करना है। एमरजेंसी लैंडिंग की स्थिति में क्या-क्या करना है और कैसे – कैसे करना है। अगर कभी दुर्घटना की स्थिति बनती है तो यात्रियों में हाहाकार मच जाता है, वह निस्सहाय, निरुपाय रहते हैं, कुछ समझ नहीं पाते कि क्या करें और क्या न करें! मेरे विचार से इसका कोई न कोई मध्यमार्ग निकाला जाना चाहिये। अस्तु !

कुछ ही क्षणों में हमारे पायलट महोदय ने प्रवेश किया और बिना हमारा अभिनन्दन किये ही कॉकपिट में चले गये। उनके पीछे – पीछे एयरहोस्टेस भी चली गई पर जल्दी ही वापस आ गई और हमें अपनी अपनी बैल्ट कसने के निर्देश दिये। मैने अपनी पैंट की बैल्ट और कस ली तो श्रीमती जी ने कहा कि सीट की बैल्ट कसो, पैंट की नहीं ! अपनी ही नहीं, मेरी सीट की भी। मैने एयरहोस्टेस को इशारा किया और कहा कि मेरी सीट की बैल्ट कस दे। (सिर्फ 1201 रुपये दिये हैं तो उससे क्या? आखिर हैं तो हम वायुयान के यात्री ही ! एयरहोस्टेस पर इतना अधिकार तो बनता ही है!) अब मुझे भी समझ आ गया था कि सीट बैल्ट कैसे कसी जायेगी अतः पत्नी की सीट की भी बैल्ट मैने कस दी। मुझे खिड़की में से अपने जहाज की पंखड़िया घूमती हुई दिखाई दीं, द्वार पहले ही बन्द किये जा चुके थे। एयर स्ट्रिप पर निगाह पड़ी तो पुराना चुटकुला याद आया। “जीतो ने संता से अपनी पहली हवाई यात्रा के दौरान खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा कि बंता ठीक कहता था कि हवाई जहाज की खिड़की से झांक कर देखो तो जमीन पर चलते हुए लोग बिल्कुल चींटियों जैसे लगते हैं! संता ने जीतो को झिड़का, “अरी बुद्धू ! ये चींटियां ही हैं, अभी जहाज उड़ा ही कहां है!” चलो खैर !

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A Glimpse Of Jaipur

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Upon entering the walled city, we were immediately accosted by each and every shopkeeper of each and every shop in the myriad bazaars within. This was annoying enough for us as Indians. It must be downright intimidating for the foreigners.

The shopkeepers aggressive sales pitch were a big put off. Having said that, I could see why Jaipur is called a shoppers paradise. Though most of the wares on offer were touristy tat, there was certainly a huge variety of some rather good tat as well. I succumbed and did not leave without my fair share of purchases though I would have bought a lot more had it not been such a nuisance having to bargain fiercely in every store. Initial prices quoted anywhere were at least 3 to 4 times higher than the final settled amount. The haggling became just too much of an effort and I decided not to buy anything more. The Jaipur traders are geared to sell to the foreign tourist though I doubt that most foreigners would pay such steep prices, they probably drive a much harder bargain than we do. One cannot even walk in peace without being constantly assailed by men beseeching you to enter their shops.

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