प्रिय मित्रों,
आप जान ही चुके हैं कि हम सहारनपुर से कार से दिल्ली और फिर दिल्ली से वायुयान से उदयपुर पहुंचे, रात्रि में उदयपुर में वंडर व्यू पैलेस में रुके, अगले दिन अंबाजी माता मंदिर, जगदीश मंदिर के दर्शन करते हुए माउंट आबू में ज्ञान सरोवर आ पहुंचे। शाम को sunset point और नक्की झील घूमे, अगला पूरा दिन भी दिलवाड़ा मंदिर, गुरु शिखर, अनादरा प्वाइंट, पीस पार्क आदि घूमते फिरते रहे, ब्रह्माकुमारी केन्द्र के विभिन्न परिसरों के दर्शन करते हुए शाम को पुनः नक्की झील पर आगये। रात को ज्ञान सरोवर में ही रुके और सुबह पांच बजे पुनः उदयपुर के लिये प्रस्थान किया और दस बजे उदयपुर में प्रवेश किया।
अब हमारे पास आज का दिन यानि ३० मार्च, ३१ मार्च और १ अप्रैल बाकी बचे थे। १ अप्रैल को शाम को पांच बजे हमारी वापसी उदयपुर एयरपोर्ट से होनी थी। हमारे विचार से इतना समय उदयपुर घूमने के लिये पर्याप्त था। फिर भी ऐसा लगता है कि हमने काफी सारे दर्शनीय स्थल या तो छोड़ दिये या फिर देखे होंगे तो हमें वहां की कुछ विशेष मनोरंजक स्मृति आज शेष नहीं है। खैर, उदयपुर दर्शन का शुभारंभ हुआ – भारतीय लोक कला मंडल से जो फतेह सागर लेक के निकट ही एक बाज़ार में स्थित है। जब बाबूराम ने प्रवेश द्वार पर टैक्सी रोकी और कहा कि ये एक म्यूज़ियम है, इसे देख आइये और वापसी में टैक्सी पार्किंग में आ जाइयेगा तो मैने आधे सोते – आधे जागते, (संक्षेप में कहें तो ऊंघते हुए) अपने परिवार को जगाया और कहा कि चलो, म्यूज़ियम देख लो तो वे बड़े बे मन से अंगड़ाई लेते हुए टैक्सी में से निकले और टिकट खरीद कर भारतीय लोक कला मंडल नामक म्यूज़ियम में घुसे! सच कहूं तो हमारे इन तीनों ही सहयात्रियों को लोक कलाओं में कोई विशेष रुचि नहीं थी और ये सब देखने के लिये मरा मैं भी नहीं जा रहा था।
वर्ष 1952 में एक प्रख्यात लोक कलाविद् स्व. देवीलाल सामर ने इस म्यूज़ियम की स्थापना की थी और यहां पर टैराकोटा, पत्थर, लकड़ी, मिट्टी आदि से बनी हुई कलाकृतियां दिखाई गई हैं।
मानव आकार की, कठपुतलियों जैसी मानव आकृतियां जैसे भीलनी, कंजरी वहां शीशे के शोकेस में सजाई गई हैं। यही नहीं लोक नृत्य की विभिन्न शैलियां, दीवारों को और धरती को सजाने के विभिन्न तरीके वहां दिखाये गये हैं। जैसा कि वहां पर लिखा हुआ था, मोलेला के टेराकोटा की अम्बा माता, चामुण्डा, धर्मराज और रतना रेबारी की कलात्मक मूर्तियां दर्शनीय हैं. दीवारों पर पेराकोटा से बनी लोक जीवन और पार्वती की झांकी प्रदर्शित की गई हैं। इसके अतिरिक्त यहां तुर्रा कलंगी, रामलीला, रासलीला, गवरी, भवाई नृत्य की प्रस्तुतियों देखी जा सकती हैं। इन में, गवरी नृत्य नाटिका, जनजातियों के मॉडल, विभिन्न राज्यों में जनजातियों में प्रचलित मुखौटे, लोक देवी-देवता, मेंहदी के माण्डने, जमीन पर बनाये जाने वाले भूमि अलंकरण, दीवारों पर उकेरी जाने वाली सांझी और विभिन्न अवसरों पर बनाये जाने वाले थापे, जनजाति नृत्य भीलों का गेर और राजस्थानी नृत्य घूमर, गीदड नृत्य, नाथ सम्प्रदाय का अग्नि नृत्य के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है। वहां से मैं एक पैंफलेट लाया था जिसके अनुसार इस संग्रहालय के वाद्य यंत्रों में सारंगी, रूबाब, कामायचा बाजोड़ और घूम-घूमकर कराये जाने वाले देवदर्शन का माध्यम देवी देवताओं के कलात्मक चितण्र युक्त कावड़ विभिन्न राज्यों की जनजातियों मे पाये जाने वाले आभूषण, मोर चोपड़ा, बाजोड़, तेजाजी के जीवन पर आधारित चित्रावली, पथवारी का मॉडल समेत अन्य लोक कलाओं का अनूठा संग्रह है। इसके अलावा पारम्परिक धागा कठपुतलियों के प्रदर्शन में सांप-सपेरा, बहुरुपिया, पट्टेबाज, तलवारों की लड़ाई, गेंदवाली, घोड़ा-घुड़सवार, कच्छी घोड़ी, ऊंट, बंजारा-बंजारी, तबला-सारंगी नर्तकी, रामायण, मुगल दरबार और संगठित रूप से बाल नाट्य प्रस्तुतियां भी दी जाती हैं।
मेरी श्रीमती जी तो सदैव से विज्ञान की छात्रा रही हैं अतः उनको इन सब में विशेष रुचि नहीं थी अतः हम बिना किसी भी एक स्थान पर ज्यादा देर रुके आगे बढ़ते रहे। कठपुतलियों वाले सेक्शन में पहुंच कर कुछ मज़ा आना शुरु हुआ जब हमें एक कठपुतली शो दिखाया गया। उन लोगों ने बताया कि यहां पर कठपुतली बनाना और शो करना सिखाया भी जाता है।
वहां से निकले तो लगभग एक बजे थे। सबने एक दूसरे की ओर देखा और बिना कुछ बोले, एक दूसरे के मुर्झाये हुए चेहरे देख कर समझ गये कि ऊर्जा का स्तर काफी नीचे आ चुका है और अब पैट्रोल भरना पड़ेगा। बाबूराम को कहा कि कहीं भी और जाने से पहले खाना खाना है। जब उसने पूछा कि कहां चलें तो हमने उससे ही पूछा कि आसपास में ऐसा अच्छा रेस्टोरेंट कौन सा है जहां खाना अच्छा मिल जाये। उत्तर मिला – बावर्ची! हमने कभी बचपन में बावर्ची फिल्म भी देखी थी और बहुत अच्छी लगी थी तो कहा कि ठीक है, वहीं चलो! खाना वाकई अच्छा लगा। खा पीकर जब कुछ जान में जान आई तो फिर हम निकल पड़े राणा प्रताप मैमोरियल देखने के लिये जो फतेह सागर झील से लगती हुई एक पहाड़ी पर स्थित है। इस स्थान को मोती मागड़ी कहा जाता है।
यहां हमें महाराणा प्रताप की एक प्रतिमा और एक अन्य प्रतिमा धनुर्धर भोला की दिखाई दी। विशाल काय फव्वारा बना हुआ था, पर दोपहर में वह चल नहीं रहा था। दो चार फोटो खींच कर हम वहां से वापसी के लिये चले तो पहाड़ी रास्ते से बाईं ओर फतेह सागर झील का बड़ा सुन्दर दृश्य देख कर बाबूराम को गाड़ी रोकने के लिये कह कर फोटो खींचने के इरादे से मैं उतर गया और अपने घरवालों की नाराज़गी की चिन्ता किये बगैर इधर – उधर की फोटो खींचता रहा।
कुछ दृश्य अपने कैमरे में कैद करने के बाद आगे बढ़े तो वीर स्थल के नाम से एक और संग्रहालय मिला सो हम सब वहां क्या है, यह देखने के लिये गाड़ी से उतर गये । इस संग्रहालय का मुख्य आकर्षण यह है कि यहां पर राजस्थान के विभिन्न योद्धाओं का परिचय दिया गया है, साथ ही हल्दीघाटी के मैदान का विशाल मॉडल बना हुआ था। हम चूंकि हल्दीघाटी जाने का समय नहीं निकाल पा रहे थे, अतः हल्दीघाटी का यह 3-D मॉडल देख कर ही संतुष्ट हो लिये।
- वीर स्थल, उदयपुर का प्रवेश द्वार – यह एक अच्छा संग्रहालय है।
वहां से आगे बढ़े तो दोनों महिलाओं ने कहा कि बस, घूम – घूम कर थकान हो रही है। यहां उदयपुर में बाज़ार नहीं है क्या? इशारा समझते हुए बाबूराम उनको हाथीपोल नामक एक बाज़ार में ले आया जहां आकर दोनों महिलाओं के चेहरे पर कुछ रौनक वापस लौटी। घंटा भर कुछ दुकानों में झकमारी कर के, बिना कुछ खरीदे जब ये वापस कार तक आईं तो काफी प्रसन्न थीं। उनको कुछ सामान पसन्द तो आया था पर और कुछ दुकानों पर रेट वगैरा की पुष्टि करने के इरादे से वापिस आ गई थीं। मेरी भी जान में जान आई। मेरी जेब वहीं की वहीं सुरक्षित थी।
अगला पड़ाव था – शिल्प ग्राम! शिल्पग्राम उदयपुर में १३० बीघा पठारी क्षेत्रफल में, आंचलिक लोक कलाओं को प्रोत्साहन देने के लिये बसाया गया एक विशाल परिसर है जो प्राप्त मीडिया रिपोर्ट के अनुसार अपने शिल्पग्राम पर्व के लिये बहुत ख्याति प्राप्त कर रहा है। मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और गोवा प्रदेशों के सहयोग से विकसित इस शिल्पग्राम में ग्रामीण जन-जीवन ही नहीं बल्कि भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था की भी विशद झांकी देखने को मिलती है। एक पर्यटक के रूप में इसे दो-एक घंटे में न तो ठीक से देखा जा सकता है और न ही समझा जा सकता है। यदि आप वास्तव में भारतीय ग्राम्य जन-जीवन को समझना चाहते हैं, उस पर शोध करने के इच्छुक हैं तो आपको १४ दिसंबर से ३१ दिसंबर तक शिल्पग्राम में ही रहना चाहिये। खास कर २१ दिसंबर से ३१ दिसंबर तक तो यहां पर शिल्पग्राम महोत्सव का अभूतपूर्व आयोजन होने लगा है जिसे देखना स्वयं में एक स्मरणीय अनुभव होगा। हम लोग तो टूरिस्ट थे, शोधार्थी नहीं अतः शिल्पग्राम का एक चक्कर लगा कर, कुछ फोटो खींच कर बाहर निकल आये पर मेरा मन है कि एक बार कुछ दिन के लिये उदयपुर पुनः जाऊं और इस बार पूरा समय शिल्पग्राम में ही बिताऊं। तथापि, अपने खींचे हुए कुछ चित्र आप सब की सेवा में प्रस्तुत हैं जो सामान्य दिनों में वहां के जीवन की कुछ बानगी तो दे ही सकते हैं।

शिल्पग्राम में राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और गोवा के ग्रामीण जन-जीवन की झांकी देखने को उपलब्ध है।

घर की सज्जा के लिये किसी Interior Decorator को लाखों रुपये देने आवश्यक नहीं। सिर्फ सौन्दर्य बोध काफी है।

पूरे आर्केस्ट्रा का जुगाड़ घर में ही – ससुर जी ढोलक बजायें, पुत्रवधु डांस करे ! In-house facilities !
शिल्पग्राम से हम बाहर निकले तो बाबू ने पास में ही, न जाने किस पार्क में गाड़ी ले जाकर खड़ी कर दी। ( हम शिल्पग्राम में घुसे एक स्थान से थे और निकले कहीं और से पर ये बाबू हमें दोनों जगह कैसे मिल गया, ये आश्चर्य की बात है भी, और नहीं भी ! ) बीच में एक फव्वारा, अच्छा हरा – भरा लॉन, अच्छे – अच्छे चेहरे थकान मिटाने के लिये काफी उपयुक्त सिद्ध हुए। घास पर लेटे रहे, कोल्ड-ड्रिंक पीते हुए चिप्स खाते खाते घंटा भर वहीं बिताया।
जब सूर्यास्त हो गया तो महिलाओं को फिर हुड़क उठी कि बाज़ार चलते हैं। बाबू कुछ एंपोरियम में ले कर गया पर हम हर जगह यही शक करते रहे कि पता नहीं, कैसा सामान होगा, पता नहीं कितना महंगा बता रहे होंगे। मैने एक बार भी श्रीमती जी को जिद नहीं की कि ये सामान अच्छा है, खरीद लो! हम लोगों ने पहले ही तय कर रखा था कि यदि हम में से कोई कुछ खरीदना चाहेगा और दूसरा मना कर देगा तो वह चीज़ नहीं खरीदी जायेगी। इसके बाद पुनः हाथी पोल आये और श्रीमती जी ने दो जयपुरी रजाइयां खरीद ही डालीं जो वज़न में बहुत हल्की थीं और पैक होने के बाद उनका आकार भी बहुत कम रह गया था !
खाना पुनः बावर्ची में ही खा कर हम वापिस होटल वंडरव्यू पैलेस में पहुंच गये जहां हमारे नाम के दोनों कमरे बुक थे। अगला दिन हमने तय कर रखा था – सिटी पैलेस, बागौर की हवेली, नेहरू पार्क, और नाथद्वारा मंदिर देखने के लिये।
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Happy New Year 2013, Nice to see water in Rajesthan, may be other people can learn water Management.
Thanks
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Great pictures and great description about this Shilpgram. We went to Udaipur some years ago but entirely missed it or may be it is new place.
Dear Praveen Wadhwa,
Thanks for liking. I don’t know the year when Shilpgram had started. But it is there since 2007 at least when we had gone there. December end is the most eventful week here. Having 5 days at our disposal also helped us see even offbeat places. If one has gone there for two days only, one may not want to waste a few hours walking through village huts and haats unless particularly interested in that!
@Praveen Gupta Ji ! ????? ??????? ! ????? ???? ?? ????? ?? ???? ???? ???? ????? ?????? ???? ! ?-??-?-?? !
@Surinder Sharma Ji. Very true. At least Udaipur, instead of spoiling its water resources, is managing them ably. But may be, it is Nature’s bounty only ! I have heard entirely different story about Jaipur where a river has been converted into an unauthorised housing colony after its water gradually dried up !
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Hi Sushantji,
Thanks for introducing me to an unknown side of Udaipur. Udaipur seems to have something for everyone – forts, lakes, handicrafts and the surrounding hills and scenery.
Udaipur is in my to do list.
Great photos and engrossing travelogue as always.