आप का तो निश्चित है कि सुबह वाली गलती नही दोहराएंगे, मगर बच्चे तो अपने मन की मर्जी के मालिक ठहरे, अत: उन्होंने उस मेन्यु को चुना जो उत्तर भारतीय शादियो में बहु-प्रचलित भी है और हिट भी | चाऊमिन के भारतीय संस्करण से लेकर दाल मक्खनी और शाही पनीर तक, मगर अपने राम ने तो निश्चित किया है, हम तो आज जीमेंगे उस खाने पर, जिसका स्वाद हम शहरी जिन्दगी की इस अंधी भागदौड़ में कहीं पीछे छोड़ चुके हैं, और यदि चाहें भी तो हमारी आज की डिज़ाइनर रसोइयाँ में न तो देसी चूल्हे के लिये कहीं कोई प्रावधान हो
सकता है और न ही हमारी आज की शरीके-हयात उन्हें बना सकती हैं| सो, चूल्हे की हल्की आँच पर सिकी मकई और बाजरे की देसी घी में तरबतर रोटी, साथ में लहसुन की चटनी और बनाने वाली हमारे गाँव देहात की ही कोई ग्रहणी, न कि कोई व्यवसायिक कारीगर, जैसा कि आप आजकल की शादियों में या फ़ूड फेस्टिवल में पाते हैं | वहाँ आप ऐसा खाना पा तो सकते हैं पर वो होता रस विहीन ही है, ये हमारा व्यक्तिगत अनुभव है कि जब तक खाने में अन्नपूर्णा के हाथ न लगें हों आपको तृप्ति नही हो सकती | जी भर इसके रसावादन के बाद मीठे के शौकीनों के लिये बाजरे की खिचड़ी बूरा उकेर कर और साथ में गर्म गर्म ढूध जलेबी | ऐसा खाना वास्तव में आपके केवल पेट को नही वरन आत्मा तक को भी तृप्त कर देता है | भले ही इस जगह के आस-पास की महिलायें चार पैसे कमाने और अपने परिवार को कुछ आर्थिक सहयोग प्रदान करने के लिये इस फार्म में रोज़गार पा लेती हैं मगर इसका सबसे बड़ा सकारात्मक पक्ष ये है कि यूँ लगता है कोई आपकी परिचित ही आपको प्रेम से बैठा कर खिला रही है, आपके किसी भी गुण का उपयोग कहीं भी हो आखिर काम तो काम है और हमारे जैसे और भी जो इस देशी खाने के शौक़ीन हैं, पूरी मोहब्बत और खलूस के साथ खा रहे हैं | आप को सबसे अच्छा यह देख कर लगता है कि नौजवान पीढ़ी के जो लडके-लडकियाँ भी यहाँ आये वो इन महिलायों को पूरे सम्मान के साथ आँटी-आँटी कह कर बुलाते रहे और थैन्कू थैन्कू कर जाने से पहले फोटो खिंचवाना न भूलते…. आखिरकार परम्पराएँ भी कोई चीज़ हैं…. That is why I love my India!!!
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