एशिया का एकमात्र टैंक म्यूजियम , अहमदनगर टैंक म्यूजियम

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सारा परिसर कई प्रकार के टैंकों से भरा था. मगर मेरी नज़र किसी भारतीय टैंक को ढूँढने में लगी हुई थी. अंत में उसी परिसर में एक भारतीय टैंक सुशोभित दिखाई दिया, जिसका नाम “Vijayanta” था. यह टैंक सेंचुरियन टैंकों की श्रेणी का था, जिसे सम्पूर्ण रूप से भारत में बनाया गया था. यह १९६६ में सेना में शामिल हुआ और २००४ में इसे सेवानिवृत किया गया. १९७१ के युद्ध में इसने अहम् भूमिका निभाई. पर उससे भी ज्यादा गौरव की बात यह है कि इसी टैंक ने भारत को टैंकों की दुनिया में निर्माणकर्ता राष्ट्रों की श्रेणी में शामिल कर दिया. अहमदनगर टैंक म्यूजियमअद्भुत थी.

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अंजनेरी पर्वत की पदयात्रा

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पर्वत की तलहटी वहाँ से लगभग २ किलोमीटर दूर थी. वहाँ तक का रास्ता घुमावदार, पथरीला और उबड़-खाबड़ था. उस पर चलने वाली गाड़ियाँ भयानक हिचकोले ले रहीं थी. पर पदयात्री की लिए, उस मौसम में, वह रास्ता बेहद ख़ूबसूरत नज़ारा पेश कर रहा था. मैं धरती पर नीचे उतर आये बादलों के बीच चल रहा था, पौधों और वृक्षों से हरे हो चुके पहाड़ों को निहार रहा था, कलकल बहने वाले झरनों की आवाज सुन रहा था, उन्मुक्त स्वच्छ हवा में साँसे ले रहा था. ऐसे में सड़कों का पथरीला होना क्या महत्व रखता है? तीन-चार घुमाव के बाद रास्ता समतल हो गया. अब तो प्रकृति की छटा देखते ही बनती थी. बस एक तस्वीर की कल्पना कीजिये

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पांडव लेनी (गुफा), नासिक की पदयात्रा

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नामकरण के किस्सों को जानने के पश्चात् मैं इन्हें देखने के लिए और लालायित हो उठा. कदम तेजी से बढ़ने लगे और मैं गुफा-वृन्द के गेट पर आ गया. वहां २४ लाजवाब गुफाएं थीं. पुरातत्व विभाग द्वारा एक बोर्ड भी लगा हुआ था, जिसमें बताया गया की वे गुफाएं लगभग २०० वर्षों में बनीं थीं. कई गुफाएं तत्कालीन सम्राटों और धनिक-सम्मानित लोगों के द्वारा दान में दी गयी राशि से बनाई गयीं थीं और बौद्ध धर्म के हीनयान सम्प्रदाय के अनुयायियों द्वारा उपयोग में लाई जातीं थीं.

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मुंबई की गुफाएँ – जोगेश्वरी देवी की खोज में

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इतने में कुछ विदेशी पर्यटक आ गए. बड़े-बड़े कैमरों के साथ. वे भी हनुमान मंदिर की तरफ जा रहे थे. मैं भी उनके पीछे चल पड़ा. वो रास्ता एक बड़े-से आँगन से हो कर जाता था, जिसके दोनों तरफ गुफ़ाएँ बनीं हुईं थीं. मेरे पुरोहित ने बताया था कि वर्तमान का वो आँगन पूर्व-काल में गुफ़ा ही था, जिसकी छत कालांतर में गिर चुकी थी. अगर वह गुफा का हिस्सा था, तब तो एक जमाने में वह गुफा बहुत-ही विशाल रही होगी. खैर आँगन से गुजर कर हम हनुमान-मंदिर पहुँचे और वहां दर्शन किया. मंदिर एक गुफा में बना हुआ था. कोई ज्यादा लोग नहीं थे. वहां से तुरंत ही सभी निकल पड़े और फिर गणेश मंदिर तक आये. वह नजदीक ही था. वह भी एक गुफा में बना हुआ था.

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मुंबई की गुफाएँ – मंडपेश्वर और महाकाली

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यह भी कहा जाता है कि जब-जब शासन बदला, तब-तब इस गुफा का विभिन्न प्रकार से उपयोग किया गया. कभी तो यहाँ सैनिकों के टुकड़ियाँ निवास करती थीं, तो कभी शरणार्थी-गण. यह भी समझा जाता है कि प्रत्येक शासन काल में यह गुफा उजड़ी और फिर नए सिरे से बसी. लोग यह भी मानतें हैं कि विश्व युद्ध के समय भी अंग्रेज सैन्य-बल यहाँ बसा हुआ था. इनका यह मतलब निकलता है कि मंडपेश्वर गुफाएं हमेशा से लोगों द्वारा आबादित रहीं हैं.

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संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान, मुंबई की पदयात्रा – “कान्हेरी गुफा”

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पर एक बात थी. कान्हेरी पहाड़ का वह स्थान बिलकुल वीरान था. इतना वीरान कि गुफाओं के अन्दर अकेले जाने में ऐसा महसूस हो कि कोई वहां पहले से मौजूद है, जो आपको निरंतर देख रहा है. उस वीरानी में मन में कई ख़याल आते हैं. जैसे कि क्या वहां जाने वाले का कोई सम्बन्ध पश्चात काल में उस गुफा से था और उसी सम्बन्ध के सहारे वह इस जीवन में भी वहां लौट कर आया हो? उस अंतिम गुफा में बैठ कर मैंने अपनी एक कविता का प्रथम अन्तरा लिखा. इस कविता के दूसरे अंतरे बाद में मुंबई के अन्य गुफाओं की यात्रा में पूर्ण हुए.

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कृष्णागिरी उपवन, संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान- मुंबई पदयात्रा

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परन्तु मुझे आकर्षित किया उनके केलों ने. खूब सुन्दर और पुष्ट केले थे. मुझे केले खरीदता देख कर एक स्त्री ने मुझे समझाया कि मैं खीरे ले लूं और केले छोड़ दूँ. पर मैं कहाँ मानने वाला था. बस जैसे ही मैंने केले ख़रीदे, वृक्षों की डालों से तेजी-से उतर कर करीबन २०-२५ बंदरों ने मुझे घेर लिया. घबरा कर मैंने केले वहीँ जमीन पर फेंके, जो क्षण-भर में ही बंदरों द्वारा लूट लिए गए. अब उस डंडे से लैस व्यक्ति ने बंदरों को भगाने के लिए डंडा भाजना शुरू किया. बन्दर भाग गए. अब यह तो नहीं पता कि डंडे से भागे या केले चट कर के भागे. मैंने उन दोनों स्त्रियों को समझाने की कोशिश की कि जब यहाँ बंदरों का उत्पात है तो केले बेचते ही क्यों हो. दोनों स्त्रियाँ मुस्कुरायीं क्योंकि आज उन्हें एक और शहरी आदमी मिला था, जो जंगल में बिना देखे चलता था.

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विश्व विपासना पैगोडा, मुंबई की यात्रा

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सुरक्षा-जाँच वाले कमरे की छत से जो रौशनी की बल्ब्स लटक रहे थे, उनकी डिजाईन देखने योग्य थी. जाँच के पश्चात पैगोडा की निचली मंजिल पर पहुंचे, जहाँ देखने के लिए कई स्थल थे. सीढ़ी के दोनों तरफ कलात्मक चबूतरे थे. एक चबूतरे पर बड़ा-सा घंटा लिए हुए मनुष्यों की प्रतिमाएं थीं और दुसरे चबूतरे पर घरियाल लिए हुए मनुष्यों की प्रतिमाएं थीं. इसलिए पहले को Bell-tower और दुसरे को Gong-tower कहा जाता था. यह दोनों स्थल लोगों में बहुत प्रिय थे क्योंकि इन पर चढ़ना मना नहीं था. लोग इन पर चढ़ कर अपनी सेल्फी ले सकते थे और साथ ही इन्हें बजा भी सकते थे.

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पंचवटी की यात्रा – भाग २

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पंचवटी का शाब्दिक अर्थ है, “पांच बड़/बरगद के वृक्षों से बना कुञ्ज”. अब हम उस स्थान में प्रवेश कर रहे थे, जहाँ रामायण काल में श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी ने निवास किया था. पर्णकुटी तो इतने दिनों तक अब शेष नहीं रह सकती. पर पांच वृक्षों से घिरा वह कुञ्ज आज भी शेष दिखाया जा रहा है. सभी पांच वृक्षों पर नंबर लगा दिए गए थे, ताकि लोग उन्हें देख कर गिन सकें. वर्तमान में उन पांच वृक्षों के कुंज के बीच से ही पक्का रास्ता भी बना हुआ था, जिस पर एक ऑटो-स्टैंड भी मौजूद था और साधारण यातायात चालू था. बरगद के वे वृक्ष काफी ऊँचे हो गए थे. श्रधालुओं ने उन वृक्षों की पूजन स्वरूप उनपर कच्चे धागे भी लपेटे थे. हमलोगों ने पहली बार पंचवटी से साक्षात्कार किया.

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पंचवटी की यात्रा – भाग १

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नारोशंकर मंदिर की छत अपने आप में स्थापत्य-कला के लिए प्रसिद्ध है. काफ़ी विदेशी पर्यटक इस मंदिर की छत का अध्धयन करने आते हैं. चट्टानों के नक्काशीदार टुकड़े सिर्फ उन टुकड़ों पर बने खांच में लग कर अभी तक खड़े है. मंदिर के अन्दर के सभा मंडप में एक नंदी और एक कछुए की मूर्ति है. कछुए की मूर्ति तो जमीन के सतह पर ही अंकित है. कुछ ऐसा-ही त्रैम्बकेश्वर मंदिर में भी देखने को मिलता है. मंदिर के बाहर के प्रांगन में भी कई कलात्मक आकृतियाँ हैं, जैसे की काल-सर्प की प्रतिमा. नारोशंकर मंदिर में कुछ समय बिताने के बाद हमलोग फिर से राम-तीर्थ की तरफ बढ़े.

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पुराने इंदौर की एक शाम – गलियों में खाने का ख़जाना

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और ऐसे ही एक शाम ढल चुकी थी. खजराना स्थित गणेश मंदिर में पूजन के पश्चात मेरे बड़े भाई के परिवार के सभी सदस्यों का मन पुराने इंदौर की इन्ही गलियों का लुत्फ़ उठाने का हुआ. मेरी तो जैसे की मौज हो गयी. संध्या के धुंधुलके से लिपटे हुए इंदौर के ऐतिहासिक राजवाड़े के बगल से होकर हमलोग सराफा की उन गलियों में पहुंचे. वहां की दुकानें बंद तो हो चुकी थीं, पर गलियाँ बड़े-बड़े बिजली के बल्बों की रोशनी से जगमगा रही थीं. खाने की दुकानें सज चुकी थीं और मानों सम्पूर्ण इंदौर के लोग उन गलियों में लगे बेहतरीन खाने का मजा लेने उमड़ पड़े थे.

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ब्रह्मगिरी की पदयात्रा , त्रैम्बकेश्वर

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सीढ़ियों ने अब बहुत ऊँचाई ले ली थी. विशाल चट्टान-नुमा ब्रह्मगिरी पर्वत अपने सम्पूर्ण विशालता को ले कर हमारे सामने था. उस ऊँचाई से त्रैम्बकेश्वर शहर कितना बौना और मनोहर लग रहा था. सीढियां पर्वत की सपाट सतहों से लग गयी थीं. इन सीढ़ियों में घाटी की तरफ लोहे की रेलिंग्स भी लगे हुए थे ताकि कोई फिसल कर घाटियों में न गिर जाये. उस पर अब बन्दर सामने आ गए. पहाड़ की ऊँची खड़ी सपाट सतह पर भी ये बन्दर चीखते-चिल्लाते ऐसे दौड़ते थे की मानो समतल धरती पर दौड़ रहे हों. कूद कर अचानक किसी पदयात्री के सामने आ जाना और उनके हाथ से खाना छीन लेने में इन बंदरों को महारत हासिल थी. पर अनुभवी यात्री अपने साथ इनके लिए भी कुछ खाद्य सामग्री ले कर चलते है. श्री दानी ने भी ऐसा ही किया था. उसने अपने थैले से बिस्कुट निकाला और बंदरों को निश्चिंतता से खिलाया. और इधर हम तीनों अनुभव-हीन यात्री अपनी छड़ियाँ पकड़े बंदरों से बच कर आगे चलते रहे.

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