बात 12वी सदी की शुरुआत की है, अरब़ से निकलकर इस्लाम हिन्दुस्तान में अपनी जड़े जमाने का प्रयास कर रहा था, मुगल राजायों की सल्तनत आगरा, दिल्ली से लेकर राजपूताना होते हुए पूरे उत्तर भारत में अपनी पैठ बनाने के प्रयास के साथ-साथ मध्य और दक्षिण भारत की तरफ भी बढ़ना चाहती थी | इंसानी सभ्यता का तकाजा रहा है कि जीते हुये हुक्मरान का मज़हब ही पूरी रियाया1 का मज़हब2 हो जाता है, लेकिन यह भी सत्य है कि अक्सर ऐसे परिवर्तन इतनी आसानी से नही हो पाते, और यदि कोई देश हिन्दुस्तान जैसा पारम्परिक और जड़ों से जुड़ा हुया हो, तो फिर सदियों से चली आ रही रवायतों3 और अकीदों4 को पल भर में नही बदला जा सकता | अरब़ में तो इस्लाम तेज़ी से फैल गया क्यूंकि वहाँ उसका कोई प्रतिद्वंदी नही था, पर यहाँ की धरती तो पहले से ही अनेकों मतों, सम्प्रदायों, विभिन्न पूजा-पद्धतियों, संस्कृतियों और विश्वासों को समेटे हुए थी | हाँ, इतना ज्ररूर था कि जाति-गत बँटवारा समाज की प्रगति में एक बहुत बड़ा रोड़ा था, पर फिर भी एक निहायत ही विदेशी धर्म को अपनाना इतना आसान भी नही था | ये काम तलवार के ज़ोर का नही था अपितु धीरे-धीरे उनका विश्वास जीतकर ही उन्हें अपनी तरफ़ मोढ़ना था | तलवार के दम पर राज्य जीतना तो आसान है, पर विश्वास और ईमान जीतना मुश्किल ! अत: अकारण नही कि उस दौर में ऐसे अनेक सूफी संतों और कलंदरों का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुया जो इस्लाम के पैरोकार तो थे मगर उनके तौर-तरीकों में वो मजहबी कट्टरता नही थी, उन सब ने अपने-अपने प्रकार से धीरे-धीरे उस युग में प्रचलित धर्मों को साथ जोड़ते हुए इस्लाम के प्रचार और प्रसार में अपना योगदान दिया | ये सू़फी़ दरवेश अपने पूर्ववर्ती मुल्ला-मौलवियो की तरह कट्टरपंथी नही थे अत: उनका विरोध भी नही हुआ और सभी धर्मों के मानने वालों के दिलों में वो जगह बनाते चले गये |
“धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होये
माली सींचे सौ घड़ा, रुत आये फल देय ||”
ऐसे ही एक सूफी दरवेश हुए हज़रत मोईनुद्दीन चिश्ती, जिनका जन्म 12वीं सदी का माना जाता है. वो पूर्वी ईरान से अजमेर में आकर बसे | अज़मेर, जयपुर से करीब 135 किमी दूर, एक पुराने इतिहास का शहर… ऐसा माना जाता है कि राजा अजयमेरु ने 7वीं शताब्दी में इस शहर का निर्माण करवाया था, अरावली की पर्वत माला में स्थित ये शहर सदियों से अपनी संस्कृति के लिए जाना जाता रहा, और 12वीं शताब्दी तक आते-आते इसका नाम अजमेरू से होता हुया अजमेर हो गया | इस्लाम की सूफी शाखा जिसका सम्बन्ध सूफी-ए-कुल अर्थात सब के लिये शांति से माना जाता है, हिन्दुस्तानी दर्शन के लिये कुछ ऐसा अन्जान सा भी नही था | एक ईश्वरवाद का सिद्धांत तो यहाँ की परम्परा में भी पहले से ही था | अभी आई एक हालिया फ़िल्म ‘रॉक स्टार’ में एक गाने के जो बोल हैं ना, “ कुन फाया कुन “, यह एक अरबी शब्द है और इसका अर्थ है, अल्लाह ने हुक्म दिया ब्रहमाण्ड के निर्माण का (कुन) और हो गया (फाया कुन), Allaha commands the universe ‘to be’ and it is ! अब आपको ऐसा महसूस होगा अरे यही या ऐसा ही कुछ तो हमारे ग्रँथ भी कहते हैं | ऋग वेद के भाग 10 का मन्त्र 129 इस ब्रहमांड की उत्पत्ति की व्याख्या कुछ इस प्रकार से करता है –
“नासदासींनॊसदासीत्तदानीं नासीद्रजॊ नॊ व्यॊमापरॊ यत् ।
किमावरीव: कुहकस्यशर्मन्नभ: किमासीद्गहनं गभीरम् ॥१॥“5
तो बाबा नानक भी इस ब्रहमाण्ड की रचना शून्य में से हुयी प्रतिपादित करते हैं, ॐकार, कम्पन से उपजी ध्वनि है, और फिर इस से आगे के जगत का विस्तार हुआ | अब इसे कुन कहा जाये या ॐकार, जो आर्यन सभ्यता के आने पर ॐ बन गया, बताता है कि शब्द इस ब्रह्माण्ड की रचना का आधार है, और विज्ञान भी मानता है कि ध्वनि ऊर्जा का एक रूप है जो विभिन्न आकार ले सकती है | हिदू और सिख धर्म, दोनों इस बात पर एकमत हैं कि इस ब्रह्माण्ड की रचना शब्द से हुई और साथ ही ये पूरी कायनात ही एक माया है और ईश्वर इस माया से परे, इसलिए हम उसे ना देख सकते हैं और ना ही उसका अनुभव कर सकते हैं | हिरण्यगर्भ सूक्त है-
“हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेकासीत ।
स दाधार पृथ्वीं ध्यामुतेमां कस्मै देवायहविषा विधेम ॥“6
यहाँ ये जानना भी दिलचस्प है कि विज्ञान जिस ‘बिग-बैंग’ थ्योरी की बात करता है, हिन्दुस्तानी दर्शन उससे पूरे तौर पर सहमत नही | विज्ञान कहता है ब्रहमाण्ड का निर्माण एक दुर्घटना थी, और इसका निर्माण रिक्तता या निर्वात यानी emptiness या nothingness(vacumme), अर्थात असत् से हुया, मगर दर्शन कहता है कि कुछ भी अकारण नही, और ना ही असत् सबसे पुरातन, ईश्वर ने स्वयं सत् से अपना निर्माण करके, और फिर शून्य से इस ब्रह्माण्ड की रचना की, ध्यान रहे शून्य, emptiness का पर्याय नही, क्यूंकि शून्य का अपना परिमाण है | दर्शन के सिद्धांत को और बल मिलता है जब इस इक्कीसवीं सदी में विज्ञान God Particle अर्थात Higgs-Boson को ढूँढने का दावा करता है, जो पदार्थ की रचना का आधार माना जा रहा है | बाबा नानक कहते है –
“अरबद नरबद धुंधूकारा ॥“7 (अंग 1035)
इसी में और आगे वो कहते हैं-
“आपे आपि उपाइ विगसै आपे कीमति पाइदा ||”8 (अंग 1035)
सृष्टि के निर्माण के बाद जब बात उस कर्ता की बन्दगी की आती है, तो यहाँ भी सूफीज्म आपके निकट है, क्यूंकि सूफी का भी अपने इष्ट से सम्बन्ध प्रेम का है, वो उसको अपना आराध्य तो मानता है पर किसी डर से नही बल्कि वो उसका सखा, सहेली या प्रिय है | एक सूफी की उसे पाने की चाह एक भक्त की सी ना होकर एक प्रेयसी की है वो उस से नाराज़ भी हो सकता है और उस पर तंज़ भी कस लेता है, वो उस से मिलने की तड़प में इस शरीर से बाहर आकर आत्मा-परमात्मा के मिलन की बाट जोहता है, ecstasy की जो अवस्था है ना, अपने शरीर से ही रिहा होकर बाहर आ जाना, यदि आप हिन्दू दर्शन की गहराई में जाएँ तो ऋषियों और मनीषियों ने इस अवस्था को ‘समाधि’ कहा है, और ऐसी अनेकों किवंद्तियाँ हैं जब ऐसे ऋषि जीवित होते हुये भी अपनी आत्मा को शरीर से बाहर ले जाते थे… कबीर यदि कहते हैं कि-
“नैनो की क़ारी कोठरी, पुतली पलंग बिछाय |
पलकों की चिक ढारिके, पिया लियो रिझाय ||”
तो बुल्ले शाह कहते हैं –
“तेरे इश्क नचाया करके थैया-थैया”
और फिर कौन ऐसा है जिसने ख़ुसरो का कलाम छाप तिलक सब छीनी मोसे नैना लगाईके नही सुना !
यहाँ ये उल्लेखनीय है कि इस्लाम में संगीत और नृत्य की कोई जगह नही, पर सूफी तो उसे पाने के लिये किसी भी हद तक चला जाता है, जोधा-अकबर का ख्वाज़ा मेरे ख्वाज़ा वाला सूफी कलाम और उसका नृत्य तो इतना मशहूर हुये कि उसके बाद से ही फिल्मों और टीवी पर सूफीज़्म दिखाने के लिए उसे ही copy cat किया जा रहा है | सूफी पर तो प्यार का रंग कुछ ऐसा खुसरो ने समझाया है-
“खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वा की धार |
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार ||”
सो ऐसे ही कुछ साँझे विचारों को ले कर सूफ़ी दरवेश आम जनता में अपनी पहचान बनाते गये | ख्वाज़ा, अल्लाह वाले तो थे ही, जल्द ही उनके नाम के साथ अनेकों चमत्कार भी जुड़ते चले गये, लोग उन्हें बाबा से लेकर गरीब नवाज़ तक के नाम से जानने लगे और उनकी पहचान आस-पास के क्षेत्रों से लेकर दिल्ली आगरा तक हो गयी, मुरीदों की संख्या में दिन-प्रतिदिन वृद्धि होने लगी | और जब अकबर अपने वारिस की चाह में आगरा से पैदल ही चलकर इस दरवेश के दर पर आया तो क्या हिन्दू और क्या मुसलमान सबके मन में ये बात घर कर गयी कि बाबा के दर पे की गयी दुआ आगे भी कबूल है, जिसकी वजह से यहाँ मूहँ माँगी मुरादें पूरी हो जाती है | गरीबनिवाज का जलवा तो कुछ ऐसा रहा कि 15वीं सदी में खुद बाबा नानक ने आकर उनके शागिर्दों के साथ गोष्ठी की, और उनके ठहरने की जगह पर पुष्कर में एक शानदार गुरुद्वारा सुशोभित है |
यदि आप ने इतना पढ़ लिया है तो जरुर ये सोच रहें होंगे कि एक यात्रा-वृतांत में ये सब क्यों और फिर इसकी आवश्यकता ही क्या? पर क्या है ना कि रहस्यवाद में कबीर का मुकाबला नही और वो कहते हैं-
“लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल |
लाली देखण मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल ||“
तो ऐसी ही जगहों पर आप कुछ ऐसा महसूस कर जाते हो, जो आपको उन प्रश्नों के उत्तर ढूँढने में मदद करता है जो आपके खुद के अस्तित्व से जुड़ीं हैं और जिनकी तलाश में इंसान सदियों से भटकता आया है, यूँ यायावरी भी तो उस भटकन की तलाश का एक प्रतिरूप ही तो है, बैठे-बिठाये, कई काम बीच में ही छोड़कर, घर पे ताला डाल चले जाना, इस सबमे कुछ तो ऐसा होता है जो आपको अपने घर की सुविधायों को छोड़कर बाहर निकलने को प्रेरित करता है |
यहाँ आस्था है, वहाँ मुरीद हैं और यहाँ मुरीद हैं वहाँ मक़बूलियत ! तो बस फिर क्या है ना कि अपना देश जरा धार्मिक कुछ ज्यादा ही है सो हम भी इसी ताब में खिंचे जयपुर से अजमेर शरीफ में बाबा की दरगाह में अपना सज़दा करने चले आये | जयपुर भले ही परम्परा और आधुनिकता के बीच झूलता सा शहर हो, मगर अजमेर आज भी पुराने दौर में ही है, बड़े-बड़े नेतायों से लेकर फ़िल्मी सितारों तक अपनी किस्मत को चमकवाने के लिए यहाँ जियारत करने के लिए आते हैं, पर आप सड़कों से लेकर अन्य किसी तरह की सुविधा की अपेक्षा नही कर सकते | शायद हमारी सरकारों की सोच हो, यहाँ आध्यात्मिकता है, वहाँ भौतिक सुख-सुविधायों की क्या आवश्यकता ?, जैसे मथुरा कान्हा के नाम से जाना जाता है ठीक वैसे ही अजमेर बाबा की दरगाह के लिये… यानी कि इस शहर के वाशिंदों के लिये रोज़ी-रोटी का मुख्य जरिया ये दरगाह ही है, जिसके लिए देश-विदेश से हर साल लाखों लोग(ज़ायरीन) यहाँ आते हैं, और जब इस दरगाह का मुख्य पर्व ‘उर्स’ मनाया जाता है तो उस समय में ये संख्या कई गुणा और बढ़ जाती है | दरगाह तक पहुंचने के लिये, लगभग एक किमी पहले ही आपको अपनी कार किसी पार्किंग में छोढ़नी पडती है और आगे का रास्ता पैदल ही पार करना पड़ता है | संकरी सड़क के दोनों तरफ हर तरह की दुकाने हैं, जिसमे छोटे-मोटे ढाबों से लेकर इत्र-फुलेल और भिन्न-भिन्न प्रकार के सामान मिल जाते हैं, जैसा आप किसी भी अन्य धार्मिक स्थल के निकट पा सकते हैं | दरगाह के करीब पहुंचते ही गुलाब के फूलों और चादरों की दुकाने शुरू हो जाती हैं, ख्वाज़ा की दरगाह पर चादर के साथ गुलाब ही चढ़ाया जाता है और इसी की पत्तियों का प्रशाद ही दिया जाता है जिसे आप अपने पास संभाल कर भी रख लेते हो और खा भी लेते हो, इसी के साथ रंगीन धागा जिसे मौली के नाम से भी जाना जाता है वो दरगाह के पास किसी भी जाली पर या जन्नती दरवाजे पर, आप अपनी किसी मन्नत के तौर पर बाँध सकते हैं | ऐसी ही दुकाने, जिनसे आप चादर और गुलाब के फूलों की टोकरी लेते हैं, आपके सामान तथा जूतों को भी रख लेते हैं, हर दुकान के आगे जूते रखने का रैक और हाथ धोने का पानी आपको मिल जाता है | साथ ही कोई ना कोई ऐसा भला इंसान भी जो आपको पूरी दरगाह घुमा लाता है बिना किसी लालच के ! वाकई अज़मेर के लोग बाबा को भी मानते हैं और आप के आने के जज्बे को भी पूरी इज्जत बक्शते हुये उसका एहतेराम भी करते हैं, जो वाकई काबिले-तारीफ़ है |
आंतक के इस दौर में ये दरगाह भी कुछ नापाक लोगों की कारस्तानियों से बच नही सकी और इसका खामियाजा आपको भुगतना पड़ता है जब अंदर घुसते ही सबसे पहले आपकी अच्छी तरह से जामा-तलाशी ली जाती है और फिर आपको साफ़ मना कर दिया जाता है कि कैमरे की इजाजत नही है | तब फिर आपको वापिस उसी दूकान पर अपना कैमरा भी छोढ़ना पड़ता है, जहाँ से आपने सामान लिया था | इतना शुक्र है कि मोबाइल पर रोक नही है, मगर दोनों से खींची गई फ़ोटो के स्तर में तो अंतर होता ही है, खैर इसी दूकान पर हमे बाबा के एक ख़ादिम भी मिल गये जिन्होंने हमे इस मुक्कदस जगह पर घुमाने की जिम्मेदारी ले ली दरगाह के मुख्य दरवाज़े से अंदर जाते ही कुछ दूर तक आपको पैदल चलना पड़ता है, यहाँ आपको मश्क़ से पानी पिलाने वाले भी मिल जायेंगे, यहीं जिन्होंने नमाज़ पढ़नी होती है, उनके मुँह-हाथ धोने यानी वजू करने के लिये पानी का एक छोटा सा तालाब सा भी है, और मश्क़ वाले भी यहाँ से पानी लेते हैं | सदियों से मश्क वालों की परम्परा रही है, जो अब तो लुप्तप्राय है, पर यहाँ इसके दीदार हो जाते हैं | दरगाह के करीब आते ही जायरीनों की भीड़ शुरू हो जाती है और आपको भी इसका हिस्सा बनना पड़ता है, ऐसे में हिंदुस्तान के बाकी धार्मिक स्थानों की तरह आपको अपनी जेब तथा अन्य सामान का खुद ही ख्याल रखना पड़ता है और भीड़ के धक्कों को भी झेलना पड़ता है ऐसे ही कुछ देर के संघर्ष के बाद आप बाबा की दरगाह पर अपनी मन्नतों की अर्जी लिये हाज़री भरते हो | मज़ार के साथ-साथ भीड़ में अपनी जगह बनाते-बनाते दरगाह का खादिम कुछ आपकी मदद कर देते हैं तो आप कुछ आराम से गरीबनिवाज की कब्र तक पहुंच जाते हो, कई बार अपने पक्ष में हुया कोई काम अच्छा लगता है और फिर, यहाँ की रिवायत के अनुसार आपकी लाई चादर और फूलों की टोकरी ख्वाज़ा की मज़ार पर चड़ा दी जाती है |
इसके बाद के पल, गूंगे के मिठाई खाने वाले अनुभव की तरह है जब वो खादिम पल भर के लिए आपको नीचे झुका कर मज़ार पर पड़ी चादर के अंदर आपका सर कर देता है और मोरपंख के झाड़ू से मारते हुये, आपके सर पर कुछ आयते सी पड़ता है, ये पल रूहानी है, पर इस क्षण के अनुभव को मैं चाह कर भी आपसे सांझा नही कर सकता | यदि मैं अपने आप से भी उस अनुभव को बाँटना चाहूँ तो भी नही बाँट सकता ! इसीलिए मैंने ऊपर गूंगे द्वारा खायी मिठाई का ज़िक्र किया था वो चाह कर भी आपको उसका स्वाद नही समझा सकता और मैं भी …
यही सूफीज्म है जिसके पीछे दुनिया खिंची चली आती है उस एक पल के अनुभव के लिये, और फिर जैसे ही आपके सर से चादर हटती है आप इसी दुनिया में वापिस आ जाते हैं | गुलाब की कुछ पत्तियां आपको दी जाती हैं, जिनमे से कुछ आप खा लेते हो और कुछ सम्भाल कर अपने रुमाल में बांध लेते हो अपने घर के लिए ..
मज़ार से बाहर निकलते ही आपके साथ आया भला इंसान आपको एक और कब्र दिखता है, जो बाबा की बेटी की है यहाँ भी वैसा ही सब कुछ किया जाता है मगर इसमें वो रूहानियत नही, जिसका अनुभव चंद पल पहले ही आप कर चुके हो | बाहर बड़े से सेहन में स्थानीय कव्वाल ख्वाज़ा के दरबार में अपनी-अपनी अर्जियां लगा रहे है, दरगाह के दीदार के बाद के ये पल बेहतरीन हैं और उन्हें सुनना अच्छा लगता है | आप चाहें तो कुछ देर वहाँ बैठकर उन रूहानी क्षणों का आन्नद उठा सकते हो, ऐसे में अपने कैमरे की कमी कुछ और भी ज्यादा खलती है, मोबाइल का कैमरा एक विकल्प तो है पर उसकी काली स्क्रीन धूप में कुछ दिखा नही पाती और आपको अंदाज़ से ही कुछ फ़ोटो खींचने पड़ते है और इधर साथ आया खादिम आपको बाबा के किये कुछ चमत्कारों वगैरह के बारे में बताता जाता है जो कि ख्वाज़ा गरीब नवाज़ के नाम के साथ जुड़े हुये हैं पर अक्सर ही ऐसे किस्से हर जगह पर जुड़ जाते हैं और इनमे कुछ खास नयापन नही होता | वैसे इस दरगाह में मज़ार के बाद कुछ पल कव्वालों की संगत में बैठना एक और यादगार अनुभव है |
सूफीज्म इस्लाम की एक उदार शाखा है जो बना है ‘सूफ़’ शब्द से, जिसका अर्थ है ‘ऊन’, भेड़ की ऊंन से बना वो थोड़ा सा खुरदरा कम्बल, या एक मोटे कपड़े की तरह के बने दुशाले को पैगैम्बर मोहम्मद तथा उनके अन्य साथी औढ़ते थे, सूफी इस्लाम की उस कट्टर विचारधारा से अलग है जिसके साथ इस्लाम को अक्सर ही जोड़ कर देखा जाता है, इसी लचीलेपन की वजह से ख्वाज़ा के साथ-साथ हजरत निजामुदीन औलिया, बाबा बुल्लेशाह, शेख फरीद आदि के कलाम हिन्दुस्तानी जन-मानस में अपनी जगह बना गये | बाबा नानक और कबीर भी इसी परम्परा के वाहक रहे है क्यूंकि उनके कलामों में भी आप उस निराकार रब की कशिश पाते हैं जिसके लिये सूफीज्म जाना जाता है | ओशो का रहस्यवाद भी बुद्ध से लेकर सूफीवाद तक की बात करता है | नुसरत फतेह अली खान से लेकर कैलाश खैर हों या रब्बी, इन सब की पहचान इनके गाये सूफी कलामों की वजह से ही है और सूफीज्म को आम आदमी, और खास तौर पर आज की युवा पीढ़ी तक पहुँचाने में इन सबका योगदान सराहनीय है |
कव्वालों की संगत से उठकर आप दरगाह के कुछ दूसरे हिस्सों को भी देख सकते हैं, जिनमे से एक है जन्नती दरवाज़ा, नाम से ही स्पष्ट होता है कि इसकी जियारत करने वाले को जन्नत नसीब होती है, मगर यह साल में कुछेक मौकों पर ही खोला जाता है | और, फिर आप देख सकते है चार यार, उन दोस्तों की कब्रे जो अफगानिस्तान से बाबा को मिलने आये थे | बाहर की खुली जगह में एक विशाल चूल्हे पर लगी हुयी है, बादशाह अकबर की दी गयी वह देग, जो अकबर ने चित्तोडगढ की विजय पश्चात भेंट की थी, ये भी जायरीनों के आकर्षण का केंद्र है जिसमे कहते है एक बार में उर्स पर 120 मन यानि 4800 किलो चावल पकता है और फिर गरीबों में उसे बांटा जाता है | देग वाकई विशाल है, और इसे बड़ी देग के नाम से जाना जाता है, इसी के साथ ही एक दूसरी देग भी है जो जहांगीर की दी हुई है और इसमें 60 मन यानी 2400 किलो तक चावल पकता है, और जियारीन अपने-अपने अकीदे, जेब और किसी मन्नत के हिसाब से इन देगों में अपना योगदान देते है |
दरगाह से बाहर निकल आप थोड़ा-बहुत इधर-उधर घूम सकते हैं, मगर ऐसी कोई ख़ास दर्शनीय चीज़ नज़र नही आती, हाँ बाज़ार पुराने मिज़ाज़ का है तो आप कुछ ऐसी वस्तुयों को ढून्ढ सकते है जो ‘माल-कल्चर’ और बड़े-बड़े ब्रांड्स की भीड़ में दुर्लभ हो गयी हैं, सो त्यागी जी के साथ घंटा दो घंटे का समय ऐसी कुछ नायाब चीज़ों को दूंदने में निकलता है, जिनमे हींग, लुबान, और गुग्गुल से लेकर कुछ बेहतरीन इत्र तथा क्व्वाल्लियों की कुछ ऐसी CDs इकटठा करने में, जो आज भी कार में स्टीरियो पर चलते ही दोबारा से गरीब नवाज़ के दर तक पहुंचा देती हैं |
बस, ऐसे ही कुछ पलों को अपनी यादों में समेट, इस बात का सकूं भी महसूस कर सकते हो कि भले ही चिश्ती परम्परा में इससे पहले और बाद में भी कई और नामचीन औलिया हुये, पर सूफीज्म की असल रूह तो आज भी ख्वाज़ा को ही माना जाता है, इन्ही कुछेक ख्यालातों के साथ आप ख्वाज़ा से रुखसत लेते हो और शुक्रिया अदा करते हो इस सूफी दरवेश गरीब निवाज का, जिसकी रहमत के सदके, आज भी अजमेर और इसके आसपास का इलाका अपने धर्म-निरपेक्ष और सद्धावी चरित्र को बचा कर रखे हुये है | सूरज की तपिश धीरे-धीरे बढ़ रही है, लेकिन रुकने का समय नही, क्योंकि सदियों पुराना एक मायावी शहर अपने भीतर मिथ और सत्य का तिलिस्म समेटे हुये हमे पुकार रहा है, और हम भीड़-भाड़ भरी संकरी सड़को से जगह बनाते हुये, राजस्थान की इस सांस्कृतिक राजधानी को पीछे छोड़ते हुये पुष्कर के रास्ते पर अपनी कार बढ़ा देते हैं…
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1. प्रजा, the common natives of the state
2. धर्म, religion
3. विश्वास, faith
4. प्रथायें, customs,traditiions
5. सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्व नहीं था. सत भी नही था, स्वर्ग, नर्क और पाताल भी नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था, और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात कुछ बी नही था |
6. वो था हिरण्य गर्भ सृष्टि से पहले विद्यमान
वही तो सारे भूत जाति का स्वामी महान
जो है अस्तित्वमान धरती आसमान धारण कर
ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर
7.कई युगों तक केवल घना अन्धकार ही स्थापित रहा, dark age
8. उसने(ईश्वर) स्वयम ही जन्म लिया, प्रसन्न हुया और सबसे पहले अपने आप को स्थापित किया
Excellent …. something different to read.
Thanx Virag sharma ji for you comment.
I do hope you will like the other posts too.
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Thanx SS ??
You are always generous for extending your knowledge and spirituality over me again and again. In this sense I definitely believe I am blessed, that is why I could become a part of such ? nice and wonderful community of people.
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??? ????.. ??? ?? ???? ??? ?? ????? ???? ?? ???? ??…..LOL
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??? ?? ???? ????? ??? ?? ??? ???? ????? ???????? …. and I am serious on it!!!
Dear Avtar Singh Ji,
Akath ko kathneey banaa dena,
Sirf alfaaz ke boote mumkin nahi.
Rooh jo bheegee ho muhabbat me,
Ye uskaa karnama hai.
One correction is required
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Thank you very much for liking the post and at the same time mentioning towards a crucial mistake. I have already requested the admin to correct this mistake. I do hope, very soon they will correct it.
Thanx again.
Nice Post with beautiful pictures…
Thanx Abheeruchi ji for your comment.
Alas! pics could be more fascinating, but the security at the gate refused to allow for the camera, and these are just mobile pics.
nice post soaked in sufi ocean of love.very good pics.
i was astonished on this much discussion on that line “———baba ka—-khavind ——–.” as i was reading it khadim only perhaps on auto mode.
this is what we call “we see what we think” or “jaa ki rahi bhavna jaisi, hari murat dekhi tin taisi.”
your love and devotion is admirable.
Thank you very much ashok ji for your comment and support, although I am of the view that a mistake is a mistake and it should be corrected at the earliest when come to notice, I am sincerely thankful to Tridev ji and Vinod ji for correcting me and Mr. Nandan for fixing it.
I must say you are always a support right through the journey of my first post on ghumakkar. Thanx.
@Respected Ashok Sharmaji, : Sir, I am extreamly sorry to point out a minute clerical mistake which could be ignored easily “on auto mode”. this tiny clerical mistake itself had rectified many time further in the same travelogue. Neither was my intention to astonish any member of my ghumakkar.com family nor to mke it a matter of discussion on this platform. It is a matter of (by) chance that respected Sh. Vinod Sharmaji also pointed it out. I do appreciate your sentiments in the matter and apologised with best regards.
I am thankful to Dear Avtar who had not taken it otherwise.
Ashok ji, if it will not be replied, it is felt guilty on my part and understood that Your Excellency has not forgiven me.
@Dear Tridev Ji, @Dear Ashok ji
It is my sincere request to mention the mistake, whenever and where ever any esteem member of this site notice either in the content part or in the context part. Here, we do not have the facility of a professional proof reader, therefore it is quite possible that such kind of mistakes surface in any of the post, irrespective of the writer’s intention.
I admire the courage shown by Tridev ji and Vinod ji, which eventually helped for the correction. I also owe to ashok ji for their love and support.
Sincerely Thanx.
Really another excellent post written by you , specialy on Baba Garib Nawaz ….
You seems to be real Ghumakkar with real thoughts…..
Heartily thanks for such a nice Post as well as knowledge sharing about Ajmer Sharif.
Please keep continue sharing.
Again lot of Thanks …
Many thanx Parmender ji for your comment
You are a witness and insipiration of all the ghumakkri.
So please accept a thanx from my side too….
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Mukesh Bhalse ??,
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I dont think there is any fault in the article Mukeshji.. We can have thousands of blogs on Ajmer yatra… but such combination of travel and philosophy both is unique. Singh has given detailed information about the place about his Yatra, alongwith some insights into the philosophy.
Going by your yard-sticks my posts on Ghumakkari – Kuchh Khatti Kuchh meethi must be removed immediately (all the 5 posts)…because they are not actually travel details.
We should encourage such unique writers, in the crowd of boring travel details writers.
I have been to Ajmer many times but never visited any tourist places.
Pictures are too good. I heard that photography is not allowed in Dargah oris there any particular place photography is prohibited?
Many thanx Mahesh Ji for your comment.
Sir, Dargah is not just a tourist destination, its a place of worship, faith and soul of sufism.
Yes, photography is not allowed inside the dargah, but you can take pics outside of it, there are other spots available in the dargah campus for quenching the thirst of photography, although cameras are not allowed to carry.
A very refreshing post Avtar Ji. The photographs of Kawali singing inside Dargah are beautiful.
Thanx sharmistha Dan ji for your nice words.
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Thanx Vipin ji
Great comment indeed.
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Avtar Singh Ji, Namaskar.
Nice post though a bit philosophical though it was not required here sans introduction. Ajmer as seen through your eyer looked good.
Thanx Rakesh bawa ji for your well composed comment. Sir, Philosophy is in the air of such places and if one is a real passionate ghumakkar, can not ignore that aroma.
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Dear Nandan
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And to comment on Ajmer, this made me remember my sojourn with the maula. It was in 1995. NH8 was probably being done and was not complete, because I remember long delays/jams and we spent a considerable amount of time at some dhaba, somewhere in the wild. I think it took ever to reach Ajmer from Delhi in DTC (Delhi Transport Corporation) bus. I was there in Ajmer for my interview for RRB (Railway Recruit Board, Ajmer) and decided to make use of time.
18 years back, for me, the long walk to Dargah was not pleasant. Infact all along, a constant fear and anxiety kept company and it looked as if this narrow alley of overlapping shops and their shamiyana would never end. A very unsure early twenties, lanky fellow in a strange world just walked on. But i made it, staying away from more-pankhi jhaddo folks and what not. Once inside, I looked around, went close to dargah, prayed and quickly returned back. I have no memories of Deg, but I remember the thick air of faith and devotion. My walk back was brisk and a little more sure-footed, almost running the last 100 yards.
I am sure a lot would have changed now, for better.
@ Mr. Singh – I was away and at a place where internet (esp sites like google) were running a bit slow so took me a while to collect my thoughts and publish. I use google transliterate. I was expecting some marks for sense of humour, anyway would try harder. :-)
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Many Thanx Ritesh ji
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Hi Avtarji,
First of all it is a brilliant post. Though I feel writing on religion is kind of tricky and therefore I steer clear of it. And when writing history I use words like reportedly or it is said! But would agree with Rakesh Bawaji about the first para it could have been avoided or softened.
But then when you are visiting Ajmer or a sufi dargah, you tend to get overwhelmed with the presence. Something similar happens at Nizamuddin when the qawaalis pick up tempo and on the day I visited this girl suddenly started dancing as if possessed. So of course you will write about the special something you felt there.
Of course, in such a scenario I would not write about what time my alarm went off in the morning, what I had for breakfast and how I haggled with the auto driver on my way to the dargah. I think it all depends on the place we are writing about. I especially do not write about what to eat and where to stay. Yes it could make sense in a post like going to Lansdowne there all these details will be appreciated by the readers especially when you are headed into the woods and would like to prebook and make sure the hotel bathroom has hot water in the winters!
Everybody knows where Ajmer is and people go there for only one purpose. I liked the long series of discussions and I still feel taking a ghumakkari as an adventure is the best. It could change if you are travelling with family then you would like to be a little prepared. I book my hotels after getting off at the airport/station/bus stand. Sometimes, just going unprepared is the best!
Nandan LOL about me starting from way behind difference in writing posts about Bidar and Kutch Bidar took me almost a month to write and Kutch just a single day!
Mukesh why would anyone really care if Avtarji really liked the gol gappas at the Ajmer dargah parking lot?! During my travels, I dont eat out just few biscuit packets and nimboos bottle! Now I am seriously thinking of changing my writing style no more history lessons!!
I feel blessed that I have been to Ajmer, his successor Qutub Bakhtiyar Kakis dargah in Mehrauli, his disciple Baba Farids khanqah in Mehraulis jungles, his successor Nizamuddin Auliyas dargah, his successor Chiragh Dehalvi (yet to see in Chiragh Delhi), his successor Bande Nawaz (missed seeing his dargah in Gulbarga)!
Thanks for sharing the experience!
Many Thanx Nirdesh ji for your insightful comment. Although, the comment itself resembles a nice post. What you wrote, in this, I really appreciate and echo every word of yours.
I do agree, and perhaps this is the main reason, the places, till now i mentioned in my posts are not the isolated once and nowadays, when net is in your kitty, it seems foolish of my part to give that unnecessary details.
Sir, undoubtedly you are a blessed soul and this truly reflects in your writing. I really feel myself lucky to get the chance of reading some great post of yours.
I is my humble request to you, please do not think for changing your writing style. Everybody has its own style to describe the narration and we must respect this individuality otherwise all the posts will look terribly replica of one another.
Sir, you took enough time and pain to write this wonderful piece of advice, please accept my sincere thanks for this.
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