१७६१७ अप तपोवन एक्सप्रेस मुंबई से चल कर ठाणे – इगतपुरी से होती हुई सुबह १०.१५ पर नासिक पहुँच गई. हालाँकि मेरा आरक्षण वातानुकूलित चेयर कार में था, परन्तु मैंने तकरीबन साढ़े-तीन घंटे की अपनी यात्रा का अधिकांश हिस्सा उस कोच के दरवाजे पर बिताया था, जहाँ से सह्याद्री की असंख्य घाटियों का प्रशंसनीय सौन्दर्य देखते बनता था. पर्वत-श्रृंखला की हरी-भरी घाटियों ने, भरी-पूरी नदियों ने और अनगिनत छोटे-बड़े जलप्रपातों ने मेरा उत्साह दुगना कर दिया था. मानसून अपने चरम पर था और प्रकृति श्रृंगार रस से व्याप्त थी. वर्षा-जल-बिन्दुओं से मेरा चेहरा कई बार भींग चुका था और मस्तक पर स्थित केश भी जल से परिपूर्ण हो गए थे. वह ट्रेन इतनी लम्बी थी कि मेरी बोगी धीरे-धीरे स्टेशन के टिन-शेड को पार करती हुई प्लेटफार्म के बाहर जा कर रुकी, जहाँ मुसलाधार वर्षा हो रही थी. चेहरा तो पहले से ही भींगा था और तब बदन भींगते भी देर न लगी. और इस तरह मैं ३१ जुलाई २०१६ रविवार के दिन नासिक पहुँच गया.
सम्पूर्ण नासिक शहर वर्षा से ओत-प्रोत प्रतीत हो रहा था. सड़कें धुली हुईं लगतीं थीं. भवन पूरे भींगे हुए थे. सड़कों पर चलने वाले सभी वाहन भींगे हुए थे. लोग-बाग अपनी-अपनी छतरियां ताने चल रहे थे और पेड़-पौधे जल की बूंदे बरसा रहे थे. ऐसे मौसम में गेस्ट हाउस में गर्म-गर्म चाय की चुस्कियों का आनंद उठाने के बाद, तीन यात्रियों की हमारी एक छोटी टोली, बेहद खूबसूरत नासिक-त्र्यम्बकेश्वर राजमार्ग पर स्थित अंजनेरी पर्वत के तलहटी की ओर चल पड़ी. नासिक से त्र्यम्बकेश्वर करीब २५ किलोमीटर के दूरी पर है. त्र्यम्बकेश्वर के ४-५ किलोमीटर पहले ही अंजनेरी पर्वत की ओर जाने का मुहाना राजमार्ग के बायीं तरफ खुलता है. वहाँ एक बोर्ड भी लगा हुआ है, जिससे यात्रियों को मार्ग पहचानने में कोई असुविधा नहीं हो.
मुहाने से लगभग २ किलोमीटर की दूरी पर अंजनेरी गाँव था. रास्ता पथरीला और उबड़-खाबड़ और कीचड़-युक्त छोटे-छोटे गड्ढों से भरा था. उस रास्ते पर गाड़ी चल सकती थी, जिससे हम सभी अंजनेरी गाँव तक पहुँच गए. वहाँ एक हनुमान मंदिर था, जिसके सामने गाड़ी पार्क कर दी गई. वर्षा में भींगना तो निश्चित था, परन्तु वहीँ पर गाड़ी रोक कर हमलोगों ने बरसाती पहना और छतरी इत्यादि से लैस हो गए. हालाँकि यात्रा के बाद ऐसा महसूस हो रहा था कि बरसाती इत्यादि ना ही पहनते, भींगते चलते तो और भी आनंद आता. पर उस बरसाती ने, मुझे तो नहीं, पर मेरे मोबाइल कैमरे को वर्षा और नमी से जरूर बचाया.
पर्वत की तलहटी वहाँ से लगभग २ किलोमीटर दूर थी. वहाँ तक का रास्ता घुमावदार, पथरीला और उबड़-खाबड़ था. उस पर चलने वाली गाड़ियाँ भयानक हिचकोले ले रहीं थी. पर पदयात्री की लिए, उस मौसम में, वह रास्ता बेहद ख़ूबसूरत नज़ारा पेश कर रहा था. मैं धरती पर नीचे उतर आये बादलों के बीच चल रहा था, पौधों और वृक्षों से हरे हो चुके पहाड़ों को निहार रहा था, कलकल बहने वाले झरनों की आवाज सुन रहा था, उन्मुक्त स्वच्छ हवा में साँसे ले रहा था. ऐसे में सड़कों का पथरीला होना क्या महत्व रखता है? तीन-चार घुमाव के बाद रास्ता समतल हो गया. अब तो प्रकृति की छटा देखते ही बनती थी. बस एक तस्वीर की कल्पना कीजिये जिसमें आप दो पहाड़ों के बीच की समतल घाटी पर खड़े हों, ठंडी हवाएं आपको हौले-हौले छू रहीं हों, हल्की-हल्की बारिश आपको भींगा रही हो, बादलों से आच्छादित पर्वत आपको बुला रहे हों और घाटियाँ नर्म घास की हरी-हरी चादर बिछाए हुए हो.
उत्साह-पूर्वक चलते हुए हमलोग अंजनेरी पर्वत की तलहटी तक पहुँच गए. यहाँ स्थानीय लोगों ने कुछ छोटे-मोटे इन्तेज़ामात कर रखे हैं. आपको कुछ नास्ता-चाय मिल सकता है, पार्किंग भी यहाँ उपलब्ध है. वन-विभाग का एक केबिन भी है. यहाँ से सीढियां शुरू हो जातीं हैं. पर हमलोग सीढ़ियों पर चढ़ने के बजाय तलहटी के किनारे-किनारे चलने लगे. वह रास्ता हमलोगों को एक ऐसे स्थान पर ले आया, जहाँ से अंजनेरी पर्वत के तीन-चार झरने एक-साथ दिख रहे थे. ऊँचे पर्वतों से गिरने वाले झरनों ने शताब्दियों से मनुष्यों का मन जीता है. हमलोग भी रीझ गए थे. हर-एक से दूसरा खूबसूरत लग रहा था. वहाँ से हटने का मन ही नहीं कर रहा था, परन्तु वह रास्ता हमारे गंतव्य तक नहीं जा रहा था. इसीलिए उस जगह से वापस हो कर सीढ़ियों तक आना पड़ा.
इतनी बारिश में वे सीढियां गीली हो कर चिकनी हो गईं थीं. कहीं कहीं पर तो बिलकुल टूट-फूट चुकीं थीं. उन पर चलने के लिए पैर सधे होने चाहिए, अन्यथा पैरों के मुड़ने का और फिसलने के डर होता है. परन्तु मन का उत्साह भी चरमोत्कर्ष पर था, वैसे में भय का कोई स्थान नहीं. सिर्फ थोड़ी सावधानी बरतते हुए मैं आगे चलता रहा. हर थोड़ी-दूर पर छोटे-छोटे झरने पहाड़ से गिर कर सीढियाँ धो रहे थे. उन्हें पार करने के लिए उन्हीं में से जाना पड़ता था. उनकी सुन्दरता और सहजता ऐसी थी कि मानों हर झरना मुझे रोक कर कहना चाहता हो कि कुछ देर तक मैं उसके पास बैठा रहूँ. निस्संदेह मैं हर छोटे झरने के पास बैठ कर उनके कलकल ध्वनि में उनकी आपबीती सुनना चाहता था. परन्तु आगे प्रवास करना भी एक मजबूरी थी. परन्तु साथ ही एक उत्साह भी था, क्योंकि जिस झरने की छोड़ कर मैं उदास हो जाता था, उससे भी सुन्दर, बलशाली और वृहत झरना आगे के मार्ग में मिल कर उत्साह-वर्धन करता था.
इसी तरह से छोटे-छोटे झरनों से मिलते हुए मैं चला जा रहा था, समतल घाटी नीचे छूटती जा रही थी, पर्वत की ऊँचाई बढती जा रही थी, पर्वत के किनारों पर लगे रेलिंग्स कहीं सहारा देते थे और बारिश लुका-छिपी खेल रही थी. मानसून-कालीन प्रकृति अपने उफान पर थी. तभी मैं दो पर्वतों के बीच बनी एक ऊँची घाटी के पास पहुँच गया, जो बारिश में एक बहुत बड़े झरने में परिवर्तित हो चुकी थी. करीब ५०० सीढियां झरने पर ही बनीं हुईं थीं. अब हमें इसी झरने के बीचों-बीच चलना था. सीढ़ियों पर जल का बहाव बहुत तीव्र था. और झरने की सुन्दरता अतुलनीय. इस झरने में आप किसी भी तरह अपने जूतों को, पैरों को भींगने से नहीं बचा सकते और यदि सीढ़ियों पर बैठना चाहें तो अपने कपड़ों को भी नहीं बचा सकते. यहीं आ कर लगता था कि बरसाती मेरे लिए बेकार थी, सिर्फ मोबाइल बचाने के लिए थी. नीचे से उस झरने की पूरी ऊँचाई का पता नहीं चलता. जैसे-जैसे आप ऊपर चलते जाते हैं, झरने का उपरी भाग दृष्टिगोचर होता जाता है. जल अपनी मात्र और अपने वेग के कारण जूतों के अन्दर चला गया. इतना ठंडा पानी कि पैरों की उंगलियाँ नरम हो गईं. हमलोग सीढ़ियों पर बहते उस विशाल झरने के बीच चलते रहे. पर यह इस पदयात्रा का अनूठा अनुभव था. वहाँ बड़ा मज़ा आया था.
तत्पश्चात एक समतल शिखर आया, जो पूरी तरह से कोहरे से ढका हुआ था. कोई संकेत भी नहीं दिख रहा था. यहाँ हमलोग कुछ देर के लिए रास्ता भटक गए और एक छोटी पहाड़ी बरसाती नदी की धारा के पास पहुँच गए. वहां बहुत ही तीव्र गति से हवा चल रही थी. वहाँ खड़े होकर हमलोग सोचने लगे कि अब नदी के उस तेज बहाव को किस स्थान पर पार किया जाय, तभी ख्याल आया कि हमारे अलावा और कोई भी अब तक उस रास्ते पर क्यों नहीं आया? इस प्रकार सोच कर कुछ देर और यात्रियों का इंतज़ार करने लगे. जब कोई भी नहीं आया, तो हमलोग वापस लौट कर उस स्थान तक आये जहाँ से हम पहले मुड़े थे. एक परिवार उस वक़्त वहां बैठ कर अपनी थकान मिटाते हुए घर से लाया हुआ भोजन कर रहा था. उनसे सही मार्ग पूछ कर हमलोग आगे बढे.
अंजनी माता का मंदिर वहाँ से लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर होगा. कोहरे से पटे शिखर पर रास्ता लगभग समतल हो चला था. बारिश से जगह-जगह कीचड़ लगे थे, जिन पर जूते फिसलते थे. पर जब दूर से अंजनी माता का मंदिर दिखाई दिया, तो रास्ता भटकने का भय जाता रहा और मन में प्रसन्नता छा गई. सधे क़दमों से चलते हुए, तीव्र ठंडी हवाओं के मध्य हमलोग अंजनी माता मंदिर पहुँचे और दर्शन किया. इस मंदिर में माता अंजनी की एक प्रतिमा है, जिसकी हनुमान जी पूजा कर रहे हैं. पर यह मंदिर हनुमानजी का जन्मस्थान नहीं है. मंदिर के सामने एक मानव-निर्मित पोखरा था. एक स्थानीय परिवार, मंदिर के नजदीक एक झोपड़ी में, यात्रियों को चाय-जलपान इत्यादि उपलब्ध करा रहा था. उसके झोपड़े से निकल कर गर्म-गर्म मैगी की सुगंध उस नम वातावरण में फैल रही थी. पर हनुमान जन्मस्थान के दर्शन हेतु अभी तो हमें एक और पर्वत चढ़ना शेष था.
दूसरी पर्वत चोटी अंजनी माता मंदिर से लगभग डेढ़ किलोमीटर पर थी. किम्वदंती है कि माता अंजनी ने वहाँ तपस्या की थी, जिससे भगवान् शिव प्रसन्न हो गए थे. तत्पश्चात हनुमान जी का जन्म हुआ था. सीढ़ियों वाला रास्ता अंजनी माता मंदिर के पीछे से शुरू होता है. ज्यादातर लोग अंजनी माता मंदिर को ही वास्तविक स्थान समझ कर लौट जाते हैं. पर हमलोगों को मालूम था कि अभी और जाना है. बादलों के धरातल पर आ जाने से एक गहरा कुहासा छाया हुआ था. उस पर हमारे जूतों में पानी चले जाने से पैर एकदम ठंढे और उंगलियाँ कोमल हो चुकीं थीं. सीढ़ी घुमावदार थी और तुरंत ही बड़ी ऊंचाई लेने वाली थी. वहां धीरे-धीरे चल कर पहाड़ के ऊपर चढ़ना ज्यादा हितकारी था. शिखर के पास सीढियां समाप्त हो जातीं हैं और एक सपाट पहाड़ी शुरू हो जाती है. सपाट रास्ता चिकने कीचड से पटा था, जिसमें पैर फिसलते थे. बीच-बीच में घनघोर बारिश भी होने लगती थी. कुहासे के कारण शिखर दीखता नहीं था. ऐसे में आगे के रास्ते का ज्ञान या आभास मुश्किल हो जाता है. रास्ता समझाने के लिए कहीं-कहीं धरातल पर नारंगी-पीले रंग से तीर का निशान बनाया गया था, जिसे ढूँढ-ढूँढ कर हमलोग निश्चिंत भाव से आगे बढ़ते रहे.
सपाट शिखर पर करीब ढेढ़ किलोमीटर चल कर अंजनी माता का तपस्या स्थल आ गया, जो कुहरे से बिलकुल ढका हुआ था. मंदिर के अहाते में मानसून के दिनों में एक टिन-शेड लगा दिया गया था. हमलोग भी ठीक वहीँ जा कर रुके और मंदिर में अन्दर जाने हेतु जूते उतारने के लिए चबूतरे पर बैठ गए. बिलकुल गीले हो चुके जूतों से पैर निकालने पर पता चला कि जल से भींग कर कोमल हो चुके पैरों की एडियाँ छिल चुकीं हैं. खैर, दो स्थानीय नवयुवतियाँ मंदिर के दरवाजे पर खड़ी हो कर फूल-पत्ते-नारियल और अगरबत्ती बेच रहीं थीं. उनसे पूजन-सामग्री खरीद कर मैं मंदिर के अन्दर गया और दर्शन-पूजन किया. वहाँ दो पिंडियाँ हैं-एक अंजनी माता और एक बाल हनुमान की. उनके ऊपर कई घंटे बंधे हैं. बरामदे पर बोर्ड पर हनुमान चालीसा मुद्रित है. वहाँ बैठने में काफी शांति का अनुभव होता है. उस वक़्त दोपहर के साढ़े तीन बज चुके थे और अभी नीचे लौटना बाकी था. अंजनी गाँव से वहाँ तक की दूरी करीब ८.५ किलोमीटर थी.
मन मसोस कर मैंने फिर से जूते पहने और नीचे उतरने की यात्रा प्रारंभ कर दी. शिखर का वह स्थान कई प्रकार की ज्ञात-अज्ञात जड़ी-बूटियों वाला प्रदेश मालूम पड़ता था. थोड़ी दूर पर एक स्थान आया जहाँ एक पत्थर के ऊपर दूसरा पत्थर रख कर कई छोटे-छोटे टीले बने हुए थे. पता नहीं इनका क्या महत्त्व है? कौन इन्हें बनाता है? उसके थोड़ी ही दूर पर एक गहरी खाई नज़र आई. जिसमें बादल की बूंदे नीचे से ऊपर की और बह कर एक उलटे झरने का अहसास दिला रहीं थीं. वहाँ पर हवा इतनी तेज थी कि एक असावधान मनुष्य को उड़ा ले जाए. पैरों को दबा कर मैं सीढ़ियों से उतर रहा था कि मध्य में एक शिला पर हनुमान जन्मस्थान की और इशारा करने वाला संकेत दिखाई दिया. उस संकेत की दिशा में हमलोग चल पड़े. वह रास्ता संकरा था, जिसके एक तरफ खाई और दूसरी तरफ पहाड़ की ढाल थी. कुछ दूर उस संकरे रास्ते पर चलने से एक गुफा-द्वार मिला, जिसके एक किनारे पर एक बरसाती झरना बड़े वेग से प्रवाहित हो रहा था.
झरने से उड़ती हुई जल-बिन्दुओं ने वहाँ कुहरे की एक विशेष चादर बना दिया था, जिससे सबकुछ धुंधला दिख रहा था. उस गुफा में एक साधू लेता हुआ था. वहीँ पर एक स्टील की बनी हुई लम्बी गदा रखी थी. गुफा करीब १५ फीट गहरी होगी और उसके अन्दर अंजनी माता को इंगित करती हुई पिंडी थी. वहाँ एक दान-पात्र और स्टील के खाने-बनाने के बर्तन भी थे. उस साधू ने बताया की वह वहीँ निवास करता है. उसी ने बताया कि वही हनुमान जी का वास्तविक जन्मस्थान है. उसी गुफा के किनारे की दीवाल से एक और गुफा अन्दर कटती है, जिसका मुहाना तो छोटा है परन्तु अन्दर जा कर वह गुफा कुछ फैल जाती है. पर वहाँ सभी लोग नहीं जाते.
हनुमान जन्मस्थान देख कर मैं प्रसन्न हो गया. वहाँ भी कुछ समय बिताने के बाद नीचे की यात्रा पुनः आरम्भ किया गया. सीढियां जहाँ पर ख़तम तो रहीं थीं, वहीँ से एक संकरा पहाड़ी मार्ग कट रहा था. इस बार हमलोग उस पहाड़ी मार्ग पर चलने लगे. वह मार्ग हमें एक दूसरी गुफा के सम्मुख ले आया, जिसके दरवाजे पर ही मूर्तियाँ तराशीं हुईं थीं. यह हिंगलाज देवी की गुफा थी. किम्वदंती है कि वहाँ सीताजी और अंजनी माता भी आयीं थीं. हिंगलाज देवी आदिशक्ति दुर्गा/पार्वती की स्वरूप मानी जातीं हैं. इस गुफा के अन्दर घुप्प अँधेरा था. गुफा में दो कक्ष थे. बाहरी कक्ष में धनुर्धारी राम और लक्ष्मण के साथ हनुमान की प्रतिमा तराशी हुई थी. अंदरूनी कक्ष में इतना अँधेरा था और मकड़ी के जाले लगे थे कि उसमें हमलोगों ने जाना उचित नहीं समझा क्योंकि बारिश में सर्प और बिच्छू भी हो सकते थे.
उस गुफा से थोड़ी दूर पर आधुनिक दौर का बना हुआ दत्त मंदिर का परिसर था. वह धरती से थोड़ी नीचे जमीन पर बना था. उस दिन उसके चारों ओर की जमीन की मिटटी गीली हो कर इतनी पतली हो गई थी कि उसमें पैर धंस रहे थे. इसीलिए सिर्फ एक तस्वीर खींच कर मैं वहाँ से लौट आया. वैसे भी अभी तक हमलोग अंजनी माता मंदिर तक नहीं पहुँचे थे. ४.३० बज चुके थे. अतः अब हम लोग जल्दी-जल्दी चलना चाहते थे. परन्तु हमलोग ऐसा नहीं कर सके क्योंकि वहाँ की मिट्टी पर पैर थम ही नहीं रहे थे. बिलकुल गीले हो चुके उस जमीन पर धीरे-धीरे ही चला जा सकता था. रास्ते में एक झील मिली, जिसका नाम अंजनेरी झील था. निरंतर बारिश से झील लबालब भर चुकी थी. कहा जाता है कि बाल हनुमान जब सूर्य को निगलने के लिए उछले थे तब, उनके पैर से दब कर इस झील का निर्माण हुआ था. उस समय कुहासे में ढकी झील का नजदीकी हिस्सा ही नज़र आ रहा था.
०४.४५ बजे, जब हमलोग अंजनी माता मंदिर के निकट स्थित झोपड़े पर पहुँचे तो भूख से बुरा हाल हो चुका था. गर्म-गर्म मैगी की सुगंध से हम वाकिफ़ थे. अतः झोपड़े पर रुक कर पहले मैगी का सेवन किया और फिर पहाड़ से नीचे उतरने लगे. एक बार फिर सीढ़ी वाले विशाल झरने को पार किया और लगभग ०५.३० बजे तलहटी तक पहुँच गए. वहाँ से २ किलोमीटर पर हनुमान मंदिर के पास हमारी गाड़ी हमें वापस ले जाने के लिए खड़ी थी. हनुमान मंदिर पर आ कर अपने मोबाइल एप में देखा तो करीब १६ किलोमीटर की पदयात्रा हो चुकी थी. पर अब थकान नहीं, आनंद्वर्धक उत्साह की अनुभूति हो रही थी, क्योंकि तब अंजनेरी पर्वत भी फ़तह हो चुका था.
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