औरंगाबाद में प्रथम दिन

औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में, अगर आपका सिर्फ दो दिनों का प्रवास हो, तो आप वो दो दिन कैसे बिताएंगे? यदि घुमक्कड़ी पसंद हो, तो आपके लिए मैं अपने अनुभव प्रस्तुत करता हूँ. उस समय मार्च-अप्रैल का महीना चल रहा था. गर्मी के महीने अभी पूरी तरह शुरू भी नहीं हुए होंगे कि औरंगाबाद में गर्मी बढ चली थी.  टोपी और सन-स्क्रीन फायदेमंद थे. लगता है कि यहाँ बरसात के मौसम में आना चाहिए. शायद बरसात में गीले और हरे हो चुके वनस्पतियों के बीच यह शहर और यहाँ की वादियाँ और भी सुन्दर लगतीं. यात्रा-मार्ग की दिशा व दूरी और गंतव्य पर पहुचने की सुविधा के ख्याल से प्रथम दिवस को हमलोगों ने ग्रिश्नेश्वरमंदिर एल्लोरा गुफा”, “भद्र मारुती मंदिर – औरंगजेब का मक़बरा” तथा “पनचक्की बीबी का मकबरा देखने का निश्चय किया. आप चाहें तो इसी यात्रा मार्ग पर “दौलताबाद का किला” भी जा सकते हैं.

औरंगाबाद का दिल्ली गेट

पूर्व-लिखित निश्चय के आधार पर हमारी प्रथम दिन की शुरुवात प्रातः ०७.४५ को हुई, जब हमलोग अपने होटल से निकल कर ग्रिश्नेश्वर मंदिर में पूजन हेतु चल पड़े. थोड़ी-ही दूर पर एक मध्य-कालीन दरवाज़ा (दिल्ली गेट) मिला. पुराने मध्यकालीन शहरों की यह एक परंपरा रहती है कि जिसमें दीवारों-से घिरा हुआ शहर होगा, जिसमें कई दरवाज़े होंगे.  औरंगाबाद भी दरवाजों का शहर था. दिल्ली दरवाज़े से निकल कर आगे बढ़ने पर , करीब २५ मिनटों की दूरी पर (कार से), “दौलताबाद का किला” आ गया. किला एक पहाड़ी पर था. साथ ही उसके अन्य अवशेष तलहटी पर भी एक बड़े इलाके में फैले हुए थे. उसके पास से गुजरते हुए उसे देखने का बड़ा-ही लालच होता था. पर शायद उसके लिए प्रातः और भी जल्दी उठ कर यात्रा प्रारंभ करनी चाहिए थी. (पर अच्छा रहेगा कि इस किले की यात्रा के लिए अलग से एक दिन का प्लान बना लें.) समय की थोड़ी कमी तथा सूरज की निरंतर बढ़ने वाले तपिश से कारण हमलोगों को इस किले की यात्रा छोड़नी पड़ी.

दौलताबाद क़िला का एक बिहंगम दृश्य

किले से अगले लगभग आधे घंटे के सफ़र बाद हमलोग ग्रिश्नेश्वर मंदिर परिसर (वेरुल गाँव) तक पहुँच गए. हमलोग यहाँ रुद्राभिषेक पूजन के प्रयोजन से ही आये थे. मंदिर के बाहर फूल, नारियल एवं अन्य पूजन सामग्रियों की कई दूकानें थीं.  वहाँ से पूजन सामग्रियाँ लेते हुए हमलोग मंदिर के प्रांगन में प्रवेश कर गए. पुरुषों को मंदिर के गर्भ-गृह में प्रवेश हेतु शर्ट इत्यादि उतारने पड़ते हैं. जिसके लिए हमलोगों को यहाँ के प्रशानिक कार्यालय से भी समुचित सहायता मिल गई. वहीँ से प्राप्त एक शाल अपने शरीर पर लपेट कर मैंने अपने परिवार सहित  गर्भ-गृह में प्रवेश किया तथा वहां स्थित पुजारी की देख-रेख में निश्चिंत मन से ज्योतिर्लिंग का पूजन किया. पूजन के बाद परिक्रमा की परंपरा है, जिसका हमलोगों ने पालन किया. ग्रिश्नेश्वर की परिक्रमा आधी-ही की जाती है, क्योंकि यहाँ भगवन शिव की ही पूजा होती है. मान्यता है कि पूरी परिक्रमा उसी शिव मंदिर की होती है, जिसमें शिव के साथ-साथ विष्णु का भी विग्रह हो. ग्रिश्नेश्वर मंदिर में एक और प्रथा है कि गर्भ-गृह में जाने के पहले प्रांगन में स्थित “कोकिला देवी” को प्रणाम करें. लोकोक्ति है कि कोकिला देवी भगवान् को आपके आने की सूचना देतीं हैं. खैर, हमें इस प्रथा का पता बाद में चला, जिसके कारण हमलोग ऐसा नहीं कर पाए. परन्तु, पूजन-परिक्रमा के बाद हमलोग मंदिर के प्रांगन में ही कुछ देर तक बैठे रहे क्योंकि वहाँ एक अलौकिक शांति का अनुभव हो रहा था. ग्रिश्नेश्वर ज्योतिर्लिंग का इतिहास तो पूर्व-वर्णित है.

ग्रिश्नेश्वर मंदिर का एक दृश्य

वैसे तो ग्रिश्नेश्वर परिसर से बाहर निकलने के बाद, यदि आप चाहें तो आसपास स्थित कुछ आश्रम इत्यादि देख सकतें हैं, पर मंदिर परिसर से बाहर आने के बाद हमलोग भोजन करना चाहते थे. जिसके लिए वहीँ से लगभग आधे किलोमीटर पर स्थित “होटल कैलाश” आ गये. यह होटल एल्लोरा की गुफ़ाओं के लिए जाने वाली सड़क पर उसके बिलकुल नज़दीक था. सुविधाजनक पार्किंग भी मौजूद थी. भोजन इत्यादि से निवृत्त हो कर हमलोग यहीं से “एल्लोरा की गुफ़ाओं” की और चले. प्रवेश स्थल पर आजकल “महावीर स्तम्भ” का निर्माण हुआ है, जिसमें समय तथा तापमान दिखने वाली डिजिटल घड़ी लगी हुई है. स्थानीय लोग भांति-भांति के खाद्य पदार्थ ले कर वहाँ बेचने के लिए भी आते हैं. फोटोग्राफर तथा गाइड सुविधा भी मिलती है. लंगूरों की टोलियाँ भी काफ़ी संख्या में यहाँ मौजूद थीं, जो असावधान यात्रियों के खाने की वस्तुओं पर अचानक  झपट सकते हैं. खैर, टिकट खिड़की से टिकट लेने के पश्चात हमलोगों ने गुफ़ा परिसर में लगभग १०.४५ पूर्वान्ह में प्रवेश किया. इस वक़्त तक सूरज मानों बिलकुल सर पर चमकने लगा था और काफ़ी गर्मी हो चली थी. मराठवाडा की विख्यात गर्मियों से हमारा पहला परिचय था.

महावीर स्तम्भ

शुक्र था कि हम सबने अपनी-अपनी टोपियाँ साथ रखीं थीं और पानी की बोतलें भी ले लीं थीं. विश्वदाय स्थल एल्लोरा के बाहरी प्रवेश द्वार से भीतर प्रवेश करते ही एक फूलों का बाग़ आता है. उस बगिया के पीछे विख्यात कैलाश मंदिर वाली गुफ़ा नज़र आती है और आपका आश्चर्य-चकित होने का क्रम शुरू हो जाता है. इस गुफ़ा को गुफ़ा संख्या १६ से अंकित किया जाता है.  कैलाश गुफ़ा तत्कालीन नक्काशी की पराकाष्ठा है. शिल्पकारों ने पहाड़ की बेसाल्ट की शिलाओं को ऊपर से तराशते हुए एक भव्य मंदिर-परिसर का निर्माण किया है. गुफ़ा के बगल से एक मार्ग गुफा के ऊपर तक जाता है, जहाँ से पूरे मंदिर की बाहरी नक्काशियों की तस्वीरें ली जा सकतीं हैं. चट्टानों को काट कर गढ़ने वाले शिल्पकर्मियों पर घमण्ड और उनके अलौकिक कृतों पर चरम आश्चर्य आने लगता है. जी में आता है कि कई दिनों तक इसी गुफा को देखूं तथा एक पूरा लेख सिर्फ इसी मंदिर के ऊपर लिख डालूँ. पर अब आगे लिए चलता हूँ.  इस गुफा क्रमांक १६ से दाहिनी और की गुफाएं बौद्ध –कालीन (गुफ़ा संख्या १-१२)हैं और बायीं तरफ की गुफाएँ जैन-धर्म (गुफ़ा संख्या ३०-३४) की. दोनों तरफ जाने के लिए गुफा नंबर १६ के सामने से पर्यटक बसें भी चलाईं जातीं हैं. 

एल्लोरा का गुफा संख्या १६ का एक विहंगम दृश्य

उस दिन हम लोगों ने, सूरज की चढ़ती जाती गर्मी से परेशान हो कर निर्णय किया कि केवल जैन गुफ़ा ही देखें. इसलिए १६ नंबर की गुफ़ा से निकल कर, बस पर सवार हो कर, गुफा नंबर ३२ चले आये. इस गुफ़ा में भी उसी प्रकार से एक पर्वत की चट्टानों को ऊपर से तराश कर एक दुमंजिला  मंदिर का निर्माण किया गया था. यहाँ भगवान् महावीर, जैन तीर्थंकर, मातंग और अम्बिका इत्यादि की मूर्तियाँ हैं. मातंग की मूर्तियों को कुछ लोग इन्द्र और अम्बिका की मूर्ती को इन्द्राणी की मूर्ती भी कहते हैं. जिस मंजिले पर जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ लगीं हैं, उसका “जगन्नाथ” हाल नाम भी वहाँ सुनने को मिला. गर्भ-गृह के बाहरी  खम्बों पर हाथों से आघात करने पर उनकी गूँज पूरे कक्ष में सुनाई देती है, जिसे सुना कर लोग-बाग़ प्रसन्न होते हैं मानों आज उन्होंने कोई बड़े रहस्य का उद्बोधन किया हो. कुछ भित्ति-चित्रों के अवशेष भी यहाँ की छतों पर दिखाई देते हैं. पर इस गुफ़ा में सर्वोत्तम शिल्प-कृत्य का दर्शन यहाँ के खम्बों पर बने दीपस्तंभ से होता है. ऐसा लगता है की मोतियों-माणिकों  से भरा कोई चषक रखा हो. इन गुफ़ाओं में शिल्पकारों की प्रशंसा कितनी भी जाए, कम पड़ती है.

एल्लोरा के गुफ़ा संख्या ३२ का एक दृश्य

इधर समय की सुई भी धीरे-धीरे बढ़ती चली जा रही थी. सूरज की असँख्य रश्मियों के तले धरती भी लगभग सुलग रही थी. पानी की बोतलें भी खत्म होती जा रहीं थीं. अंततः लौटती हुई बस यात्रा कर हम गुफ़ा संख्या १६ के सामने आ गए और वहाँ से एल्लोरा परिसर के बाहर निकल गए. सही थी या फिर ग़लत, पर “महावीर स्तम्भ” पर लगी डिजिटल घड़ी उस वक़्त का तापमान ४७ डिग्री सेल्सिअस बता रही थी और समय हुआ था १२.४५ अपरान्ह. वहाँ से लगभग ६-७ किलोमीटर पर एक शहर है “खुलताबाद”. वहाँ मुग़ल बादशाह “औरंगज़ेब” का मक़बरा है. इसी बादशाह के नाम पर औरंगाबाद का नाम पड़ा है. दिल्ली में “हुमायूँ”, सिकंदरा में “अकबर” और आगरे में “शाहजहाँ” के मक़बरे पहले ही देख चुका था. इसीलिए एल्लोरा से निकल कर खुलताबाद के लिए हमलोग चल पड़े. उसी शहर में हनुमान जी का एक मंदिर प्रसिद्ध है, जिसका नाम “भद्र मारुति मंदिर” है. यहाँ शयन-मुद्रा में हनुमान जी की प्रतिमा है. मंदिर के बाहर कई दुकाने हैं जिनमें खोये के पेड़े बिकते हैं. जब हम उस मंदिर में पहुँचे, उस वक़्त प्रतिमा का सिन्दूर से श्रृंगार चल रहा था. शीघ्रता से पूजन-अर्चन कर हमलोग लगभग १.१५ बजे मंदिर से निकल पड़े.

भद्र मारुती मंदिर का प्रवेश द्वार

करीब आधे किलोमीटर चलने के बाद वह इलाक़ा आ गया जहाँ औरंगज़ेब की मज़ार थी. गाड़ी कुछ दूर पर ही पार्क करनी थी क्योंकि बाकी का रास्ता बाज़ारों के बीच से जाता था. इतरों की खुशबू से भरे उस  बाज़ार को, जिसमें खास कर विदेशी पर्यटकों का दिल जीतने के लिए रखे हेंडीक्राफ्ट थे, पैदल पार कर हमलोग एक मस्जिद में जा पहुँचे. उसी में खुले आकाश के नीचे एक जालीदार संगेमरमर की चाहरदीवारी के भीतर औरंगज़ेब की मज़ार थी. उस मज़ार की मिट्टी में एक तुलसी का पौधा लगा था. वहाँ के स्थानीय लोगों ने एक नेत्र-हीन विश्वासी व्यक्ति को तैनात कर रखा था, जो हर पर्यटक को मुग़ल बादशाह के यहाँ दफ़न किये जाने और उसकी अंतिम दिनों में बिताये मितव्ययिता के किस्से सुनाता था. बदले में उसे पर्यटक कुछ रुपये देते थे. हमलोगों ने भी तन्मयता के साथ वो किस्से सुने और फिर मज़ार परिसर से बाहर आ गए. इस वक़्त लगभग १.३० अपरान्ह के बज चुके थे. गर्मी इतनी ज्यादा थी कि भूख से ज्यादा प्यास लगती जाती थी. वातानुकूलित गाड़ी में बैठ कर, तरल पदार्थ की अपनी तलब पानी तथा बोतल-बंद जूस से पूरी करते-करते, दौलताबाद किले को एक बार फिर बाहर से ही देखते हुए, वहाँ से २४ किलोमीटर का सफ़र तय कर,  लगभग ०२.०० बजे अपरान्ह पर हमलोग औरंगाबाद शहर में “पनचक्की” के पास खड़े थे.

औरंगज़ेब के मज़ार का दृश्य



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पनचक्की मध्ययुगीन यांत्रिकी (सन १७४४) का एक उदहारण है. उस समय मिट्टी की पाइपों से जल आता था और उसे एक जलाशय में रखा जाता था. पत्थरों की चक्की के नीचे लगे हुए लोहे के फलकों पर जब जल गिरता था तो गति के नियमों के अनुसार चक्की चल पड़ती थी. अनवरत चलती हुई उसी चक्की से मध्यकाल में  अन्न पीसने का कार्य भी किया जाता था. चक्की तो बिजली की सहायता से आज भी चलाई जा रही थी ताकि पर्यटक अनुमान लगा सकें कि वह कैसे कार्य करती होगी. वहाँ एक बरगद का वृक्ष भी था, जिसपर लगे बोर्ड के अनुसार वह ६०० वर्ष पुराना था. जलाशय में पानी था, जिसमें लोग वहीँ खरीद कर मछलियों को चारा डाल सकते थे. पनचक्की आश्चर्यजनक तो थी, परन्तु यदि आप वहाँ स्थित बाज़ार में ध्यान केन्द्रित नहीं करें तो उसे देखने में ज्यादा समय नहीं लगता. आप इसी से अंदाज़ लगा सकते हैं कि पनचक्की देखने के पश्चात लगभग २.१५ अपरान्ह तक हमलोग वहाँ से मात्र २ किलोमीटर पर स्थित “बीबी का मकबरा” पहुँच गए.  

पनचक्की का एक विहंगम दृश्य

“बीबी का मकबरा” देखते ही ताजमहल की याद आ गई. वह एक छोटा ताजमहल के जैसा दीखता था. पर ध्यान से देखने पर पता चल ही जाता है कि संगमरमर पत्थरों का जो इस्तेमाल ताजमहल में किया गया था, वैसा बीबी के मकबरे में नहीं किया जा सका था. इसे औरंगजेब के एक बेटे ने अपनी माताजी की याद में बनवाया था, जो बादशाह औरंगज़ेब की तीसरी बेगम थीं. यह ईमारत १६५१-१६६१ ईस्वी में बनी है. इसे “दक्षिण का ताजमहल” भी कहा जाता है. मुख्य ईमारत, चारबाग़ पद्धति से निर्मित बगीचे के मध्य में, एक विशाल चबूतरे पर बनी है. पीतल के दरवाज़े काफ़ी अलंकृत हैं. हैदराबाद के निज़ाम के द्वारा बनवाई एक मस्जिद भी यहाँ मौजूद है.  

बीबी का मकबरा का एक विहंगम दृश्य

कुल मिला कर ईमारत-संकुल दर्शनीय है तथा लोगों के द्वारा लिए जाने वाले फ़ोटो के अवसर बेहिसाब हैं. शायद ही कोई होगा जो वहाँ से बिना फ़ोटो लिए बाहर आया होगा. ऐसा ही हमलोगों ने भी किया. लगभग ३.०० बज चुके थे. हमसब काफ़ी थक चुके थे और भूख से भी बेहाल थे. दोपहर के खाने का समय पार भी कर चुका था. परन्तु, बीबी के मकबरे से निकल कर हमलोग “शिवाजी संग्रहालय” चले गए. प्रत्यक्ष में सारे सहयात्री-गण गर्मी और भूख से व्याकुल हो चुके थे. अतः जैसे ही उन्होंने देखा कि किसी सरकारी अवकाश दिवस होने की वजह से शिवाजी संग्रहालय बंद था, तो सबके चेहरे खिल गए. अब तो भोजन और भोजन-पश्चात आराम करने के सिवा कोई और महत्वपूर्ण कार्य बचे भी तो नहीं थे. इस प्रकार औरंगाबाद की दो दिवसीय यात्रा का प्रथम-दिवस का लगभग समापन हो गया.

7 Comments

  • Nandan Jha says:

    नमस्कार उदय जी |

    काफी दिनों बाद आपका लेख आया है | मैं कभी औरंगाबाद नहीं गया पर न जाने कितनी बार मैप पर इसे देखा और तिकड़में लगाई की शायद दिल्ली से मुंबई की रोड यात्रा पर यहाँ रात को रुका जा सकता है, कभी किसी होटल का वाउचर हाथ में था तो सोचा की इसे यहाँ इस्तेमाल किया जा सकता है पर मेरे प्रयासों को घर पर कभी शह नहीं मिली तो मैं अभी भी औरंगाबाद पर लिखे लेख पढ़ रहा हूँ |

    खैर, लेख आपका लाजवाब है | “कोकिला देवी” अध्याय के बारे में जानकारी नहीं थी, धन्यवाद | मैं आपकी बात से संगत रखता हूँ की एल्लोरा के बारे में थोड़ा और खुलासा होना चाहिए | जहाँ तक पन -चक्की की बात है, मुझे याद आता है की सन २००० में हम लोग उत्तरकाशी गए थे, और वहां एक छोटे ट्रेक पर निकले थे | एक तरह का “टीम बिल्डिंग प्रोग्राम ” था, वहां मैने एक चलती हुई, मतलब रोज़ मर्रा की ज़िन्दगी में इस्तेमाल होती हुई, पन-चक्की देखी | कमाल का आइटम है |

    बीबी का मक़बरा तक तो ठीक था पर भरी दुपहरी में शिवाजी संघ्रालय थोड़ा नॉट-हप्पेनिंग हो जाता है |

    एक दिन में काफी समेटा आपने |

    P.S. -> फोटोज की प्रोसेसिंग में कुछ गड़बड़ हुई है, मैने नोट छोड़ा है एडिटोरियल डेस्क में, ठीक कराता हूँ | क्षमा |

    • uday says:

      बहुत ही उम्दा कमेंट्स के लिए धन्यवाद.
      मुंबई प्रवास में थोड़ी व्यस्तता बढ़ी है, जिसके कारण मैं लेख लिखने में पहले थोडा असमर्थ था. पर इस बार सोचा कि जीवन में व्यस्तता तो हमेशा रहेगी, इसीलिए उसी के बीच में लिखना भी हो.
      घुमक्कड़ का भी बहुत शुक्रिया कि इसकी वज़ह से भी प्रोत्साहन मिलता है.
      धन्यवाद.

  • Uday ji,

    Many thanks for such a wonderful post! We missed your engaging write-ups here..
    I have always read your posts as if they are tour guides since they are really informative. This one too, is nothing less than one!

    We look forward to more from you.

    Regards.

    • uday says:

      Thank you.

      I also cherish your wonderful comments.

      Due to somewhat hectic schedules these days, I was not able to write before.

      Regards

  • Arun Singh says:

    बेहद खूबसूरत चित्र है, पोस्ट तो और भी कमाल की है, ग्रीष्म ऋतू में पर्यटन का भी अपना एक अलग ही मजा होता है, घूमते रहिये घुमाते रहिये.

    • uday says:

      धन्यवाद अरुण जी, आपके उत्तम टिप्पणी के लिए.
      आपको अच्छा लगा जान कर ख़ुशी हुई.

  • Rajeev says:

    नमस्कार उदय जी,
    मैं अपने परिवार के साथ दो दिन के लिए औरंगाबाद की यात्रा के लिए जुलाई में जाना चाहता हूँ। प्रथम दिवस मैं औरंगाबाद में सुबह ११.00बजे पहुंचूंगा l क्या आप मुझे बता सकते हैं कि शहर में कहाँ रहना ठीक रहेगा और घूमने के लिए कौन सा साधन ठीक रहेगा और कहाँ से मिलेगा। मैं अपने ट्रिप को कैसे प्लान करूँ l हमें शाम को दिल्ली के लिए 5.00pm की फ्लाइट लेनी है l

    With Regards,

    Rajeev

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