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उदयपुर – जगदीश मंदिर – माउंट आबू हेतु प्रयाण

पानी का पाइप सर पर लटकाये जा रही एक राजस्थानी महिला जो यहां माली का कार्य करती होगी!

नमस्कार मित्रों,  जैसा कि आपको ध्यान ही होगा,  हम सहारनपुर से 27 मार्च की सुबह उदयपुर के लिये निकले थे।  गाज़ियाबाद तक कार तक,  फिर नई दिल्ली से उदयपुर तक एयर डेक्कन के विमान से !  पांच दिन तक उदयपुर और माउंट आबू घुमाने के लिये हमें मिला हसीन नाम का एक टैक्सी चालक जिसने हमें ब्रह्मपुरी पोल में वंडर व्यू पैलेस से परिचित कराया जहां हमें अपने मनपसन्द कमरे मिले।  शाम को हमें सहेलियों की बाड़ी दिखाई, रात को हमें अंबराई रेस्टोरेंट पर ले जाकर छोड़ा जहां हमने राजपूती आन-बान-शान से डिनर लिया और अपने होटल में आकर सो गये।   अब आगे !

अंबाजी माता मंदिर, उदयपुर ! हर रोज़ आयेंगे यहां !

सामान टैक्सी में लाद कर हम होटल के रिसेप्शन पर आये और पुनः अपनी बुकिंग नोट कराई कि ३० मार्च को शाम को आयेंगे और १ अप्रैल को सुबह चैक आउट करेंगे और हमें ये ही कमरे पुनः चाहियें।   वहां से चल कर सबसे पहले अंबा जी माता मंदिर पहुंचे! होटल से संभवतः पांच मिनट के सफर के बाद ही, उदयपुर के एक शांत इलाके में स्थित इस मंदिर के दर्शन कर मन को बहुत अच्छा लगा। मंदिर में अधिक भीड़ नहीं थी, पुजारी जी के नखरे भी नहीं थे।  हमने जो प्रसाद मंदिर के बाहर एक दुकान से लिया था, वह वास्तव में हमारी उपस्थिति में ही अंबा माता जी को अर्पित किया गया। हमारी श्रीमती जी तो यह देख कर बहुत तृप्त और धन्य हो गई अनुभव कर रही थीं। आम तौर पर बड़े – बड़े विख्यात मंदिरों में हमें यही अनुभव होता है कि वहां श्रद्धालुओं को धकियाया जाता है, पैसे वालों की पूछ होती है, दर्शन के लिये भी पैसे मांगे जाते हैं। जो प्रसाद चढ़ाया जाता है, वह कुछ ही घंटों में पुनः मंदिर के बाहर स्थित दुकानों को बेच दिया जाता है। मंदिरों में भगवान के दर्शन कम और व्यावसायिकता के दर्शन अधिक होते हैं तो मन उदास हो जाता है।  श्रीमती जी ने तो निश्चय कर लिया कि माउंट आबू से लौट कर जितने दिन उदयपुर में रुकेंगे, हर सुबह इस मंदिर में दर्शनार्थ आया करेंगे।

प्रसाद देना भाई ! अंबा जी माता मंदिर, उदयपुर

मंदिर में ढोल का नाद मनमोहक लग रहा था !

वहां से निकल कर अगला पड़ाव था – जगदीश मंदिर !  मैं चूंकि एक घंटा पहले यहां तक आ चुका था अतः मुझे बड़ा अच्छा सा लग रहा था कि अब मैं अपने परिवार के लिये गाइड का रोल निर्वहन कर सकता हूं।  परन्तु पहली बार तो मैं मंदिर की सीढ़ियों के नीचे से ही वापिस चला गया था। ऊपर मेरे लिये क्या – क्या आकर्षण मौजूद हैं, इसका मुझे आभास भी नहीं था।  मंदिर की सीढ़ियों के नीचे दो फूल वालियां अपने टोकरे में फूल – मालायें लिये बैठी थीं ।  माला खरीद कर हम सीढ़ियों पर बढ़ चले।  भाईसाहब का कई वर्ष पूर्व एक्सीडेंट हुआ था, तब से उनको सीढ़ियां चढ़ने में असुविधा होती है।  वह बोले कि मैं टैक्सी में ही बैठता हूं, तुम लोग दर्शन करके आओ।  मैने कहा कि टैक्सी में बैठे रहने की कोई जरूरत नहीं।   मुझे एक दूसरा रास्ता मालूम है मैं आपको वहां से मंदिर में ले चलूंगा।  उसमें दो-तीन सीढ़ियां ही आयेंगी।  वह आश्चर्यचकित हो गये कि मुझे इस मंदिर के रास्तों के बारे में इतनी गहन जानकारी कैसे है।  वास्तव में, जब मैं पैदल घूम रहा था तो एक बहुत ढलावदार रास्ते से होकर मैं मंदिर के प्रवेश द्वार तक आया था।  उस ढलावदार रास्ते पर भी जगदीश मंदिर के लिये छोटा सा प्रवेश द्वार दिखाई दिया था।  भाईसाहब इतनी सारी सीढ़ियां नहीं चढ़ सकते थे क्योंकि उनका घुटना पूरा नहीं मुड़ पाता परन्तु ढलावदार रास्ते पर चलने में कोई दिक्कत नहीं थी। मेरी जिस ’आवारागर्दी’ को लेकर सुबह ये तीनों लोग खफा नज़र आ रहे थे, अब तीनों ही बहुत खुश थे।  आखिर इसी ’आवारागर्दी’  (जिसे मैं घुमक्कड़ी कहना ज्यादा पसन्द करता हूं) की वज़ह से भाईसाहब को मंदिर के दर्शन जो हो गये थे।

Flowers for Jagdish Temple – Udaipur

 

जगदीश मंदिर का निर्माण किसी राज मिस्त्री या मज़दूर ने नहीं बल्कि मूर्तिकारों ने किया है। मंदिर की पूरी ऊंचाई तक सभी दीवारों पर विभिन्न मुद्राओं में मानव आकृतियां निर्मित हैं। इस विशाल मंदिर की सभी दीवारों पर कितनी मानव आकृतियां अंकित हैं, यह सही सही गिनती करनी हो तो गुंबद की ऊंचाई तक पहुंचने के लिये मचान बनवानी पड़ेंगी।  यदि इन सभी आकृतियों का गहन अध्ययन करना हो तो कई सप्ताह या मास लगेंगे। ऐसे में इन सुन्दर कलात्मक मानव आकृतियों को बनाने के लिये कितना समय लगा होगा, कितना धन और परिश्रम व्यय हुआ होगा, इसका कल्पना करना भी कठिन है।  उन अनाम कलाकारों के प्रति हम सिर्फ श्रद्धा से सिर ही झुका सकते हैं।  कला को प्रश्रय देने वाले, उस पर खर्च करने की नीयत रखने वाले इन राजपूत राजाओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापन करना चाहूंगा!  जगदीश मंदिर के बारे में अनेकों वेबसाइट पर सूचनाओं का अथाह भंडार उपलब्ध है, तथापि विकीपीडिया से प्राप्त जानकारी के अनुसार…

 

Intricately carved walls of Jagdish Temple

जगदीश मंदिर का मूल नाम जगन्नाथ राय मंदिर है, सिटी पैलेस काम्प्लेक्स में स्थित इस बहु-मंजिला भवन का निर्माण वर्ष 1651 में पूर्ण हुआ था। यह महाराणा जगत सिंह जी प्रथम द्वारा बनवाया गया था।  इस मंदिर की पूरी भव्यता को देख पाने के लिये इससे काफी दूरी पर खड़ा होना पड़ता है – तभी इसकी सभी मंजिलों को आप एक साथ सही परिप्रेक्ष्य में (perspective) देख सकते हैं। इसका मुख्य गुम्बद 79 फीट ऊंचा है और उदयपुर की skyline का एक महत्वपूर्ण अंग है। बताया जाता है कि इसके निर्माण पर उस जमाने में 15 लाख रुपये व्यय आया था।  प्रवेश द्वार पर बने हुए दो विशाल हाथी श्रद्धालुओं का स्वागत करते प्रतीत होते हैं। वहीं स्थित गरुड़ – मानव की एक पीतल की आकृति मानों इस मंदिर की रक्षा कर रही है!  इसकी दीवारों पर नृत्यांगनाओं, हाथियों, घुड़सवारों और संगीतज्ञों की सुन्दर कलात्मक आकृतियां उकेरी गई हैं जो इस मंदिर को एक अद्‌भुत गरिमा और सौन्दर्य प्रदान करती हैं।

जगदीश मंदिर के दर्शन करके जब हम बाहर निकले तो प्रातः 10 बजने को थे।  अब हमें अपनी लगभग 170 किलोमीटर की लंबी यात्रा पर (जो राष्ट्रीय राजमार्ग 76 और 27 से होकर संपन्न होनी थी), निकलना था अतः अपने – अपने पेट की टंकी फुल करने के मूड से खस्ता कचौरी की दुकान पर जा पहुंचे जो आस-पास में ही थी और हसीन के बताये अनुसार बहुत स्वादिष्ट कचौरी उपलब्ध कराती थी।   कचौरी खा कर, कोल्ड ड्रिंक की बड़ी बाटली, बिस्कुट, नमकीन आदि साथ में लेकर हम अपनी यात्रा पर आगे बढ़े! हमारी ये यात्रा बहुत मनोरंजक रही हो, ऐसा मेरी स्मृति में नहीं है।  कार का स्टीयरिंग मेरे हाथ में होता तो बात कुछ और ही होती !  राष्ट्रीय राजमार्ग 76 पर कार्य चल रहा था क्योंकि उसे स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के अन्तर्गत देश के प्रमुख राष्ट्रीय राजमार्ग के रूप में विकसित किया जा रहा था। दो लेन के बजाय 4-लेन बनाने में व्यस्त जे.सी.बी. और ट्रक रास्ते भर दिखाई देते रहे। जिन  पहाड़ियां के मध्य में से मार्ग विकसित किया जा रहा था, वह सब लाल रंग की थीं।  लाल पहाड़, लाल सड़क, लाल मिट्टी में से गुज़रते हुए हमारी सफेद इंडिका टैक्सी भी लाल हो गई थी और हमारे बालों व वस्त्रों का रंग भी काफी कुछ लाल हो गया था।  ’लाली देखन मैं चली, मैं भी हो गई लाल!”

NH 76 would soon be 4-lane expressway.

चल – चल – चल मेरे हाथी ! ओ मेरे साथी !

एक गाड़ी और हम हैं सौ ! अब क्या हो ? कुछ तो करो !!!

पिंडवारा में राजस्थानी परिधान में महिलाएं !

आबू रोड से जब माउंट आबू  के लिये पहाड़ी मार्ग आरंभ होता है तो वहीं पर अप्सरा रेस्टोरेंट नाम से एक रेस्टोरेंट है। इस रेस्टोरेंट के बोर्ड को पढ़ कर मैं हंसते-हंसते पागल हो गया। लॉर्ड मैकाले अगर इस बोर्ड को देख लेता तो निश्चय ही या तो आत्म-हत्या कर लेता या फिर इस बोर्ड को बनाने वाले को गोली से उड़ा देता।  पर ऐसे मज़ेदार बोर्ड तो हिन्दुस्तान के हर भाग में देखे जा सकते हैं। हमारे सहारनपुर में एक बोर्ड पर मैने लिखा देखा – “फीन” ड्रेसर ।  मुझे कुछ पल्ले नहीं पड़ा कि ये फीन क्या बला है।  दूसरी तरफ कुछ और भी लिखा दिखाई दिया जो साफ – साफ नहीं पढ़ा जा रहा था।  ध्यान से देखा तो “डोल” हेयर लिखा हुआ महसूस हुआ!  बहुत सारा दिमाग खर्च किया तब जाकर समझ आया कि बोर्ड किसी नाई का है जिसने अपनी दुकान का नाम “डॉल्फिन हेयर ड्रेसर” तय किया था पर उसने पेंटर से लिखवाया – डोल फीन हेयर ड्रेसर !  ’डोल’ और ’फीन’ के बीच में और ’हेयर’ और ’ड्रेसर’ के बीच में भी लगभग 8 फीट का फासला था।

आबू रोड पर स्थित अप्सरा रेस्टोरेंट

जरा ध्यान से पढ़ियेगा इस बोर्ड को !

खैर जी, हमने वहां पर रुक कर अपने ऊपर चढ़ी हुई रास्ते की धूल साफ की, मुंह – हाथ धोकर भोजन ग्रहण किया और फिर शेष बच रही लगभग 23 किमी की यात्रा पूर्ण की जो पूर्णतः पहाड़ी मार्ग पर थी।  अपुन चूंकि देहरादून के बाशिंदे हैं और मसूरी कई बार स्कूटर, मोटर साइकिल और कार से आते – जाते रहे हैं, अतः हमें यह पहाड़ी मार्ग कोई बहुत कठिन प्रतीत नहीं हो रहा था।

माउंट आबू में हम प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के ज्ञान सरोवर परिसर में रुकने का मन बना कर आये थे और इसके लिये सहारनपुर से ही अपने बारे में एक परिचय पत्र लिखवा कर लाये थे।  ज्ञान सरोवर में मैं एक बार पहले भी चार दिन तक रुक चुका था और उसके सम्मुख मुझे और कोई भी स्थान जमता ही नहीं था। दिन में लगभग दो बजे हम ज्ञान सरोवर परिसर में पहुंचे और रिसेप्शन पर पहुंच कर वहां बैठे एक भाई जी को पत्र दिया तो उन्होंने हमें सोफों की ओर इशारा करते हुए प्रतीक्षा करने के लिये कहा।   पांच मिनट ही बीते होंगे कि वहां की संचालिका गीता बहिन जी ने स्वयं बाहर आकर हमारा स्वागत किया और कहा कि एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार होने जा रही है अतः विश्व भर से अतिथि आ रहे हैं फिर भी आप चिंता न करें, आपके लिये समुचित व्यवस्था करते हैं।  दस मिनट में ही हमें दो कमरे आबंटित कर दिये गये और एक भाई हमें हमारे कमरे दिखाने ले गये।  टैक्सी चालक के लिये भी एक कमरा उन्होंने ट्रांस्पोर्ट विभाग में दे दिया जहां पर इस संस्था के दर्जनों वाहन चालक रहते हैं।  ब्रह्माकुमारी केन्द्रों में समस्त व्यवस्था अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की है और सब कुछ निःशुल्क ही है।  वहां बाबा के कमरे में शिव बाबा की एक भंडारी यानि, गुल्लक रखी रहती है। जिसकी जो इच्छा हो, वह उस में डाल देता है।  एक गुल्लक और भी होती है जिसमें भाई – बहनें शिव बाबा (अर्थात्‌ परमपिता परमात्मा) को पत्र लिख कर उसमें डाल देते हैं।  आप अपनी समस्याएं, प्रसन्नतायें, इच्छायें, प्रश्न आदि पत्र के रूप में भगवान शिव के साथ शेयर करते हैं।  आपके प्रश्नों के उत्तर आपको स्वयमेव ही स्वप्न में मिल जाते हैं।

ब्रह्माकुमारी केन्द्र में रुकने के कुछ नियम भी हैं जिनका पालन हर किसी से अपेक्षित है। हमें ये नियम पता हैं और स्वीकार्य हैं – यह इस बात से ही सिद्ध हो गया था कि हमारे लिये सहारनपुर केन्द्र ने एक परिचय पत्र लिख कर हमें दे दिया था जिसमें हमारे ठहरने की व्यवस्था हेतु अनुरोध किया गया था।  शांति, पवित्रता और ब्रह्मचर्य का पालन हमसे अपेक्षित था।  पवित्रता का अर्थ ये कि हम प्याज, लहसुन, शराब, तंबाखू, गुटका आदि का सेवन नहीं करते हैं!  ब्रह्माकुमारी केन्द्र पर जो प्रवचन होते हैं – उनको कक्षा कहा जाता है और जो प्रवचन देती हैं वे सब शिक्षिकायें हैं।  जो बातें समझाई जाती हैं – उनको भी ज्ञान ही कहा जाता है।  यह सब स्वाभाविक भी है क्योंकि इस संस्था का नाम भी ईश्वरीय विश्वविद्यालय है।  उनके द्वारा जो शिक्षा दी जाती हैं उनमें से तीन का  परिचय यहां देने का मन है – “ 1- आप यदि मंदिर नहीं जाते तो कोई दिक्कत नहीं पर अपने घर का वातावरण इतना शुद्ध, सात्विक और पवित्र बना लीजिये कि कोई मेहमान आये तो उसे ऐसा आभास हो कि वह मंदिर में पदार्पण कर रहा है!  2- आपका व्यवहार ऐसा होना चाहिये कि कोई आपसे मिले तो उसे लगे कि आज एक देवता के दर्शन हो गये। 3- आप केवल वह चीज़ें खायें और पियें जो आप अपने आराध्य देवता को प्रसाद के रूप में अर्पित करना चाहेंगे !  पहले अपने भगवान को खिलायें और फिर स्वयं परिवार के साथ बैठ कर खायें। यानि, घर में जो कुछ भी बनायें वह प्रसाद है – इस भावना से बनायें।“  शिक्षिका महोदया ने विश्वास दिलाया था कि यदि हम इन तीन बातों को ही अपने जीवन में ग्रहण कर लें और अंगीकार कर लें तो लगभग सभी कष्टों से, क्षोभ से और बीमारियों से बचे रहेंगे और इस दुनिया को एक बेहतर स्थान बना सकेंगे।

इस ज्ञान सरोवर की भौगोलिक स्थिति बहुत अद्‌भुत है और सच पूछें तो काफी कुछ खतरनाक भी। कहते हैं कि माउंट आबू में जब इस संस्था को अपनी गतिविधियों के विस्तार के लिये और बड़े परिसर की आवश्यकता महसूस हुई तो वांछित आकार का क्षेत्र वांछित मूल्य में जो उपलब्ध हो सका वह एक जंगली क्षेत्र था जिसमें पहाड़ियां और खाइयां ही थीं  – समतल भूमि कहीं थी ही नहीं! जिस किसी आर्किटेक्ट को भी इस क्षेत्र में निर्माण कार्य के लिये बुलाया जाता वही इस संस्था के संचालकों को ’पागल’ बता कर चला जाता था। इस क्षेत्र में जंगली जानवरों का आतंक भी काफी था। बाद में मुंबई के एक आर्किटेक्ट जो इस संस्था के सदस्य भी थे, उनको आमंत्रित किया गया और कहा गया कि यहां पर अपने परिसर का विस्तार करना है।  परिसर से तात्पर्य था – लगभग 250 अतिथियों के सुखपूर्ण आवास के लिये आवासीय परिसर। एक इतना बड़ा ऑडिटोरियम जिसमें लगभग 1600 श्रोता 16 भाषाओं में और वातानुकूलित वातावरण में प्रवचन सुन सकें!  लगभग 2000 व्यक्तियों हेतु भोजन बनाया जा सके, इतनी बड़ी रसोई जो सौर ऊर्जा से संचालित हो।  13 सेमिनार एक साथ चल सकें  इसके लिये 13 गोष्ठी कक्ष जिनमें से प्रत्येक में 150 तक व्यक्ति भाग ले सकें।  एक गोलाकार ध्यान कक्ष (बाबा का कमरा) जो सौर और वायु ऊर्जा से संचालित हो और जिसमें किसी भी प्रकार का शोरगुल न हो और जिसमें साल भर एक जैसा तापमान बना रहे !   चौबीसों घंटे अनवरत विद्युत आपूर्ति।  एक हाई-टैक, लेज़र तकनीक पर आधारित आर्ट गैलरी।  इसके अतिरिक्त उपयोग किये गये पानी और ठोस कचरे के लिये ट्रीटमैंट प्लांट भी चाहिये जो 2,00,000 लीटर पानी को ट्रीट करके दोबारा प्रयोग में लाये जाने योग्य बना सके।  अंतिम इच्छा ये कि  जो पेड़ जहां पर है, वह वहीं रहे, उसे काटना न पड़े।

जब आर्किटेक्ट महोदय से कहा गया कि इस 25 एकड़ के जंगल में यह सब कुछ चाहिये और दादी (यानि इस संस्था की प्रमुख संचालिका) की इच्छा है कि डेढ़ वर्ष बाद डायमंड जुबली महोत्सव से पहले यह सब सुविधायें यहां उपलब्ध हो जायें तो एक ठंडी सांस लेकर आर्किटेक्ट महोदय ने कहा कि दादी की इच्छा हम सब के लिये आदेश है और जब आदेश है तो किन्तु – परन्तु का कोई प्रश्न ही नहीं है।  अब तो बस, आज से ही जुट जाना होगा।  आज इस विशाल और भव्य परिसर को देख कर यह विश्वास करना असंभव सा है कि केवल 18 महीने में एक जंगली क्षेत्र को इस रूप में परिवर्तित किया सका !  यदि यह सरकारी प्रोजेक्ट होता तो इस कार्य को पच्चीस वर्ष में भी पूरा करना असंभव होता ! अस्तु!

दोपहर का भोजन तो हम अप्सरा रेस्टोरेंट में ले ही चुके थे और 176 किलोमीटर की खराब सड़क पर टैक्सी की यात्रा से थकान भी हो रही थी अतः कमरों में जाकर लेट गये।  हसीन से कह दिया गया था कि शाम को नक्की लेक पर घूमने चलेंगे और कल का पूरा दिन माउंट आबू को देखने में खर्च किया जायेगा।

उदयपुर – जगदीश मंदिर – माउंट आबू हेतु प्रयाण was last modified: December 21st, 2024 by Sushant Singhal
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