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गढ़वाल घुमक्कडी: रुद्रप्रयाग – कार्तिक स्वामी – कर्णप्रयाग

आज की यह यात्रा मेरे जीवन की सबसे यादगार और रोमांचक यात्राओं मे से एक है जिसमे हमे एक ही दिन मे तरह तरह के खट्टे मीठे अनुभवों का स्वाद चखने को मिला. कल की अविस्मरणीय रात उमरा नारायण मंदिर मे बिताई गई जो कि पास ही बसे ग्राम सन्न के ईष्ट देवता को समर्पित है और आदि गुरु शंकराचार्य जी द्वारा बनवाया गया माना जाता है. एक छोटी सी पहाड़ी पर बसा ये मंदिर खूबसूरत घने नैसर्गिक जंगलों से घिरा हुआ है और मेरे लिए यहाँ का मुख्य आकर्षण था यहाँ मौजूद एक छोटा सा भूमिगत जल कुंड जो एक अवीरल प्राकृतिक धारा के निर्मल जल से हमेशा भरा रहता है. यात्री कुंड के जल से विशुद्धि पाने के बाद ही मंदिर मे दर्शन करते हैं. एक अनियोजित यात्रा मे समय का बड़ा महत्व होता है, वैसे भी पहाड़ों मे यात्रा का एक स्वर्णिम नियम होता ‘सुबह जल्दी से जल्दी उठकर यात्रा करना और रात को जल्दी ठिकाना ढूँढकर सो जाना’, मैं अक्सर इस नियम पर चलने की कोशिश करता हूँ. इसी को मद्देनज़र रखते हुए हम लोग मंदिर मे दर्शन करने और स्वामीजी को धन्यवाद देने के बाद निकल पड़े अपनी अगली मंज़िल पर.

खूबसूरत घने जंगलों से घिरा उमरा नारायण का प्रांगण



मंदिर के अंदर विराजमान भगवान लक्ष्मी नारायण

भूमिगत जल कुंड

जाने से पहले मैं और पुनीत स्वामीजी के साथ

आज के कार्यक्रम के अनुसार हमारा आज का नाश्ता मेरी मौसी के घर पर ग्राम सन्न मे होना था और उसके बाद हमें कार्तिक स्वामी मंदिर की चढ़ाई करनी थी. उमरा नारायण से कार्तिक स्वामी की दूरी लगभग 35 किमी है और हमारी आज की दुस्साहसी योजना ज़्यादा से ज़्यादा दूरी पैदल ही पार करने की थी. आज मौसम ख़ुशगवार लग रहा था, मंदिर से निकलते ही जंगल की शुरुआती भूल भुलैय्या और हल्की फुल्की चढ़ाई के बाद हम लोग सड़क के रास्ते पर सन्न बेंड आ पहुँचे थे जो सन्नगाँव के लिए बस स्टॉप था. मेरे दोस्तों का सुबह का जोश व मौसम का मिज़ाज दोनो इस चढ़ाई के बाद कुछ फीके से पड़ते लग रहे थे, सामूहिक चर्चा के बाद ये निर्णय लिया गया के कार्तिक स्वामी तक की दूरी बस/जीप के द्वारा की जाएगी और आगे की यात्रा पैदल जारी रखी जाएगा, ऐसे मे मौसी के घर का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा.

जंगल को पार करके सन्न बेंड के पास का दृश्य

सन्न बेंड पर सुबह सुबह गाड़ी का इंतेज़ार करने लगे, पर ये क्या! जो भी गाड़ी आती, रोकने को कोई राज़ी ही नही होता. लगभग पौना घंटा बीत जाने पर भी कोई रोकता ना दिखाई दिया तो हमने गाड़ी रोकने के लिए रोड के बीच मे खड़े होने का निश्चय किया और एक दूध बाँटने वाली जीप ने रोक भी दिया. पर जीप वाले के पास हमे बिठाने की जगह नही थी, पर हमे तो किसी भी तरह अपनी मंज़िल पर पहुँचना था. इसलिए हमने उसे जीप की छत पर बिठाने की प्रार्थना की (कृपया पहाड़ों मे यात्रा करते समय कभी जीप/बस की छत पर ना बैठे, ये ख़तरनाक हो सकता है), शुरुआती ना नुकुर के बाद वो मान गया और हम निकल पड़े इस रोमांचक सफ़र पर. ये अनुभव हमारी आशा से कुछ ज़्यादा ही ख़तरनाक साबित हो रहा था क्योंकि हम नीचे से उपर की और जा रहे थे. पहाड़ी घुमावदार मोडों पर इस तरह का सफ़र रोंगटे खड़े करने वाला हो सकता है. इसके अलावा इन्द्रदेव भी इस सफ़र मे अपनी भूमिका अदा करने के लिए आतुर से प्रतीत हो रहे थे और देखते ही देखते मोटी मोटी बारिश की बूँदों ने हमारे सुबह के स्नान की कमी पूरी कर दी और हमे पूरी तरह से भिगो दिया. ऐसा होने पर थोड़ा जोखिम सा लगने लगा क्योंकि ठंड और गीलेपन के कारण जीप के डंडों पर से हमारी पकड़ कमजोर हो रही थी जिससे फिसल कर नीचे खाई मे गिरने का ख़तरा महसूस हो रहा था. पर शायद भगवान कार्तिकेय जिनके हम दर्शन करने जा रहे थे हमारी परीक्षा ले रहे थे, खैर थोड़ी ही देर मे कुछ यात्री जीप मे से उतरे और हमे जीप के अंदर बैठने की जगह मिली. थोड़ा आगे चलकर, मौसम ने फिर करवट ली और हमने अपने आपको घने कोहरे के बीच घिरे हुए पाया, ये मंज़र वैसे तो बड़ा जादुई सा लग रहा था लेकिन असल मे था बड़ा डरावना क्योंकि ऐसे मौसम मे जीप चलाना बड़ा मुश्किल हो रहा. कई जगह तो पता ही नही चल पता था की मोड़ कहाँ पर है और दूसरी और से आ रही गाड़ियों का अनुमान लगाना भी मुश्किल हो रहा था. खैर पीछे बैठे बैठे हम इन नज़ारों का भरपूर मज़ा लिए जा रहे थे और चालक के कहने पर लोगों को दूध भी बाँटे जा रहे थे. कनक चौरी जहाँ से कार्तिक स्वामी की 3 किमी की पैदल यात्रा शुरू होती है, पहुँचते पहुँचते तेज़ धूप निकल आई थी. जीप वाले भाई को शुक्रिया कहकर जीप से उतरते ही सबसे पहले नाश्ता किया गया जिसका भीगने के बाद सबको बेसब्री से इंतेज़ार था.

कनक चौरी के पास पेड़ों के झरोखे से बादलों का दृश्य

कनक चौरी एक छोटा सा बाज़ार है जहाँ कुछ एक दुकाने हैं और श्रद्धालु यहीं से पूजा का सामान ख़रीदकर भगवान कार्तिकेय को चढ़ाने को ले जाते हैं. यहाँ पहुँचकर सुबह का खोया हुआ जोश और उत्साह मानो लौटता हुआ सा लग रहा था और इसी जोश को कायम रखते हुए चढ़ाई शुरू हो गयी. लगभग 2 किमी का सफ़र खूबसूरत नज़ारों का लुत्फ़ लेते हुए हरे भरे जंगल से गुजरते हुए ना जाने कैसे कट गया पता ही नही चला, लेकिन आख़िरी के कुछ हिस्से वाकई थका देने वाले थे. मंदिर तक पहुँचाने वाली कुछ अंतिम सीढ़ियाँ जहाँ स्वर्ग का सा अहसास दिलाती हैं वहीं मंदिर के प्रांगण मे पहुँचते ही आप अपने आप को बादलों से उपर पाते हैं.

हरे भरे जंगल बादलों की चादर ओढ़ने की तैय्यारी मे


खूबसूरत वन्य मार्ग से गुज़रते दो दीवाने

दूर दूर तक फैली घाटियाँ

हमारा विश्रामस्थल

समुद्रतल से 3048 मी. की उँचाई पर बना सुंदर मंदिर भगवान शिव के बड़े पुत्र कार्तिके जी को समर्पित है जहाँ वे एक छोटी शीला पर वास करते हैं. मंदिर के चारों ओर घंटियों की कतारें सी लगी थी जो इस बात की सूचक थी की ये तीर्थ एक मनोकामना सिद्धि स्थल है. कई हज़ार फीट गहरी खाईयाँ, हरी चादर ओढ़े परत दर परत फैली मनमोहक पहाड़ियाँ और स्तब्ध कर देने वाले हिम शिखर इस पावन धाम की पहरेदारी करते प्रतीत होते हैं. अगर आप भाग्यशाली हो और मौसम साफ़ हो तो इस पवित्र स्थल से बंदरपूंछ, केदारनाथ, सुमेरू, चौखंबा, नीलकंठ, द्रोनागिरी, नंदा देवी आदि पर्वत शिखरों के भव्य व मनोहारी दर्शन होते हैं. हम भाग्यशाली तो थे जो हमे इस तीर्थ के दर्शन करने को मिले, पर मौसम ने हमारा साथ नही दिया और घने बदल इन बर्फ़ीली चोटियों पर काफ़ी देर तक मंडराते रहे. मंदिर के कपाट अभी बंद थे और हम तीनो के सिवाय वहाँ कोई और मौजूद नही था, तो हम तीनो वहीं आस पास की जगह का मुआयना करने लगे. असीम शांति और खूबसूरत कुदरती नज़ारे पूरे माहौल को एक अध्यात्मिक व अलौकिक रूप दे रहे थे, वास्तव मे स्वर्ग जैसा. थोड़ी देर बाद हमे कुछ स्थानीय लोग पुजारी के साथ आते दिखाई दिए जिनके आने पर मंदिर खोला गया.

आख़िरी सीढ़ियाँ चढ़ता पुनीत

अरे नही, अभी तो कुछ और सीढ़ियाँ बाकी हैं!

वाह! लो आख़िर पहुच ही गये

प्रांगण से घाटी का एक और दृश्य

हम लोग मंदिर मे भगवान कार्तिकेय के दर्शन करने के बाद पुजारी द्वारा बताए गये कुंड की तलाश मे निकल पड़े. यह कुंड मंदिर के पीछे एक गहरी खाई की ओर था, हम जैसे जैसे कुंड की और बढ़ते रास्ता कठिन व सँकरा होता जाता. एक स्थान पर बहुत ही सँकरा व फिसलन भरा मार्ग और नीचे हज़ारों फीट खाई देखकर कदम स्वतः ही रुक गये और हम सभी बिना कोई जोखिम उठाए वहीं से वापिस हो लिए. हमे यहाँ पर लगभग तीन घंटे बीत चुके थे, लेकिन ऐसा लगता था मानो अभी थोड़ी देर पहले ही आए हों. वापिस जाने का तो किसी का भी जी नही कर रहा था लेकिन आगे की यात्रा पैदल करने का विचार था इसलिए जल्दी जल्दी उतराई शुरू कर दी.

बादलों के बीच घिरा मंदिर

मंदिर से दिखते कुछ गाँव और सीढ़ीदार खेत

कुंड की ओर जाता मार्ग

कुंड का श्रोत यहीं कहीं इस बुग्याल के आस पास था

बिना जल लिए वापिस मंदिर की और लौटते

आख़िरी दर्शन, जय कार्तिक स्वामी!!!

उपर के नज़ारों ने शरीर को तरो ताज़ा कर दिया था, इसलिए उतरते वक्त ज़्यादा समय नही लगा और उतरते ही पैदल यात्रा आरंभ. कुछ एक किलोमीटर ही चले थे कि दोस्तों को थकान लगने लगी, सोचा चलो जो साधन मिल जाए आगे तक उसी मे चल पड़ेंगे. अब चलते चलते हर एक आगे जाने वाली गाड़ी को हाथ दिखाकर रोकने की कोशिश करते रहे, पर सब बेकार. किस्मत से थोड़ी देर बाद एक ट्रक आता हुआ दिखाई दिया, आधे मन से इसे हाथ दिखाया और ये क्या! ट्रक तो थोड़ा आगे जाकर रुक ही गया था. खुशी के मारे थकान के बावजूद भी पैरों मे जान आ गयी थी और दौड़कर ट्रक मे लद गये. लेकिन ट्रक चालक से बात करते करते पता चला की उसकी सेवा केवल पोखरी तक ही उपलब्ध थी जो कि यहाँ से लगभग 20 किमी. ही दूर था और हमे आज शाम रूकने के लिए कर्णप्रयाग पहुँचना था जो पोखरी से लगभग 28 किमी. और आगे था. खैर जैसे तैसे कच्चे उबड़ खाबड़ रास्ते से पोखरी तक पहुँचे, पर अभी और भी इम्तैहान बाकी थे. पहले तो यहाँ पहुचने पर यहाँ के प्रसिद्ध नागनाथ मंदिर को देखने की इच्छा हुई, पर अचानक ही पुनीत के पेट मे भयंकर दर्द शुरू हो गया, कुछ देर के लिए हमारी तो जैसे जान ही निकल गई थी. लेकिन थोड़ी देर के विश्राम के बाद, वो पहले की तरह चलने के लिए बिल्कुल तैय्यार था.  हम लोगों ने फिर अगली गाड़ी ना मिलने तक ग्यारह नंबर की गाड़ी से ही सफ़र जारी रखा. थोड़ा आगे चलने पर एक सेना के जवान ने हमे रोका और बेरूख़े ढंग से पूछतात करने लगा. जब हमने उसे अपनी इस पैदल यात्रा के बारे मे बताया तो उसे सुनकर उसे हम पर कुछ शक सा हुआ और वो हम सबसे हमारे पहचान पत्र माँगने लगा. जब उसे पूरी तरह यकीन हो गया कि हम लोग किसी ऐसी ही यात्रा पर जा रहे थे तो उसने हमे बधाई देते हुए हमारा मार्ग दर्शन भी किया. भाग्य ने एक बार फिर हमारा साथ दिया और कुछ एक किलोमीटर पैदल चलने के बाद हमे एक यात्री जीप मिल गयी जो कर्णप्रयाग तक जा रही थी. जीप मिलते ही थकान के मारे दीपक और पुनीत तो झपकी लेने लगे और मैं हिम शिखरों को देखने की लालसा मे जगा रहा. मेरा जागना सफल रहा, थोड़ी आगे चलने पर ही हमे कुछ बर्फ़ीली चोटियों की झलक मिलने लगी और मन खुशी के मारे झूम उठा. दोनो दोस्तों को जगाया तो वो भी खुशी के मारे उछल पड़े और कुदरत के इस करिश्मे का मज़ा लेने लगे.

ये लो कर लो दर्शन, हिम शिखरों के (जीप से लिया गया फोटो)

खूबसूरत घुमावदार मोडों और उँचे उँचे पेड़ों से घिरे शानदार जंगलों से गुजर ही रहे थे की अचानक दीपक को मितली की शिकायत हुई, हमने चालक को बोलकर गाड़ी रुकवाई और फिर आगे बढ़ चले. ऐसा रास्ते मे दीपक के साथ एकाद बार फिर हुआ जिस कारण हमे कर्णप्रयाग पहुँचते पहुँचते लगभग अंधेरा सा हो गया था. दिन लगभग ख़त्म हो चुका था पर यात्रा का रोमांच अभी भी बाकी था. खाना खाने के बाद, अब आज का आख़िरी काम था रात को रुकने की जगह ढूँढना. चूँकि हम इस यात्रा पर कुछ नये अनुभवों की तलाश मे निकले थे, इसलिए सोचा क्यों ना आज रात खुले आसमान के नीचे बिताई जाए. जगह ढूँढनी शुरू की तो सबसे उपयुक्त जगह लगी संगम किनारे बने कर्ण मंदिर का खुला प्रांगण जहाँ ना सिर्फ़ सोने की पर्याप्त जगह थी बल्कि साथ ही साथ उपर झिलमिल सितारों से जगमगाता आकाश और नीचे कलकल बहती दो पावन नदियों के संगम का लोरी सुनाता हुआ स्वर जो की दिन भर की थकान को मिटाने के लिए पर्याप्त था.  सोने से पहले संगम की और झाँकती दीवारों पर बैठकर रात्रि मे संगम के दृश्य का आनंद ले ही रहे थे की पास की झाड़ियों मे कुछ सरसराहट सी होने लगी. हम लोग तरह तरह की कल्पनाएं कर ही रहे थे की घुप्प अंधेरे मे झाड़ियों से थोड़ा दूर किसी जानवर को नदी की ओर जाते हुए देखा. इस अनोखे जानवर को देखकर, मन मे थोड़ी शंका पैदा हुई की झाड़ियों के पास और भी तरह तरह के जीव हो सकते हैं जो हमे हानि पहुँचा सकते हैं ख़ासतौर पर साँप या बिच्छू आदि. लेकिन थकान सब पर इतनी हावी थी की इस जगह से जाने का मन ही नही किया और बिस्तर बिछाने की तैय्यारी करने लगे. सोने वाली जगह पर पहुँचे तो एक साधु को बैठे पाया, बात करनी चाही तो अजीब अजीब से उत्तर देने लगा. और थोड़ी ही देर मे वो अपना पिटारा खोलकर कुछ नशीली दवाईयों का सेवन करने लगा, अब तो जानवरों से कम लेकिन इस बंदे से ज़्यादा डर लगने लगा और थके होने के बावजूद भी हमने कोई दूसरी जगह ढूँढने की ठान ही ली. रात काफ़ी हो चुकी थी और यात्रा सीज़न की वजह से सभी धरमशालाएँ व होटल खचाखच भरे पड़े थे.

लगभग 11 बजे का वक्त था और घूमते घूमते 1 घंटे से उपर हो गया था, सारी सड़कें सुनसान हो चुकी थी और सड़कों पर हम तीनों ईडियट्स के अलावा केवल कुत्ते, बिल्लियाँ और गाएं ही मौजूद थी. थोड़ा निराश होकर वापस मंदिर की ओर कदम बढ़ाते हुए एक सुनसान गली मे चले ही जा रहे थे कि तीन लोग एक दुकान के बाहर सोने की तैय्यारी करते हुए मिले, सोचा इनसे कुछ मदद माँगी जाए. उनसे पूछा तो कहने लगे “भाई साब हम लोग इस शहर के नही हैं और हम भी बाहर खुले मे सोफे पर सो रहे है हम जगह कहाँ से लाएँ भला, नीचे बाज़ार मे पता कर लो, शायद कोई जगह मिल जाए”, हमने भी परिस्थिति देखते हुए वहाँ से चलना मुनासिब समझा. मुश्किल से लगभग 30 मीटर ही चले होंगे की पीछे से आवाज़ आई “अरे भाई साब रूको, यहाँ आओ ज़रा, मास्टरजी बुला रहे हैं”. पीछे मुड़कर देखा तो शायद उन्ही तीनों मे से कोई हमे आवाज़ दे रहा था, पास आकर देखा तो लोगों की संख्या 3 से बढ़कर 6 हो गयी थी. उस सुनसान रात के ऐसे पहर 6 व्यक्तियों से घिरे होने पर थोड़ा सा भयग्रस्त होना स्वाभाविक था, उनमे से एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति हमसे पूछतात करने लगा कि कहाँ से आए हो और इस सुनसान गली मे इतनी रात को क्या कर रहे हो. आस पास के माहौल का जायज़ा लेकर, हम लोग उन्हे अपनी योजना और यात्रा के बारे मे बता ही रहे थे की हमारा दोस्त दीपक अचानक से उस व्यक्ति से पूछ पड़ा “मास्टरजी आप कौन सी क्लास के बच्चों को पढ़ाते हो”, उसका ये पूछना था कि पुनीत और मेरी हँसी छूटने लगी. अब आप पूछेंगे इसमे भला हँसने की क्या बात थी, दरअसल मैने और पुनीत ने दुकान के बाहर लगे एक साइनबोर्ड को देख लिया था जिस पर लिखा था ‘सलीम बैंड मास्टर’. मास्टरजी भी हंसते हंसते बोले “अरे भाई, मे तो बैंड मास्टर हूँ और पढ़ाता नही बैंड बजाता हूँ”. हमारी कहानी सुनने के बाद, मास्टरजी हमे दुकान के अंदर ले गये जहाँ ढोल और बाजों से भरे 2 कमरे थे और कई नौज़वान ज़मीन पर यत्र तत्र लेटे पड़े थे. मास्टरजी बोले “देखो भाई, अगर तुम तीनो यहाँ इस ज़मीन पर थोड़ी जगह मे सो सको तो ठीक है, फ़िलहाल तो इतना ही कर सकता हूँ”, ऐसा सुनना था की हमारे चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ पड़ी. मास्टरजी ने ज़मीन पर बिछाने को चादर दी और हम भी बिना समय गवाए वहाँ पर लोट गये. हमे सोने की जगह तो मिल गयी थी पर मन मे अभी भी कोई डर हमे सोने नही दे रहा था, मास्टरजी और कुछ अन्य लोग अभी भी जाग रहे थे और दुकान के बाहर आपस मे कुछ बतिया रहे थे. इतने मे एक परिचित शब्द ने हमारा ध्यान अपनी और आकर्षित किया और हमारे कान खड़े हो गये. मास्टरजी किसी से फोन पर बात करते हुए कह रहे थे कि हमने कल के प्रोग्राम के लिए दिल्ली के कोटला मुबारकपुर से 3 लड़के बुलवाए हैं. ऐसा सुनकर हमारी तो जैसे साँस ही अटक गयी क्योंकि हमने उन्हे बताया था की हम दिल्ली मे कोटला मुबारकपुर के आस पास ही रहते थे.

ऐसे मे दिमाग़ मे कई तरह के विचारों की आवाजाही शुरू हो गई और हम अगले दिन होने वाली संभावित घटनाओ की कल्पनाओ के सागर मे गोते लगाने लगे. लेकिन थकान के मारे ना जाने कब आँख लग गयी की पता ही नही चला. सुबह जल्दी ही आँख खुल गयी और अपने आप को ठीक हालत मे पाकर बहुत अच्छा लगा, बाहर जाकर देखा तो कुछ लोग सोफे पर बैठे गप्पे मारते मिले. हमारे आने पर उन्होने हमे बताया की वो तीनो ही रात को बाहर सोए थे, हमने और पूछतात की तो एक उनसोची बात पता लगी, दरअसल ये तीनो लोग दिल्ली मे कोटला मुबारकपुर से आई थे आज होने वाले किसी कार्यक्रम मे ढोल बजाने. जानकार हम सबके चेहरे पर एक मुस्कान सी आ गयी और उन देवता स्वरूप मास्टरजी की प्रति मन आदर से भर गया. हमने मास्टरजी से मिलना चाहा तो पता लगा की वो तो आज के समारोह के लिए कुछ ज़रूरी समान लेने कहीं गये थे और लगभग 2/3 घंटे मे लौटेंगे, ये सुनकर थोड़ी निराशा ज़रूर हुई उनसे दुबारा ना मिल पाने की. ये इस संपूर्ण यात्रा के सबसे यादगार अनुभवों मे से सबसे खूबसूरत था जहाँ एक देवता स्वरूप मुस्लिम भाई ने अपने हिंदू भाईयों को मुसीबत के समय ना सिर्फ़ अपने घर मे बल्कि अपने दिल मे भी जगह देकर मानवता की एक खूबसूरत मिसाल कायम की. खैर इन बेहतरीन यादों के साथ हम तीनो निकल पड़े अपनी अगली मंज़िल भगवान बद्रीश के दरबार की ओर कुछ और रोमांचक और यादगार पलों की तलाश मे…

गढ़वाल घुमक्कडी: रुद्रप्रयाग – कार्तिक स्वामी – कर्णप्रयाग was last modified: November 17th, 2024 by Vipin
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