मुंबई में कई गुफाएँ हैं. वीरान गुफाएँ मुझे आकर्षित भी करतीं थीं और मैं चाहता था कि मैं सारी गुफाएँ देख लूं. पर वो गुफाएँ अलग-अलग जगहों पर थीं. उन्हें एक साथ एक ही दिन में देखना मेरे लिए असंभव तो नहीं पर कठिन अवश्य था. इसीलिए मैंने एक-एक कर उन गुफाओं की यात्रा करने के बारे में सोचा. सबसे पहले मैं “मंडपेश्वर गुफा” के नाम से प्रसिद्ध गुफा में गया. यह गुफा बोरीवली में स्थित है. यहाँ जाने के लिए मुंबई लोकल ट्रेन से “बोरीवली स्टेशन (पश्चिम)” पर उतर कर ऑटो करना सबसे ठीक रहेगा. परन्तु मैं उन दिनों कांदिवली में रहता था, जहाँ से यह गुफा केवल ४ किलोमीटर की दूरी पर थी. अतः जनवरी २०१६ में एक दिन मैं अपनी गाड़ी से वहां गया था. गुफा स्वामी विवेकानंद मार्ग पर ही है और उसके सामने पार्किंग की कोई समस्या भी नहीं हुई क्योंकि वहां काफी बड़ा खुला स्थान था. आसपास एक चर्च भी है और सामने ऑटो-रिक्शा स्टैंड भी है. कभी यह प्रदेश छोटी पहाड़ियों से घिरा रहा होगा, परन्तु वर्तमान में तो यह महानगर का एक हिस्सा है.

मंडपेश्वर गुफा का प्रथम दृश्य
गुफा के ठीक सामने एक वृक्ष है, जिसकी लोग पूजा करते हैं. वृक्ष के लगभग सटे हुए ही पत्थर की सीढियां हैं, जिनसे नीचे उतर कर गुफा में जाया जा सकता है. सामने ही पहली गुफा है, जिसमें चार खम्बे लगे हुए है और एक बड़ा बरामदा भी बना हुआ है. बरामदे के बाद गुफा का गर्भ-गृह हैं, जिसमें शिव की पूजा होती है. लगता है कि गुफा में बने इस बड़े बरामदा (मंडप) और उसमें प्रतिष्ठित ईश्वर के नाम पर ही इस गुफा का नामकरण हुआ होगा.

मंडपेश्वर गुफा का मंडप
वैसे तो यहाँ के वाशिंदे, इस गुफा को महाभारत-कालीन बताते हैं. लोकोक्ति की मानें तो इस गुफा का निर्माण पांडवों ने अपने वनवास के दौरान यहाँ ठहरने के लिए किया था. किम्वदंती है कि उन्होंने इतने बड़े गुफा का निर्माण एक-ही रात में पूरा कर लिया था. परंन्तु पुरातत्ववेत्ता इसे आज से १५०० वर्ष-पूर्व (राष्ट्रकूट अथवा गुप्त-काल) का बताते हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि यह गुफा कान्हेरी की गुफाओं के बाद में बनी होगी. यह भी माना जाता है कि कालांतर में यह गुफा प्रत्येक शासक द्वारा अलग-अलग प्रकार से कार्य में लायी गयी. उदहारण के तौर पर, जब यह गुफा ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा थी, तब यहाँ की बाहरी दीवार पर एक क्रॉस बना दिया गया.

गुफा की चट्टानों पर बना क्रॉस
चाहे गुफा बुद्ध-काल की हो, या गुप्त-काल की, वहां क्रॉस का होना क्रिश्चियन धर्म-काल को भी दर्शाता है. यही नहीं, गुफा के उपरी मंजिल पर चट्टानों से बने एक चर्च के अवशेष भी मौजूद हैं. उपरी मंजिल पर जाने के लिए गुफा के बाहर से पर्वत पर थोड़ा चल कर ऊपर तक सरलता से पहुंचा जा सकता है. अब यह चर्च-अवशेष पोर्तुगीज़ शासन के समय का है या ब्रिटिश शासन के समय का, इसके बारे में वहां गुफा में मौजूदपुरातत्व-विभाग से तैनात गार्ड मुझे सटीक रूप से नहीं बता पाए.

पहाड़ी की ऊपर बने चर्च के अवशेष
यह भी कहा जाता है कि जब-जब शासन बदला, तब-तब इस गुफा का विभिन्न प्रकार से उपयोग किया गया. कभी तो यहाँ सैनिकों के टुकड़ियाँ निवास करती थीं, तो कभी शरणार्थी-गण. यह भी समझा जाता है कि प्रत्येक शासन काल में यह गुफा उजड़ी और फिर नए सिरे से बसी. लोग यह भी मानतें हैं कि विश्व युद्ध के समय भी अंग्रेज सैन्य-बल यहाँ बसा हुआ था. इनका यह मतलब निकलता है कि मंडपेश्वर गुफाएं हमेशा से लोगों द्वारा आबादित रहीं हैं. यह गुफाएं अन्य गुफाओं की भांति निर्जन नहीं रहीं हैं. परन्तु निरंतर लोगों द्वारा बसे होने के कारण यहाँ की मूर्तियों और चित्रकारियों में टूट-फूट भी बहुत ज्यादा हुई. चाहे वह सीढ़ियों में लगा सिंह-मूर्ती हो, या गर्भ-गृह के सामने लगा नंदी की मूर्ती, उनमें अपभ्रंश अवश्य दीखता है. प्राचीन काल में गर्भ-गृह के द्वार के दोनों तरफ शिव-पार्वती की मूर्तियाँ भी लगी हुई थीं, जिनका अब वहां नानो-निशान तक नहीं. सिर्फ शिव के त्रिशूल का कुछ भाग बचा हुआ है, जिससे उसकी पहचान की जाती है.

नंदी की भग्न प्रतिमा
गर्भ-गृह के अन्दर, धरती पर बीच में, एक शिव लिंग स्थापित है, जिसकी लोग आज मनोयोग से पूजा करते है. शिव रात्रि के दिन यहाँ एक बड़ा मेला लगता है. वैसे तो वहां एक संगमरमर की गणेश प्रतिमा भी स्थापित था, परन्तु उसे अधिक पुराना नहीं माना जाता. गर्भ-गृह और मंडप में अत्यधिक शांति का अनुभव होता है. अच्छी वायु चलती है और वातावरण आज भी स्वच्छ नज़र आता है. मंडप में जल के बहाव के लिए फर्श के चट्टानों को काट कर नालियां भी बनायीं गयीं हैं, जो अभी भी कार्यशील हैं.

गर्भ-गृह
जल के भण्डारण की जो व्यवस्था कान्हेरी गुफाओं में देखने को मिला था, वैसी व्यवस्था ही यहाँ देखने को मिली. पर्वतीय जमीन के नीचे पानी के लिए एक भण्डारण-कक्ष की व्यवस्था. कहा जाता है कि इसमें जल कभी समाप्त नहीं होता. इस जल में आज-कल कई छोटे-बड़े कछुए भी हैं. कछुओं का जीवन-काल तो बहुत लम्बा होता है. वर्तमान में पर जल-निकासी के लिए मोटर भी लगा हुआ था. अब यह और बात है कि गुफा के निर्माणकर्ताओं ने तो कभी भी मोटर से जल निकलने की नीति नहीं बनायीं होगी.
यहाँ मुख्य गुफा के दोनों किनारे पर अन्य गुफाएं भी हैं. बायीं तरफ की गुफा की दीवाल पर मूर्तियों में अर्धनारीश्वर की भग्न प्रतिमा है. बायीं तरफ ही एक हाल-नुमा गुफा है. इस गुफा के हाल को देख कर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्राचीन काल में यहाँ बैठ कर लोग शिक्षा ग्रहण करते होंगे. इस तरफ के खम्बे नक्काशीदार हैं, पर जर्जर अवस्था में हैं. वहीँ दायीं तरफ की गुफा बिलकुल साधारण है, जिसमें कोई भी अलंकार नहीं हैं. उस तरफ गुफ़ा के दो-तीन कमरे बने हुए हैं, जो बड़े निर्जन प्रतीत होते हैं.

मूर्तियों के भग्नावशेष
मंडपेश्वर गुफाओं में कुछ समय बिताने के बाद मैं बाहर आ गया और अपने घर को लौट गया. धीरे-धीरे २०१६ की फ़रवरी आ गयी और मेरा मन पुनः गुफाओं में जाने के लिए मुझे समझाने लगा. इस बार मैं मुंबई के अँधेरी ईलाके में स्थित “महाकाली गुफा” देखना चाहता था. वैसे तो यहाँ जाने के लिए अँधेरी स्टेशन (पश्चिम) तक जाना सबसे अच्छा होता, पर सभी दिनों की भांति मैंने भी अपनी गाडी से जाना ही ठीक समझा. गुफा के नजदीक का ईलाका इंडस्ट्रीज और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से भरा हुआ लगता था. गुफा-समूह के बाहर लोहे का गेट लगा हुआ था और गाडी उस गेट तक जा सकती थी. वहाँ सड़क पर ही गाड़ी पार्क करनी थी. जैसे ही मैं गेट के अन्दर घुसा, अपनी बायें हाथ पर मुझे लोहे की कोर्रुगेतेड शीट से बना एक झोपड़ा दिखाई दिया, जिसमें पुरातत्व-विभाग द्वारा तैनात सुरक्षा-कर्मियों का एक परिवार रहता था. उस झोपड़े के बाहरी दीवाल पर द्वारा पुरातत्व-विभाग द्वारा जारी सूचनाएँ लगी हुईं थीं. किसी एक कर्मी ने बताया कि विगत वर्षों में निर्जन होने की वजह से इस स्थान पर कई घटनाएँ हो गयीं थीं. इसीलिए वहाँ पर यह सुरक्षा-व्यवस्था लगाई गयी थी. उस समय दोपहर का समय हो चुका था और फरवरी की मीठी धूप खिली हुई थी.
महाकाली गुफाएँ एक बड़े-से पर्वत का हिस्सा हैं. इस स्थान का क्षेत्रफल भी बहुत बड़ा है क्योंकि सारा पर्वत ही मानव-निर्मित एक बाउंड्री के द्वारा घेर दिया गया है. पर्वत के सामने-वाले हिस्से में चार गुफाएँ तराशीं गयीं हैं और पीछे वाले हिस्से में पंद्रह गुफाएँ हैं. सामने की चारों गुफाओं के सामने एक सपाट स्थल है, जिसमें वर्तमान में एक पार्क बना दिया गया है. पार्क में खड़े हो कर गुफाओं को निहारने में बहुत अच्छा लगता है. दिन के पहले और दूसरे प्रहर में सूरज की किरणें सामने वाली गुफाओं पर पड़ती हैं, जिससे इन्हें देखना और भी आसान होता है.

महाकाली गुफाओं का अग्रभाग
कहते हैं कि महाकाली की गुफाएँ बुद्ध-काल की हैं और इनका निर्माण दूसरी से छठी सदी में किया गया था. अर्थात् ४०० वर्षों के परिश्रम से यह १९ गुफाएँ तराशी गयीं होंगी. पुरातत्व-विभाग द्वारा वहाँ एक शिला-लेख भी लगाया गया था, जिसमें यह लिखा था कि प्राचीन-काल में इस ईलाके में ताजे पानी के कई जलाशय भी थे, जो कालांतर में सूख चुके हैं. वैसे भी अब तो यह गुफा मुंबई महानगर के भीड़-भाड़ वाले इलाके के बीच बसी एक बस्ती में है. ऐसा लगता है कि उस सम्पूर्ण बस्ती में इसके जैसी खुली और शांत कोई जगह नहीं, तभी तो वहाँ के कई स्थानीय लोग अपना मन बहलाने आया करते हैं. सुरक्षा-कर्मियों की मानें तो सबसे कठिन होता है कॉलेज से आये तरुण युवक-युवतियों का वृन्द, जो इस वीरान कंदराओं में छिप कर बैठने की कोशिश में रहता है. परन्तु, मैं जिस दिन वहाँ गया था, उस दिन बच्चे उन गुफाओं में बैठ कर पढाई कर रहे थे. लगता था कि उन दिनों कोई परीक्षा चल रही थी.

जाली-दार आवरण से आवरित स्तूप
सामने की गुफाओं में सीढियां बनी हुईं थीं. खम्बों से युक्त बरामदा और फिर गर्भ-गृह. ठीक वैसा की निर्माण लग रहा था, जैसा कान्हेरी की गुफाओं में था. परन्तु यहाँ की सबसे विशेष बात गुफा नंबर ९ में दिखी. यहाँ बनाया गया स्तूप का प्रकार काफी भिन्न था. वह स्तूप चट्टान को तराश कर बने एक बाहरी आवरण से घेरा हुआ था. यह बाहरी आवरण करीब ८ इंच का था और इसमें जालियाँ भी बनी हुईं थीं. ऐसा बहुत कम देखने में मिलता है. यह जरूर चैत्य-गुफा रही होगी. इस गुफा के बाहरी मंडप की दीवालों में अवलोतिकेश्वर तथा बुद्ध के जीवन-काल से जुड़ी प्रतिमाएँ थीं, जिनको देखता हुआ मैं इस गुफा से निकल कर दूसरी गुफा में गया, जहाँ चार खम्बों से बना एक हाल था. ऐसा प्रतीत होता था कि वह हाल किसी विशेष उत्सवों या पूजन में काम आता होगा.

महाकाली गुफा की प्रतिमाएं
यहाँ भी जल-भंडारण की वही व्यवस्था दिखी, जो कान्हेरी गुफाओं में दिखती थी. पर अब मैं तलाश रहा था पर्वत के पीछे के हिस्से में जाने का रास्ता. इसके लिए मैं पुनः सुरक्षाकर्मी के झोपड़े पर गया. वहाँ मैंने देखा कि झोपड़े के पीछे से एक रास्ता पर्वत के ऊपर जा रहा था. पर पीछे काफी निर्जन था. ज्यादातर लोग बहार की गुफाओं के देख कर ही लौट जाते हैं. अतः एक सुरक्षा-कर्मी मेरे साथ हो लिया. साथ चल कर हमदोनों पर्वत के बिलकुल ऊपर आ गए. मुझे बड़ा अजीब लग रहा था क्योंकि अब हम लोग उस पर्वत के ठीक ऊपर चल रहे थे, जिसके नीचे गुफाएँ कटी हुईं थीं.

पहाड़ी के ठीक ऊपर
पर्वत का शिखर सपाट था, बिलकुल छत की तरह. ऊपर से देखने पर वह पर्वत एक आयताकार चौकोर था. जिसे देख कर मैंने निर्माण कर्ताओं की बुद्धि को सलाम किया कि १८०० वर्ष पूर्व कैसे उन्होंने गुफा काटने के लिए इस पर्वत का चयन किया होगा. हमलोग इस चौकोर शिखर के एक सिरे पर चढ़े थे और दुसरे सिरे तक गए, अर्थात पूरे पर्वत की लम्बाई को पार कर हम वहाँ पहुंचे, जहाँ नीचे उतरने के लिए पर्वत पर सीढियां कटी हुईं थीं. सावधानी-पूर्वक उनसे उतर कर हम लोग पीछे की गुफाओं के पास पहुँच गए. वहाँ बिलकुल ही वीरानी थी.

महाकाली गुफाओं का पीछे का हिस्सा
पीछे की गुफाओं में एक जैसा-ही निर्माण था. ऐसा लगता था कि वह रिहायशी गुफाएँ थीं, जिनका उपयोग बौद्ध भिक्षुओं के द्वारा निवास के रूप में किया जाता होगा. सीढ़ियों से हो कर बरामदा और बरामदा से जुड़ा निवास का कमरा. उन गुफाओं में एक गुफा ऐसी थी, जिसमें एक स्तूप का चिन्ह कटा हुआ था, मानो वह उस समय के बौद्ध-भिक्षुओं के प्रमुख का निवास-स्थल हो. या फिर हीनयान संप्रदाय का प्रतीक. पर वहाँ की हवा में वीरानियत की एक ख़ास महक थी. प्रकृति के द्वारा गुफा के अन्दर भी काफी टूट-फूट हो चुकी थी. वहाँ ज्यादा देर तक ठहरना उचित नहीं लगा और हमलोग वहां से वापस हो लिए.

पीछे की गुफा में बना एक स्तूप
पर्वत के शिखर को पार कर जब हम सुरक्षा-कक्ष की तरफ लौट रहे थे, तो मेरे मन में एक ही सवाल गूँज रहा था कि इन गुफाओं का नाम “महाकाली” क्यों पड़ा, जबकि किसी भी हिन्दू देवी-देवताओं की कोई भी मूर्ति अथवा चिन्ह नहीं उन गुफाओं में मौजूद नहीं था. मेरे इस प्रकार पूछने पर, मेरे जिज्ञासा को शांत करने हेतु, उस सुरक्षा-कर्मी ने उस मंदिर में जाने का मार्ग बताया, जिसकी वजह से “महाकाली” नाम दिया गया था.
पर मुंबई के महाकाली गुफा का नाम “महाकाली” क्यों पड़ा, मेरी यह जिज्ञासा अभी शांत नहीं हुई थी. उसी जिज्ञासा को शांत करने के लिए वहाँ तैनात सुरक्षा-कर्मी ने अपने एक सहयोगी को मेरे साथ कर दिया था ताकि मैं उस प्राचीन मंदिर तक पहुँच जाऊं, जिसके नाम पर इस गुफा का नामकरण हुआ था. मंदिर तक जाने के लिए गुफा-परिसर से बाहर आकर, पूरे पर्वत की परिक्रमा करके सड़क-मार्ग से जाना था. पर थोड़ी दूर चलने के पश्चात, उस सहयोगी ने मुझसे शोर्ट-कट मार्ग से चलने का प्रस्ताव किया. पैदल यात्री के लिए शोर्ट-कट मार्ग एक ऐसा शब्द है, जिसे सुन कर ख़ुशी होती है. अतः मैंने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. अब हम दोनों वापस गुफा-परिसर में आ गए और परिसर में बनी सीमेंट की बाउंड्री के बगल-बगल चलने लगे. उसी बाउंड्री में एक निकास-मार्ग बना हुआ था. शायद मानसून के महीनों में वर्षा के जल का बहाव निकालने के लिए. निकास-मार्ग छोटा था और बिना घुटने पर लगभग बैठे उसे पार नहीं किया जा सकता था. अपने कपड़ों को गन्दा होने से बचाते हुए किसी तरह हम दोनों व्यक्ति गुफा-परिसर के बाहर निकल गए.

शोर्ट-कट निकास
पर उस तरफ पहाड़ी का ढलान था और वह पतली-सी पगदंडी कुछ दूर तक एकदम गन्दगी से भरी हई थी. थोड़ी दूर तक हम पैर दबा कर चलते रहे, फिर पहाड़ी का ढलान आया और पतझर के पत्तों पर चलते हुए एक मंदिर तक पहुँच गए. यह मंदिर “पुराना महाकाली मंदिर” के नाम से जाना जाता है. कहते हैं कि पुराने समय के जंगलों के बीच बने इसी मंदिर के नाम पर इसके नजदीक की गुफाओं का नाम महाकाली गुफा पड़ गया. मंदिर में देवी का विग्रह अन्य जगहों से भिन्न है. ऐसा प्रतीत होता है कि विग्रह के पीछे एक स्तूप बना हुआ है, जिसे आजकल लाल रंग से रंग दिया गया है.

महाकाली देवी
मंदिर भी अब सीमेंट से जंगलों से घिरा हुआ है. काफी गलियां हैं घरों से भरे हुए. मंदिर का दर्शन करने के बाद बस्ती की उन्हीं गलियों से गुजरने के बाद हमलोग पहाड़ी पर फिर चढ़े और महाकाली गुफा के परिसर में आ गया, जहाँ मैंने उन सुरक्षाकर्मियों को धन्यवाद दिया. उस सुरक्षाकर्मी ने मुझे यह भी बताया कि मंडपेश्वर, महाकाली इत्यादि गुफ़ाएँ किसी उपयुक्त पहाड़ को बाहर से अन्दर की तरफ काट कर बनायीं गयीं हैं, जबकि जोगेश्वरी गुफा इनसे थोड़ी भिन्न है. इस तरह फिर से उसने मेरे मन में एक और गुफा देखने की जिज्ञासा बढ़ा दी.
खैर मेरी महाकाली गुफा देखने की तमन्ना पूरी हो चुकी थी. अपनी अगली जिज्ञासा को साथ लिए मैं वह से वापस घर चला आया. इन दोनों गुफाओं को देखने के पश्चात् मेरी कविता कुछ यूँ आगे बढ़ी:
“पता नहीं क्या ढूंढता रहता हूँ मैं
चट्टानों से घिरी इन गुफाओं में,
क्या ढूंढता हूँ फुर्सत के दो क्षण जो
इनकी शांत नीरवता में ही मिलते हैं
या ढूंढता हूँ अपनी आवाज की गूँज
जो निःशब्द ही मुझे झकझोर देती हैं”
A very different kind of travel, I must say.
Though it seems that you are on a walking-travel-athon these days, but even to get a thought of visiting caves brings a lot of novelty. Kudos.
I am suspecting that apart from locals (students), these caves are not seeing a lot of visitors. I have never heard about these caves from anyone in Mumbai, though I have visited this city many many times. For about 5 years, my father actually lived there and now I get to go almost once every year, on account of my work. But this is the first time, I am reading about it.
Thank you Uday for bringing these caves nearer to us. Hoping that more people are able to access it, after reading your log.