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हरिद्वार और देहरादून का तूफानी दौरा

कुछ वर्ष पहले की बात है, शाम को लगभग छः बजे बैंक से लौटा तो घर में घुसते ही बातचीत कुछ इस ढंग से शुरु हुई –

श्रीमती जी –  “बच्चों की एक दिन के लिये हरिद्वार घूमने की इच्छा है।“

मैं – “कब ?”

बड़ा बेटा – “आज ही चलें?”  शनिवार है, कल की छुट्टी है, कल शाम तक वापिस आ जायेंगे!”

मैं – पर इतनी जल्दी सब कुछ कैसे होगा?”

श्रीमती जी – “अगर आपको चलने में कोई दिक्कत नहीं है तो इंतज़ाम भी हो ही जायेगा। आपको तो कोई परेशानी नहीं है ना?”

मैं – “पर वहां रात को ठहरेंगे कहां? शनिवार है, बहुत भीड़ होगी।  रात को ठहरने की भी जगह नहीं मिलेगी।“

छोटा बेटा – “हरिद्वार में तो हज़ारों होटल, धर्मशाला, आश्रम हैं, कहीं न कहीं जगह मिल ही जायेगी!”

श्रीमती जी – “बच्चों का बहुत मन है तो बना लेते हैं प्रोग्राम !”

मैं – “देख लो, अगर आधा घंटे में निकल सकें तो ठीक है, वरना रात को निकलना ठीक नहीं रहेगा।“

बड़ा बेटा – “फिर मैं गाड़ी बाहर निकाल लूं?”

मैं – “गाड़ी तो निकल जायेगी पर पहले जाने की तैयारी तो कराओ! अटैची – सूटकेस में सामान लगाना नहीं लगाना है क्या?”

छोटा बेटा – “हुर्रे !  अटैची तो गाड़ी में पहले से ही रख दी है हमने !” आपकी ही इंतज़ार कर रहे थे!”

मैं – “क्या मतलब ?  बिना मुझसे पूछे ही?  अगर मैं मना कर देता तो?”

श्रीमती जी – “घूमने जाने के लिये आप मना कर दें !  हो ही नहीं सकता !  आधी रात को भी कहीं घूमने जाने को कह दूं तो नींद में उठ कर ही चल दोगे!”  बस, इसी विश्वास से हमने सब सामान गाड़ी में पहले से ही रख रखा है।   चलो, उठो !  अब मुंह फाड़े हमें क्या ताक रहे हो?  कुछ चाय-कॉफी चाहिये तो दे देंगे, वरना गाड़ी बाहर निकालो और चलो !”  इतना कह कर तीनों एक दूसरे को देख कर अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कुराये और फिर खीसें निपोर दीं !  मुझे लगा कि मेरा परिवार मेरी नस-नस से वाकिफ़ है।

तो साब! ऐसे बना हमारा हरिद्वार का प्रोग्राम जिसमें मेरा कतई कोई योगदान नहीं था। घर के ताले – कुंडे बन्द कर के हम चारों अपनी बुढ़िया कार में बैठे, रास्ते में सबसे पहले पंपे पर गाड़ी रोकी, पांच सौ रुपल्ली का पैट्रोल गाड़ी को पिलाया, गाड़ी में फूंक भरी  (मतलब हवा चैक कराई) और हरिद्वार की दिशा में चल पड़े! मारुति कार में और चाहे कितनी भी बुराइयां हों, पर एक अच्छी बात है! हवा-पानी-पैट्रोल चैक करो और चल पड़ो ! गाड़ी रास्ते में दगा नहीं देती !

चल तो दिये पर कहां ठहरेंगे, कुछ ठिकाना नहीं !  गर्मी के दिन थे, शनिवार था – ऐसे में हरिद्वार में बहुत अधिक भीड़ होती है। नेहा इतनी impulsive कभी नहीं होती कि बिना सोचे – विचारे यूं ही घूमने चल पड़े पर बच्चों की इच्छा के आगे वह भी नत-मस्तक थी!  मन में यह बात भी थी कि अगर हरिद्वार में कोई भी सुविधाजनक जगह ठहरने के लिये नहीं मिली तो किसी न किसी रिश्तेदार के घर जाकर पसर जायेंगे! “आपकी बड़ी याद आ रही थी, कल रात आपको सपने में देखा, तब से बड़ी चिन्ता सी हो रही थी !  सोचा, मिल कर आना चाहिये!”  अपनी प्यारी बड़ी बहना को छोटी बहिन इतना कह दे तो पर्याप्त है, फिर आवाभगत में कमी हो ही नहीं सकती!

कार ड्राइव करते हुए मुझे अक्सर ऐसे लोगों पर कोफ्त होती है जो ट्रैफिक सैंस का परिचय नहीं देते। मैं यह कह कर कि “इन लोगों को तो गोली मार देनी चाहिये” अपना गुस्सा अभिव्यक्त कर लिया करता हूं!  बच्चे मेरी इस आदत से परिचित हैं और उन्होंने अब इसे एक खेल का रूप दे दिया है। जब भी सड़क पर कुछ गलत होता दिखाई देता है तो मेरे कुछ कहने से पहले ही तीनों में से कोई न कोई बोल देता है, “आप शांति से ड्राइव करते रहो!  गोली तो इसे हम मार देंगे।” मुझे भी हंसी आ जाती है और गुस्सा काफूर हो जाता है।

देहरादून/रुड़की/देवबन्द की ओर से सहारनपुर आते समय जब सहारनपुर ४ किमी रह जाता है तो “राकेश कैमिकल्स मोड़” नाम से एक अंग्रेज़ी के वाई “Y” आकार का मोड़ आता है।  बाईं ओर वाली मुख्य सड़क देहरादून चौक और घंटाघर होते हुए बस अड्डे चली जाती है। दाईं ओर वाली सड़क इस गरीब घुमक्कड़ के घर तक आती है इस लिये स्वाभाविकतः, इसे जनता रोड कहते हैं।  “राकेश कैमिकल्स” नामकरण के पीछे कोई प्रागैतिहासिक युग से चली आ रही किंवदंती हो, ऐसा नहीं है।  वहां सचमुच में ही राकेश कैमिकल्स नाम की एक फैक्टरी है जिसकी ऊंची – ऊंची चिमनियां काला धुआं उगलती रहती हैं।  इस फैक्टरी के पास ही अब ट्रांसपोर्ट नगर बनाया गया है, जिसे बसाने के लिये सहारनपुर विकास प्राधिकरण को नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं क्योंकि अभी सारे ट्रांसपोर्टर शहर के बीच में गलियों में हैं और शहर से चार किमी दूर शराफत से आने को तैयार नहीं हैं और प्रशासन उंगली टेढ़ी करना नहीं चाह रहा है।  कुल मिला कर त्रेता युग का हाल दोबारा देखने में आ रहा है।

विनय न मानत जलधि जड़, गये तीन दिन बीति !
बोले राम सकोप तब, भय बिन होहिं न प्रीति ॥

प्रभु श्रीराम तीन दिन तक समुद्र देवता से विनती करते रहे थे कि भाईसाब, हमारी सेना को जाने दो, बहुत जरूरी काम है, आपकी भाभी सीता वहां लंका में हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं और १ महीने का अल्टीमेटम दिये हुए बैठी हैं।  पर समुद्र अपने आप को बड़ा तीसमार खां समझते हुए अकड़े बैठा था।   परन्तु लाल-लाल आंखें करके जब श्रीराम ने धनुष की प्रत्यंचा पर शर संधान किया तो समुद्र भाईसाब को समझ आया कि गलत फंस गये! ये तो मामला उलटा पड़ गया!  तुरन्त भगवान जी को “वेरी वेरी सॉरी” बोला, आवाभगत की, रास्ता दिया तब जाकर मामला सुलटा।  कुछ – कुछ ऐसा ही सहारनपुर में भी हो रहा है। सहारनपुर के ट्रांसपोर्टरों को सुधारने में दो मिनट लगेंगे परन्तु हमारा शासन-प्रशासन प्रभु श्रीराम के अनुभवों से शिक्षा भी नहीं ले रहा है।  ले भी भला कैसे?  हमारी सरकार तो सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिये बैठी है कि भगवान श्रीराम कभी हुए ही नहीं, यह तो काल्पनिक कहानी है!

मेरे साथ में यही समस्या है, बात की रौ में बहता-बहता मैं न जाने कहां से कहां पहुंच जाता हूं। अच्छा भला अपनी मारुति ज़ैन में बीवी – बच्चों के साथ बैठा हरिद्वार जा रहा था पर बीच में एक मिनट को ही सही, श्री रामेश्वरम्‌ भी हो आया।  चलो, खैर!  हम इसी जनता रोड को पकड़ कर जब देहरादून रोड पर आकर निकले तो सहारनपुर से चार किमी बाहर आ चुके थे।

ये सफ़र है या suffer ?

सहारनपुर से हरिद्वार जाना हो तो रुड़की होते हुए हरिद्वार जाना होता है।  इसके लिये दो विकल्प हैं।  या तो हम देहरादून रोड पर लगभग 15 किमी चल कर गागलहेड़ी-भगवानपुर संपर्क मार्ग पकड़ कर रुड़की जाते हैं या फिर देहरादून रोड पर ही 24 किमी चल कर छुटमलपुर पहुंचते हैं और वहां से दाईं ओर रुड़की के लिये घूमते हैं।

यू.पी. रोडवेज़ (जिसका नाम भले ही लगभग 40 साल पहले उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम कर दिया गया था पर आज भी रोडवेज़ नाम से ही जानी जाती है) अपनी बसें छुटमलपुर से होते हुए ही रुड़की – हरिद्वार ले कर जाती है।  गागलहेड़ी – भगवानपुर संपर्क मार्ग का स्वास्थ्य अधिकांशतः खराब ही रहता है।  सच कहें तो बेचारा मर-मर कर जीता है।

इस सड़क पर एक किलोमीटर चलने पर बाईं ओर लोक निर्माण विभाग का एक निरीक्षण भवन है।  अगर इस १ किलोमीटर तक नई सड़क बनी हुई हो तो इसका अर्थ है कि अभी दस-पांच दिन पहले मुख्यमंत्री का आगमन हुआ होगा जिसके कारण लोक निर्माण विभाग को यह एक किमी की सड़क बनाने को मजबूर होना पड़ा । पर, चूंकि मुख्यमंत्री को तो कभी – कभी ही यहां आना होता है अतः सड़क सिर्फ एक सप्ताह भर की आयु वाली बनाई जाती है। सड़क पर इत्ता महंगा तारकोल डाल कर जनता के खून पसीने की कमाई को बरबाद क्यों किया जाये?

अतः पी.डब्ल्यू.डी. के देशभक्त इंजीनियरों ने ठेकेदारों के साथ संयुक्त उपक्रम में एक नई तकनीक ईजाद कर ली है। बजरी और रेत बिछाने से ही दो-चार दिन का काम चल जाता है,  तारकोल से सड़क का मुंह काला करने की जरूरत नहीं होती।   बस, थोड़ा सा बाद में कोलतार का स्प्रे कर देते हैं ताकि  वाहन चालकों और यात्रियों को नई सड़क की खुशबू आती रहे।

इस निरीक्षण भवन को पार कर लेने के बाद में तो सड़क बनाने की इस औपचारिकता की भी आवश्यकता नहीं रहती है। अतः इससे आगे, जिन लाखों गढ्ढों को जनता सड़क के नाम से बुलाती है, वह वास्तव में क्या हैं, इस विषय पर अभी विचार-विमर्श चल रहा है।  गागलहेड़ी – भगवानपुर मार्ग के मृत्यु शैया पर पड़े होने के बावजूद कुछ लोगों को यह गलतफहमी रहती है कि इस सड़क का उपयोग कर के वह चौदह किलोमीटर का रास्ता बचा लेंगे यानि, एक लीटर बेशकीमती पैट्रोल!   जब हमने गागलहेड़ी पहुंच कर एक व्यक्ति से राय ली कि इस सड़क का क्या हाल है तो उसने ठीक ऐसे अंदाज़ में मुंह लटकाया जैसे अस्पताल में आई.सी.यू. के बाहर मरीज़ के घरवाले मुंह लटकाये बैठे रहते हैं।  वह व्यक्ति बोला, “जी, बस, सांस चल रही है!”

हमें यही उचित समझ आया कि हम छुटमलपुर वाला मार्ग पकड़ें भले ही वह १४ किमी लंबा क्यों न हो!  पर छुटमलपुर का मार्ग भी ऐसा मिला कि २४ किमी की इस यात्रा में हमारी कार के कराहने की आवाज़ें आने लगीं – “इस बुढ़ापे में मेरी ऐसी दुर्गति क्यों कर रहे हो?”  पर एक बार छुटमलपुर पहुंचने के बाद वहां से रुड़की और फिर रुड़की से हरिद्वार तक का मार्ग ठीक – ठाक था। रुड़की से हरिद्वार मार्ग (यानि, नई दिल्ली – हरिद्वार राजमार्ग) पर तो नेताओं का विशेष तौर पर आना जाना लगा रहता है अतः ये सड़क तो बिल्कुल ऐसी है जैसे हेमामालिनी के गाल (बकौल, लालू प्रसाद यादव) !

हरिद्वार तो आ गया पर रुका कहां जाये?

रास्ते में बच्चों ने कुछ खाने – पीने की बात की तो उनको यह कह कर चुप कर दिया गया कि पहले हरिद्वार पहुंच कर ठहरने की जगह की व्यवस्था हो जाये, उसके बाद खाने-पीने की सोचेंगे! बस, इसी विचार से हम गाड़ी भगाये लिये चले गये और हरिद्वार में सबसे पहले माहेश्वरी धर्मशाला पर गाड़ी रोकी क्योंकि हमारे एक पड़ोसी ने, जो अपने नाम के आगे माहेश्वरी लिखते हैं, ने मेरी पत्नी को विश्वास दिलाया था कि माहेश्वरी धर्मशाला बहुत बड़ी है, बहुत साफ-सुथरी है, बड़ा अच्छा इंतज़ाम है।

धर्मशाला में इतना स्थान है कि कभी धर्मशाला पूरी तरह से भरती ही नहीं।“   अगर हम तीर्थयात्री की भावना से जाते तो हमें इस धर्मशाला के बाद आगे कुछ और देखने की आवश्यकता अनुभव नहीं होती पर हम तो टूरिस्ट वाली मानसिकता लिये हुए थे अतः सोचा, और आगे देखते हैं। हरिद्वार-ऋषिकेश मार्ग पर एक होटल पर रुके पर दड़बे जैसे कमरे के वह इतने पैसे मांग रहा था कि मेरा मन किया कि इसे भी “गोली मार दी जाये”!

वहां से आगे बढ़े तो भीमगोड़ा क्षेत्र में कुछ बहुत अच्छे – अच्छे आश्रम दिखाई दिये। श्री गंगा स्वरूप आश्रम के मुख्यद्वार पर  पहुंचे तो सामने प्रांगण में बहुत भव्य मंदिर दिखाई दिया।  कार बाहर ही रोक कर मैं पत्नी को लेकर अन्दर रिसेप्शन पर पहुंचा और पूछा कि कमरा मिल सकता है क्या? मैनेजर महोदय ने पूछा कि हम कितने लोग हैं? मैने बताया कि हम दो – हमारे दो!  बोले, family suite ले लीजिये। किराया 320 रुपये !

उन्होंने एक कर्मचारी को चाबी देकर कहा कि इनको कमरे दिखा दो। इस suite को हम देखने गये तो प्रवेश द्वार से घुसते ही एक बरामदा जिसमें दाईं ओर एक रसोई, बाईं दिशा में एक बाथरूम और एक टॉयलेट, सामने अगल- बगल में दो बड़े-बड़े कमरे!  ये कमरे वातानुकूलित नहीं थे पर हमें वातानुकूलित कमरों में रुकने का न तो कोई क्रेज़ था और न ही उस आश्रम में रात को आठ बजे गर्मी का आभास हो रहा था।  बस, फौरन से पेश्तर हमने पैसे जमा किये, अपनी आई.डी. वगैरा दिखाई और अपने suite की चाबी ले ली! मनपसन्द कमरे और वह भी इतने सस्ते !

अब तो हम शेर हो गये थे।  बस, बाहर सड़क पर खड़ी हुई अपनी कार में से अटैची – बैग आदि निकाले, बच्चों को साथ लिया और अपना सामान कमरों में रख लिया। वापिस बाहर रिसेप्शन पर आये और पूछा कि खाना खाने जा रहे हैं, कितने बजे तक लौट सकते हैं? हमें बताया गया कि ११ बजे मुख्य द्वार बन्द हो जायेगा उसके बाद कार अन्दर नहीं आ सकेगी। हां, थोड़ी – बहुत देर हो जाये तो छोटा दरवाज़ा खोल कर अन्दर आया जा सकता है।

हम फटाफट कार में बैठे और लगभग पांच किमी की यात्रा करके पुनः हरिद्वार के मुख्य बाज़ार में पहुंचे और अपर बाज़ार में स्थित एक भोजनालय में एक मेज घेर ली।  भोजनालय का नाम याद नहीं आ रहा परन्तु वह मनसा देवी रोप वे के आसपास एक स्वीटशॉप-कम-रेस्टोरेंट था।   खा – पी कर घड़ी देखी, साढ़े नौ बजने को थे।  सोचा कि आधा घंटा हर की पैड़ी पर चल कर बैठते हैं परन्तु कार को हर की पैड़ी की ओर जाने की पुलिस वालों ने अनुमति नहीं दी।

अतः हम घूम कर पुनः बाईपास मार्ग पर गये और पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर पैदल पुल से हर की पैड़ी के सामने वाले घाट पर पहुंच गये। हर की पैड़ी का मोह त्यागने की प्रमुख वज़ह यही थी कि हम किसी भी प्रकार ११ बजे से पहले – पहले अपने आश्रम में प्रवेश करना चाहते थे।  हर की पैड़ी जाने का अर्थ होता, एक पुल और पार करना, जूतों को स्टैंड पर जमा करवाना, हाथ – धोना और तब हर की पैड़ी पर पहुंचना।  गर्मी में स्नानार्थियों की उस समय भी हर की पैड़ी पर भीड़ थी, फर्श गीला था अतः सामने वाले द्वीप पर सूखे फर्श पर बैठ कर अपने पांव पानी में डाल लिये और उस स्निग्ध जलवायु का मज़ा लेते रहे।

मैं जब भी हर की पैड़ी पर जाता हूं, वर्ष 1978 की एक घटना याद आती है। आज तक भी इस घटना ने मेरी स्मृति का पीछा नहीं छोड़ा, उसकी वज़ह यही है कि मैं उस दिन मरते – मरते बचा था। वास्तव में हम विद्यार्थियों का एक ग्रुप एक कैंप के लिये हरिद्वार आया हुआ था। हर रोज़ सुबह-शाम हम हर की पैड़ी पर आते थे। जिन साथियों को तैरना आता था, उनसे तैरना भी सीखना शुरु किया। दो ही दिनों में मुझे ये गलतफहमी हो गई थी कि मुझे अब तैरना आगया है।

हर की पैड़ी पर,  महिला स्नानागार के ठीक ऊपर टापू को जोड़ने वाला एक सदियों पुराना पुल है, उसके दाईं ओर हम नदी में छलांग लगाते और पानी की धारा के साथ-साथ पुल के नीचे से तैरते हुए पुल के बाईं ओर आते और बाहर निकल आते थे।  पर एक बार जब तैरते – तैरते मैं बाईं ओर आया और नीचे पांव टिकाना चाहा पर नदी की तलहटी नहीं मिली जहां खड़ा हो सकूं। स्पष्ट ही था कि मैं तट से थोड़ा ज्यादा ही दूर हो गया था।

पानी का बहाव बहुत तीव्र था और मैं अनचाहे ही आगे की ओर बढ़ता जा रहा था। मेरे साथियों को यह आभास नहीं हुआ कि मैं किसी संकट में हूं और मैं घबराहट में ’बचाओ – बचाओ’ की आवाज़ भी नहीं निकाल पा रहा था।  उन क्षणों में, जीवन कितना क्षणभंगुर है, इसका अहसास मुझे हुआ।  मुझे लगा कि यदि मैं इसी प्रकार आगे बढ़ता रहा तो जल का प्रवाह और तेज होता जायेगा और मुझे बचाने वाला कोई नहीं होगा। ऐसे में मैं गोल मंदिर की ओर बढ़ने का प्रयास करूं तो शायद जान बच जाये। उन मंदिरों की ओर जल का प्रवाह कम होता है क्योंकि मंदिर प्रवाह में बाधा उत्पन्न करते हैं।

बस, उन दो दिनों में जितना भी तैरना सीख पाया था, संकट की उस घड़ी में उस समस्त ज्ञान को उपयोग में लाते हुए मैं हाथ-पैर मारते हुए टापू की ओर से गोल मंदिर यानि, हर की पैड़ी की ओर बढ़ता रहा और जब गोल मंदिर की बिल्कुल बगल में पहुंच कर पानी में सीधा खड़ा हुआ तो कुछ लोगों को अपनी ओर अजीब सी निगाहों से ताकता हुआ पाया।  शायद उन लोगों को मेरे चेहरे पर मौत साफ-साफ लिखी हुई दिखाई दे रही होगी।  अस्तु !

बच्चों का मन पानी में से बाहर पैर निकालने का नहीं हो रहा था। उनकी मम्मी ने उनको सिंड्रैला वाली कहानी याद दिलाई कि जिस प्रकार घड़ी का कांटा १२ पर आते ही रथ, घोड़े, कोचवान और कीमती वस्त्र गायब हो गये थे वैसे ही हमारे आश्रम का दरवाज़ा भी ११ बजते ही बंद हो जायेगा।

पार्किंग से गाड़ी लेकर हम ११ बजे से पांच मिनट पहले ही आश्रम के मुख्य द्वार में प्रवेश कर गये तो लगा कि मैदान मार लिया।  पर, अन्दर उस विशालकाय प्रांगण में कारों की गिनती करते – करते हमें गश आ गया।  कहीं पार्किंग की जगह शेष ही नहीं थी।  अंत में एक बहुत अटपटी सी जगह पर गाड़ी खड़ी करनी पड़ी जहां हमारी गाड़ी खड़ी होने के कारण कम से कम बीस कारों का रास्ता रुक गया था और वह आश्रम के मुख्य द्वार तक नहीं जा सकती थीं।  मैने एक कागज़ पर बहुत मोटे – मोटे अक्षरों में अपने suite का क्रमांक लिखा और उस कागज़ को अपनी कार के शीशे पर वाइपर से दबा दिया और भगवान का नाम लेकर अपने कमरों में आ गये।

रात बिताई सोय के, दिवस बितायो घूम

थकान के कारण हम कब सो गये, कुछ पता नहीं चला। सुबह ४ बजे के करीब हमारे कमरे का द्वार खटखटाया गया ।  बाहर निकल कर देखा तो कोई सज्जन और सजनी खड़े थे और चाहते थे कि हम अपनी कार हटा लें ताकि वह अपनी इनोवा निकाल सकें।  वह हमसे कतई नाराज़ नहीं लगे बल्कि हमारी इस समझदारी पर फिदा थे कि हमने अपने कमरे का नंबर कार पर लिख छोड़ा था।

अगर हम ऐसा न करते तो वह निश्चय ही अपने सिर के बाल, और शायद हमारे भी नोंच लेते!  मुझे अब यही तरीका समझ आया कि कार को बाहर सड़क पर ही खड़ी कर दिया जाये, हरिद्वार वालों के हिसाब से तो सुबह ४ बजे अच्छी भली सुबह हो ही चुकी थी।  कार मुख्य द्वार से बाहर निकाली तो न जाने कितने भगवा वस्त्रधारी, नागा साधु लकड़ी की खड़ाऊं पर खड़ताल करते हुए गंगा स्नान के लिये जाते हुए दिखाई दिये।

अनेकानेक महिलाएं भी गंगा घाट की ओर जाती मिलीं !  वापस कमरे पर आकर मुझे दोबारा सोने का मन नहीं हुआ और मैं आश्रम की शोभा निहारता हुआ इधर-उधर घूमता रहा।  पांच बज गये तो वापस आकर तीनों को जगाया और नित्य कर्म से निवृत्त होकर जल्दी से चंडी देवी यात्रा के लिये निकलने को कहा।  घूमने के शौक में बच्चों ने आनाकानी नहीं की और फटाफट तैयार हो गये।  हम लोग सुबह छः बजे अपनी कार में बैठ चुके थे।

बाहर मुख्य द्वार के पास ही चाय की कुछ दुकानें देख कर पत्नी का मन डोल गया। बोलीं कि एक कप चाय सुड़क ली जाये तो कुछ स्फूर्ति आये।  मैं चाय को मना कर देता तो चंडी देवी के दर्शन वहीं अपने सामने ही हो जाते, पहाड़ पर चढ़ने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती अतः खोखे वाले से कहा,  “भाई, एक स्पेशल चाय बना दो – दूध कम, चीनी कम, पत्ती ज्यादा! और हां, अपने भगौने में जो चाय पत्ती पड़ी है, उसे प्लीज़ फेंक दो !”

रोप-वे बन्द, अतः पैदल चढ़ाई

पत्नी को चाय पिला कर हम चंडी देवी यात्रा पर निकल पड़े।  इससे पूर्व मैं चंडी देवी दर्शन हेतु दसियों बार जा चुका था पर यह कई वर्ष पुरानी बात थी। उन दिनों चंडीदेवी के दर्शनार्थ रोपवे की व्यवस्था नहीं थी।  पैदल ही, ऊबड़-खाबड़ पत्थरों पर चलते हुए, बहुत थका देने वाली चढ़ाई चढ़ कर हम चंडी देवी मंदिर तक पहुंचते थे। गंगा की नीलधारा पर लगभग एक किमी लंबे पुल को पार कर हम उस पार सड़क पर पहुंचे जो वास्तव में नजीबाबाद, मुरादाबाद की ओर जाती है।

रोप वे पर पहुंचे तो पता चला कि लगभग एक घंटे बाद सेवा आरंभ होगी।  मुझे और बच्चों को लगा कि एक घंटा कौन इंतज़ार करे, क्यों न हम पैदल ही चल पड़ें?  एक घंटे में तो तीन-चौथाई मार्ग पैदल ही तय कर लेंगे ! पत्नी की ओर प्रश्नवाचक निगाह दौड़ाई तो वह भी तैयार हो गई ! भला क्यों न होती?  ताज़ा – ताज़ा चाय जो पेट में पहुंच चुकी थी! कुछ किमी तक तो साथ देगी ही !  हाई वे पर ट्रक ड्राइवर भी तो ढाबों पर यही कहते हैं – “भाई, दो – सौ किमी वाली चाय बना देना !”

कार को पार्किंग में खड़ी करके हम “वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो !” गाते हुए उत्साह से चंडी देवी दर्शन को पैदल ही चल पड़े! हम सोच रहे थे कि इस तीन किमी के पैदल मार्ग पर चलने वाले  धीर-वीर शायद हम अकेले ही होंगे पर रास्ते में हमें सैंकड़ों दर्शनार्थी आते-जाते मिले जिनमें बच्चे और महिलाएं भी थे!  सड़क भी अच्छी बनी हुई थी जबकि मेरी पूर्व स्मृति में यहां सड़क नाम की कोई चीज़ नहीं थी – बस कच्ची पथरीली, कंटीली पगडंडियां हुआ करती थीं !

Law of Relativity सिद्धान्त के अनुसार हमें लगा कि मानों हम एक्सप्रेस हाईवे पर चल रहे हैं!   पर कुछ किमी चल कर जैसे – जैसे चढ़ाई तीखी होती गई, वैसे वैसे हम सब के उत्साह का पारा भी नीचे उतरता गया और अल्टीमेटली जब हम मंदिर तक पहुंचे तो हम चारों की टांय-टांय फिस्स हो चुकी थी।  बच्चे बोले, “हरिद्वार घुमाने के लिये लाये थे, और इतनी थकान तो अभी से हो गई !” अब क्या घूमेंगे ?”   पत्नी ने भी उनका ही साथ दिया, “अरे तुम्हारे पापा बस ऐसे ही हैं। मैं तो जाने कब से झेल रही हूं!”   मैने भी कह दिया, “मैं किसी को घुमाने नहीं लाया। तुम्हीं लोग मुझे जबरदस्ती पकड़ लाये हो।

ऊपर पैदल आने की भी मैने कोई जिद नहीं की थी !  ठोक-बजा कर तीनों से पूछ लिया था, जब सब ने “हां” की तब आये हैं !  बड़ा बेटा बोला, “अरे नहीं पापा, हम तो ऐसे ही मजाक कर रहे हैं।  हम दोनों को तो पैदल आने में बहुत मज़ा आया। रोप वे में तो तीन मिनट में ऊपर आ जाते, क्या मज़ा आता!  मम्मी जरूर थक गई हैं, सो अभी चाय पिला देते हैं! फ्रेश हो जायेंगी।”  मैने कहा, “तो फिर ठीक है, वापसी भी पैदल ही करेंगे!” छोटा बेटा बोला, “अब इतना भी मज़ा नहीं आया कि वापिस भी पैदल ही जायें!  ट्रॉली शुरु हो गई है।  वापिस तो इसी से चलेंगे।“

चंडी देवी मंदिर विषयक ज्ञान प्राप्ति

चंडी देवी मंदिर पर प्रसाद वाला

चंडी देवी मंदिर के बाहर बाज़ार

ऊपर पर्वत शिखर पर दो मुख्य मंदिर हैं – एक देवी अंजना का और दूसरा चंडी देवी का !  दोनों ही मंदिरों को देख कर मैं आश्चर्य चकित रह गया।  मेरी पुरानी स्मृति ( 1975 से 1980) के अनुसार तो यहां सिर्फ चंडी देवी के मंदिर के नाम पर एक जीर्ण – शीर्ण गुंबद में मां चंडी देवी की पिंडी विराजमान थी। अंजना देवी का भी कोई मंदिर यहां था, ऐसा मुझे याद ही नहीं था।

पर अब तो विशालकाय प्रांगण, दो भव्य मंदिर, दर्शनार्थियों की भीड़ को पंक्तियों में व्यवस्थित करने के लिये लोहे के पाइप से बनाये गये संकीर्ण मार्ग, प्रसाद की और भजनों -कीर्तनों की सी-डी और डी.वी.डी. की ढेर सारी दुकानें।  और इन सब के अलावा ऊषा ब्रेंकेट का कार्यालय जो रोप वे को संचालित करता है। मुझे ऐसा लगा ही नहीं कि मैं इसी मंदिर में दर्शनार्थ पहले भी आता रहा हूं। शायद मैं इतिहास-पुरुष बनने के करीब हूं!  बच्चों को जब अपनी युवावस्था की बात बताऊंगा तो उनको लगेगा कि मैं इतिहास का कोई चैप्टर पढ़ा रहा हूं।

 

मन्नत मांगने हेतु बांधी गई चुनरियां और धागे

हम सब ने प्रसाद खरीदा, और चंडीदेवी दर्शन के लिये लोहे के पाइपों से बनाई गई लाइन में लग गये।  कोई बहुत विशेष भीड़ नहीं थी क्योंकि रोप वे का संभवतः पहला ही राउंड शुरु हुआ था। दर्शन किये और मंदिर की परिक्रमा करते हुए बाहर निकले। इस चंडी देवी मंदिर के इतिहास का जहां तक प्रश्न है, प्रचलित कथा के अनुसार इस प्रतिमा की स्थापना आदि शंकराचार्य ने 8वीं शती में की थी किन्तु मंदिर वर्ष 1929 में सुचत सिंह नाम के राजा ने बनवाया था।

चंडी देवी वास्तव में मां पार्वती का स्वरूप मानी जाती हैं जिन्होंने देवताओं की प्रार्थना पर शुंभ और निशुंभ नामक दो दैत्यों का वध करने के लिये चंडिका का स्वरूप धारण किया था। इन दोनों दैत्यों का अपराध ये था कि इन्होंने इन्द्र को स्वर्ग के सिंहासन से च्युत कर के स्वर्ग पर कब्ज़ा जमा लिया था और बाकी सारे देवताओं को भी स्वर्ग से बाहर कर दिया था।  मेरे विचार में तो जो चरित्रहीन राजा हर समय “सांस्कृतिक कार्यक्रमों” में, विशेष कर मेनका और उर्वशी के मायाजाल में उलझा रहता है, उसके साथ ऐसी समस्याओं का जब-तब आते रहना नितान्त स्वाभाविक ही है।

इन्द्र के बारे में हर कोई जानता है कि वह चरित्र के मामले में थोड़ा ढीले ही हैं। कभी गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या को पटाने की कोशिश करते पाये जाते हैं तो कभी किसी और सभ्य महिला को!  ये हाल तो तब है जब मेनका और उर्वशी जैसी अप्सरायें उनके चारों ओर हमेशा नृत्य करती रहती हैं। बाकी देवताओं को भी कुछ मेहनत – मजूरी करने का न तो शौक है और न ही अभ्यास है।  परिणाम यही होता कि जब कोई दैत्य सेना स्वर्ग पर आक्रमण करती है तो इन्द्र तो भोग-विलास में लिप्त रहने के कारण युद्ध के लिये तैयारी नहीं कर पाते और बाकी सारे आरामतलब देवता भी त्राहिमाम्‌ – त्राहिमाम्‌ कहते हुए भागते नज़र आते हैं।

मज़बूर होकर कभी दुर्गा तो कभी चामुंडा तो कभी चंडिका देवी को अपने इन आरामतलब नागरिकों की रक्षा के लिये आना पड़ता है। हां, तो इस बार जब मां पार्वती के पास देवतागण रोते कलपते गये तो उन्होंने चंडिका का रूप धरा और शुंभ और निशुंभ दैत्यों का संहार कर दिया। इन नील गिरि पर्वत पर वह कुछ समय रुकी थीं, और यहीं शुंभ और निशुंभ नाम से दो पर्वत चोटियां भी मौजूद हैं।

चंडी देवी मंदिर की सीढ़ियों पर पत्नी और बड़ा पुत्र

2900 मीटर यानि लगभग 9,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस सिद्ध पीठ के दर्शनार्थ अब रोप वे संचालित की जाती है ।  इस रोपवे की लंबाई भी 740 मीटर बताई जाती है यानि 2430 फीट !  मंदिर में प्रवेश के लिये सुबह 6 बजे से रात्रि 8 बजे तक द्वार खुले रहते हैं।

चंडी देवी दर्शन के बाद हम अंजना देवी के दर्शन के लिये बगल में ही स्थित दूसरे मंदिर में भी पहुंचे।  बंदरों का आतंक सर्वत्र व्याप्त है।  भिखारी भी अनगिनत संख्या में मौजूद हैं। कुछ पूरे शरीर पर सिंदूर पोत कर भीख मांगते हैं तो कुछ काली स्याही और तेल पोत कर सोचते हैं कि अब अच्छी भीख मिलेगी।  कुछ तो जबरदस्ती आपको टीका लगाने का प्रयास करते हैं।  मेरे विचार में प्रत्येक हिन्दू मंदिर के बाहर भिखारियों की उपस्थिति शर्मिन्दगी का कारण है। मुझे स्वर्णमंदिर के बाहर एक भी भिखारी के दर्शन नहीं हुए!

वापसी के लिये हम रोप वे टिकट काउंटर पर गये, टिकट खरीदे गये और संक्षिप्त सी लाइन में लग कर रस्सी से लटक रही बीसियों कार में से एक में बैठा दिये गये।  हमारी कार नीचे की ओर बढ़ी तो मैने बच्चों को हरिद्वार के भूगोल का प्रेक्टिकल अध्ययन कराना आरंभ कर दिया। “वो देखो, सामने दूसरे पहाड़ पर मनसा देवी।  ये हमारे दाईं ओर स्थित ऋषिकेश से आरही गंगा की मुख्य धारा जिसे नील धारा कहते हैं।

यह हर की पैड़ी के लिये विशेष तौर पर लाई गई छोटी धारा।  ये शिव जी की विशालकाय मूर्ति, ये रही कार पार्किंग जहां रात हमने अपनी कार खड़ी की थी,  ये देखो महिलाएं नहा रही हैं।  मेरी पत्नी ने तुरंत टोका, “आपको नहाती हुई सिर्फ महिलाएं ही क्यों दिखी, पुरुष भी तो नहा रहे हैं!”  मैने इस टोकाटाकी से बिना घबराये अपना प्रेक्टिकल चालू रखा। “ लाल और भगवा रंग मीलों दूर से नज़र आता है, मुझे रंग बिरंगी साड़ियां दूर से दिखाई दे रही हैं, सिर्फ इसीलिये।

तुम मेरे बारे में गलत धारणा मत बनाया करो!  अरे हां, वह देखो – हर की पैड़ी का घंटाघर, ये देखो इतने सारे पुल जो कुंभ के कारण बनाने पड़ते हैं।  वह जो कई मंजिला इमारत दिख रही है, वह भारत माता मंदिर है।   ये देखो, जहां वह आग दिखाई दे रही है, वो खड़खड़ी है, वहां पर किसी की चिता जल रही है।  मैं इससे पहले कि धरती के भीतर छिपे हुए खनिजों का वर्णन शुरु कर पाता, हमारी रोप-वे कार नीचे वाले स्टेशन पर आकर टिक गई और हम सब बाहर निकले।  अच्छा सुन्दर सा रोप वे स्टेशन बनाया गया है। हरियाली भी है, पुष्प भी हैं, विशाल कार-पार्किंग भी है।

 

चंडी देवी से वापसी हेतु रोपवे पर अपनी बारी की प्रतीक्षा

बाल्टी नुमा ट्राली जिसमें चार सवारी बैठाई जाती हैं।

रोप वे से वापसी का मार्ग

ऐसे घुमाते हैं स्टीयरिंग

वहां से बाहर निकल कर हमने बच्चों से  पूछा कि बोलो भाई लोगों, अब क्या विचार है!  बड़ा बेटा बोला, “आपने सारे हरिद्वार के दर्शन तो ऊपर से ही करा ही दिये हैं।  अब कौन सी जगह ऐसी बची है, जो दिखाई नहीं दी है?  मैने कहा कि ठीक है।  गर्मी अभी से ही बहुत अधिक हो गई है।  मंदिरों में घूम कर क्या करेंगे ।  लच्छीवाला चलते हैं।  वहीं दोबारा नदी में नहायेंगे।  उसके बाद,  वहीं से देहरादून तुम्हारे चाचाजी के घर चलेंगे।  रात तक अपने सहारनपुर वापिस !”

हमारे बच्चों को और उनकी माता को कार्यक्रम की ये रूपरेखा पसन्द आई और हमने रास्ते में गोभी के परांठे और दही का नाश्ता किया,  कोल्ड ड्रिंक की दो लीटर वाली बोतल ली, कार में से अपनी गंगाजली निकाल कर भरी और चल दिये लच्छीवाला की ओर !   नाश्ता करते करते देहरादून फोन कर के पूछ भी लिया कि भाई घर पर हैं भी या नहीं !

मेरे साथ – साथ हरिद्वार में चंडीदेवी दर्शन करने और फिर लच्छीवाला चलने के लिये आपका आभार !   मज़ा आया कुछ ?

कल को ही  समापन किश्त में  चलेंगे देहरादून में बुद्धा टैंपिल के दर्शन करने  और फिर घर वापसी। बाय, बाय, टा-टा !

हरिद्वार और देहरादून का तूफानी दौरा was last modified: December 5th, 2024 by Sushant Singhal
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