अक्टूबर का महिना और घूमने की प्रबल इच्छा की कही न कही तो जाना है लेकिन कुछ समझ ही नहीं आ रहा था क्योकि मनोज को अभी छुट्टी नहीं मिल सकती थी, आखिर मे यही निश्चित हुआ कि सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान पास ही है और कभी हम वहा गए भी नहीं है तो एक बार तो जा ही सकते है, वैसे तो वहा शेर दिखना बहुत मुश्किल है लेकिन कम से कम वन्य जीवन का लुत्फ़ तो उठा ही सकते है। शनिवार की रात को निकलने का निश्चय हुआ जिससे की सोमवार की सुबह तक वापिस आ सके, इस बार हम चार ही लोग मै, भगवानदास जी, मनमोहन और मनोज ही थे इसलिए इंडिगो बुक कर दी क्योकि रास्ता भी छोटा था इसलिए बड़ी गाडी करने से कोई फायदा नहीं था।
शाम को ८ बजे गाडी सबसे पहले मेरे पास आ गयी, मेरी तय्यारी पूरी थी इसलिए बिना देर किये मै गाड़ी मे बैठ गया। पहली बार इस गाड़ी से जा रहे थे और ड्राईवर भी नया था जिसका नाम लकी था, मैंने पहले उसको आइटीओ चलने के लिए कहा जहा से मनोज और मनमोहन को लेना था, उनको लेने दे बाद हमने झंडेवालान से भगवानदास जी को लिया और ड्राईवर को हरी झंडी दे दी कि अब वो गुडगाँव होते हुए अलवर चले, गाड़ी का म्यूजिक सिस्टम ख़राब था जो हमारे लिए बुरी बात थी क्योकि हम सभी गानों के शौक़ीन है, लेकिन अब कुछ हो नहीं सकता था इसलिए अपना ध्यान बातो पर केन्द्रित किया। हमारे मनमोहन जी की आदत है कि गाड़ी मे कोई भी कमी होने पर वो उसके पैसे काटने का एलान कर देते है, इस बार भी उसने एक हजार रूपये काटने का एलान कर दिया क्योकि गाने की सुविधा नहीं थी, वैसे हम ये पैसे काटते नहीं है सिर्फ मजे लेने के लिए करते है। जंगल से हमको सुबह १० बजे तक फ्री हो जाना था और फिर उसके बाद पूरा दिन था इसलिए दिन का सदुपयोग करने के लिए हमने भानगढ़ जाने का निश्चय किया। भानगढ़ एक विश्व प्रसिद्ध स्थान है और सबसे ज्यादा भुतहा जगहों मे से एक है। भानगढ़ के नाम से ही एक अजीब सा रोमांच पैदा हो गया था।
रास्ता छोटा ही था और हम सब मस्ती करते हुए जा रहे थे इसलिए ड्राईवर भी हमारे साथ घुलमिल गया, वैसे भी वो हमउम्र ही था तो कोई समस्या नहीं थी। अलवर पहुचने से एक घंटा पहले मनमोहन ने पेशाब जाने के लिए गाड़ी रुकवाने को बोला लेकिन सब मस्ती मे थे इसलिए ड्राईवर ने भी मजाक मे गाडी नहीं रोकी, उसने कुछ देर बाद फिर बोला लेकिन फिर भी गाडी नहीं रोकी, लगभग दस मिनट बाद मनमोहन ने बुरा सा मुह बनाया और बोला की “सॉरी, नियंत्रण नहीं हुआ, गाडी गन्दी हो गयी”, इस बार सब हडबडा गया और तुरंत ड्राईवर ने भी गाडी रोक दी, लेकिन ऐसा कुछ नहीं था, मनमोहन फिर बोला, “शराफत का जमाना नहीं है इसलिए ये सब करना पड़ता है” फिर ड्राईवर की तरफ देखा और बोला, ” बेटा लकी तेरे दोसौ रूपये और कट गये। हम सब भी हस पड़े और फिर अलवर की तरफ चल दिए।
हम लगभग साढ़े बारह बजे अलवर पहुच गए। किसीने भी भोजन नहीं किया था इसलिए सबसे पहले कोई ढाबा ढूँढकर पेट भर के खाने का निश्चय किया फिर उसके बाद कोई होटल देखकर सोने का। हमें उम्मीद नहीं थी कि वहा कोई ढाबा खुला नहीं मिलेगा लेकिन काफी देर तक इधर उधर भटकने के बाद भी कुछ भी खाने को नहीं मिला, हम काफी दूर तक देख आये थे लेकिन सब कुछ बंद था, तभी एक गाड़ी हमारे पास आई तो हमने उनसे अपनी समस्या बताई तो उसने हमें एक जगह बताई जो वहा से पांच-छ किलोमीटर दूर थी, हम तुरंत वहा पहुचे और पहुचते ही खुश भी हो गए कि ढाबा खुला ही था और बंद करने की तैयारी चल रही थी, हमने जल्दी से ऑर्डर दिया और बहुत जल्दी ही खाना सामने आ भी गया, खाना स्वादिस्ट था, हमने आराम से खाया, भुगतान किया और वापिस होटल की तलाश मे आ गए, २ से ज्यादा का समय हो गया था इसलिए अलवर बिलकुल सुनसान था, हमने एक दो होटल देखे लेकिन किराया ज्यादा था, वैसे भी हमें दो-तीन घंटे ही सोना था इसलिए ज्यादा पैसे हम नहीं देना चाहते थे, आखिर मे एक छोटा सा होटल देखकर हमने वहा २ कमरे ले लिए, दोनों कमरे के सात सौ रूपये तय हुए तो हमने पाँच सौ रूपये अग्रिम दिए और जल्दी से अपना सामान कमरों मे रख दिया। कमरे इतने अच्छे नहीं थे और बाथरूम की दशा तो और भी ख़राब थी इसलिए तभी निश्चय किया की सुबह उठकर सीधा सरिस्का जायेगे बिना नहाये, बाद मे देखा जाएगा कि क्या करना है। सुबह छ बजे का अलार्म लगाकर हम सो गए ताकि सात बजे तक हम सरिस्का उद्यान के प्रवेश द्वार पर पहुच कर समय से परमिट ले सके।
सुबह हम समय पर उठ गए और जल्दी से होटल वाले का हिसाब करके सरिस्का के लिए निकल पड़े। हम सात बजे से पहले ही वहा पहुच गए, जब तक बुकिंग खिड़की नहीं खुली थी, जैसे ही खिड़की खुली हमने अपनी जानकारी वहा दी, जिप्सी बुकिंग के छबीस सौ रूपये हमें बताये गए जिनमे से सात सौ रूपये खिड़की पर ही ले लिए गए और बाकी हमें जिप्सी के देने ड्राईवर को देने थे, हमने ड्राईवर लकी का नाम भी लिखवा लिया था ताकि वो भी जंगल का आनंद ले सके। हम अपने जिप्सी के ड्राईवर और गाइड से मिले और उनको प्रतीक्षा करने के लिए बोला क्योकि वहा की कैंटीन खुल गयी थी इसलिए हमने सोचा कि चाय पी कर चला जाये। चाय पीकर हम जिप्सी मे बैठ गए, ड्राईवर ने भी जीप आगे बढ़ा दी
इस ट्रिप मे शुरू से ही लग रहा था कि जंगल मे कुछ देखने को नहीं मिलेगा और वैसे भी हम जिम कॉर्बेट कई बार जा चुके थे और ३-४ महीने पहले ही रन्थम्बोर भी गए थे तो उनकी तुलना मे सरिस्का बहुत कम है लेकिन जंगल की वादियों मे घुसतेही एक ताजगी और रोमांच का एहसास हो जाता है निगाहे चोकन्नी हो जाती है और कान भी आस पास की आवाज सुनने के लिए बैचैन हो जाते है। जंगल मे प्रवेश करते ही हिरन, सांभर, नीलगाय, लंगूर आदि तो दिखने लगे थे लेकिन शेर को नामोनिशान नहीं था वैसे भी एक समय था जब सरिस्का मे शेर खत्म हो गए थे लेकिन फिर रन्थम्बोर से ३ शेर लाये गए वैसे भी हमने जंगल मे देखा की अभी भी बहुत सारे गाँव जंगल के अन्दर बसे हुए है, हर थोड़ी दूरी पर कोई न कोई ग्रामीण दिख ही जाता था तो ऐसे मे किसी खतरनाक जानवर का दिखना मुश्किल ही था। गाइड ने बताया की इन सभी गाँव को जल्दी ही हटाया जाएगा। ये जरूरी भी है जो जगह जानवर के लिए उस पर इंसान का होना कभी भी जानवर को पसंद नहीं आता।
गाइड से पूछने पर पता चला की हाल फिलहाल तो शेर की कोई हलचल वहा नहीं दिखी है, अब हम इतनी बार जंगल जा चुके है कि एक विशेषज्ञ की तरह ही गाइड और ड्राईवर से बात करते है। तभी हमारे ड्राईवर लकी ने १-२ बिस्कुट जीप से बाहर हिरनों की तरफ फ़ेंक दिए तो हमने तुरंत उसको डांटा, वो बोला सर कोई गलत चीज़ नहीं फेंकी है, इससे क्या नुकसान होगा। हमने बोला भाई वो प्राकृतिक चीज़े खाते है उनको ये गन्दी आदत मत डालो, अगर बाद मे उनकी इच्छा फिर से ये खाने की हुई तो कहा से लायेगे, किसी हिरन की मादा ने फरमाइश कर दी कि वही वाले बिस्कुट चाहिए तो उस बेचारे हिरन की गृहस्थी ही टूट जायेगी। वैसे मजाक अपनी जगह है लेकिन जंगल मे इस तरह से कुछ भी फेंकना गलत ही है। जैसी की उम्मीद थी कि कोई शेर नहीं दिखा इसलिए हमने ड्राईवर को भी बोल दिया कि वो बाहर चल सकता है और वैसे भी समय हो ही गया था। इस समय हमारे मन मे भानगढ़ जाने की प्रबल इच्छा थी क्योकि इतना कुछ सुन रखा था इन किलो के बारे मे कि अब इन्तजार नहीं हो रहा था। बाहर आते ही हमने जिप्सी ड्राईवर को बचे हुए २० ० ० रूपये दिए और अपनी गाड़ी मे बैठ गए और लकी को भी इशारा कर दिया कि जल्दी से भानगढ़ की तरफ चले।
भानगढ़ और सरिस्का के बीच की दूरी लगभग ७०-८० किलोमीटर है, सरिस्का से आगे थानागाजी, अजबगढ़ होते हुए भानगढ़ जाया जा सकता है। अभी कुछ भी खाने की इच्छा नहीं थी इसलिए हमने पहले भानगढ़ जाने का ही निश्चय किया फिर वहा से वापिस आने के बाद ही खाने के बारे मे कुछ सोचेगे वैसे भी ७०-८० किलोमीटर ही दूरी थी तो सोचा कि एक सवा घंटा ही लगेगा पहुचने मे लेकिन थोड़ी देर मे ही अच्छी सड़क का रास्ता खत्म हो गया और ख़राब रास्ता शुरू जो योजना थी उससे दुगना समय लगा पहुचने मे।
भानगढ़ के बारे मे कहा जाता है कि वहा की राजकुमारी रत्नावती बहुत खूबसूरत थी और लोग उसके रूप के दीवाने थे, वही एक साधू भी था जो रत्नावती को बहुत चाहता था, वो साधू काले जादू मे माहिर था। एक बार राजकुमार बाजार मे इत्र खरीद रही थी तो उस साधू ने उस इत्र पर मंत्र पढ़ दिए जिससे कि वो इत्र लगाते ही राजकुमारी उसकी दीवानी हो जाए लेकिन राजकुमार इत्र देखते ही उसकी चाल समझ गयी और उसने वो इत्र की शीशी एक पत्थर पर पटक दी, अब वो पत्थर ही साधू का दीवाना हो गया और उसके पीछे पड़ गया और उसको कुचल दिया लेकिन मरते मरते उस साधू ने पूरे भानगढ़ को श्राप दे दिया कि वो सभी लोग भी जल्दी ही मर जायेगे और उनकी आत्माओ को मुक्ति नहीं मिलेगी जल्दी ही उसका श्राप सच हो गया अजबगढ़ और भानगढ़ के बीच युद्ध जिसमे सभी लोग मारे गए, तब से अब तक यही कहा जाता है कि वो सभी आत्माए आज भी उसी किले मे भटकती है और दिन छिपते ही उन आत्माओ का किले पर कब्ज़ा हो जाता है, ये भी कहा जाता है कि आज भी वहा जिन्नों का बाजार लगता है और रात मे तलवारों के टकराने, चीखने और चूडियो की खनखनाहट की आवाज आती है। अब ये किले आर्कियोंलाजिकल सर्वे आफ इंडिया के नियंत्रण मे है और दिन छिपने के बाद यहाँ रूकने की सख्त मनाही है।
हम लगभग १ बजे वहा पहुचे, रास्ता ख़राब होने की वजह से इतना समय लग गया था लेकिन मजाक मस्ती करते हुए समय का पता ही नहीं लगा, तरह तरह के अनुमान हम रास्ते मे लगा रहे थे जैसे हमने एक बुजुर्ग से रास्ता पुछा तो उसने ठेठ राजस्थानी स्टाइल मे रास्ता तो बता दिया लेकिन फिर बोला कि मुझे भी बैठा लो लेकिन जगह ही नहीं थी इसलिए बैठा नहीं सकते थे, थोडा आगे निकलते ही मनमोहन बोला ” सर जी अगर अभी आपके बीच मे वो ताऊ प्रकट हो जाए और बोले लो मे तो अन्दर आ गया तो क्या होगा।” किले मे पहुचने पर हमने गाड़ी अन्दर ले जाने की कोशिश की तो वहा लोगो ने मना कर दिया कि गाड़ी बाहर पार्किंग मे ही खड़ी हो सकती है तो हमने उसको अन्दर दिखाया की वहा पहले से २-३ गाड़िया खड़ी थी तो उन्होंने बताया कि वो झाँसी की रानी की टीम थी जो शूटिंग के लिए आई थी और उनके पास परमिशन थी फिर हमने बहस नहीं की गाड़ी से बाहर आ गए, प्रवेश द्वार के पास ही भारत सरकार का बोर्ड लगा था जिस पर साफ़ लिखा था की सूर्यास्त के बाद वह रूकना वर्जित है। हमने अन्दर प्रवेश किया, वहा हनुमान जी का एक मंदिर भी है जिसके बारे मे कहा जाता है कि उन आत्मायो का रौब उस मंदिर के अन्दर नहीं चलता, उस किले मे सबसे सुरक्षित जगह वही है। थोडा सा आगे चले तो वहा बहुत सारे बच्चे आ गए जिनमे हर एक के पास पानी था और वो हमसे जिद कर रहे थे की पानी पी लीजिये, हमें प्यास तो लग रही थी लेकिन उस किले मे हम कुछ भी खाना पीना नहीं चाहते थे इसलिए सबको मना करते रहे लेकिन वो बच्चे भी पीछा छोड़ने को तैयार नहीं थे, बड़ी मुश्किल से उनसे पीछा छुड़ाकर हम आगे बढे, वहा सब जगह सिर्फ खंडहर ही खंडहर थे, वहा के बाजार, नर्तकियो की हवेली सभी के खंडहर थे लेकिन देखकर लग रहा था की अपने ज़माने मे वो बहुत खूबसूरत रहे होगे। उस समय वहा पर स्थानीय लोग ज्यादा थे जो शूटिंग देखने के लिए आये हुए थे लेकिन पर्यटक तो शायद १-२ ही थे। सच कहू तो मुझे किले देखने का कभी शौक नहीं रहा सारे खंडहर एक जैसे ही लगते है लेकिन अब निर्देश जी के पोस्ट पढ़कर थोड़ी रूचि जागने लगी है। दोपहर का समय होने की वजह से धुप बहुत तेज लग रही थी इसलिए किले मे ऊपर जाने का मेरा मन नहीं था। महल के गेट पर शूटिंग चल रही थी जिसको देखकर मुझे थोडा ताज्जुब हुआ क्योकि झाँसी की रानी सीरियल काफी पहले आता था और उसमे झाँसी की रानी बड़ी भी हो गयी थी लेकिन यहाँ पर अभी भी वो ही पहले वाली झाँसी की रानी थी, बाद मे पता लगा कि वो शूटिंग झाँसी की रानी के लिए नहीं जी टीवी के सीरियल फियर फाइल्स के लिए थी जो कि भूतो की सच्ची घटनाओ पर है। झाँसी की रानी की शूटिंग के दौरान उन लोगो को भी भी भानगढ़ मे बहुत कुछ रहस्यमय लगा था और उनके कैमरे भी ख़राब हो गए थे इसलिए बाद मे फियर फाइल्स के लिए भी एपिसोड तैयार किया जा रहा था। बाद मे मैंने भी ये एपिसोड यूट्यूब पर देखा। हमने थोड़ी सी शूटिंग देखी और फिर मे और मनमोहन बाहर घास पर छाव देखकर बैठ गए, भगवानदास जी और मनोज ऊपर चले गए जिससे की ऊपर से फोटो भी लिए जा सके। घास पर बैठकर बड़ा अच्छा लग रहा था, वहा पर बहुत सारे बन्दर और लंगूर थे।
थोड़ी देर बाद भगवानदास जी और मनोज भी आ गए तो हमने वापिस चलने का मन बनाया वैसे भी तेज भूख भी लग रही थी, वही पर एदिखाई अ क पेड़ भी था जो पानी के एक छोटे से कुण्ड के पास था और वहा जंजीर लगायी हुई थी, उस पेड़ के पास जाना मना था, कहा भी जाता है की वहा पर साँप पेड़ से लिपटे रहते है। हमने भी कोशिश नहीं की आगे जाने की और वापिसी के लिए चल दिए। वहा पर बहुत से स्थानीय लोग थे तो हमने उनसे वहा की सच्चाई जानने की कोशिश की लेकिन वो लोग इस बारे मे बात ही नहीं करना चाहते थे जबकि वो हमारी उम्र के थे लेकिन उन्हें बात करते हुए भी डर लगता था। मनोज राजस्थानी ही है और राजस्थानी बोल भी लेता है तो उसने बोला कि मे कुछ पता करता हूँ और वो एक बड़ी बड़ी सफ़ेद मूछों वाले बुजुर्ग (ताऊ) की तरफ बढ़ गया और हम आगे आकर ठीक नर्तकियो की हवेली के खंडहर के चबूतरे पर बैठ गए। थोड़ी देर बाद मनोज वापिस आया और बोला ” सर वो यही पास के ही रहने वाले है और कह रहे है की ये सच है और अभी भी रात को आत्माए यहाँ घूमती है, उन्होंने कोई विशेष दिन भी महीने का बताया जिस दिन वहा बाजार लगता है।” लेकिन हम बोले की तुम बात किस से कर रहे थे क्योकि हमें तो कोई दिख ही नहीं रहा था और तुम अकेले अकेले ही बडबडा रहे थे। वो बोला ” क्यों डरा रहे हो सर जी”
काफी देर भी हो चुकी थी इसलिए हम तेजी से बाहर की तरफ चल दिए अभी बाहर निकले नहीं थे कि हमें २ महिलाये दिखी जो मंदिर के सामने की तरफ एक झोपडी सी मे बैठी थी उन्होंने हमें बुलाया और बोली की पानी पी लीजिये, हमारी हंसी छूट गयी क्योकि ये भी हमारे लिए एक रहस्य ही बन गया था की हर कोई पानी ही क्यों पूछ रहा है। जल्दी ही हम बाहर आ गए और गाडी मे बैठ गए, वैसे भी वहा बाहर खाने पीने के लिए कुछ नहीं था इसलिए रास्ते मे कही फल लेने का विचार किया और गाड़ी वापिसी के लिए घुमा ली। लगभग साढ़े तीन बजे होगे और हम भी चाहते थे कि ६ बजे तक अलवर पहुच जाए जिससे की समय से होटल मे कमरा लेकर, नहा धो कर रात के कार्यक्रम की तैय्यारी करे।
वापिस आते हुए एक बार विचार हुआ कि सिलिसिढ़ चला जाए लेकिन फिर विचार त्याग दिया क्योकि झील देखने का मन किसी का नहीं था इसलिए गाडी एक बार उधर से निकाल जरूर ली कि कम से कम जगह देख ली जाए जिससे कि कभी भविष्य मे आये तो मन बनाया जा सकता है, रास्ते मे नटनी का बाड़ा नाम की एक जगह थी, कहा जाता है कि वो नटनी दो पहाड़ो के बीच रस्सी बाँध कर उस पर चलती थी और एक दिन उस रस्सी से गिर कर ही उसकी मौत हो गयी, ऐसा वो अपने बच्चो के लिए करती थी इसलिए उसकी याद मे वहा एक मंदिर भी बना दिया गया। लोग वहा रूकते है और मंदिर मे दर्शन भी करते है, हमने दर्शन तो नहीं किये लेकिन थोड़ी देर वहा रुके और फिर वापिस चल दिए। लगभग साढ़े छ बजे हम अलवर पहुच गए और सबसे पहले एक होटल ढूँढा जिससे की नहा धो कर थोडा सा आराम कर ले। होटल वाले ने कमरे मे एक अतिरिक्त बेड लगाने के व्यवस्था कर दी थी और कमरा भी अच्छा था, साड़ी सुविधाए थी, टीवी, एसी आदि और किराया था १२०० रूपये। हम जल्दी से नहाये क्योकि कुछ खरीदारी भी करनी थी, मनमोहन ने तो जाने से मना कर दिया लेकिन हम तीनो बाजार की तरफ चले गए, वहा का कलाकंद बहुत मशहूर है इसलिए वो ख़रीदा और कुछ सामान रात के लिए लिया और वापिस कमरे मे आ गए। मनमोहन सो गया था इसलिए उसको उठाया और कार्यक्रम की तैयारी शुरू करने को कहा। वैसे भी हमें सुबह जल्दी निकलना था ताकि मनोज और मनमोहन ऑफिस समय से पहुच जाए।
सुबह हम लगभग छ साढ़े छ बजे वापिसी के लिए निकले और साढ़े दस बजे उन दोनों को उनके ऑफिस उतार दिया, रास्ते मे हम एक जगह ही रुके जहा से हमारे ड्राईवर लकी ने पोस्त ख़रीदा था। वैसे तो पोस्त नशा करने के लिए होता है लेकिन कुछ लोग काम के लिए भी इसका प्रयोग करते है। सरकारी ठेका मिलता है इसको बेचने का और एक निश्चित मात्रा तक इसको ख़रीदा जा सकता है। लकी ने एक मजेदार घटना सुनाई वो बोला सर इसको खाने से एक जूनून सवार हो जाता है और अगर किसी आदमी को कोई काम दे दो तो वो काम खत्म होने तक नहीं रुकता, उसके गाँव मे उसके रिश्तेदार की जमीन है जहा पर उनको पेड़ पौधों की कटाई छटाई करानी थी तो उन्होंने किसी मजदूर को बोला जो पोस्त खा कर काम मे लग गया और अगले दिन आकर बताया कि काम हो गया लेकिन काम ज्यादा समय का था तो मालिक ने जाकर निरीक्षण किया तो पता लगा की सिर्फ कटाई छटाई करनी थी लेकिन उसने छटाई तो की नहीं और जोश मे आकर सब कुछ काट दिया।
इस तरह एक छोटी लेकिन मजेदार यात्रा खत्म हुई भानगढ़ के उस रहस्यमय सस्पेंस के साथ जो कब तक सस्पेंस रहेगा पता नहीं।
हमने फोटो तो बहुत सारे खीचे थे लेकिन घर आने पर कैमरा १० मिनट के लिए मेरे भतीजे के पास था, अब पता नहीं वो फोटो कैसे डिलीट हो गए। उसने किये या इसमें भी कोई रहस्य है। ऊपर के सभी फोटो गूगल बाबा की देन है।
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Hi Saurabh,
The trip seemed like lot of fun with your friends.
So did you figure out who the Tau was! The story did send chill up the spine.
Bhangarh has been on my to-do-list for some time now. Hopefully I will be able to get there this rainy season.
Thanks for mentioning me in the post – I am honoured.
I am pretty sure the transplanted tigers are also gone.
If possible, please please correct typos of the word ‘Rajkumari’.
Enjoyed the post!
Thanks for liking the post Nirdesh Ji.
It was really a great fun for us. Hahaha….. can’t say about the tau but it was also a great fun.
All the best for your journy of Bhangarh. Hopefully it will be a great experience for you and we will be getting a great post from you on this.
I was also thinking the same on transplanted tigers but recently Ms Mala has spotted a tiger in Sariska and she has posted the pictures also last month in her post.
You deserve the honour sir. What you are doing is great.
Nandan Ji can help to correct typo of the word “?????????”
At last again thanks for giving your time on the post.
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M bhi waha gaya tha 2014 k starting m pandupol aur naarayani mata tak aur maine bhi waha bhautbs jaanwar dekhe aur tiger k aawaz suni thi bhaut log waha group m hokar tiger kaintazaar kr rahe the pr wo nhi aaaya
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Khup changli story ahe mala khup avdatat romanchya story mi pan taken