संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान, मुंबई की पदयात्रा – “कान्हेरी गुफा”

अभी तक आपने पढ़ा होगा कि कैसे मैं अपनी जिद में संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान के अन्दर लगभग ८-९ किलोमीटर की पदयात्रा के दौरान वहाँ स्थित दर्शनीय स्थलों को देखता हुए कान्हेरी गुफा के सामने तक आ गया था. अब आगे क्या हुआ, वह पढ़िए. “कान्हेरी गुफा” दूर से ही नज़र आने लगी. ऊँचे पहाड़ पर बने गुफाओं को देख कर पैर शिथिल हो चले. एक समय तो लगा कि अब पदयात्रा की जिद छोड़ दें. पर वैसा नहीं किया. सीढियां चढ़ के ऊपर गया, जहाँ टिकट खिड़की पर कई विदेशी नागरिक खड़े हो टिकट ले रहे थे. उन्हें देख कर फिर उत्साह आ गया. जब वे दुसरे देश से आ कर कान्हेरी गुफा देख सकते हैं तो मैं वहां पहुँच कर बिना देखे कैसा लौट सकता हूँ. आर्किओलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया द्वारा सुरक्षित इस स्मारक के लिए ५ रुपये का टिकट था.

टिकट-खिड़की

टिकट-खिड़की

अब थोड़ा कान्हेरी गुफाओं का इतिहास लिख देता हूँ. यह गुफाएँ बौद्ध-काल की हैं. इन गुफाओं को धीरे-धीरे कई सदियों में बनाया-बसाया गया था. करीब २०० ईसापूर्व से ११०० ईस्वी तक ये बनतीं और बौद्ध भिक्क्षुओं द्वारा आवासित रहीं. यहाँ बौद्ध-धर्म से संबधित मूर्तियाँ, चैत्य और विहार मुख्य हैं. यहाँ १०० से भी ज्यादा गुफाएं हैं और हाल में ही ७ नए गुफाओं का पता चला है. यहाँ की गुफाओं में एक स्टैण्डर्ड डिजाईन का पालन किया गया है, जिसके अनुसार गुफा में एक गर्भ-गृह, एक बाहरी बरामदा जिसके दोनों किनारे पर बैठने का चबूतरा, प्रत्येक गुफा के सामने जमीन के अन्दर बने जल-कुण्ड और बरामदा में चढ़ने के लिए सीढियां सम्मिलित थीं. इसे राष्ट्रीय स्तर का स्मारक घोषित किया जा चुका है.

टिकट

टिकट

कान्हेरी गुफाओं का इतिहास

कान्हेरी गुफाओं का इतिहास

१०० गुफाएँ देखना तो लगभग असंभव-सा लगा. सोचा कि कुछ मुख्य गुफाओं को देख कर लौट चलूँ. अब मैं चकराया. कैसे पता करूँ कि मुख्य दर्शनीय गुफाएँ कौन-सी हैं, कहाँ पर हैं, उन्हें कैसे पहचाना जा सकता है और उनमें देखने की क्या खासियत है? टिकट काउंटर पर कोई बुकलेट भी मौजूद नहीं था. तिस पर वहाँ मुझे उस समय कोई गाइड भी नहीं दिखा. कुछ सूचना एक शिला-लेख पर अंकित थी और बाद में गुफा संख्या तीन पर उपस्थित दरबान ने मुझे गुफाओं के बारे में कई बहुमूल्य जानकारियां दीं. इतिहासकार या पुरातत्ववेत्ता तो मैं नहीं हूँ. इसीलिए अब इस लेख में आगे कुछ गुफाओं का मुख्य दृश्य वर्णन करता हूँ. दूसरी गुफा एक बहुत बड़े चट्टान को काट कर बनी थी. इसके आधे भाग में चैत्य और आधे भाग में विहार की अनुभूति होती थी. इस गुफा का आकार ही सबसे आकर्षित करता है, जो बड़े चट्टान को अंडाकार काट कर बना था. इसके अन्दर प्रार्थना स्थल था और बुद्ध की कई मूर्तियाँ बनी हुईं थीं. बस आश्चर्य होता था कि कैसे इन गुफाओं को काटते होंगे.

दुसरे नंबर की गुफा से बाहर का दृश्य

दुसरे नंबर की गुफा से बाहर का दृश्य

बाहर से दूसरी गुफा का दृश्य

बाहर से दूसरी गुफा का दृश्य

तीसरे नंबर की गुफा को बहुत महत्वपूर्ण दर्जा प्राप्त है. गुफा में जाने के लिए सीढियां बनीं थीं. सीढियां जिस बरामदे में खुलती थीं, उसमें एक सम्राट अशोक का सिंह स्तम्भ था. गुफा के बाहरी भाग में कई मूर्तियाँ थीं, जिन्हें उस समय के दानवीरों की मूर्तियाँ कहा जाता है. इसी बाहरी भाग के दोनों किनारे पर बुद्ध की दो विशाल मूर्तियाँ थीं. लोकोक्ति है कि एक मूर्ति बुद्ध की शांत है तो दूसरी दण्ड प्रदान करने वाली. इसके स्थान के बाद उस गुफा के अन्दर प्रवेश करने पर एक चौकोर खम्बों से युक्त प्रार्थना हॉल मिलता है, जिसे चैत्यगृह कहा जाता है. इसके एक छोर पर करीब ७ मीटर ऊँचा एक स्तूप बना है. परिक्रमा करने के लिए गलियारा भी बना है. यहाँ की मुख्य बात इस हॉल की ध्वनिक प्रणाली है. हलके-से-हलके स्वर में बोला जाने वाला शब्द यहाँ पूरे हॉल में गूँज जाता है. दूसरी मुख्यता प्रत्येक खम्बों के उपरी भाग में खुदी हुई मूर्तियाँ थीं, जो भगवान् बुद्ध के जीवन-चरित की कहानियों को दर्शाती थीं. तीसरी मुख्य बात यहाँ की प्रकाश-प्रणाली है जो खिड़कियों से छन कर चैत्य गृह को प्रकाशित कर देती थीं.

तीसरी गुफा का बाहर से दृश्य

तीसरी गुफा का बाहर से दृश्य

तीसरी गुफा के बने दानवीरों की मूर्तियाँ

तीसरी गुफा के बने दानवीरों की मूर्तियाँ

तीसरी गुफा का चैत्य और स्तूप

तीसरी गुफा का चैत्य और स्तूप

तीसरे नंबर की गुफा से निकल कर दाईं ओर चलने पर एक सूखी नदी मिली. इस नदी के दोनों किनारे पर पहाड़ों में कई गुफाएँ बनी हुईं थीं. उन्हीं में से एक गुफा मुझे बहुत अच्छी लगी. उसकी बनावट उस समय की कक्षा के जैसी थी, जिसमें बौद्ध भिक्षुओं को शिक्षा प्रदान किया जाता होगा. इसमें जमीन पर पहाड़ को काट कर लम्बे-लम्बे टेबल बनाये गए थे. जिसमें तत्कालीन पुस्तकों या भोजपत्रों को रख कर विद्यार्थी पढाई करते होंगे. इस गुफा में भी प्रकाश-व्यवस्था उन्नत थी. उसी गुफा के अन्दर कई कमरे भी बने हुए थे, जिनसे ऐसा प्रतीत होता था कि संभवतः विद्यार्थी शिक्षा-काल में वहीँ निवास भी करते हों.

गुफा में बनी कक्षा

गुफा में बनी कक्षा

शिक्षा कक्ष से निकल कर आगे जाने से गुफाएँ-ही-गुफाएँ नज़र आती थीं. वहीँ एक गुफा के सामने जमीन पर कुछ गड्ढे बने दिखे. यह कुछ साधारण गड्ढे नहीं थे. पुरातन काल में जब प्रकाश के लिए सूरज और चाँद की रौशनी ही ज्यादा उपयोग में आते थे, उस समय इन गड्ढों का उपयोग होता था. उस दरबान द्वारा कही लोकोक्ति है कि इनमें जल भर कर उस जल से परवर्तित किरणों से प्रकाश का काम लिया जाता था. पर ऐसा भी हो सकता है कि उनमें आग लगा कर, ज्वालाओं की रौशनी में कार्य किया जाता हो. जल-व्यवस्था का विज्ञानं बहुत विकसित लगता था. गुफाओं के सामने जमीन के अन्दर एक कक्ष बना रहता था, जिसमें वर्षा का जल सुरक्षित किया जाता था. सालों भर की क्या कहें, उन जल-कक्षों में आज भी जल भरे हुए थे. शायद ही कोई जल-कक्ष सूखा हो. पता नहीं कितने वर्षों से यह संरचना खड़ी है. भाई मान गए उन वैज्ञानिकों को जिन्होंने जल-सुरक्षा की ऐसी व्यवस्था आज से सदियों पहले कर दी हो.

प्रकाश-हेतु व्यवस्था

प्रकाश-हेतु व्यवस्था

जल व्यवस्था

जल व्यवस्था

कई गुफाओं में घूमता हुआ, मैं जा पहुंचा पहाड़ की चोटी के पास जहाँ ऊपर जाने के लिए पहाड़ में ही सीढियां कटी हुईं थीं. उस समय तक काफी गर्मी भी हो गयी थी. ज्यादातर लोग इस चोटी के नीचे वाली गुफाओं को देख कर ही लौट जाते थे. पर मैं उन लोगों में था, जो चोटी पर चढ़ना चाहते थे. सीढियां बहुत दूर तक जातीं हैं और थकान पैदा करतीं हैं. पर इन सीढ़ियों से आप उन गुफाओं तक पहुँच जाते है, जिनका नंबर १०० के पास है. यहाँ कई गुफाएँ हैं. ऐसा लगता है कि कोई कॉलोनी बसी हुई हो. हर गुफा की अपनी सीढ़ी, अपना बरामदा, अपना गर्भ-गृह और अपनी जल-व्यवस्था.

हाड़ पर कटी सीढियां

हाड़ पर कटी सीढियां

गुफाओं का एक दृश्य

गुफाओं का एक दृश्य

किसी-किसी गुफा में तो कोई मूर्ति नहीं थी, पर किसी-किसी गुफाओं में बुद्ध-धर्म से जुडी मूर्तियों का अनमोल खज़ाना था. सबसे अंतिम गुफा के गर्भ-गृह में भगवान् बुद्ध की आदमकद बैठी हुई मूर्ति थी, जो उस वीरान में बड़ी सशक्त और डरावनी लगती थी. पर्यावरण की शक्तियों से कारण मूर्तियों में कालांतर में काफ़ी हानि हुई है. उनमें छिद्र बन गएँ हैं.

अंतिम गुफा की बुद्ध मूर्ति

अंतिम गुफा की बुद्ध मूर्ति

अन्य मूर्तियों का एक दृश्य

अन्य मूर्तियों का एक दृश्य

पर एक बात थी. कान्हेरी पहाड़ का वह स्थान बिलकुल वीरान था. इतना वीरान कि गुफाओं के अन्दर अकेले जाने में ऐसा महसूस हो कि कोई वहां पहले से मौजूद है, जो आपको निरंतर देख रहा है. उस वीरानी में मन में कई ख़याल आते हैं. जैसे कि क्या वहां जाने वाले का कोई सम्बन्ध पश्चात काल में उस गुफा से था और उसी सम्बन्ध के सहारे वह इस जीवन में भी वहां लौट कर आया हो? उस अंतिम गुफा में बैठ कर मैंने अपनी एक कविता का प्रथम अन्तरा लिखा. इस कविता के दूसरे अंतरे बाद में मुंबई के अन्य गुफाओं की यात्रा में पूर्ण हुए.

“पता नहीं क्या ढूंढता रहता हूँ मैं
चट्टानों से घिरी इन गुफाओं में।
क्या ढूंढता हूँ वे रुपहले रहस्य जो
अदृश्य के पर्दों से झलकते हैं?
या ढूंढता हूँ वो अगम्य पश्चात जो
कदाचित् मेरे पश्चात से जा जुड़ते हैं?
क्या ढूंढता हूँ फुर्सत के दो क्षण जो
इनकी शांत नीरवता में ही मिलते हैं
पता नहीं क्या ढूंढता रहता हूँ मैं
चट्टानों से घिरी इन गुफाओं में”।

शिला-लेख

शिला-लेख

अंतिम गुफाओं में से एक में कुछ शिला-लेख भी थे. शिला-लेख पढना तो मेरे लिए असंभव था. पर मुझे उस दरबान की बात याद अ गयी जिसने कहा था कि उस शिला-लेख में उन व्यक्तियों के नाम थे जिन्होंने गुफा का निर्माण किया था. और निर्माण के पश्चात अपने देश को जाने के पहले उन्होंने अपने नाम वहां मुद्रित कर दिए. अब क्या सचाई है, यह तो कोई पुरातत्ववेत्ता हो बता सकता है. पर उस चोटी से संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान का दृश्य भी बड़ा मनोहारी दीखता था, जिसके दूर छोर पर मुंबई शहर की अट्टालिकाएं भी दिखती थीं. वहां मैं काफ़ी देर तक बैठा और अपनी थकान बितायी. फिर लौटने का समय हुआ. चोटी से उतरना बड़ा आसान था. पर उतरते समय ऐसी अनुभूति होती थी कि मानों चोटी पर बनी गुफाएँ उस समय वहां के सर्वोच्च पुजारियों के लिए हों और नीचे की गुफाएँ विद्यार्थी तथा अन्य आगंतुकों के लिए बनीं हों.

धीरे-धीरे मैं उस परिसर के बाहर आ गया. अब मुझे बहुत जोरों की भूख और प्यास लगने लगी. मुंबई में पसीना भी ज्यादा होता है. अतः शरीर में जल की कमी महसूस होने लगी. खैर, परिसर के बाहर एक खाने-पीने की दुकर भी थी, जिसमें आमतौर पर कोल्ड-ड्रिंक, चाय, बड़ा-पाव, समोसा, पेटिस, मिसाल-पाव इत्यादि मिल रहे थे. कुछ खा कर, चाय पीने के बाद मैं अपनी लौटती पदयात्रा पर चल पड़ा.

खाने-पीने की दुकान

खाने-पीने की दुकान

सूरज सर पर चढ़ चुका था. पर कान्हेरी पर्वत के रास्ते में चहल-पहल थी. लोग-बाग़ अपनी-अपनी टुकड़ियों में चल रहे थे. मैं भी उनके साथ-साथ चलने लगा. तभी एक परिवार दिखा जो अपनी एनफील्ड बुलेट मोटरसाइकिल के सामने खड़ा था और मोटरसाइकिल चल ही नहीं रही थी. हुआ यों था कि उनकी श्रीमतीजी का जैकेट बुलेट के पिछले चक्के में फँस गया था और चैन जाम हो गयी थी. मैं कुछ देर तक तो उन्हें देखता रहा कि शायद जैकेट निकालने में खुद ही सफल हो जाएँ. जब वैसा नहीं हुआ तो मैं भी चला गया. कुछ परिश्रम से और सहयोग से वो जैकेट निकल गया, हालाँकि वह अब किसी काम का नहीं था.

चीटियों की बाम्बियाँ

चीटियों की बाम्बियाँ

लौटती समय रास्ता जाना-पहचाना लगता है. यदि आप पद-यात्रा कर रहें हों, तो कई वृक्ष और जमीन के टुकड़े भी लौटती में आपको पहचानते हैं. दिन चढ़ चुका था, इसीलिए सड़क पर यातायात भी पहले से ज्यादा बढ़ा हुआ था. घने जंगल में भी अकेले चलना अब उतना भयावह नहीं लग रहा था. आत्मविश्वास के साथ मैंने घने जंगल को पार कर लिया और इसके छोर पर में बने सुरक्षा-कुटी तक पहुँच गया. वहां वही व्यक्ति ड्यूटी पर था, जिससे मैं पहले मिला था. मैं उसी कुटी में विश्राम-हेतु चला गया. अब निरे बियाबान में अकेले ड्यूटी पर मन कैसे लगता है, यही जानने की इच्छा थी. मेरा प्रश्न सुनते ही, उसकी आँखे भर गयीं. उसने बोला कि बाबूजी हमलोग तो अब यहीं बस गए हैं, जानवरों से तो उतना डर नहीं लगता है, पर उत्साह से हुल्लड़ मचाने वाले व्यक्तियों का जब गैंग आ जाता है, तब सबसे ज्यादा परेशानी होती है. तिसपर यदि किसी को कुछ हो जाए तो हमारे पर ही बन जाती है.

खैर, उस व्यक्ति से थोड़ा दुःख बांटने के बाद, मैं चल पड़ा. रास्ते में वे सब वन-की-महिलाओं की दुकानें मिलीं, जिन्हें मैं पहले ही देख चुका था. एक दूकान से दुसरे दुकान तक की दूरी चल कर, मैं पिकनिक पॉइंट पहुँच गया, जहाँ बंदरों ने मेरे केले छीने थे. वे दोनों महिलाएं अभी भी वहीँ थीं. मुझे देखा तो एक बार फिर उनकी हंसी छुट गयी. पर मैं क्या करता, जो हुआ सो हुआ. अब आगे जंगल में जब भी घूमूँगा, बंदरों पर निगाह रखूँगा. पिकनिक पॉइंट से एक रास्ता और निकलता है, जिसके बारे में उन्हीं महिलाओं ने बताया कि वह अंत में संजय गाँधी उद्यान के प्रवेश द्वार पर ही खुलता है. पहला रास्ता तो मैं देख ही चुका था, इसीलिए अब मैं दुसरे रास्ते पर चला गया.

हिरणों का झुण्ड

हिरणों का झुण्ड

शुरू में दूसरा रास्ता पहले से कठिन लगा. पर बाद में इस रास्ते पर कई गाँव आने लगे, जो लगभग समृद्ध लगते थे. गांवों के साथ चलते हुए तो बोरियत-सी लगने लगी. इसमें वह मजा कहाँ था, जो जंगल के बीच बने रास्ते में चलने में हो रहा था. पर तभी एक खुले स्थान पर हिरणों का झुण्ड सामने आ गया. यह हिरण गांवों के आसपास ही मंडराते रहते हैं. यहाँ उन्हें कई प्रकार के भोजन मिलते होंगे और वे सुरक्षित भी महसूस करते होंगे.

आगे वह रास्ता, दहिसर नदी के किनारे-किनारे चलता हुआ, राष्ट्रीय उद्यान के दफ्तर के पास से गुजरता हुआ उसी चेक-डैम के पास आ गया, जिसके बगल से मैं सुबह में गुजरा था. अब यहाँ बहुत ही ज्यादा भीड़ थी. परिवार-के-परिवार यहाँ घुमने आये थे. नौकायन के लिए लम्बी लाईनें लगीं थीं. खूबसूरत नज़ारा था. पर यकीन मानिये जंगल की पदयात्रा के बाद लोगों के बीच आने पर अजीब लगता है. फिर से भीड़ देखना उतना आनंददायक नहीं लगता. बिना वहां रुके मैं उद्यान परिसर के बाहर आ गया. उस समय दोपहर के ३.३० बज रहे थे. अर्थात् मेरी पदयात्रा में कुल ०६.३० घंटे लगे थे. अपने मोबाइल एप्प में पैदल यात्रा की दूरी देखी, जिसके अनुसार उस दिन मैंने २१ किलोमीटर की पैदल यात्रा की थी. सच में दिल खुश हो गया

8 Comments

  • Pooja Kataria says:

    Uday Ji, again a wonderful post. Its Good to know that you write poetry as well. I also laughed again reading about those same vegetable seller women. Haha!

    • Uday Baxi says:

      Pooja Ji,
      It is really nice to know that you liked the post. Yes..my ignorance about Jungle, in which monkeys had looted my bananas, was really a funny event. I still laugh when I remember my plight on that day..
      Regards

  • Sangam Mishra says:

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    • Uday Baxi says:

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  • Vineet Jain says:

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  • Nandan Jha says:

    21 Kilometer of slow-walk, probably equivalent to a full marathon.

    The setup looks like a housing complex. I know they are heritage structures and we should preserve them but at the same time, I think we can make them more accessible. This log is one such step, since it builds awareness and shares information.

    May be a festival with controlled/moderated use of some of the caves as the place for showing artwork, performances etc.

    It is amazing to learn that Buddha’s disciples went far and beyond. Buddha happened in 600 BC so its quite a feat.

    Thank you Uday.

    • Uday Baxi says:

      Yes. For me it was a slow marathon, though I had walked for more than its distance in some of the Indian cities, when I was younger. As regards organising some kind of festivals, I have read that some years ago “Gr8 Kanheri Festival” was organised there. May be they re-consider and organise the fair/festivals regularly. But, again the ecological fragility and the security of the national park are also equally important.

      Anyway, glad to know that you liked the post.
      Regards

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