सुबह चार बजे से पहले ही कानो मे आस पास के मंदिरो मे हो रही आरती की आवाज़ गूंजने लगी और मेरी आँख खुल गयी पर थकान के कारण उठ्ने का मन नहीं कर रहा था। तभी गुप्ता जी ने उठकर, शौच आदि से निवर्त हो, सबको उठाना शुरु कर दिया और सब लोग जल्दी से उठ भी गये। हमारा मंदिर के पास बने हुए तप्त कुंड (नारद कुंड) मे स्नान करने का प्रोग्राम था। गुप्ता जी पहले ही एक जोड़ी कपड़े लेकर चलने को tतैयार थे। लेकिन कमरे में शौचालय एक ही था जिसके कारण थोड़ी समस्या भी हो रही थी क्योंकि एक समय में एक आदमी ही उसे इस्तेमाल कर सकता था । गुप्ता जी काफ़ी व्यग्र हो रहे थे और गुस्सा भी। 10-15 मिनटों में पाँच लोग और चलने को tतैयार थे सिर्फ़ शुशील और पिता-पुत्र अभी तैयार होना बाकी थे। गुप्ता जी ने कहा चलो हम लोग चलते हैं ये लोग बाद में आ जाँएंगे, मैनें उन्हें 10 मिनट और इन्तज़ार करने को कहा लेकिन गुप्ता जी काफ़ी उतावले हो रहे थे और चार साथियों के साथ मंदिर की तरफ़ चले गये। मैं तैयार तो था लेकिन उनके साथ नहीं गया और अपने दोस्तों से जल्दी से तैयार होने को कहा। मेरे दोस्त उनके इस तरह चले जाने से थोड़ा नाराज़ थे और मुझ पर बिगड़ रहे थे। थोड़ी ही देर में वो भी तैयार हो गये और मुझसे बोले तू बाहर जाकर रास्ता देख किस तरफ़ जाना है, हम लोग कमरे को ताला लगाकर आते हैं ।
हमारा कमरा बस स्टैंड के पास ही था और वहाँ से मंदिर की दूरी 500-600 मीटर थी, हम सब यहाँ पर पहली बार आये थे और हमें मंदिर कि स्थिति का बिल्कुल भी अन्दाजा नहीं था। मैं कमरे से बाहर आया तो करीब सुबह के 4:45 बज चूके थे। बाहर आ कर देखा तो चारो तरफ़ अन्धेरा था और समझ नहीं आ रहा था कि किस तरफ़ जाना है और मैं अपने अन्दाजे से ,रात को जिस दिशा से आये थे उसके विपरीत दिशा की ओर चल पड़ा। आगे काफ़ी लोग मंदिर जाते मिल गये। मैं एक चौराहे पर खड़ा होकर अपने साथियों का इन्तज़ार करने लगा और उनको आता देखकर उन्हें इशारा कर आगे चल दिया और थोड़ी ही देर में हम मंदिर के पास पहुँच गये।
परम्परा है कि दर्शन से पहले मंदिर के नीचे बने हुए तप्त कुंड मे स्नान किया जाता है, हमारे लिए तो सब कुछ नया था और हम भी पूछते हुए वहाँ पहुँचे। तब तक गुप्ता जी और हमारे अन्य साथी स्नान कर चुके थे। हमने उन्हें रुकने के लिये कहा लेकिन गुप्ता जी जल्दी में थे और हमसे बोले कि हम जाकर लाइन में लग रहें हैं, तुम लोग तैयार होकर आ जाना। ऐसा कहकर वो पाँचों साथी चले गये।
तप्त कुंड एक छोटा सा टैंक था जिसमे कुछ लोग नहा रहे थे कुछ लोग बाहर बैठ कर मग से तप्त कुंड का पानी ले कर नहा रहे थे। तप्त कुंड का जल काफ़ी गर्म था। बाहर मौसम मे ठंडक थी पर फिर भी तप्त कुंड का जल शरीर पर डाला नही जा रहा था। लोग इसके अंदर नहा रहे थे। तभी वहाँ नहा रहे लोगो ने बताया की पहले जल को मग से अपने उपर डाले । जब शरीर सहने लायक हो जाय तो जल्दी से इस कुंड मे उतर आए। वहीं लोगो ने बताया की गर्म जल सर पर ज़्यादा नही डालना चाहिए वरना तबीयत खराब हो सकती है. हमने भी ऐसा ही किया। तब तक उजाला हो चुका था और हमारे चारो ओर विशालकाय पर्वत खड़े थे। इन पहाड़ो की चोटियो पर पड़ी वर्फ़ सूर्य की रोशनी मे चमक रही थी. स्नान के बाद जल्दी जल्दी तैयार होकर हम पूजा की थाली लेने और जुते तथा सामान जमा करवाने के लिये एक दुकान पर गये। भीड़ काफ़ी ज्यादा थी और मैं धक्कापेल से बचने के लिये एक दूसरी दुकान में चला गया और जब वापिस आया तो दोनो साथी गायब थे और मैने सोचा कि शायद वो दर्शन के लिए चले गये। मैं भी भगवान बद्रीविशाल के दर्शन के लिए चल दिया, काफ़ी लम्बी लाइन लगी हुई थी और लाइन में पीछे की तरफ़ मुझे पाँचों साथी मिल गये लेकिन वो दोनो अभी यहॉ नहीं पहुँचे थे। मैं भी दर्शन के लिए उनके साथ लाइन में खड़ा हो गया और उन दोनो की प्रतीक्षा करने लगा। (वैसे आजकल यहाँ लाइन लगनी बदं हो गयी है और ग्रुप सिस्ट्म शुरु हो गया है। आपको वहाँ पहुँचने पर आपका ग्रुप नम्बर मिल जायेगा और दर्शनों के लिये सम्भावित समय भी। तब तक आप लाइन में खड़े होने कि बजाय आसपास घूम सकते है या बाजार में शापिंग कर सकते हैं।)
लाइन धीरे-2 चल रही थी और हम आसपास के प्राकृतिक सौंदर्य का नज़ारा लेते हुए तस्वीरें लेते रहे। 15-20 मिनट और बीत गये पर वो दोनो नहीं आये। अब मुझे उनके बारे में चिन्ता होने लगी कि वो कहाँ रह गये ? मेरे मन में एक ख्याल यह भी आ रहा था कि कहीं उन्होनें लम्बी लाइन देखकर दर्शन के लिए कोई दूसरा जुगाड़ तो नहीं कर लिया। 5-7 मिनट के बाद मैं लाइन में लगे साथियों से कहकर उन्हें ढूढ़ने चल दिया और जैसे ही मैं मंदिर के द्वार के पास पहुँचा वो मुझे मंदिर से बाहर आते दिखे। उनके माथे पर तिलक लगा देख कर मैं समझ गया कि वो दर्शन कर चुके हैं और वो मुझसे बोले कि हम तो VIP लाइन से दर्शन कर चुके हैं , तुम आ जाओ तुम्हें भी करवा देते हैं। मैने उनको कहा कि सब लोग तो लाइन में लगे हैं और तुमने दर्शन कर लिये…यार ये ठीक नहीं किया और जबाब मिला कि जब वो लोग हमें कमरे पर छोड़ कर आ गये थे क्या वो ठीक था ? तुने दर्शन करने हैं तो आजा, हमने तेरे लिये बात कर ली है नही तो जाके लाइन में लग जा। ऐसा कहकर मुझे अपने पीछे आने को कहा और मैं किवंकर्तव्यविमुढ उनके पीछे चल पडा और मन्दिर में जाकर मालूम हुआ कि अन्दर एक छोटी सी VIP लाइन लगी हुई है। VIP लाइन में लगने के लिये मन्दिर के अन्दर ही दान-पर्ची कटती है और जो मन्दिर का सेवादार VIP लाइन को कंट्रोल कर रहा था उसे वो कहकर गये थे कि हमारा एक साथी ओर आयेगा लेकिन जब मैं वहाँ गया तो उसने मना कर दिया और उससे बहस हो गयी लेकिन थोड़ी देर बाद वो मान गया और उसने मुझे मुख्य मन्दिर में जाने दिया। मंदिर मे भीड़ बहुत थी। वहाँ गद्दी पर बैठे रावल जी बताने लगे की भगवान बद्रीविशाल पद्मासन मे ध्यान मुद्रा मे है।
मन्दिर में बदरीनाथ की दाहिनी ओर कुबेर की मूर्ति है। उनके सामने उद्धवजी हैं तथा उत्सवमूर्ति है। उत्सवमूर्ति शीतकाल में बरफ जमने पर जोशीमठ में ले जायी जाती है। उद्धवजी के पास ही चरणपादुका है। बायीं ओर नर-नारायण की मूर्ति है। इनके समीप ही श्रीदेवी और भूदेवी है। भगवान के ललाट पर हीरा लगा हुआ है। मस्तक पर लगे हीरे को देख कर ऐसा लग रहा था की हरे रंग का ज़ीरो वाट का वल्व जल रहा हो। मैं थोड़ी देर वहाँ एक टक निहारता रहा। रावल जी मंत्रोचार करने लगे, हमे लगा कि इससे पहले हमको बाहर जाने के लिए कहे , बाहर चलना चाहिए। भगवान के सामने से हट कर बाहर को निकालने लगा तभी मंत्रोचर करते हुए रावल जी ने इशारे से अपने पास बुलाया और माथे पर चंदन का लेप प्रसाद के रूप मे लगा दिया। यहाँ का चरणाम्रत केसरयुक्त मीठा था। दर्शऩ के बाद मंदिर की परिक्रमा करके हम तीनों मंदिर के प्रांगण में ही बैठ गये और अपने बाकी साथियों के आने का इन्तज़ार करने लगे। इसी दौरान VIP दर्शनों का समय समाप्त हो गया। VIP दर्शन सिर्फ़ सुबह -2 ही होते हैं । सेवादारों ने मन्दिर के सामने के द्वार को बंद कर दिया और मुख्य लाइन के लोगों को बायें द्वार से आने को कहा। हमने मौक़े का फ़ायदा उठाया और भाग कर बायें द्वार के आगे खड़े हो गये। जैसे ही द्वार खुला, हम दुबारा दर्शन के लिये मन्दिर में प्रवेश कर गये और जी भर कर बद्रीनाथ जी व उनकी पंचायत के दर्शन किये।
“ बद्रीनाथ मंदिर , जिसे बद्रीनारायण मंदिर भी कहते हैं, अलकनंदा नदी के किनारे उत्तराखंड राज्य में स्थित है। यह मंदिर भगवान विष्णु के रूप बद्रीनाथ को समर्पित है। यह हिन्दुओं के चार धाम में से एक धाम भी है। ऋषिकेष से यह 294 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । प्रत्येक हिन्दू की यह कामना होती है कि वह बदरीनाथ का दर्शन एक बार अवश्य ही करे।ये पंच-बद्री में से एक बद्री हैं। उत्तराखंड में पंच बद्री, पंच केदार तथा पंच प्रयाग पौराणिक दृष्टि से तथा हिन्दू धर्म दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।यहाँ पर शीत के कारण अलकनन्दा में स्नान करना अत्यन्त ही कठिन है। अलकनन्दा के तो दर्शन ही किये जाते हैं। यात्री तप्तकुण्ड में स्नान करते हैं। वनतुलसी की माला, चले की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है।
बदरीनाथ की मूर्ति शालग्रामशिला से बनी हुई, चतुर्भुज ध्यानमुद्रा में है। कहा जाता है कि यह मूर्ति देवताओं ने नारदकुण्ड से निकालकर स्थापित की थी। सिद्ध, ऋषि, मुनि इसके प्रधान अर्चक थे। जब बौद्धों का प्राबल्य हुआ तब उन्होंने इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा आरम्भ की। शंकराचार्य की प्रचारयात्रा के समय बौद्ध तिब्बत भागते हुए मूर्ति को अलकनन्दा में फेंक गए। शंकराचार्य ने अलकनन्दा से पुन: बाहर निकालकर उसकी स्थापना की। तदनन्तर मूर्ति पुन: स्थानान्तरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुण्ड से निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की।
बद्रीनाथ नाम की कथा
जब भगवान विष्णु योग ध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत ही ज्यादा हिम पात होने लगा। भगवान विष्णु बर्फ में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का ह्रदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बेर(बद्री) के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगी। भगवान विष्णु को धुप वर्षा और हिम से बचाने लगी। कई वर्षों बाद जब भगवान् विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा की माता लक्ष्मी बर्फ से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा की हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा। और क्यूंकि तुमने मेरी रक्षा बद्री रूप में की है सो आज से मुझे बद्री के नाथ-बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा। इस तरह से भगवान विष्णु का नाम बद्रीनाथ पड़ा। जहाँ भगवान बद्री ने तप किया तह वो ही जगह आज तप्त कुण्ड के नाम से जानी जाती है और उनके तप के रूप में आज भी उस कुण्ड में हर मौसम में गर्म पानी उपलब्ध रहता है।”
दुबारा दर्शन के बाद हमने कमरे पर चलने का निश्चय किया क्योंकि वहाँ ठंड बहुत थी और जब हम मन्दिर से बाहर निकले तो हमारे अन्य साथी भी मन्दिर के मुख्य प्रवेश द्वार के पास पहुँच चूके थे। वापसी में एक बार फिर काफ़ी भीड़ के कारण मैं उन दोनो से बिछुड़ गया लेकिन इस बार मैनें उनको ढूंढने कि बजाए सीधे कमरे पर जाने का निश्चय किया। कमरे पर पहुँच कर ध्यान आया कि चाबी तो सीटी या शुशील के पास ही है और मैं कमरे के बाहर उनका इन्तज़ार करने लगा।
हवा बहुत ठंडी थी और टांगों में खडे होने की बिल्कुल हिम्मत नहीं थी। मैं होटल वाले के पास गया और उससे पूछा कि कया उनके पास कमरे की दूसरी चाबी है ,उसने कहा कि उनके पास ताले की एक ही चाबी थी जो वो पहले ही हमें दे चुका था। मैनें उससे बैठने के लिये एक कुर्सी मांगी और मुझे एक कुर्सी मिल गयी। मैं कुर्सी को धूप में ले जाकर उस पर बैठ गया और अपने लिये एक चाय का आर्डर दिया। धूप में बैठ कर चाय पीने से मुझे काफ़ी सकुन मिला। लगभग 40 मिनट बाद वे दोनो आये और मालूम हुआ कि सीटी अपने बेटे के लिये शापिगं करने और खाने-पीने लग गया था। 10-15 मिनट बाद सभी लोग आ गये। आते ही उन्होंने मुझसे पुछा कि तुम उन्हे ढूंढने गये और खुद ही गायब हो गये और मैने उनको सारी बात बता दी लेकिन गुप्ता जी बहुत गुस्से में थे और मुझ पर बुरी तरह भड़क गये। मैने चुप रहने में ही भलाई समझी।
गुप्ता जी, शर्मा जी के साथ शेव करवाने चले गये और बाकी लोग नाशता करने। आलू के पराठों का नाशता करते हुए मैने उन तीनो (नरेश सरोहा, सोनु एवम सतीश ) से सारी बात की और उन्होंने मुझसे कहा वो बिल्कुल नाराज नहीं है, दर्शन ही करने थे, पहले करो या बाद में और इससे कोई फ़रक नहीं पड़ता है। उनकी बातचीत से भी ऐसा ही लग रहा था और उनका व्यवहार सामान्य था । मुझे अभी तक समझ नहीं आया कि मेरा पहले दर्शन ठीक था या गलत्। इसका फ़ैसला मैं पाठकों पर ही छोड़ता हूँ । शायद गुप्ता जी को यह बात हजम नही हुई कि उनके पहले उठ्ने, पहले कमरे से जाने, पहले नहाने और पहले लाइन में लगने के बावजूद ,उनसे पहले हमने दर्शन कयों किये। गुप्ता जी ने हम तीनो से ‘कुटटी’ कर दी। बड़े ग्रुप में ऐसा होना स्वभाविक ही है और बड़े ग्रुप में अकसर छोटे ग्रुप बन जाते हैं। मैं ऐसे हालात से पहले भी दो-चार हो चूका हूं।
जब सब लोग आलू के पराठों का नाशता कर चुके तो सबने फिर से अपने-2 बैग गाड़ी के उपर अच्छी तरह से रख कर बाँध दिये और बद्रीनाथ जी से चलने को तैयार हो गये। कल शाम को ट्रैफिक जाम के कारण जो समय का नुकसान हुआ उस कारण हमें आज बद्रीनाथ जी से थोड़ी आगे माना गाँव व आसपास की जगह घुमने का विचार त्यागना पड़ा क्योंकि पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार हमें आज गोबिंद घाट से हेमकुन्ड यात्रा शुरु करनी थी और 13 किलोमीटर की चढ़ाई के बाद रात को घाघंरिया पहुँचना था। इसलिये हम दोपहर 12 बजे के करीब बद्रीनाथ जी से गोबिंद घाट कि ओर चल दिये। लगभग 2 घंटे की छोटी सी यात्रा के बाद हम गोबिंद घाट पहुँच गये। इस छोटी सी यात्रा के दौरान गाड़ी में ‘तूफ़ान के बाद की शांति’ पसरी रही।
गोविंदघाट, चमोली जिले में अलकनंदा और लक्ष्मण गंगा नदियों के संगम पर स्थित एक शहर है. यह NH58 पर जोशीमठ से लगभग 22 किलोमीटर के आसपास 6000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है. यह स्थान हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी के लिए ट्रैकिंग के लिए प्रारंभ बिंदु है। अलकनंदा नदी के दाहिने किनारे पर स्थित गुरुद्वारा, क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण मील का पत्थर है. यह तीर्थयात्रियों के लिए आवास भी उपलब्ध कराता है. स्थानीय बाजार में कई होटल, अतिथि गृह और रेस्तरां है. यहाँ की अर्थव्यवस्था पूरी तरह यात्रा पर निर्भर है जो मई के अंत से शुरु होकर सितम्बर तक होती है। सभी आवश्यक सामान, जिसकी एक ट्रेकिंग के लिए आवश्यकता हो सकती है, स्थानीय बाजार में उपलब्ध है । हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी का दौरा करने के लिए घाघंरिया के आधार शिविर तक 13 किलोमीटर ट्रैकिंग के लिए यहां खच्चरों और कुलियों की काफ़ी उपलब्धता हैं।दूरसंचार के लिए वहां केवल बी.एस.एन.एल की सुविधा ही उपलब्ध है जो कि गोविंदघाट से आगे कार्य नहीं करती।
गोबिंद घाट पहुँचने के बाद सबने अपना-2 पिठू बैग तैयार किया और शरीर के ना चाहते हुए भी, एक दुसरे की देखा-देखी,हाथ में डंडा लिए पैदल चढ़ाई शुरु कर दी।इस समय दोपहर के दो बज चूके थे। पुरी घाटी पर सूरज चमक रहा था इसलिये चढ़ाई शुरु करते ही गर्मी लगने लगी हमने स्वेटर उतार कर पिठू बैग में रख दिये। प्रकृति का मजा लेते हुऐ हम मस्ती में चल रहे थे तभी हमें (मैं, शुशील और सीटी एक ही गांव से हैं )अपने गांव के कुछ साथी उतरते हुए मिले। वे लोग हेमकुंड साहिब से दर्शन करने के बाद नीचे गोबिंद घाट कि ओर जा रहे थे। उन्होनें हमें बताया कि घाघंरिया (गोबिंद धाम) में यात्रियों की बहुत भीड़ है और वहाँ रुकने के लिये होटल थोड़े ही हैं इसलिये वहाँ जाते ही ठहरने का इतंजाम कर लेना नहीं तो रात खुले में ही काटनी पड़ेगी। हमने अपने साथियों से कह दिया कि जो भी घाघंरिया पहले पहुँच जायेगा वो ठहरने का इतंजाम कर लेगा।
शुरु में तो हम लोग सभी एक साथ ही चल रहे थे लेकिन धीरे – धीरे अलग-2 गति के कारण आगे पिछे हो गये। सोनु व सतीश सबसे आगे चल रहे थे और उनके पीछे मैं चल रहा था और बाकी सब लोग पीछे…। हमारा आज का रास्ता 13 कि.मी. का था और चढ़ाई भी थी । गोबिंद घाट से घाघंरिया तक शुरु के दो किलोमीटर और आखिर के तीन किलोमीटर काफ़ी मुशिकल चढ़ाई है बाक़ी के आठ किलोमीटर सामान्य स्तर की चढ़ाई है। रास्ता काफ़ी रमणीक था कदम कदम पर जल धाराएं व पहाडि़यों से फूटते झरनों ने यात्रा को अत्यन्त मनोरम बना दिया। रास्ते के साथ-2 ‘लक्ष्मन गंगा’ नदी बह रही है जो बाद में गोविंदघाट में अलकनंदा नदी से मिल जाती है । यहाँ नदी के पत्थर एकदम सफ़ेद है और कई जगह तो नदी में ही रास्ता बना हुआ था। मैं काफ़ी तेज चल रहा था क्योंकि अन्धेरा होने से पहले मैं घाघंरिया पहुँचना चाहता था।
पहाड़ो पर काफ़ी चड़ाई के बाद चलते -चलते एकदम मैदानी एरिया आ गया, बहुत सुन्दर जगह थी –यह एक पार्क जैसा लग रहा था, जहाँ बहुत से फुल खिले हुए थे । यहाँ पर एक हेलीपेड भी बना हुआ है और धनवान लोग यहाँ तक हेलिकॉप्टर से आ सकते हैं ।यहाँ पर लकड़ी के काफी सुन्दर मकान भी बने हुए थे और यह सब वन विभाग का था। यहाँ से गोविन्द धाम 3किलो मीटर और दूर है । चढ़ाई होने के कारण रास्ता कठिन था किंतु रूक-रूककर प्रकृति का आनंद लेते हुए रास्ते की कठिनाई पता नहीं चली। जब तक मैं घाघंरिया पहुँचता, अन्धेरा शुरु हो चुका था। घाघंरिया में तीर्थयात्रियों के ठ्हरने के लिए एक बड़ा गुरुद्वारा, गढ़वाल मंडल विकास निगम का एक और बाकी अन्य कई होटल हैं। तीर्थयात्रियों की तादाद भी बहुत ज्यादा थी और रुकने की सभी जगह भरी पडी थी। सोनु व सतीश मुझसे पहले वहाँ पहुँच गये थे और उन्होंने मुझे बताया कि गुरुद्वारा तीर्थयात्रियों से पूरी तरह भरा हुआ है और बाकी सभी होटलों में भी वे पत्ता कर चुके हैं। सिर्फ़ एक होटल में एक 4 बैड का कमरा खाली है जिसके वो 4000 रुपये मागँ रहा है। इसके अलावा और कोई कमरा खाली नही था । ‘मरता कया ना करता’ वाली स्तिथि बन गयी थी। सोनु ने होटल वाले को कमरा बुक करवा दिया लेकिन उसे कोई अग्रिम भुगतान नहीं दिया क्योंकि किराया ज्यादा होने के कारण सर्वसम्मति jजरुरी थी, फ़िर से किसी तनाव से बचना चाहते थे। 30-35 मिनट तक तीन और साथी आ गये , उनसे भी विचार किया गया, क्योंकि सभी बुरी तरह से थके हुए थे और सुबह फिर से यात्रा के लिये सोना बहुत जरुरी था और कोई अन्य विकल्प ना होने के कारण कमरा ले लिया गया। मुझे दुसरों का तो पता नहीं ,मैं पहली बार इतने महंगे कमरे में रुका था। कमरे के हालात महंगे किराये के बिल्कुल विपरीत थे, कमरा अभी निर्माणाधीन था और अभी उसमें लिपाई-पुताई भी नहीं हुई थी, कमरे meमें शौचालय तो था लेकिन उसमें पानी नहीं था। पानी (ठंडे) के लिये कमरे के बाहर नल व बाल्टी मौजुद थे लेकिन होटल मालिक ने सुबह एक बाल्टी गरम पानी की देने का वायदा किया। हालात प्रतिकूल थे और शायद किसी को एक सच्चा घुमक्कड बनने के लिये इन हालातों से रुबरु होना जरुरी भी है। एक सच्चे घुमक्कड को घुमक्कडी के दौरान विलासिता व सुख-सामग्री की इच्छाओं से दूर ही रहना चाहिये।
लगभग रात 8:30 तक सभी साथी कमरे पर पहुँच गये और फिर हम खाने के लिये कमरे से बाहर आये लेकिन भोजनालयों का भी भीड़ के कारण बुरा हाल था, सभी भरे पड़े थे और हर एक भोजनालय के बाहर काफ़ी लोग प्रतिक्षा कर रहे थे। हम चलते-2 एक छोटे से भोजनालय में गये और लगभग आधा घंटे के बाद हमें खाना नसीब हुआ। दाल भी ऐसी कि दाल कम और पानी ज्यादा और रेट उससे भी ज्यादा। दाल ढूंढने के लिये कटोरी में डुबकी मारने की नौबत थी।किसी तरह खाना खाकर हम कमरे पर आये और सुबह 4:00 का आलर्म लगाकर सब सो गये।
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Thanks Bhupendera ji.
Darshan of Hemkund Sahib in next post.
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nice travelogue.
Thanks Sharma Ji..
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??????? SilentSoul ??,
When the going gets tough, the tough gets going. So far, it seems that with a family and kids, it would get very difficult. Probably this trip is best suited for a small group. I am also looking forward to read Mahesh Semwal’s log where he is taking us with family. Lets see.
To answer your question, I think you did what came naturally to you. There is no first and no second. I am sure Guptajee’s concern was short-lived. I especially liked the photos of the ‘Hemkund Sahib Trek’, that gives a good view of overall situation.
Looking forward to Darshan of Hemkund Sahib.
Thanks Nandan Ji,
You are right. Gupta ji’s concern was short lived. After returning to Ambala, all became normal.
Enjoying the journey Naresh Ji and recalling the good old days of my visits to Badrinath and Valley of flowers…
Thanks Bhatt Sahab for liking and enjoying the post..
Very nice travelogue Naresh.
Look forward to see the Heaven on Earth….”the Valley of Flowers” and Hemkund Sahib
Thanks Amitava..
Darshan of Hemkund Sahib in next Post.
baaki saari baate chhoriye ,ye batae guptaji ke saath fir safar par gae ya nahi? is tour ke baad.ya sahi me suffer kiye?
Thanks Rajesh ji..
Gupta ji is working with me but we never visited again together.
Nice series. Really enjoyed the Yatra with you Photos are so good specially the way to Hemkund sahib.
Thanks Ajay ,…
agli bar tum bhi sath chalna…
nice travelogue. I like your writing style.
Thanks Nishi..