२ अगस्त २०१६ को मानसून ने नासिक में कहर बरसा दिया था. गोदावरी उफान पर थी. साथ ही सारे छोटे-बड़े नदी-नाले भी अपनी सीमा लांघ कर चुके थे. बारिश से मची दहशत के तरह-तरह की किस्से मोबाइल फ़ोन और व्हाट्स एप पर फैल रहे थे. उन किस्सों में नासिक के समीप नदी का पुल बह जाने के किस्से ही सबसे खतरनाक थे. पर हमारी गाड़ी जलगाँव से नासिक की तरफ बढ़ी जा रही थी. साढ़े पांच घंटो के सफ़र के दौरान पूरे २६० किलोमीटर के रास्ते में बारिश से सामना होता रहा, पर हमलोग बिना रुके चलते रहे. अचानक भाग्य ने साथ देना शुरू कर दिया और नाशिक पहुँचने के पहले बारिश बंद हो गई. इस तरह रात के घने अँधेरे में हमलोग सकुशल नासिक पहुंचे और उस शहर के पूरी तरह से भीगे और कहीं-कहीं डूबे हुए रास्तों से होते हुए अपने गेस्ट हाउस आ गए.

पहाड़ की तलहटी पर पांडव लेनी जाने का मार्ग
अगला दिन यानि ०३ अगस्त २०१६ भी एक भीगा दिन था और हमारे लिए पूरी तरह से व्यस्त भी. पूरे दिन बारिश होती रही और हमलोग भी अपने कार्य सम्पादित करते रहे. लगता था कि बारिश के बीच ही शाम गहरा जायेगी और हमलोग पांडव लेनी (गुफा) की पैदल यात्रा नहीं कर सकेंगे. पर हम भाग्यशाली थे कि बारिश ने एक बार फिर साथ दिया. ०५.०० बजे शाम को बारिश रुकी तो हमलोग एक कार में सवार हो कर पांडव लेनी की तरफ चल पड़े. गुफ़ा ज्यादा दूर नहीं थी. पर्वत के निकट पहुँचते ही, सड़क से ही, यह गुफाएं नजर आने लगतीं हैं, जिससे पता चलता है कि ये पर्वत के ठीक बीचो-बीच बनीं हैं. पर्वत के तलहटी से ही सीढियां शुरू हो जाती है. यह एक सामान्य श्रेणी का छोटा ट्रेक था, जिसमें लगभग ५०० सीढियां रहीं होंगी.

पांडव गुफाओं का एक विहंगम दृश्य
बारिश के कारण पर्वत पर हरियाली छाई हुई थी. सभी वृक्षों से वर्षा का जल टपक रहा था. घुमावदार सीढियां बारिश में धुली हुईं थीं. गर्मी के दिनों में उड़ने वाले असंख्य धूलकण भी वर्षा-जल से मिल कर धरती पर घुल-मिल चुके थे. पहाड़ी पर एक हल्का कुहासा सा छाया हुआ था. कहीं-कहीं तो वर्षा का जल एक छोटा झरना बनाता हुआ सीढ़ियों पर भी बह रहा था. मुझे उस छोटे-छोटे झरनों के पास रुक कर कुछ समय बिताने का बहुत ही मन कर रहा था. कुल मिला कर बारिश के समय की प्रकृति अपने चरम सुन्दरता पर थी और ऐसे मौसम में गुफाओं की यात्रा बेहद रोमांचक होती है. परन्तु संध्या भी धीरे-धीरे गहराए जा रही थी और गुफा के चौकीदार सीटियाँ बजा-बजा कर बारम्बार गुफाओं के बंद होने का इशारा कर रहे थे. अतएव हमलोग निरंतर आगे बढ़ते रहे.

पांडव लेनी ट्रेक का एक दृश्य
वहां प्रत्येक घुमाव पर एक बोर्ड लगा हुआ था, जो उन गुफाओं का इतिहास बखान कर रहा था. कुछ क्षण वहां रुक कर उन पर लिखी सूचनाओं को पढ़ते हुए जानकारी भी मिलती थी और साथ ही ऊपर चढ़ते समय उखड़ने वाली साँस को भी विराम मिलता था. वहीँ पता चला कि सह्याद्री पर्वतमाला के इस पर्वत का नाम “त्रिरश्मि पर्वत” है और इन गुफाओं को “त्रिरश्मि गुफा” के नाम से भी जाना जाता है. गुफा के महान शिल्पकर्मियों ने ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में एक ऐसी जगह चुनी थी, जिसे सूर्य-रश्मियाँ दिन भर आलोकित रखतीं थीं.
वाह! क्या नामकरण था. पर मेरे मन में यह जिज्ञासा भी थी कि इन गुफाओं का दूसरा नाम “पांडव गुफा” क्यों पड़ा? तब पता चला कि यहाँ के बौद्ध भिक्षुक पीले रंग (पांडू वर्ण) के वस्त्र पहनते थे जिससे इन गुफाओं का नाम ही पांडव गुफा पड़ गया. वैसे तो ऐसी गुफाओं को स्थानीय निवासी मानव-निर्मित मानते ही नहीं हैं. सभी लोग इन गुफाओं को महाभारत काल का और पांडवों का निवास स्थान मानते हैं, जब पांडव वनवास में थे.

त्रिरश्मि गुफा के बारे में बोर्ड
नामकरण के किस्सों को जानने के पश्चात् मैं इन्हें देखने के लिए और लालायित हो उठा. कदम तेजी से बढ़ने लगे और मैं गुफा-वृन्द के गेट पर आ गया. वहां २४ लाजवाब गुफाएं थीं. पुरातत्व विभाग द्वारा एक बोर्ड भी लगा हुआ था, जिसमें बताया गया की वे गुफाएं लगभग २०० वर्षों में बनीं थीं. कई गुफाएं तत्कालीन सम्राटों और धनिक-सम्मानित लोगों के द्वारा दान में दी गयी राशि से बनाई गयीं थीं और बौद्ध धर्म के हीनयान सम्प्रदाय के अनुयायियों द्वारा उपयोग में लाई जातीं थीं. मैं उस बोर्ड में प्रदर्शित सूचनाएँ बड़ी ध्यान से पढ़ रहा था.
पर उसी वक़्त चौकीदार ने गुफा के बंद होने के समय के बारे में ताकीद करना शुरू कर दिया. उसकी बात भी सही थी. हमारे अलावा वहां और कोई भी नहीं था. उसकी बात मान कर हमलोग एक तरफ चल पड़े, जहाँ हमें एक पर्वत शिला पर एक लाल रंग की मूर्ती तराशी हुई दिखी, जो देखने से हनुमानजी के जैसी लगी. अब यह तो मालूम नहीं कि कब और कैसे ऐसी मूर्ती तराशी गई थी.

लाल रंग की मूर्ति
मूर्ति के बाद मैं गुफा संख्या १८ में घुसा. वह एक चैत्य था, जिसमें एक मनोहारी स्तूप बना हुआ था. ऊँचे-ऊँचे खम्भों से युक्त उस हौल में आवाज गूंजती थी. हीनयान बौध चैत्यों की इसी प्रकार की सरंचना मैंने कान्हेरी गुफा की यात्रा में देखा था. प्रदर्शित सूचना बताती थी की वह हॉल २१ फीट चौड़ा और ३४ फीट लम्बा था. तत्कालीन शाही अधिकारी “अगियातानाका” की पत्नी “भत्तपत्तिका” ने इसका निर्माण करवाया था. निर्माणकर्ताओं के बारे में इस प्रकार की सूचनाएँ मुझ पर असर डालती हैं. मैं सोचने लगता हूँ कि कौन होंगे वे लोग, कैसी उनकी शान होगी और कैसे उनके विचार.

गुफा नंबर १८ का स्तूप
स्तूप वाली गुफा से बाहर आ कर मैं गुफा नंबर २० के पास आ गया. वहां बड़ा ही मनोरम दृश्य था. बारिश का झरना बड़े वेग से गुफा-द्वार के सामने गिर रहा था. पृथ्वी पर उसके आघात से निरंतर जल के गिरने की आवाज आ रही थी. हवा के झोंकों से जल की छोटी-छोटी बूंदे उड़ कर मुझे हलके-हलके भिगोये जा रहीं थीं. अब ऐसे में, हजारों साल पहले बनी इन गुफाओं के सामने चल रहे प्रकृति के उस खेल को देख कर, कोई भी प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता. ऐसा लग रहा था मानों हमलोग भी अपने पूर्वजों के माफ़िक एक गुफा-मानव हो गएँ हैं, जिसे वह वर्षा-कालीन दिन उस गुफा में ही बिताना है.

गुफा नंबर २० के आगे गिरता बरसाती झरना
काश “गुफा-टूरिज्म” का कभी ऐसा विकास हो कि किसी गुफा में गुफा-मानवों की तरह रात्रि-काल बिताने वाले पैकेज आने लगें. यही कुछ सोच रहा था तो दिखाई दिया कि गुफा नंबर २० का चौकीदार गुफा के दरवाजे पर ताला लगा कर जा चुका था. फिर क्या था, वास्तविकता के धरातल पर लौट आया. इधर-उधर देखने पर वह चौकीदार नज़र आ ही गया. तब काफी मिन्नतों के बाद उसने गुफा नंबर २० का गेट इस शर्त पर खोला कि वह वहीँ सामने खड़ा रहेगा और ५ मिनट में गेट बंद कर चला जायेगा. चलो अच्छा हुआ. कहाँ मैं रात भर बिताने की सोच रहा था कहाँ वह ५ मिनट. उसके ऐसा कहते ही हमलोग सीढ़ी चढ़ कर झरने के नीचे से होते ही गुफा नंबर २० में प्रवेश कर गए.

गुफा नंबर २० का हौल
वहां बिलकुल ही घुप्प अँधेरा था. मैंने अब तक इतनी बड़ी और अँधेरी गुफा नहीं देखी थी. हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था. घने अँधेरे में मोबाइल का टोर्च शुरू करना पड़ा. कुछ देर में जब आँखे अभ्यस्त हुईं तो देखा कि मैं एक बहुत बड़े हौल में हूँ, जिसका फर्श समतल था. पर्वत पर ट्रेक करते समय एक बोर्ड के सूचना अनुसार वह हौल ४४ फीट चौड़ा और ६१ फीट लम्बा था. इस हौल के दोनों बाजुओं पर कमरे बने हुए थे, जिसमें बौद्ध भिक्षु रहते होंगे. और जिसमें हमें रहना पड़ता यदि वह चौकीदार गुस्से में आ कर ५ मिनट के बाद गेट बंद कर देता.

गुफा नंबर २० की बुद्ध प्रतिमा
मोबाइल-टोर्च की रौशनी के साथ मैं उस विशाल हौल में चलने लगा. अंत में गर्भ-गृह में भगवान् बुद्ध की धर्मपरिवर्तन मुद्रा में बैठे हुए एक विशाल प्रतिमा लगी थी. उसी गर्भ-गृह के बाएं और दाहिने दीवालों पर भी बोधिसत्व की प्रतिमा लगी थी. वर्षा-ऋतू की भींगी हुई ढलती शाम में, घने अँधेरे हौल में, मोबाइल-टोर्च की मद्धिम रौशनी में यदि आप उन मानवाकार प्रतिमाओं को देखेंगे तो यकीन मानिये कि दिल में खौफ़ उत्पन्न हो जायेगा.

गुफा नंबर २० की बोधिसत्त्व प्रतिमा
या तो चौकीदार के कसीदों का दर था या फिर अँधेरी गुफा का, मैं उस हौल-नुमा गुफा से बाहर निकल आया और गुफा नंबर १७ के दरवाजे पर जा खड़ा हो गया. इस गुफा में चार खम्भों वाला एक बरामदा था. खम्बों की नक्काशियों में हाथियों की सवारी तराशी गयी थी. सूचनापट के अनुसार यह गुफा “इन्द्रग्निदुत्ता” नामक एक ग्रीक नागरिक द्वारा बनवाई गई थी. ऐसी ही हाथियों की मुद्राओं से अलंकृत खम्भे गुफा नंबर १० में भी दिखे. नक्काशीदार खम्भे, सीढियां, और पहाड़ के अन्दर काट कर बनायीं गयीं जल व्यवस्था काफी सराहनीय थीं. परन्तु मुझे जिस अलंकरण ने सबसे ज्यादा आश्चर्यचकित किया, वह था गुफा के दरवाजों पर बने छज्जे, जो चट्टानों को काट कर बने थे.

गुफा नंबर १७
इस प्रकार मुख्य गुफाएँ देखने के बाद हमलोग उन्हीं चौकीदारों के साथ-साथ नीचे उतरे. पहाड़ से उतरना कभी-भी कष्टदायी नहीं हो सकता यदि रास्ते में सीढियां बनी हों. परंतु उतरने के पहले नाशिक शहर का मनोरम दृश्य देखा और कुछ तस्वीरें लीं. उसी प्रक्रम में देखा की पहाड़ की तलहटी पर एक आधुनिक स्तूप बना हुआ है और कुछ गोल सरंचना भी बगल में बनी हुई है. बस हमलोग पहाड़ से उतर कर आधुनिक बुद्धा स्तूप की तरफ पैदल ही चल पड़े. नजदीक भी था और पक्का रास्ता था, इसीलिए कोई परेशानी नहीं थी. बुद्धा स्तूप के चारों तरफ काफी सुन्दर पार्क बना था, जिसके बीच में लोगों के चलने के लिए फूटपाथ भी बना था. वर्षा-ऋतू की ठंडी हवा चल रही थी और कई जोड़े उस पार्क में हाथों-में-हाथ डाले मग्न हो कर चल-फिर रहे थे. कुछ बुज़ुर्ग लोग भी बैठ कर वहां जलवायु का मजा ले रहे थे. स्तूप में जाने के लिए जूते इत्यादि उतरने पड़ते हैं. वहीँ एक व्यवस्था है, जिसमें प्रति-व्यक्ति २ रुपये जूतों के लिए लगते हैं.

बुद्ध स्तूप का संध्या-कालीन सजावट
अपने जूते उतार कर मैं स्तूप के अन्दर गया. भगवान् बुद्ध की एक विशाल सुनहरे रंग की प्रतिमा स्थापित थी. वहां बड़ी शांति थी. उस भवन की बनावट ऐसी की गई थी कि एक चुटकी की आवाज भी जोरों से गूँज उठती थी. उस भवन के नीचे मंजिले पर एक बुद्ध विषयक पुस्तकालय भी था. शाम होने पर इस स्तूप को रंगीन बत्तियों से सजाया जाता था. बुद्ध की प्रतिमा के ऊपर बत्तियां इस प्रकार लगाई गयीं थीं जिससे कि प्रतिमा चमक उठे. इस स्थान पर बैठ कर कुछ मनन करने का मन करता है. पर उस दिन हमलोगों के पास ज्यादा समय नहीं था और सतत बारिश का भी मौसम था. इसीलिए हमलोग आधुनिक बुद्धा-विहार से बाहर आ गए. बाहर “दादा साहेब फाल्के म्यूजियम” का बोर्ड लगा हुआ था, जो नजदीक ही था.

स्तूप के अन्दर भगवान् बुद्ध की चमकती प्रतिमा
अतएव स्तूप से निकल कर हमलोग पैदल ही दादा साहेब फाल्के म्यूजियम देखने चले. वह म्यूजियम एक विशाल भूमि पर बना हुआ है, जिसमें म्यूजिकल फाउंटेन, चिल्ड्रेन्स पार्क इत्यादि भी हैं. यहाँ बिजली के प्रत्येक खम्बों पर म्यूजिकल सिस्टम लगा हुआ है, जिससे गानों की मधुर धुनें बजतीं रहतीं हैं. उत्तम पार्क भी है, जिसमें पैदल यात्रा करने के लिए काफी जगह है. बारिश में हरा-भरा पार्क बहुत ही खूबसूरत लग रहा था. परन्तु कई स्थानों पर वर्षा का जल तेज बहाव के साथ जमीन पर बह रहा था, जिसे पार किये बगैर आगे नहीं जाया जा सकता है. बचपन के दिनों में तो ऐसे जल-प्रवाह पर छपाक करने में बड़ा मजा आता था. अब जूते बचा कर चलना पड़ रहा था.

दादा साहेब फाल्के म्यूजियम के परिसर का एक दृश्य
दादा साहेब फाल्के हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के पिता माने जाते हैं. उन्होंने नासिक शहर में ही रह कर फिल्म के प्रति ज्यादा कार्य किया था. १९१३ के साइलेंट एरा की फिल्मों से शुरू कर के उनहोने फिल्मों के प्रति अपना जीवन समर्पित कर दिया. उन्ही की याद में बना यह म्यूजियम हिंदी फ़िल्म के इतिहास को भी बयां करता है. आप यहाँ देख सकते हैं कि फिल्मों, अभिनेताओं, परिधानों तकनीकों में किस दौर में कौन प्रसिद्ध और कैसा प्रचलन था. एक-एक कर के फिल्मों के पोस्टर्स के माध्यम से सारी प्रदर्शनी देखी जा सकती है. “शोले”, “मुग़ल-ए-आज़म” और “दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे” इन तीन फ़िल्मों को सेंटेनरी सेलिब्रेशन का ख़िताब मिला हुआ है. यहाँ ऐसा लगता है कि यह म्यूजियम फिल्म इंडस्ट्री के लिए एक “हॉल ऑफ़ फेम” के जैसा है, जिसमें अपना नाम अंकित करवाना एक बहुत बड़ी उपलब्धि हो.

दादा साहब फाल्के म्यूजियम के अन्दर का परिदृश्य
कुछ दिनों से सतत बारिश के कारण मौसम काफी सर्द था. इसीलिए उस दिन ज्यादा भीड़ नहीं थी. यहाँ म्यूजिकल फाउंटेन के पास एक रेस्तरां भी है, जहाँ आप चाय-काफी ले सकते हैं. पर उस दिन भीड़ न होने की वजह डिब्बा-बंद वस्तुओं के अलावा कुछ नहीं मिला. हमलोग कुछ देर उसी रेस्तरां में बैठे और म्यूजिकल फाउंटेन शुरू होने का इंतज़ार किया. ०७.३० बजे संध्या को फाउंटेन शुरू किया गया. देखते-देखते उसका लुत्फ़ उठाते हुए हमलोग दादा साहेब फाल्के म्यूजियम की परिधि से बाहर आ गए. बारिश फिर पड़ने लगी थी. मैं यही सोच रहा था कि कुछ लोग ऐसी बारिश में अपने ड्राइंग रूम में बैठ कर गरम-गरम पकोड़े के साथ-साथ चाय की चुस्कियां ले रहे होंगे. इधर मैं गुफाओं में, स्तूप में और फिल्म म्यूजियम घूम रहा था. चाहे कुछ भी कहो, उस मौसम में उस क्षेत्र में घूमने का अनुभव भी कुछ और था.
That modern Buddha Stupa is glowing in the dark, almost akin to ‘spiritual light’. Thank you Uday for bringing these ancient marvels to us.
As for the lost tea-pakoda, when we meet next, we can have it together.
Yes. Tea-Pakoda is definitely due. Glad to know that you liked the post.
Regards
Again a Great story…I always like to travel in Mountain terrain but after reading your story, I will start to go like that places…
Dear Santanu
Since you like visiting mountains, there will be plenty of opportunities coming your way. I am happy to note that you liked my post. Please keep travelling and sharing your experiences.
Thanks for your nice comments.
Regards
Sorry for the error in name. It is Sangam.
Thanks for sharing , we skipped in last Nasik visit. Now will make sure to visit this place
Yes Virag, you must visit there once in your next trip. You will have a good experience. Please share the same with us.
same experience….
hum 5:00pm pohche or caves close hone ka samad ho gaya….dil dukhi ho gaya ki Itani maanmohak Jagah dekhne k liye time Kum Hain.
kinti fir se hum jarur jayenge.