तो मित्रो आपने पिछले अंको में पढ़ी घुमक्कड़ी की कुछ खट्टी-मीठी यादें और संपादक मंडल ने भी उन्हे विशिष्ट लेख के लिये चुन कर, मेरा हौसला बढ़ाया… धन्यवाद सब पाठकों का.
घुमक्कड़ी का कीड़ा एक बार लड़ जाये तो घर बैठना मुश्किल हो जाता है. कितना काम हो, कितनी व्यस्तता हो, एक घुमक्कड़ कुछ समय चुरा कर निकल ही लेता है… चाहे संदीप की तरह बाइक लेकर, नीरज की तरह बसों, रेलों में धक्के खाते हुए, नंदन की तरह मजबूत SUV में, या भालसे परिवार की तरह पैसे की गिनती किये बिना….चल ही पड़ता है । मेरा घुमक्कड़ी का दिया तो कुछ जल्दी ही जल गया लगभग 5-6 साल की आयू में जब मैं सोते-2, उठ कर चल देता, व कभी सीढियों से नीचे, कभी सड़क पर, कभी किसी पड़ोसी के घर, और कभी तो शहर से बाहर जाते हुए। डाक्टर इसे sleep walking कह रहे थे पर ये वास्तव में पैर का चक्कर था, घुमक्कड़ी का कीड़ा था । मां तब मेरे पैर में चुन्नी बांध कर, अपने हाथ से बांध लेती थी, ताकि मैं जैसे ही उठ कर चलूं उनकी नींद खुल जाये और मैं भागने से पहले ही पकड़ा जाऊं। पर कब तक रोकते… स्कूल से भाग कर शामली की छोटी लाइन पर नन्ही गाड़ियों को ताकना, फिर कालेज जाने पर दिल्ली से बाहर, और अंत में लम्बी छलांग लगा कर देश से ही बाहर…बिल्कुल दक्षिण-ध्रुव की ओर……और इस समय बिलकुल उत्तरी ध्रुव के पास…….पर अभी भी 100 से अधिक शहर देख कर, 25 देश देख कर भी, आयू बढ़ने पर भी, घुमक्कड़ी का दिया बुझा नहीं है…. लगता है ये जलता रहेगा.. अपनी आखिरी घुमक्कड़ी तक… एक अनंत…विशाल ब्रह्मांड से परे…एक अंतिम यात्रा तक जब ये नन्ही सी बूंद विशाल सागर में समा जायेगी और अपना अस्तित्व खो देगी…तब तक अनवरत जलता ही रहेगा.
तो तब तक इस दिये को जलने दें और… और चलें मेरे साथ भूतकाल की कुछ न भूलने वाली यादों के साथ….
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2003 – एक बार मैने और प्रदीप ने कुछ और मित्रों के साथ गंगोत्री जाने का प्रोग्राम बनाया । ऐन वक्त पर बाकि दोनों दोस्तों ने जाने से मना कर दिया । तो हमने यात्रा कैंसिल करने की जगह दोनो ने जाना तय किया और सुबह-2 4 बजे अपनी यात्रा शुरु कर दी… 11 बजे तक हम नरेंद्र नगर पार कर चुके थे… रास्ता अब तक ठीक कटा था.. लोगों को फ्री में लिफ्ट देते हुए हम टिहरी पार कर गये । उसके बाद जो बारिश शुरु हुई बता नहीं सकते । हालत इतनी खराब कि वाइपर फुल चलाने पर भी रास्ता नज़र न आये । अंततः हमें गाड़ी रोकनी पड़ी और 2 घंटे एक दुकान के अंदर शरण ली ।
जब तक उत्तरकाशी पंहुचे शाम हो चुकि थी, शहर पार किया और उत्तर काशी समाप्त होने से पहले एक मोड़ पर छोटा से होटल था, और चूंकि ये उत्तरकाशी का आखिरी होटल था… गाड़ी उसके बाहर रोकी और कमरा लेकर आराम करने लगे । शाम को थोड़ा घूम फिर कर, खाना खाया और वापिस होटल आकर सो गये ।
रात को लगभग 2 बजे अचानक कुछ बेचैनी होने लगी… अजीब -2 भयानक सपने आये और मैं अचानक उठ कर बैठ गया । बाहर से कुछ रहस्मय सी आवाज़ें आ रही थी। मैने प्रदीप को जगाने की कोशिश की पर लाला तो घोड़े बेच कर सो रहा था…. मैं उठा और बिना बत्ती जलाये बाहर बालकोनी में आया ।
बाहर बड़ी तेज बारिश हो रही थी… ऐसी बारिश जो मैने जिंदगी में कभी न देखी । मानो कोई बादल फट गया हो। बारिश के साथ वो रहस्यमय आवाज़ भी तेज हो गयी । मैने ध्यान से देखा नीचे बहुत से लोग छतरियां व ओवरकोट पहन कर खड़े कुछ देख रहे थे… अंधेरे में कुछ ठीक नज़र नहीं आया । मैं अंदर से टार्च लेकर आया और देखा कि सड़क पर कुछ हिल रहा था । कुछ देर में काफी कुछ नज़र आने लगा । घनघोर वर्षा की वजह से वार्णाव्रत पहाड़ जिसकी तलहटी में उत्तरकाशी बसा था, तथा ये पहाड़ 91 व 99 के भयंकर भूकंप की वजह से काफी व्यथित था, उस पहाड़ से दलदल का एक दरिया नीचे सड़क पर बह रहा था
मैंने कार की चाबी उठाई और नीचे की तरफ भागा । नीचे मेला लगा हुआ था और बहुत से लोग इस मंजर को देख रहे थे । दलदल की नदी पहाड़ से नीचे आकर होटल के बिल्कुल आगे सड़क पर आ रही थी और वहां से नीचे ढलान पर जाकर उत्तरकाशी बस अड्डे की ओर बह रही थी । दलदल अपने साथ घरों के हिस्से, कुछ बाईकस व स्कूटर भी ले जा रही थी…. कुछ नीचे जाकर दलदल ने एक छोटे टैम्पु को धकेला, और वो भी दलदल का हिस्सा बन कर धीरे-2 नीचे जाने लगा । इतना भयानक दृष्य मैने कभी नहीं देखा था….
धीरे-2 सड़क के किनारे बने खोखे भी दलदल के साथ खिसकने लगे । मैने सोचा अपनी कार को आगे कर दूं… पास जाकर देखा कि लगभग 3 या 4 फुट से हमारी कार बची थी, दलदल का विशाल सागर बिल्कुल हमारी कार के पास से सड़क पर मुढ़ रहा था । बड़ी मुश्किल से मैने डरते डरते कार को थोड़ा और आगे उंचाई पर किया। अगर हम नीचे मुख्य सड़क पर होटल में रुके होते तो हमारी कार या तो दलदल के साथ नदी में समा गयी होती या मनों कीचड़ में फंस चुकि होती। गंगा मैया की जै बोलकर मैं अंदर आया और नींद में फुफकारते लाला के साथ सोने की कोशिश करने लगा
सुबह उठे और देखा होटल से लेकर नीचे बस अड्डे तक पूरी सड़ंक दलदल व मलबे से भरी थी… गंगोत्री यात्रा उत्तरकाशी से पहले धारसू में रोक दी गयी थी… उत्तरकाशी में और पीछे हजा़रों यात्री फंस चुके थे । गंगा मैया की कृपा से हम एकमात्र यात्री थे जो उस दिन गंगोत्री के लिए, उत्तरकाशी से रवाना हुए… केवल 3 फुट से बची थी हमारी यात्रा….
3 दिन हम गंगोत्री में रुके… हमारी माताजी ने वहां पंडित को एक कमरा बनवा कर दिया था, उसी में हम आराम से रहे व गौमुख भी हो आये. चौथे दिन वहां बसें आनी शुरु हुईं… व एक ड्राइवर ने बताया कि उत्तरकाशी का रास्ता खुल गया है.. हम वापिस हो लिए । रास्ते में जो उत्तरकाशी की हालत देखी, गंगा मैया का हज़ार बार धन्यवाद किया कि इतनी बड़ी मुसीबत से बचा कर हमें अपने दर्शन का सौभाग्य प्रदान किया
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हमारे एक मित्र हैं J.P. साहब… पेशे से वकील, घर के लाडले इकलौते पुत्र। एकदिन J.P. मेरे पास आकर बोला – सरजी नई मारुति वैगन खरीदी है… काफी घूम भी लिया पर आज तक पहाड़ों में नही चलाई… आप तो पहाड़ी ड्राइविंग के माहिर है, अगर आप साथ चलो तो मैं पहाड़ों में कुछ गाड़ी भी चला लूंगा और नजारे भी देख लूंगा क्योंकि मैं आजतक हरिद्वार से आगे नहीं गया. मैने कहा भाई चल तो मैं पड़ूंगा पर मेरे साथ पूरा गैंग जायेगा । J.P. बोला कोई बात नहीं मैं तैयार हूं. मैने सब मित्रों से बात की और प्रदीप व लक्षमण तैयार हो गये और हम चारों चल पड़े हरिद्वार की ओर.
J.P. गाड़ी चला रहा था और हम सब परेशान कि इतनी धीरे चला कर हम किसी भी ऊंची जगह पर नहीं पंहुच सकते आज के आज । पर चू्कि गाड़ी उसकी थी और वो नया चालक था हम बर्दाश्त करते रहे। निर्णय हुआ कि चंद्रबदनी चलते हैं. देवप्रयाग तक रास्ता भी ठीक है और इतनी उंचाई भी नही थी । J.P. देवप्रयाग से कुछ पहले ही घबरा गया और कार साईड में लगा कर बोला – भईया ये तो बहुत खतरनाक रास्ता है अब तुम लोग चलाओ । हम सब हंसने लगे और कहा जिसे तुम खतरनाक बता रहे हो, ये तो डीलक्स रास्ता है, खतरनाक तो तुमने अभी देखा ही नही.
गाड़ी मैने चलानी शुरु की और चुंकि काफी देर हो चुकि थी, और हमें चंद्रबदनी जाकर वापिस भी आना था तो मैने गाड़ी की गति कुछ अधिक ही रखी ताकि समय से पंहुच कर वापिस आ सकें
जामनीखाल से कुछ पहले, जैसे ही एक तीखे मोड़ पर मैने कार घुमाई, सामने से अचानक एक बस आ गयी । हम चु्कि ऐसी बातों के आदि हो चुके थे, कुशलता से मैने कार घाटी की तरफ करके बस को ऱास्ता दिया पर…
J.P. साहब ने एक जोरदार चीख मारी… मैने उनकी तरफ देखा वो थर-थर कांप रहे थे… मैने कार साईड पर लगाई और कार रुकते ही J.P. छलांग लगा कर कार से उतरा और साईड पर पड़ी घास पर लेट गया । उसके माथे से पसीना बह रहा था… हम घबरा गये कहीं इसे हृदय-घात तो नहीं हुआ…. खैर पानी लेकर उसके मुंह पर छींटे मारे व पानी पिलाया । वो उठ कर बैठ गया.. हमने पूछा भाई क्या हुआ तो वो फट पड़ा – आप इतनी तेज गाड़ी चला रहे हो….. पहले तो मुझे लगा बस के साथ हमारी टक्कर हो जायेगी, और जब आपने गाड़ी खाई की तरफ मोड़ी तो मुझे लगा अब हम खाई में जा गिरेंगे । उसका दिल जोर-2 से धड़क रहा था, और पेशानी पर पसीने की बूंदे चमक रही थी ।
हम सब न उसे बहुत समझाया, पहाड़ों में नये आने वाले को शुरु में थोड़ा डर लगता है, पर हम इन सब खतरों को जानते हैं व 20 वर्ष का अनुभव रखते हैं अत: घबराने की बात नहीं. पर J.P. भाई को इतना डर लग रहा था कि उन्होने आगे जाने से इंकार कर दिया….बोले आप लोग जाओ, मैं यहीं बैठ कर आराम करुंगा और वापसी में आप मुझे ले लेना यहीं से । सबने बारी-2 से उसे पटाने की कोशिश की पर वो भाई भी बड़ा चिरांड वकील था सो एक ही रट लगाए रहा, कि वो यहीं बैठेगा और वापसी में हम उसे ले लें ।
हमने आपस में सलाह करी कि क्या किया जाये, सबकी सलाह थी कि यहीं से वापिस चलते हैं ताकि J.P. और परेशान न हो। पर मुझे ये मंजूर नहीं था…चूंकि गैंग लीडर मैं ही था, प्रदीप व लक्षमण ने पूरा निर्णय मुझ पर छोड़ दिया । मैं J.P. के पास गया और बोला – भाई एक बार मुंह से चंद्रबदनी जाने का बोल दो और न जाओ तो माता नाराज़ हो जाती है । J.P. बोला – ठीक है आप जाओ, और मुझे पाप का भागी बनने दो ।
मुझे पता था कि इस घाघ वकील को तर्क से नहीं हराया जा सकता, तो मैने अपनी कूटनीतिक चाल चली व बोला – देख J.P. जायेंगे तो सब इकट्ठे नहीं तो कोई नहीं। अगर हम यहां से वापिस जाते हैं तो हम तेरी कार में नही जायेंगे… हम टैक्सी लेकर दिल्ली चले जायेंगे और तू अपनी गाड़ी खुद चला कर चले जाना ।
J.P. दुखी मन से बोला – आप को मुझे ले जाने की क्यों पड़ी है, आप लोग जाओ और वापसी में मुझे उठा लेना
मैने कहा – हां J.P. उठाना ही पड़ेगा, क्योंकि इस ईलाके में तेंदुओं की भरमार है (और ये सच भी था)…हमारे आने तक अगर तेंदुए नें तेरे शरीर का जो भी हिस्सा छोड़ा वो हम अवश्य उठा लेंगे।
चिरांड वकील की शकल देख कर मैं समझ गया, कि तीर लग चुका है… वो कुछ देर सोचता रहा और फिर बोला – ठीक है मैं चलता हूं… पर आप गाड़ी नहीं चलाओगे कोई और चलायेगा और वो भी 20 या 30 की गति पर ।
लक्षमण जो हम सब में सबसे कुशल चालक था, ने गाड़ी संभाली और हम लोग चंद्रबदनी जाकर शाम कैम्प कौड़ियाला पंहुच गये जहां हम आती बार कमरा बुक कर गये थे
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कैम्प कौड़ियाला में जाकर वकील साहब की जान में जान आई, वैसे भी RC बड़े-2 गम भुला देती है. रात 9-30 पर हम रैस्टोरैंट में खाना खाने पंहुचे… आर्डर दिया और खाने का इंतजार करने लगे.
तभी एक लाल बत्ती वाला एमबैसडर कार आई और मैनेजर तथा कई बैरे बाहर को भागे. वो वापिस आए तो उनके साथ एक जवान सा बंदा जो शायद टूरिज्म मंत्री था, साथ बंदूक-धारी व एक बंदा और जो उसका पी.ए. रहा होगा.. अंदर आकर एक मेज़ पर बैठ गये ।
हमने माथे पर हाथ मारा कि लो अब ये लोग वी.आई.पी की चमचागिरी करेंगे और हमारा खाना मारा जायेगा. पर थोड़ी ही देर में हमारा खाना आ गया और हम टूट पड़े. कुछ देर बाद मैने बैरे को आवाज़ लगाई कुछ और रोटी लाने को.. पर हमारी आवाज़ किसी ने नहीं सुनी..
मंत्री ने शायद देख लिया, और मैनेजर को बुलाकर हमारी और इशारा कर के कुछ कहा और कुछ ही देर में गरमा गरम रोटियां हमारी मेज पर थी.
जल्द ही मंत्री खड़े हुए और मैनेजर को बोले – बिल लाओ… मैनेजर खोखली हंसी से बोला रहने दो साहब
(ये सारा संवाद गढवाली भाषा में था… कुछ हम समझे कुछ बाद में बैरे से पता चला)
मंत्री महोदय तेजी से बोले- बिल लेकर आओ जल्दी.. हमें दूर जाना है । और मैनेजर बिल लेकर आया… जिसे मंत्री के पी.ए. ने फौरन अदा किया. न केवल ये, बल्कि मंत्री जी ने अपनी जेब से बैरों को टिप भी दी, जिसे बड़ी हील-हुज्जत के बाद ले लिया गया.
आजकल जबकि एक अदना सा बाबू भी मुफ्त का माल खाने को तैयार रहता है, एक युवा मंत्री का ये कर्म देखकर हम नतमस्तक हो गये…. काश सभी मंत्री ऐसे होते.
मुझे न तो उस युवा मंत्री का नाम याद है… न मुझे उसकी शक्ल याद है पर उसके व्यवहार, व ईमानदारी को मैं आज भी सलाम करता हूं
(अगर किसी भाई को इन मंत्रीजी के बारे में कुछ पता हो तो लिखे.. ये घटना 2004 की है)
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यह बात है 1986 की . मैने नया बजाज सुपर स्कूटर ख़रीदा था प्रदीप ने भी नया चेतक ख़रीदा. हमने निर्णय लिया की एक लम्बी यात्रा पर जाना चाहिए । तब तक भारत में बाईक्स की बहार नहीं आई थी और चेतक स्कूटर होना गर्व माना जाता था.
तो मैं, अवस्थी, प्रदीप और विजय स्कूटरों पर सवार होकर दिल्ली से नारकंडा के लिये निकल पड़े । ऐय़ाशी भी पूरी चाहिये थी, तो एक सोनी का 2-इन-1 स्कूटर की आगे वाली बास्केट में फिट किया…. हैडलाईट से तार निकाल कर एक diode के द्वारा टेप-रिकार्डर को विद्युत सप्लाई दी और जोर-2 से गाने सुनते हुए हाइवे पर चलते -2 शाम को कालका पंहुच गये.
स्टेशन रोड़ पर होटल देखे पर वो मंहगे थे तभी नजर एक धर्मशाला पर पड़ी और हमने 40 रु में बड़ा सा कमरा ले लिया. धर्मशाला की देखरेख एक वृद्ध दंपत्ति करते थे. औरत तो ठीक थी पर बुड्ढा बड़ा खंडूस था. उसे ना जाने हमसे क्या खुंदक हो गयी कि हर बात पर टोकने लगा. हम गाने सुनने लगे तो दरवाजा भड़भड़ाकर बोला – ओए लड़को यहां गाने सुनना मना हैं. वो स्वंय टीवी पर खबरें देख रहा था. विजय और अवस्थी उसके पास तखत पर बैठ कर खबरें देखने लगे तो गुस्से में टीवी बंद कर बोला -यहां टीवी देखना मना है ।
अवस्थी ने कहा – बाउजी आप भी तो टीवी देख रहे हो, हम देख लेंगे तो क्या हो जायेगा.
बुडढा बोला – ये मेरा टीवी है… यात्रिओं के लिए नहीं है.
मैने सबको बोला छोड़ो टीवी और मंदिर दर्शन कर के आते हैं. हम वहां के प्रसिद्ध काली मंदिर गये और पूजा अर्चना करी फिर बाजार घूमें, कुछ खाया पिया और वापिस धर्मशाला पंहुचे । धर्मशाला का दरवाज़ा अंदर से बंद था.. हमने दरवाज़ा पीटना शुरु किया… और कम से कम आधे घंटे बाद बुढ़िया दरवाजा खोलने आई.
अंदर बुड्ढा पुलिस वालों की तरह खड़ा, हमारी और घूर रहा था. बोला इतनी रात को दरवाजा नही खुलता.
अवस्थी ने बोर्ड की तरफ ईशारा कर के कहा – यहां तो लिखा है 11 बजे के बाद दरवाजा बंद हो जायेगा और अभी तो 10 ही बजे हैं.
बुढ़ऊ ने हमारी बात अनसुनी करके बुढ़ी को कहा – इनके मुंह सूघों.. कहीं ये दारू पीकर तो नहीं आये.. अगर बदबू आये तो इनका सामान बाहर फिंकवा देंगे.
बुढ़िया ने हमारे मूंह सूंघने शुरु किये – मैं बिफर कर बोला – माताजी हम मंदिर से आ रहे हैं. हमारे माथे पर टीका लगा है, हाथ में प्रशाद का लिफाफा है और आप कह रहे हो हम दारू पी कर आये हैं… ये सरासर हमारा अपमान है.
पर उन पर कोई असर नहीं हुआ उल्टा बुढऊ ने ईशारा करके हमें बोर्ड दिखाया जिस पर लिखा था – धर्मशाला में सिगरेट, शराब पीना तथा व्याभिचार करना मना है. मैनेजर को अधिकार है कि उल्लंघन करने वाले को बाहर निकाल दे और उनका एडवांस जब्त कर ले
हम अपमान का घूंट भर कर अपने कमरे में आये व उस घड़ी को कोसने लगे जब हम पैसे बचाने के लिये इस मनहूस धर्मशाला में आये थे. अवस्थी जी बोले – भाई चिन्ता मत करो. मैं बिना सिगरट दारू पिये, बिना व्याभिचार किये, बुड्ढे को सबक सिखा कर जाउंगा…..व्याभिचार मना है… इसलिए मैं दुराचार करूंगा और कुछ न कुछ सबक सिखा कर ही जाऊंगा ।
सुबह हमनें चलने की तैयारी शुरु कर दी, बुडढा तखत पर बैठ कर आलू के परांठे खा रहा था, साथ गिलास भर दूध रखा था. अवस्थी साहब वाश बेसिन पर गये और नीम का दातुन शुरू कर दिया…फिर उन्होने जीभ साफ करनी शुरु की… और यकीन मानिये ऐसी भयानक आवाजें निकाली कि हम भी डर गये. वो मुंह में उंगली डालते फिर जोर -2 से उल्टी करने जैसी आवाजें निकालते कि हमें भी उल्टी आने लगी.
बुड्ढे ने परांठे की प्लेट साइड पर की और अवस्थी को घूरने लगा. बुढ़िया ने जोर से कहा – ये क्या कर रहे हो…देखते नहीं भगत जी खाना खा रहे हैं.
अवस्थी गुस्से से बोला – यहां कहीं बोर्ड पर लिखा है कि गला व जीभ साफ करना मना है ?
खैर अवस्थी की लीला 20 -25 मिनट चलती रही… उनकी भयानक उल्टी करने वाली आवाजों ने बूढ़े की भूख मार दी… और वो खाना छोड़कर बाहर निकल गया..
बाहर आकर हमने स्कूटर चालू किये और चलना शुरु कर दिया. अवस्थी जी बोले – अब ये बुढ़ऊ कम से कम एक साल तक आलू के परौठे नहीं खायेगा…. खायेगा तो उल्टी कर देगा.
और हम सब हंसते हुए ऩारकंडा की ओर रवाना हो गये
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नारकण्डा में कुछ देर रुकने के बाद हम लोग वापिस चल दिये. चारों ओर बरफ पड़ी हुई थी, हम लोग धीरे-2 स्कूटर चलाते हुए, गाने सुनते हुए वापिस शिमला-दिल्ली की ओर चल रहे थे. ठियोग ठीक ठाक निकल गया और अब हम फागू वा कुफरी के बीच कहीं थे. प्रदीप आगे चेतक पर था और मैं पीछे अपने सुपर पर. अचानक देखा, प्रदीप लड़खड़ा कर नीचे गिरा… विजय सड़क पर पड़ा था और प्रदीप स्कूटर के साथ घिसट रहा था…मैने जोर से बोला – प्रदीप क्या हुआ, और ब्रेक लगाई… बस हमारा स्कूटर भी लड़खड़ाया और मैं और अवस्थी भी जमीन पर घिसटने लगे. किस्मत बड़ी अच्छी थी कि हम दोनों का स्कूटर ऐसे कोण पर गिरा था कि हम और हमारे स्कूटर खाई की ओर न जाकर पहाड़ की तरफ फिसले और साइड पर पड़े बर्फ के ढेर से टकरा कर. हम रुक गये…
कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि हुआ क्या है.. तब तक Black Ice के बारे में कुछ नहीं जानते थे. एक मिनी बस वाला हमें गिरता देख, परे ही रुक गया और बस से उतर कर हमारे पास आकर उठने में मदद करी. उसने फिर कुछ अनमोल बातें बताई…. और कुछ मैनें बाद में अपने अनुभव से जानी ..Black Ice के बारे में जो इस तरह हैं.
1- Black Ice वास्तव में पारदर्शी व रंगहीन होती है… ये पतली सी पक्की बरफ की परत होती है, जिसकी मोटाई एक पतले पेज या गत्ते से ज्यादा नहीं होती । Black Ice कभी दिखाई नही देती… देखने में ऐसा लगता है, सड़क साफ है.
2- अगर ठंड काफी हो, और सड़क का कुछ हिस्सा चमकीला नय़ा बना जैसी लगे तो Black Ice है ।
3- Black Ice ऐसे कोनों पर ज्यादा और अवश्य होगी, जहां सूर्य की रोशनी न पंहुचती हो । अगर ठंड अधिक है और रात को आसमान साफ रहा हो तो Black Ice बनने के चांस बढ़ जाते हैं ।
4- Black Ice का खतरा सबसे ज्यादा सुबह होता है, और ये छोटे-2 हिस्सों में ही होती है. ऐसा नहीं होता कि मीलों मील आपको Black Ice मिलती जाये…. और यही बात इसे खतरनाक भी बनाती है… कि हम सोचें सड़क साफ है और अचानक 10 फुट की Black Ice आ जाये.
5- Black Ice का जहां अंदेशा हो, वहां गाड़ी बिलकुल धीरे व प्रथम या द्वितीय गियर में चलाएं।
6- Black Ice पर ब्रेक लगाने का मतलब है Accident को दावत देना.. Black Ice पर अगर वाहन चल रहा है तो न ब्रेक, न एक्सीलेटर और न ही तीखा स्टीयर करें । अगर Black Ice पर गाड़ी चल रही है, कम गति में व बिना तीखे स्टीयर व बिना ब्रेक लगाये , तो गाड़ी सुरक्षित पार चली जाती है ।
7- Black Ice सब वाहनों के लिये बराबर खतरनाक है, चाहे वो बस या ट्रक हो या बाइक, या पैदल यात्री
8- Black Ice से बचने के केवल एक तरीका है, चारों टायरों पर चेन लगाना, पर ये व्यवहारिक नहीं है. विदेशों में तो snow tyres लगा कर लोग बचाव कर लेते हैं, क्योंकि उनमें स्टील के studs होते हैं जो फिसलने से रोकते हैं… भारत में अभी तक शायद ये नहीं आये
बाद में पता चला कि Black Ice की वजह से ही बहुत दुर्घटनाएं होती हैं और हजारों लोग विश्व में इस से मरते है ।
ये अमूल्य बातें बाद में मेरे बड़े काम आई जब मैने हिमालय और बाद में विदेशों में गाड़ी चलाई
ईश्वर आप सबकी रक्षा करे…. जैसे उसने हमारी की थी
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Asli comment thodi der baad hindi me publish kiya jayega. Abhi to ye batane ke liye aaya hu ki dekho mai 5 baje hi uth jata hu.
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??????? ??? ??????, Neeraj is right black ice in India is always on 2000+ meters and in cold cloudless winters. The ice mentioned by sandeep is not black ice, but solid ice which is formed due to snow solidifying. That too is dangerous, but not as dangerous as black ice. Black ice is formed with solidifying of dew or little rain, and suddenly temperature falling. Black ice can not be seen
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Dear SS,
One more beautiful series on Ghumakkar of Khatti Meethi…………….
This is becoming one of the best and neverending series , i feel so…………………………
Well SS, All the series here were superb but for me best was first one about landslide in Uttarkashi. I was deeply engrossed and lost reading that. And also it ws great adventure for you and you were very fortunate to continue yatra to Gangotri………………………
Story regarding J.P. Was also nice. Is he still afraid to go on hills with his car ???????
Persons like Dharamshala owner (old man)are always there everywhere. So love them.you find something different..
Finally info regarding black ice was great. This will help fellow ghumakkars ………………….
Keep it SS………………………..
Thanks Vishal bhai. :) yes JP went with us again.. read my last story of Badrinath, I went with him there.
tks for encouraging sweet words
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tks Praveenji
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Jai hind – Nandan
Dear Silentsoul ji,
Another gem in this wonderful series. Life in hills is difficult, contrary to the romanticised versions most of us tourist types read and write. Waiting for the next part now.
Tarun Talwarji.. thankyou very much for liking the series. Indeed life in hills is very-2 difficult. I have my close friends from hills and they used to travel the whole day for schooling only. MY friend Shivanand bhatt, used to start at 6 am from home reaching school around 9 and then reaching home by 6/7 pm… of course life is changing a bit now, but there are still so many problems in hills, specially schooling, water, hospitals. Tourism certainly gives a boost to their economy and helps them build infrastructure
tks again for reading and liking the story
tks Nandanbhai for your comments and advice. We had undertaken 3 long tours on our scooters, to Narkanda, Devprayag and Kasauli….and people around us called us utter idiots for going so far on scooters…. and now kids are going upto Leh on bikes….????? ???? ??? ??? ????? ?????
The KM1 post in hindi had an average of 39.21 readers per day, whereas KM2 which was in English & Hindi both had average of 33.67 readers per day…. so spending so much time for a bilingual post has no effect on number of viewers, so this time I saved time in translation.
In my all other posts I always give route, mileage, stay etc (for example Badrinath, kali mathh etc)….whereas this series Khatti Meethi is not a travelogue … it is not place oriented but incident oriented series, which affected my life in any way.
I think Ghumakkar dot com should have a bigger canvas, not only limited to statistical figures about tourist places and simple description of going & returning…. it should have essays, discussions, insights….and many other things to cater to the needs of many other people.
Editors may also consider a Q & A forum, where people can ask simple questions only – like How do I reach Tarkeshwar from Noida ? or are there ATMs in Badrinath???…and other expert members can reply to that particular query. this will give a “4 ???? ” to your site.
Thanks SS. I believe we should give more time so that we have a larger set of data. I salute your data crunching though. :-)
The thought around expanding to things beyond the travelogue, is very well appreciated. We started with just travelogues but have remained flexible and have accepted different formats. Once there is a critical mass, we try to see if there is way to formalize something as a ‘new’ format.
We began with ‘Editorial’ last year. I know it sounds so lame to say that there was no ‘Editorial’ since beginning. lol. Over time, the ‘Editorial’ has evolved into something which a lot of us look forward to. (https://www.ghumakkar.com/category/interview/)
Then we introduced the ‘Interview’ after some experiments at our individual blogs, newsletter etc. We are trying to better the quality and I guess we are headed in the right direction. I feel that a lot of innovation can happen in this area and I would continue to invest time here (https://www.ghumakkar.com/category/interview/)
The most recent is the ‘Insights’ which we started 3 months back. For this month, DL is writing a story under this section and past stories can be accessed at https://www.ghumakkar.com/category/insights/
There is more room to do different things. I have been debating on coming up with a thin print version for a while and a ‘Online Monthly Digest’ for regular Ghumakkars who can save the digest offline and read it in leisure.
Dheeray Dheeray.. :-) Thank you for all the suggestions, comments and the love.
Dear SS ji,
Yet another gem in the necklace. Absolutely loved it, especially about the tendency towards somnambulism in your childhood which lead to a lifetime of ghumakkari, from the south pole all the way to the north and a treasure house of memories which you have been kind enough to share.
Like you, way back in the 70’s, I used to go on long drives on my scooter just for the pleasure of experiencing freedom and the feel of wind against my face. People used to say that I was crazy for travelling without any reason and for squandering money ! Petrol, as you might recall was less than Rs.5/litre in those days….times sure have changed, brother.
Thanks for taking us back to those nostalgic days of our youth….
thanks Narayanji, it was incomplete without yr valuable comments
SSji…Superb. Thanks to you, I’m riding back to memory lane and reliving few minutes of my life back then. I think you had to pay in dollars to buy Bajaj scooter those days or at least had immediate delivery if paid in dollars. In 1978, my brother visited India first time after moving to US in 1972 and my uncle had asked him for a check/draft to buy Bajaj scooter. He cared for his scooter so much that when he visited our house and if it rained, we all had to run and rush to cover his scooter with bed sheets and blankets. I was in my early teens and told my uncle that his scooter should be able to withstand rain and would be better if he wiped off after rain but I guess the ‘craze’ over threw all the logics.
Black Ice – tell me about it! I fell few times on my butt cleaning snow on my drive way and man it hurts…:)
thanks Bapu Nagar ji for encouraging comments.
yes Bajaj was only available in dollar payments and after using it for 3 years we could still sell it making profit…those were the days :)
Dear SS,
I just read about Black Ice on this post, very interesting you may now know more about it and can clarify. As I saw here in Alberta fisrt it is white snow. You can walk on it nothing wrong. But it is nature. Snow on hills or ground is ok. But when it is on roads or on your driveway then problem start. On roads when people or vehicle go again and again it convert on icy patches which can be seen. It is so slippery. But sometime temp. rose in day this snow convert in water on road and in night when temp come down it freeze again now it is black ice. One day in early morning when all dark I was driving to my work at speed of 110km and suddenly I felt car behind me is close, then I apply breaks and my car start spin like a lattu on road and after few minutes it was in ditch. Bike or on foot is not safe and if you in vehicle with snow tires then just drive Dheere Dheere . Here now I check road reports first if report shown (red) not driveable , I send mail not coming to my work or sometime I call Taxi.
Regards
Yes Sharma ji you rightly explained black ice. It is not solidified snow, but a thin layer of water suddenly turning into thin sheet of ice. Since the road is visible in this snow, hence it is called black ice.
A week after I wrote this post, I had to face the music of black ice. Although I knew about black ice, yet I was ditched by a patch of it in the night when I was going out of city to see the Northern lights. I applied brake and my car started spinning …luckily I was not fast so after one chakkar, it stopped.
Braking on black ice is inviting the accident, so where ever you have doubt never brake, rather use accelerator as brake, let the engine slow the car.
Thanks for your comments
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Beautiful memories…….thanks for sharing Sir