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अमृतसर यात्रा – स्वर्ण मंदिर दर्शन

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तो साहेबान, अपुन अपने दोनों बैग पैक करके (एक में कपड़े, दूसरे में लैपटॉप व कैमरा) नियत तिथि को नियत समय पर नियत रेलगाड़ी पकड़ने की तमन्ना दिल में लिये स्टेशन जा पहुंचे।  ये नियत तिथि, नियत समय, नियत रेलगाड़ी सुनकर आपको लग रहा होगा कि मैं जरूर कोई अज्ञानी पंडित हूं जो यजमान को संकल्प कराते समय “जंबू द्वीपे, भरत खंडे, वैवस्वत मन्वन्तरे, आर्यावर्त देशे” के बाद अमुक घड़ी, अमुक पल, अमुक नगर बोल देता है।  हमारे वातानुकूलित कुर्सीयान में, जो कि इंजन के दो डिब्बों के ही बाद में था, पहुंचने के लिये हमें बहुत तेज़ भाग दौड़ करनी पड़ी क्योंकि किसी “समझदार” कुली ने हमें बताया था कि C1 आखिर में आता है अतः हम बिल्कुल प्लेटफॉर्म के अन्त में खड़े हो गये थे।  जब ट्रेन आई और C1 कोच हमारे सामने से सरपट निकल गया तो हमने उड़न सिक्ख मिल्खासिंह की इस्टाइल में सामान सहित ट्रेन के साथ-साथ दौड़ लगाई।  परन्तु अपने कोच तक पहुंचते पहुंचते हमारी सांस धौंकनी से भी तीव्र गति से चल रही थी। हांफते हांफते अपनी सीट पर पहुंचे तो देखा कि हमारी सीट पर एक युवती पहले से ही विराजमान है।  तेजी से धकधका रहे अपने दिल पर हाथ रख कर, धौंकनी को नियंत्रण में करते हुए उनसे पूछा कि वह – मेरी – सी – ट पर – क्या – कररर – रररही – हैं !!!  उनको शायद लगा कि मैं इतनी मामूली सी बात पर अपनी सांस पर नियंत्रण खोने जा रहा हूं अतः बोलीं, मुझे अपने लैपटॉप पर काम करना था सो मैने विंडो वाली सीट ले ली है, ये बगल की सीट मेरी ही है, आप इस पर बैठ जाइये, प्लीज़।

मैने बैग और सूटकेस ऊपर रैक में रखे और धम्म से अपनी पुश बैक पर बैठ गया और कपालभाती करने लगा। दो-चार मिनट में श्वास-प्रश्वास सामान्य हुआ और गाड़ी भी अपने गंतव्य की ओर चल दी।  मिनरल वाटर वाला आया, एक बोतल ली, खोली और डेली ड्रिंकर वाले अंदाज़ में मुंह से लगा कर आधी खाली कर दी!  बीच में महिला की ओर गर्दन एक आध बार घुमाई तो वही सिंथेटिक इस्माइल!  मैने अपना बैग खोल कर उसमें से अंग्रेज़ी की एक किताब निकाल ली ! (बैग में यूं तो हिन्दी की भी किताब थी पर बगल में पढ़ी लिखी युवती बैठी हो तो अंग्रेज़ी की किताब ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होती है।) किताब का टाइटिल “Same Soul Many Bodies” देख कर वह बोली,

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