1 अक्टूबर 2011, वो शुभ दिन था जब पिण्डारी ग्लेशियर के लिये प्रस्थान किया। इसके बारे में अपने ब्लॉग पर सूचना काफी पहले ही दे दी थी, जिसका नतीजा यह हुआ कि जाने वालों में सोनीपत के अतुल और बाराबंकी के नीरज सिंह भी तैयार हो गये। वैसे तो मथुरा के ‘फकीरा’ भी तैयार थे लेकिन जैसे ही उन्हें पता चला कि कार्यक्रम एक-दो दिन का नहीं बल्कि आठ दिन का है तो उन्होंने मना कर दिया। अतुल को 30 सितम्बर की रात को मेरे पास ही आना था और बाराबंकी वाले नीरज को बाघ एक्सप्रेस (13019) से हल्द्वानी पहुंचना था।
मैं हमेशा नाइट ड्यूटी करके निकलता हूं। इसलिये तीस सितम्बर की रात को दस बजे से लेकर एक अक्टूबर की सुबह छह बजे तक ड्यूटी थी। यह ड्यूटी अपने यहां एक अक्टूबर की मानी जाती है, इसलिये एक तारीख को छुट्टी नहीं लेनी पडी। अतुल को शास्त्री पार्क स्थित अपने कार्यालय ही बुला लिया। अतुल पहले भी एक बार साथ जा चुका था, तब भी हमने ऐसा ही किया था। अच्छा हां, एक बात और बता दूं कि रात की ड्यूटी में मुझे एक मैण्टेनेंस गाडी ‘धरतीधकेल’ चलानी पडती है। इस गाडी को तकनीकी भाषा में CTMC कहते हैं। रेलवे वाले इसे अच्छी तरह जानते होंगे। यह गाडी रात को डिपो से निकलकर मेन लाइन पर चलती है। इसे चलाने का लाइसेंस हमारे यहां जूनियर इंजीनियर (JE) को मिलता है तो मुझे भी मिला हुआ है।
पिछली बार जब अतुल यहां आया था तो मैं तो धरतीधकेल लेकर चला गया जबकि अतुल को डिपो में ही सुला दिया। जब हम सफर करने लगे तो मुझे आने लगी नींद। अतुल को नींद कहां? उसने मुझे सोने नहीं दिया। लेकिन अब सोचा कि इस बार ऐसा नहीं होने दूंगा। ना खुद सोऊंगा, ना अतुल को सोने दूंगा। चल भाई अतुल, तू भी हमारे साथ ही मेन लाइन पर चल।
जब साढे छह बजे शाहदरा से बरेली एक्सप्रेस (14556) पकडी तो मुझे तो नींद आ ही रही थी, आंख अतुल की भी नहीं खुल रही थीं। हम डिपो से निकलने में ही लेट हो गये थे तो शाहदरा से टिकट भी नहीं ले पाये, मुरादाबाद तक बेटिकट ही गये। यह वही गाडी है जो रात को दिल्ली से ऊना हिमाचल तक हिमाचल एक्सप्रेस बनकर चलती है और दिन में दिल्ली से बरेली तक। हिमाचल एक्सप्रेस में इसमें स्लीपर डिब्बे लगे होते हैं जबकि बरेली एक्सप्रेस बनने पर इसके स्लीपर डिब्बों का दर्जा खत्म करके जनरल बना दिया जाता है। इसीलिये अतुल मुरादाबाद तक हैरान-परेशान होता हुआ गया कि जाट महाराज ने बेटिकट स्लीपर डिब्बे में सफर करवा दिया। वैसे ढाई-ढाई सौ रुपये दोनों के जुर्माने के लगाकर पांच सौ रुपये मैंने अलग जेब में रख लिये थे कि टीटी आयेगा और जुर्माने को कहेगा तो तुरन्त दे देंगे। हालांकि ऐसी नौबत नहीं आई।
मुरादाबाद में लंच करके हल्द्वानी की बस पकडी। पहले तो खुद मुरादाबाद, फिर रामपुर, बिलासपुर, रुद्रपुर के जामों को झेलते हुए दोपहर बाद तीन बजे हल्द्वानी पहुंचे। यहां पिछले छह घण्टों से बाराबंकी वाले नीरज सिंह हमारी बाट देख रहे थे। नीरज सिंह जो कि मिर्ची नमक के नाम से लिखते हैं, हमने उसे हल्दी नमक कर दिया और नीरज भाई हो गये हल्दीराम। आगे से उन्हें हल्दीराम ही कहा जायेगा।
हल्द्वानी पहुंचकर तुरन्त अल्मोडा की आल्टो पकडी। यहां यातायात के तीन साधन हैं- बस, जीप और आल्टो। आमतौर पर जीप का किराया बस से बीस पच्चीस रुपये ज्यादा होता है और आल्टो का जीप से पचास रुपये ज्यादा। लेकिन हम चूंकि जामों में फंसकर काफी लेट हो चुके थे और आज का प्रोग्राम बागेश्वर पहुंचने का था। इसलिये हमें आल्टो से चलना पडा। दो सौ रुपये प्रति सवारी तय हुआ। हमने ड्राइवर से यह भी बता दिया कि हमें बागेश्वर जाना है इसलिये उसने अल्मोडा में अपने किसी परिचित जानकार ड्राइवर को फोन करके बता दिया कि अभी रुक जा, तीन सवारियां बागेश्वर की लेकर आ रहा हूं।
सात बजे के करीब अल्मोडा पहुंचे। हमें दूसरी आल्टो में शिफ्ट कर दिया गया। सात बजे हालांकि अन्धेरा हो जाता है, इसलिये काफी अन्धेरा हो गया था। अल्मोडा से बागेश्वर वाली सडक बहुत बढिया बनी हुई है। शायद ही कहीं गड्ढा हो। चीड का जंगल है पूरे रास्ते भर। हमें उस दिन तो पता नहीं चला था, इस बात का पता हमें वापस आते हुए चला। रास्ते में एक जगह तेंदुआ भी दिखा। हालांकि ड्राइवर ने बाघ-बाघ चिल्लाकर गाडी रोक दी थी कि इसे देखना हमारे यहां शुभ माना जाता है।
दस बजे के करीब बागेश्वर पहुंचे। लेट हो जाने के कारण तीन सौ रुपये का एक कमरा मिला। तीनों जने पडकर सो गये।
2 अक्टूबर 2011 की सुबह हम बागेश्वर में थे। बागेश्वर उत्तराखण्ड के कुमाऊं इलाके में अल्मोडा से लगभग 70 किलोमीटर आगे है। आज हमें पहले तो गाडी से सौंग तक जाना था, फिर 11 किलोमीटर की पैदल यात्रा करके धाकुडी में रात्रि विश्राम करना था। हमारा कल का पूरा दिन ट्रेन, बस और कार के सफर में बीता था, इसलिये थकान के कारण भरपूर नींद आई।
आज सुबह उठते ही एक चमत्कार देखने को मिला। जब तक अतुल और हल्दीराम की आंख खुली, तब तक जाट महाराज नहा चुके थे। हालांकि वे दोनों यह बात मानने को बिल्कुल भी तैयार नहीं थे। ढेर सारे सबूत देने पर भी जब उन्हें मेरे नहाने का यकीन नहीं हुआ तो मुझे कहना पडा कि ठीक है, मत मानों, लेकिन मुझे पता है कि मैं नहा लिया हूं।
जब यहां से निकलने लगे तो तीनों ने एक नियम पर अपनी सहमति व्यक्त की। नियम था कि इस यात्रा में हम तीनों में से कोई भी लीडर नहीं होगा, बल्कि सभी अपने अपने लीडर खुद होंगे। अगर किसी एक की वजह से दूसरा लेट हो रहा हो या दूसरे को परेशानी हो रही हो तो सभी को अपने अपने फैसले खुद लेने का अधिकार होगा। किसी से आगे जाना है, किसी को पीछे ही छोड देना है, यह सबकी व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर होगा। साथ ही यह भी तय हुआ कि कोई किसी को ताने-उलाहने, वचन-प्रवचन नहीं देगा। यह योजना जाट के दिमाग की ही उपज थी। मुझे श्रीखण्ड यात्रा याद आ गई, जब मेरे देर से उठने और धीरे धीरे चलने की वजह से बाकी साथियों को भी धीरे धीरे चलना पड रहा था और उनका बहुत सारा कीमती टाइम बर्बाद हुआ था।
बैजनाथ से आने वाली गोमती नदी के पुल को पार करके थोडा सा आगे जाने पर भराडी स्टैण्ड आता है। यहां से भराडी के लिये जीपें मिलती हैं। भराडी सौंग जाने वाली सडक पर कपकोट से करीब दो किलोमीटर आगे एक कस्बा है। भराडी में फिर दोबारा जीपों की बदली करके सौंग वाली जीप में जा बैठते हैं। जहां बागेश्वर से भराडी तक बढिया सडक बनी हुई है, वही भराडी से आगे सौंग तक महाबेकार सडक है। वैसे बागेश्वर से सीधे सौंग तक और उससे भी आगे लोहारखेत तक के लिये जीपें मिल जाती हैं लेकिन इस सुविधा के लिये ज्यादा पैसे देने पडेंगे।
साढे दस बजे सौंग पहुंचे। इसी जीप में एक बंगाली घुमक्कड बनर्जी और उसका स्थानीय गाइड देवा भी था। बंगाली भारी भरकम तैयारी के साथ आया था, स्लीपिंग बैग और टेंट के अलावा कम से कम 15 किलो वजन का एक बैग (रकसैक) और भी था। हां, वजन से याद आया कि हमारे बाराबंकी वाले साथी नीरज सिंह (हल्दीराम) भी भारी भरकम तैयारी के साथ आये थे। हल्द्वानी में जब हम मिले थे तो उन्हें देखकर मेरी आंखें फटी रह गईं। एक बडा ट्रेकिंग रकसैक फुल भरा हुआ सिर से लेकर कमर के नीचे तक लटका था और एक उससे छोटा बैग आगे छाती पर लटका रखा था। मैं हैरत में रह गया। सोचने लगा कि बेटा जाट, अगला तो घुमक्कडी में तेरा भी उस्ताद है। तू तो एक स्लीपिंग बैग लेकर ही उछलता फिर रहा है, यह तो स्लीपिंग बैग के साथ-साथ टेण्ट भी लिये घूम रहा है। बाद में पता चला कि उसके पास ना तो स्लीपिंग बैग है, ना ही टेण्ट। पीछे वाले में केवल कपडे हैं और आगे वाले में केवल खाने की चीजें।
कम से कम महीने भर पहले ही मैंने हल्दीराम को बता दिया था कि भाई, कुछ मत लेना लेकिन एक रेनकोट ले लेना। अगले ने रेनकोट के साथ साथ बाकी सबकुछ थोक के भाव में साथ ले लिया था। जबकि अतुल ने भी एक गडबड कर दी। वो रेनकोट नहीं लाया। इसलिये हल्दीराम ने अपनी दुकान में से एक विण्डचीटर अतुल को दे दिया। हल्दीराम का बोझ कम करने के लिये मैंने खाने की ज्यादातर चीजें अपने बैग में रख लीं- कई पैकेट नमकीन, बिस्कुट, पेडे, एकाध चीज और।
ठीक ग्यारह बजे सौंग से चढाई शुरू कर दी। असल में सौंग गांव से करीब आधा किलोमीटर पहले ही ऊपर लोहारखेत के लिये रास्ता गया है, बंगाली के गाइड देवा की देखा-देखी हम भी गाडी से यही उतर गये थे। सौंग समुद्र तल से करीब 1300 मीटर की ऊंचाई पर है। यह सरयू नदी के किनारे बसा है। यह सरयू वो अयोध्या वाली सरयू नहीं है। बागेश्वर में इस सरयू में गोमती नदी आकर मिल जाती है और दोनों फिर बहती रहती हैं, बहती रहती हैं, और कहीं पहाडों से निकलकर उत्तर प्रदेश में रामगंगा में मिल जाती हैं। हमें इस सरयू घाटी को छोडकर पिण्डर घाटी में जाना था। एक बार अगर पिण्डर घाटी में चले गये तो पिण्डर नदी के साथ-साथ चलते चलते पिण्डारी ग्लेशियर पहुंचना उतना मुश्किल नहीं होता। सरयू नदी और पिण्डर नदी के बीच में एक पर्वत श्रंखला (डाण्डा) है जिसकी ऊंचाई धाकुडी में 2900 मीटर से लेकर आगे बढती चली जाती है, इसलिये इस श्रंखला को धाकुडी में ही पार किया जाता है।
सौंग से तीन किलोमीटर पैदल चलने पर लोहारखेत आता है। हम सौ मीटर भी नहीं चले होंगे कि जिस बात का डर था, वही होने लगी। हल्दीराम चलने में असमर्थ हो गये। दो-तीन कदम चलते ही उन्हें चक्कर आने लगते। तुरन्त नीचे बैठ जाते। हालांकि मैं जानता था कि वे पहली बार आये हैं, और फिर वजन भी ज्यादा है। उन्हें समझाया कि भाई, तुम तीन-चार कदम चलते ही थक जाते हो, लेकिन आराम करने के लिये बैठो मत। खडे खडे ही आराम करो। भले ही चाहे जितना टाइम लगा लो लेकिन बैठो मत। बैठने से और ज्यादा थकान महसूस होती है लेकिन उन्हें बैठने से जितना रोकते, महाराज उतना ही ज्यादा देर तक बैठते।
हमसे आगे जो एक बंगाली और उसका गाइड जा रहा था, ऊपर से गाइड देवा ने हमें देख लिया और सोचा कि वे तो गये काम से, तो उसने अपने एक चेले प्रताप सिंह को हमारे पास भेज दिया। हमारे पास आकर जब प्रताप ने हमारा सामान लेने की बात कही तो हल्दीराम ने मना कर दिया। फिर पांच-चार कदम चला और लडखडाकर बैठ गया तो मैंने प्रताप से कहा कि हल्दीराम का सामान उठा ले, धाकुडी तक चल, जो पैसे बनेंगे ले लेना। आगे की आगे देखी जायेगी। प्रताप से हल्दीराम से दोनों बैग ले लिये। इसके बाद हल्दीराम ठीक चलने लगा।
बारह बजे लोहारखेत पहुंचे। यह समुद्र तल से 1780 मीटर की ऊंचाई पर है। अब हमें आठ किलोमीटर और जाना था तथा 2900 मीटर की ऊंचाई वाले धाकुडी टॉप को पार करना था यानी हर किलोमीटर चलने के साथ-साथ डेढ सौ मीटर ऊपर भी चढना था। और वाकई यही रास्ता यानी धाकुडी तक, इस यात्रा का सबसे मुश्किल भाग माना जाता है। घने जंगलों से होकर है यह रास्ता और बीच में कहीं कहीं हरे-भरे बुग्याल भी मिल जाते हैं।
एक बजे खलीधार पहुंचे। यहां वन विभाग का इको जोन के नाम से एक कार्यालय है। यहां से आगे जाने वालों को साठ रुपये प्रति व्यक्ति प्रति सप्ताह के हिसाब से भुगतान करना होता है। बताया गया कि इस रसीद को सम्भाल कर रखना, रास्ते में कोई अधिकारी भी देख सकता है। ना होने पर वापस लौटना पडेगा। सवा दो बजे झण्डीधार पहुंचे। यहां चाय-पानी का इंतजाम है। एक छोटा सा मन्दिर भी है।
एक बात और बता दूं कि सौंग से आगे कहीं भी बिजली की सुविधा नहीं है। हमें कल भी पूरे दिन चलकर परसों दोपहर तक पिण्डारी ग्लेशियर के सामने पहुंचना था। यानी अगर हम अभी उत्साहित होकर फोटो खींचते रहेंगे तो ग्लेशियर तक पहुंचते पहुंचते कैमरे की बैटरी खत्म हो जायेगी। इसलिये तय हुआ कि इधर के फोटो वापसी में खींचेंगे- अगर बैटरी बची रहेगी तो।
शाम को पौने छह बजे हम धाकुडी टॉप पर जा पहुंचे। इसकी ऊंचाई 2873 मीटर है। यहां से आगे ढलान शुरू हो जाता है और सामने नीचे दिखाई देती है पिण्डर नदी। टॉप से कुछ नीचे 2680 मीटर की ऊंचाई पर धाकुडी कैम्प है जहां रहने-खाने का इंतजाम होता है। लोहारखेत से यहां तक छह घण्टों में हम बंगाली और देवा से इतने घुल-मिल घये थे कि लग रहा था कि हम सभी एक साथ ही आये हैं। यहीं पर हल्दीराम ने भी अपने ‘पॉर्टर’ प्रताप से मोलभाव करके तय कर लिया कि रोजाना के ढाई सौ रुपये और खाना अलग से। हालांकि प्रताप तीन सौ रुपये मांग रहा था। इधर मैंने और अतुल ने भी हल्दीराम से तय किया कि पॉर्टर का खर्चा केवल हल्दीराम ही उठायेगा, बाद में तीन-तिहाई नहीं होगा।
यहां हमें मुम्बई से आई दो महिलाएं मिलीं। दोनों की उम्र चालीस साल से ऊपर थीं और वे पिण्डारी ग्लेशियर से वापस आई थीं। वे पिछले साल रूपकुण्ड की यात्रा पर भी गई थीं। उनके इस जज्बे को जाट का सलाम!
यही हमने और बंगाली ने मिलकर एक बडा सा कमरा ले लिया- पचास रुपये प्रति व्यक्ति। दोनों गाइड भी इसमें ही सोये, अतिरिक्त पलंग ना होने के कारण हालांकि वे नीचे जमीन पर ही सोये। पास में ही एक ‘होटल’ था जहां चूल्हे के सामने बैठकर रोटी, सब्जी और आमलेट खाने में मजा आ गया। एक बात और बता दूं कि जैसे जैसे आगे बढते जाते हैं तो सोने के दाम घटते हैं और खाने के बढते हैं।
नीरज और नीरज (एक जाट, दूसरा हल्दीराम)
अतुल, बंगाली और गाइड देवा
शेष अगले भाग में
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Hi Neeraj. I am agree with Sandeep, I have read your blog before and undoubtedly you travel more frequently than anyone else I know. Do you know the ‘Ravish Kumar’ from NDTV, he once wrote about your blog. If I’ll get chance to make travel show for my news channel I’ll definitely take you in one episode :-)
Amit
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Nice Post & Pic….
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Welcome to the Ghumakkar!
Very well written post. Give my Regards to Haldi Ram :)
Waiting for futher parts.
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http://mishrasarovar.blogspot.com/
Bahut badhiya neeraj bhai.
Aapke jazbe ko salaam
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Rashtra bhasha pathne mein asamarth hone ki vaje se chithr dekhkar santusht hona pada mujhe.
Wish you would write in English on such wonderful treks.
Wonderful Trek. Pictures are indeed worth a thousand words.
ek baat beri anokhi lagi yaar tum ne itni choti si umer m itna jayada kse ghum leta h time kese lagta h tumra m to choch ki ckker aagaya jab mujhe net surfing kerte kerte tera bog mila maja aagya koi to h jo gumked h i like yaar tumri yaatra mangal mai ho aage bhi ese hi gumo yaar god bless u m abhi naya hoo yaar net ke baare m koi gayan bhi nhi h lakin ab m her roj tery yatra hi padhta rehta hoon
maja aareha h m coments deta rehoonga abhi m naya hoo pata nhi ye comment aap tak phoonch bhi payaga ki nhi m nhi jaanta hoo ager koi galti ho to im realy soory yaar gumkedd tumra : chaane wala joginder attri
ilove u aall blog nice ur blog kaffi sikhsha mil rehi h mr neeraj ji waaooooooooooooooooo. joginder2747@gmail.com