यमुनोत्री में ट्रेकिंग

अक्षय तृतीया जा चुकी है। उत्तराखण्ड में चार धाम यात्रा भी शुरू हो चुकी है। मुसाफिरों और श्रद्धालुओं को घूमने के लिये यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ जैसी जगहों के रास्ते खुल गये हैं। इन जगहों पर अब लोग-बाग आने-जाने शुरू हो गये हैं। जाहिर सी बात है कि सुविधायें भी मिलने लगी हैं।

दोनों तरफ सीधे खडे पहाड और बीच में बहती एक पतली सी जलधारा वाली तेज बहाव युक्त नदी

अप्रैल 2010 में यानी उस समय चारधाम यात्रा शुरू होने से एक महीने पहले मैं अकेला यमुनोत्री के लिये चला था। सही-सलामत पहुंच भी गया। लेकिन वहां सब-कुछ सुनसान पडा था। ऐसा यमुनोत्री आपने कभी नहीं देखा होगा। वहां की काली कमली धर्मशाला प्रसिद्ध है। लेकिन वो भी बन्द थी, क्योंकि कोई नहीं जाता वहां कपाट बन्द रहने के दिनों में। उस रात मैं चौकीदार के यहां ठहरा था। वो सरकारी चौकीदार था, और बारहों मास यही रहता है। उसका परिवार नीचे बडकोट में रहता है। उन दिनों उसके साथ उसका लडका यशपाल और एक नेपाली मजदूर रह रहे थे। मेरी इच्छा अगले दिन यमुना के उदगम स्थल सप्तऋषि कुण्ड तक जाने की थी। लेकिन बारिश ने सारे करे-कराये पर पानी फेर दिया। बारिश बन्द होने पर हम चारों मन बहलाने के लिये यमुना के साथ-साथ ऊपर की दिशा में चल दिये। उस यात्रा का विस्तृत विवरण आप पिछले भाग में पढ चुके हो।

पत्थर ही पत्थर

एक झरने पर हम पहुंचे। यह यमुना का झरना था। इसे मैंने त्रिवेणी नाम दिया था अपनी सुविधा के हिसाब से। वहां चारों ओर विशाल ग्लेशियर था। चौकीदार तो एक टूटे पेड का तना लेकर वापस चला आया था। मेरी इच्छा थी कि जितना भी आगे हम जा सकते थे, जायें। कोई लक्ष्य नहीं था हमारा। चौकीदार का लडका यशपाल और नेपाली भी मेरे इस इरादे से बडे खुश थे। वे कहने लगे कि यमुना के साथ साथ चलते हैं। और वे उस खतरनाक झरने के ऊपर चढने भी लगे थे, लेकिन मैं नहीं चढ पाया। लाख कोशिश कर ली, कभी पैर फिसल जाते, कभी सहारा लेने के लिये हाथ में पकडी घास उखड जाती। आखिरकार यह यमराज की बहन है, इसलिये यमुना के साथ जाना स्थगित कर दिया।

सामने और पीछे यह दृश्य आम था।

यहीं पर यमुना में एक और नदी आकर मिलती है। हम इसके साथ-साथ चल पडे। इस नदी के रास्ते में ग्लेशियर नहीं था, केवल बेतरतीब पत्थर थे। हमने उस नदी की विपरीत दिशा में जाना तय किया। मकसद तो था नहीं, ना ही यहां कोई प्रसिद्ध स्थान है कि वहां तक चले जाओ। सप्तऋषिकुण्ड जाना था, नहीं जा पाये तो वहां की हुडक यहां मिटा रहे थे। पूरा दिन हाथ में था ही।

पत्थरों के बीच से निकलती नदी। इन पत्थरों पर चढना भी कभी-कभी बेहद मुश्किल हो जाता है। पूरे रास्ते भर चढाई जारी रही।

वो मेरी पहली ट्रेकिंग थी। पहली बार समुद्र तल से 3000 मीटर की ऊंचाई पार की थी। पहली बार इतने बडे-बडे पत्थरों को लांघता हुआ चल रहा था। जिन्दगी में यह सब पहली बार देख रहा था मैं। मुझे इन सब चीजों और बातों का कोई आइडिया नहीं था।
यमुना नदी छोडते ही ग्लेशियर भी छूट गया। इस नदी में ग्लेशियर नहीं था। इसका कारण पता नहीं चल पाया मुझे। ऐसा हो सकता है कि यमुना के जितने हिस्से में ग्लेशियर था, वहां दोनों तरफ सीधे दीवार की तरह खडे पहाड थे। लेकिन यहां ऐसी दीवार नहीं थी। हवा का निर्बाध आना-जाना था, इसलिये सारी बरफ को हवा उडा ले गई। जबकि यमुना की उस ‘पाताल-घाटी’ में हवा का आना-जाना उतना आसान नहीं था।

नेपाली मजदूर की जैकेट पहने उस दिन यमुनोत्री का एकमात्र घुमक्कड

यह है वही नेपाली

नेपाली

चलते चलते एक स्थान पर मैं डर गया। ठीक नीचे नदी बेहद तेज वेग से बह रही है। यह वो जगह है जहां मुझे जिन्दगी में पहली बार चढने से डर लगा। चट्टान स्लेटी पत्थरों की बनी थी। हाथ और पैर का दबाव पडते ही स्लेट बिखर जाती थी इसलिये सुरक्षित पकड नहीं बन पा रही थी। ऊंचाई की वजह से ऑक्सीजन की कमी के कारण दिमाग में गडबड पहले से ही हो रही थी, अब तुरन्त मन में आ गया कि नहीं चढ पाऊंगा यहां, वापस चलो। लेकिन उन दोनों का जीवट देखकर हौंसला बढा। और आगे तक गये। हम कोई प्रशिक्षित पर्वतारोही तो हैं नहीं, ना ही हमारे पास समुद्र तल से 4000 मीटर की ऊंचाई पर चलने के लिये उपकरण थे। जरा सी लापरवाही का मतलब था कि सब कुछ खतम। आगे जाने वाले को भी पता नहीं चलता कि पीछे वाला कहां गुम हो गया। फिर भी चलते रहे।

प्यास लगती थी तो यही पानी पी लेते थे। जितनी ठण्डी हमारे यहां बरफ होती है, यह पानी उससे भी ठण्डा लगता है।

इसे कहते हैं जीवटता।

कम से कम दो-ढाई घण्टे चलने के बाद फिर ग्लेशियर आ गया। इरादा था कि जहां तक जा सकेंगे, जायेंगे। यहां तक हवा तेजी पकडने लगी थी। काफी खुली जगह थी। तेज हवा कानों को काटे जा रही थी। पछता रहा था कि कोई टोपा क्यों नहीं लाया। ये तो अच्छा हुआ कि जैकेट डाल ली थी, नहीं तो…
बरफ बढने लगी तो वापस चलना ही पडा। यहां पहाडों में वो तीखापन नहीं था, जो थोडी देर पहले नीचे था। यानी हम चोटी के कहीं नजदीक हैं। हवा, तापमान, बरफ; और भी कई चीजों को देखते हुए वापस मुडना पडा। आज जब मुझे ऐसी जमीनी हकीकतों का कुछ कुछ अंदाजा हो गया है, तो सोचता हूं कि हम किसी दर्रे के आसपास ही थे। भले ही फोटो देखकर लगता हो कि आसानी से थोडी बहुत कोशिश करके चोटी तक पहुंच सकते थे लेकिन दर्रा मतलब बरफ का विशाल भण्डार।

फिर ग्लेशियर आ गया।

आखिरकार वापस चलना ही पडा।

चलो भाई, फोटो वोटो खींच लो। वापस चलते हैं।

वापस चल पडे।

जिस रास्ते से आये थे, उसी रास्ते से चल दिये। तेज बहती नदी को कई बार पार भी करना पडा। काई ना होने की वजह से पानी में डूबे पत्थरों पर चिकनाहट नहीं है, इसलिये कभी-कभी तो पानी में डूबे पत्थरों पर भी पैर रखकर नदी पार करनी पडी। पानी पैरों को छूता था तो पैरों का सुन्न हो जाना तय था लेकिन ज्यादा कुछ नहीं हुआ। खतरा तो है ही लेकिन रोमांच भी कोई चीज होती है।
जब हम ऊपर जा रहे थे तो हमारे दाहिनी तरफ एक बहुत ऊंचा झरना था। इतना ऊंचा कि उसका पानी नीचे जमीन पर गिरता हुआ दिख भी नहीं रहा था। हम वापसी में उसके नीचे तक गये। पानी जमीन से ऊपर ही महीन बूंदों में बंट जाता था जिसके कारण नीचे झरने के आसपास के काफी बडे भाग में आंशिक दलदल सी हो गयी थी। और हम भीग भी गये थे।

एक झरना भी था रास्ते में, यमुनोत्री से कम से कम चार किलोमीटर ऊपर। यह यमुना नदी नहीं है, ये बात मैं पहले भी बता चुका हूं। खडे पहाडों के बीच से इस तरह के झरने इस इलाके में आम हैं।

कुछ नीचे आकर वापस देखा तो पता चला कि हम वहां से वापस आये हैं, उस ग्लेशियर से। इस चित्र को अब भी देखता हूं तो शरीर में झुरझुरी सी होती है कि मैं वहां तक पहुंच गया था।

चौकीदार पुत्र यशपाल रावत

वादियां मेरा दामन

वापसी में यशपाल को एक सूखी खाल मिली। बोला कि यह कस्तूरी मृग की मृत देह है। महीनों पहले मरा होगा। अब तो इसमें से दुर्गन्ध भी नहीं आ रही थी। बताते हैं कि इस इलाके में कस्तूरी मृग की भरमार है। खाल को हमने यही छोड दिया।

यशपाल को मिली कस्तूरी मृग की खाल।

फिर से वापस

एक बार फिर बरफ पर। नीचे यमुना बह रही है, बरफ के नीचे।

चल चला चल राही, चल चला चल राही

पुनः उसी यमुना वाले ग्लेशियर पर जो आपने पिछली पोस्ट में भी देखा था। दोनों ने एक एक तना उठाया और चल दिये। रात को मैं फिर से उस चौकीदार के यहीं रुका।
अगले दिन सवेरे ही मैंने यमुनोत्री छोड दिया। मैंने उनसे वादा किया कि छह महीने बाद यानी अक्टूबर 2010 में जरूर आऊंगा, लेकिन वो दिन और आज का दिन, कभी उधर जाना नहीं हुआ।

ये रहे तीनों। बायें चौकीदार का लडका यशपाल, बीच में नेपाली मजदूर, और दायें है चौकीदार। दोनों के नाम तो पूछे थे, लेकिन अब भूल गया हूं। इन्होने वादा किया है कि सितम्बर-अक्टूबर में आओ, तुम्हे सप्तऋषिकुण्ड घुमाकर लायेंगे।

यमुनोत्री के अन्तिम दर्शन।

धन्यवाद, आपके पुनः आगमन की प्रतीक्षा में। करते रहो भई प्रतीक्षा, आऊंगा जरूर।

16 Comments

  • SilentSoul says:

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    As per Wikipedia :

    glacier (UK /??lsi?/ glass-ee-?r or US /??le???r/ glay-sh?r) is a large persistent body of ice that forms where the accumulation of snow exceeds its ablation (melting and sublimation) over many years, often centuries. At least 0.1 km in area and 50 m thick, but often much larger, a glacier slowly deforms and flows due to stresses induced by its weight. Crevasses, seracs, and other distinguishing features of a glacier are due to its flow. Another consequence of glacier flow is the transport of rock and debris abraded from its substrate and resultant landforms like cirques and moraines. Glaciers form on land, often elevated, and are distinct from the much thinner sea ice and lake ice that form on the surface of bodies of water.

    The word glacier comes from French. It is derived from the Vulgar Latin glacia and ultimately from Latin glacies meaning ice.[1] The processes and features caused by glaciers and related to them are referred to as glacial. The process of glacier establishment, growth and flow is called glaciation. The corresponding area of study is called glaciology. Glaciers are important components of the global cryosphere.

    On Earth, 99% of glacial ice is contained within vast ice sheets in the polar regions, but glaciers may be found in mountain ranges of every continent except Australia, and on a few high-latitude oceanic islands. Between 35N and 35S, glaciers occur only in the Himalayas, Andes, a few high mountains in East Africa, Mexico, New Guinea and on Zard Kuh in Iran

  • sarvesh n vashistha says:

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  • Tarun Talwar says:

    Hi Neeraj,

    Interesting adventure trip. Thanks for sharing.

  • ashok sharma says:

    adventure is meant for younger guys like you,keep moving and keep writing,photographs could have been better.They seem a little dull.

  • Giriraj Shekhawat says:

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  • vinaymusafir says:

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  • neeraj ji very nice post, but very risky. pls care.

  • Harish Bhatt says:

    Neeraj Bhai…Maza aa gaya aapka post pad kar aur photo dekha kar…Mai Silent Soul ji ki baat se bilkul sehmat hoon ki prakarti ke saath kabhi panga nahi lena chahiye…aapne samjhdari ka kaam kiya jo experienced mountaineering guide saath na hone ki wajah se aur aage nahi badhe, yeh bhaut khatarnaak bhi ho sakta tha. Off season me pahadon me nami hone ke karan bhoo skhalan ka bhut adhik khatra hota hai. Kabhi Kabhi apne andar ke ghumakkari wale kide ko na chate hue bhi marna padta hai…Agar aitraz na ho to apni aagli off season high altitude uttarakhand yaatra se pehle mujhe jaroor bataiyega..ho sakega to mai bhi jaroor chalonga… Ho sakta hai mai aapki jagah decide karne me madad kar paon… Ek baat aur…ho sake to ek achacha camera khareed lijiye…is se aapke posts me char chaand lag jayenge….

  • Sanjay Kaushik says:

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  • Ritesh Gupta says:

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    very very nice post……

    Thanks
    Ritesh.Gupta

  • Vibha says:

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  • Pushpa says:

    hi neeraj I just want to say woh janat hai daer bahut hi beautiful tha next time mujhe bhi jana hai plz jane se pahle mujhe mail send kar dena .thanks for sharing

  • neeraj saini says:

    HI NEERAJ JI MAI YAMUNOTRI JAKAR YOG SADHNA KARUNGA…..THANKS DIKHANE KE LIYE

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