लाचुंग से यूमथांग घाटी मात्र पच्चीस किमी दूर है। लाचुंग की उस अनोखी सुबह का रसास्वादन कर जब हम यूमथांग की ओर निकले,सुनहरी धूप हमारे रास्ते में अपनी चमक बिखेर रही थी। जैसा कि इस श्रृंखला की पिछली पोस्ट में आपको बताया था यूमथांग घाटी को भी ‘फूलों की घाटी’ के नाम से पुकारा जाता है। दरअसल ये घाटी रोडोडेन्ड्रोन्स की 24 अलग अलग प्रजातियों के लिये मशहूर है। यूमथांग के पास पहुँचते पहुँचते हमें रोडोडेन्ड्रोन्स के जंगल दिखने शुरू हो गये थे । मार्च अप्रैल से इनके पौधों में कलियाँ लगने लगती हैं। पर पूरी तरह से ये खिलते हैं मई महिने में, जब पूरी घाटी इनके लाल और गुलाबी रंगों से रंग जाती है। खैर हमें ये दृश्य नसीब नहीं हुआ क्योंकि हम वहाँ अप्रैल के दूसरे सप्ताह में ही टपक गए थे।
पर रोडोडेन्ड्रोन्स भले अभी पूरे नहीं खिले थे पर इन बैंगनी रंग के फूलों से तो यूमथांग जाती सड़क के दोनों किनारे अटे पड़े थे।
वैसे लौटते वक्त एक जगह हमें रोडोडेन्ड्रोन्स का ये नज़ारा जरूर दिखा
चूंकि ये घाटी 12000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है यहाँ गुरूडांगमार की तरह हरियाली की कोई कमी नहीं थी। कमी थी तो बस आसमान की उस नीली छत की जो सुबह में दिखने के बाद यहाँ पहुँचते ही गायब हो गई थी। पहाड़ों में बस यही दिक्कत है। अगर नीली छतरी का साथ ना हो तो प्रकृति का सारा नैसर्गिक सौंदर्य फीका पड़ जाता है।
घाटी के बीच पत्थरों पे उछलती कूदती नदी बह रही है। जाड़े में ये पत्थर बर्फ के अंदर दब जाते हैं। इन गोल मटोल पत्थरों के ढ़ेर के साथ साथ हम सब काफी देर तक चलते रहे।
नदी के किनारे किनारे का इलाका सपाट था और बच्चों के लिए धमाचौकड़ी मचाने का अच्छा स्थान भी। पहले तो नदी में पत्थर फेंकने का सिलसिला चला कि कौन कितनी दूर तक पानी में छपाका कर सकता है। उससे फुर्सत मिली तो इन समतल मैदानों में लोटने का आनंद प्राप्त किया गया।
किसी ने कहा रात में बारिश हुई है तो साथ में बर्फ भी गिरी होगी। फिर क्या था नदी का पाट छोड़ हम किनारे पर दिख रहे वृक्षों की झुरमुटों की ओर चल पड़े। पेड़ों के बीच हमें बर्फ गिरी दिख ही गयी और ये जनाब तो इस तरह उस के पीछे लपके जैसे सारी एकसाथ ही खा लेंगे। अब इन्हें क्या पता था कि अगले दिन ही सृष्टिकर्ता इतनी बर्फ दिखाने वाले हैं जितनी हमने जिंदगी में ना देखी होगी।
पास में ही एक सल्फर युक्त पानी का स्रोत था पर वहाँ तक पहुँचने के लिये इस पहाड़ी नदी यानि यहाँ की भाषा में कहें तो लाचुंग चू को पार करना था। वहीं से इस ठुमकती चू को कैमरे से छू लिया । गर्म पानी का स्पर्श कर हम वापस लाचुंग लौट चले।
भोजन के बाद वापस गंगतोक की राह पकड़नी थी। जो लोग यूमथांग से ही बिना गुरुडांगमार गए हुए वापस गंगतोक लौट जाते हैं वे लाचुंग से जीरो प्वाइंट की यात्रा अवश्य करते हैं। लगभग पाँच हजार मीटर पर स्थित इस बिन्दु पर जाने का रास्ता मात्र एक घंटे का है पर इस घुमावदार रास्ते से गुजरने में ये समय और लंबा लगता है। हम चूंकि पिछले ही दिन लाचेन से गुरुडांगमार और फिर वापस लाचुंग की यात्रा कर के लौटे थे इसलिए हमने जीरो प्वाइंट पर जाने की बजाए गंगतोक लौटने से पहले थोड़ा आराम करने का निश्चय किया।
लाचुंग के अपने प्रवास से जब हम सब निकल रहे थे तो सामने लकड़ी का बना ये घर दिखा। लकड़ी के व्यवस्थित गठ्ठर, हरी दूब, पीछे पहाड़ ! सामने दिखती उस खिड़की से हर रोज़ ये दृश्य देखने वाला कितना खुशनसीब होगा ना? आज भी जब मैं सिक्किम यात्रा के एलबमों के बीच से गुजरता हूँ तो इस चित्र पर नज़रें ठिठक जाती हैं और मन में किशोर दा का ये गीत उभरने लगता है छोटा सा घर होगा बादलों की छाँव में..आशा दीवानी मन में बाँसुरी बजाए
उत्तरी सिक्किम के इस पूरे सफ़र में हमें जगह जगह ऊँचाई से गिरते जलप्रपात नज़र आए। बारिश के चलते तो कई बार इन खूबसूरत झरनों को हम पास से देखने से वंचित रह गए पर जब भी मौका मिला हमने फोटो सेशन का कोई मौका नहीं छोड़ा।
भोजन के बाद वापस गंगतोक की राह पकड़नी थी। गंगतोक के रास्ते में तीस्ता घाटी की अंतिम झलक पाने के लिये हम गाड़ी से उतरे। काफी ऊँचाई से ली गयी इस तसवीर में घुमावदार रास्तों के जाल के साथ नीचे बहती हुई तीस्ता को आप देख सकते हैं। तीस्ता से ये इस सफर की आखिरी मुलाकात तो नहीं पर उसकी अंतिम तसवीर ये जरुर थी। सांझ ढ़लते ढ़लते हम गंगतोक में कदम रख चुके थे।
अपना अगला दिन नाम था सिक्किम के सबसे लोकप्रिय पड़ाव के लिये जहाँ प्रकृति अपने एक अलग रूप में हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। क्या भिन्न था उस रूप में ये जानते हैं अगले भाग में ….
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Nandan, Kal shaam tak to mujhe sab kuch dikh raha tha.
Antim ki photo aur text kaise hat gaya samajh nahin aaya. Waise kal wordpress server mein kuch problem juroor thi.
bahut achhi tasweeren hain.man mohak drishya hain.yeh desh kitna sundar hai!!!
Shukriya ! Jee haan is desh jaisi prakritik aur sanskritik vividhta aasani se dekhne ko nahin milti.
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