पहाड़ों को à¤à¤• दरà¥à¤¶à¤¨à¥€à¤¯ परà¥à¤¯à¤Ÿà¤¨ सà¥à¤¥à¤² मान कर तो हम सब कà¤à¥€ ना कà¤à¥€ वहाठजाते ही रहते है, उनकी à¤à¤µà¥à¤¯à¤¤à¤¾ और उनकी विशालता को देखकर रोमांचित à¤à¥€ होते रहते हैं | गाहे-बगाहे आप कà¥à¤› à¤à¤¸à¥‡ लेखों से à¤à¥€ दो-चार हो ही जाते हैं, जिसमे पहाड़ के लोगों की दà¥à¤°à¥‚ह जीवन सà¥à¤¥à¤¿à¤¤à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ का वरà¥à¤£à¤¨ किया गया होता है, पर वासà¥à¤¤à¤µ में कà¤à¥€ आपने उन गाà¤à¤µà¥‹à¤‚ के बीच में जाकर उन कà¥à¤·à¥‡à¤¤à¥à¤°à¥‹à¤‚ की विशेष à¤à¥Œà¤—ोलिक परिसà¥à¤¥à¤¤à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ को जानने बूà¤à¤¨à¥‡ का पà¥à¤°à¤¯à¤¤à¥à¤¨ किया है ? यदि आप मेरी बात का विशà¥à¤µà¤¾à¤¸ करें तो यह बात पूरà¥à¤£à¤¤à¤¯à¤¾ सतà¥à¤¯ है कि वहाठकी परिसà¥à¤¥à¤¤à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ अतà¥à¤¯à¤‚त ही दà¥à¤°à¥à¤—म हैं, रासà¥à¤¤à¥‡ कचà¥à¤šà¥‡-पकà¥à¤•े हैं, परिवहन के कोई साधन नही, हर जगह आने-जाने के लिठकेवल पैदल ही जाना होता है, कà¤à¥€ कई-कई मीटर की गहरी ढलान और कहीं कà¥à¤› मीटर तक ऊà¤à¤šà¥€ खड़ी चढ़ाई, बीच-बीच में कहीं–कहीं गाà¤à¤µ के लोग सà¥à¤µà¤¯à¤® ही मिलकर वहीं उपलबà¥à¤§ पतà¥à¤¥à¤°à¥‹à¤‚ को जोड़ कर सीढ़ीयां बना लेते हैं, जिससे चढ़ना-उतरना कà¥à¤› सà¥à¤—म हो सके| कई गाà¤à¤µ तो à¤à¤¸à¥€ जगहों पर हैं कि वहाठरहने वालों को मà¥à¤–à¥à¤¯ सड़क तक आने के लिठà¤à¤•-दो दिनों तक पैदल तक चलना पड़ता है |
किसी वासà¥à¤¤à¤µà¤¿à¤• पहाड़ी गाà¤à¤µ तक जाना वैसा रोमांचित तो हरगिज़ नही हो सकता, जैसा कि अकà¥à¤¸à¤° हम किसी धारà¥à¤®à¤¿à¤• परà¥à¤¯à¤Ÿà¤¨ सà¥à¤¥à¤² पर जाकर महसूस करते हैं और फिर वहाठसे लौट कर, बहà¥à¤¤ गरà¥à¤µ के साथ परिचितों को अपने अनà¥à¤à¤µ बताते हैं कि हमने तो पूरी चढाई बहà¥à¤¤ आराम से पूरी कर ली थी | यकीन जानिये, वासà¥à¤¤à¤µà¤¿à¤• गावों के रासà¥à¤¤à¥‡ इतने साफ़ सà¥à¤¥à¤°à¥‡ और आसान नही होते कà¥à¤¯à¥‚ंकि वहाठकà¤à¥€ कोई परà¥à¤¯à¤Ÿà¤• तो जाता नही, और पाà¤à¤š साल से पहले हमारे इस महान पà¥à¤°à¤œà¤¾à¤¤à¤‚तà¥à¤° को à¤à¥€ उनकी कोई आवशà¥à¤¯à¤•ता नही होती, अत:, सरकारें à¤à¥€ उनà¥à¤¹à¥‡à¤‚, उनके à¤à¤°à¥‹à¤¸à¥‡ पर ही छोड़ देती हैं | किसी परà¥à¤¯à¤Ÿà¤• सà¥à¤¥à¤² पर जाने वाले परà¥à¤¯à¤Ÿà¤• साफ़ सà¥à¤¥à¤°à¥€ सड़कों, ठंडी चलती हवा, बड़े-बड़े होटलों और à¤à¤°à¥‡ हà¥à¤ बाजारों को देख कर ही उस कà¥à¤·à¥‡à¤¤à¥à¤° विशेष के बारे में अपनी राय कायम कर लेते हैं, लेकिन कà¤à¥€ आप उन तारकोल से लिपटी सडकों के बगल से ही निकलती किसी कचà¥à¤šà¥€ पगडणà¥à¤¡à¥€ पर कà¥à¤› कदम चल कर देखिये, पहाड़ की वासà¥à¤¤à¤µà¤¿à¤• ज़िनà¥à¤¦à¤—ी की दà¥à¤°à¥à¤¹à¤¤à¤¾ आपके समà¥à¤®à¥à¤– मà¥à¤‚ह-बाये खड़ी हो जायेगी I ये जो हम अकà¥à¤¸à¤° किसी परà¥à¤µà¤¤à¥€à¤¯ सà¥à¤¥à¤² पर जा कर कहते हैं ना कि, “यार इनकी à¤à¥€ कà¥à¤¯à¤¾ मसà¥à¤¤ जिंदगी है, इतने शानदार कà¥à¤·à¥‡à¤¤à¥à¤°à¥‹à¤‚ में ये रहते हैं, à¤à¤•दम शà¥à¤¦à¥à¤§ और ताज़ी हवा, कोई पà¥à¤°à¤¦à¥‚षण नही, कोई मारा-मारी नही, लाइफ कितनी पीस फà¥à¤² है यहाठ!, à¤à¤¸à¤¾ सब कहने से पहले, थोडा सा रà¥à¤• कर à¤à¤• बार अवशà¥à¤¯ सोचेंगे…

निकल पढ़ा हमारा कारवाठगाà¤à¤µ के दरà¥à¤¶à¤¨ को
मेरे पिताजी ने अपनी CPWD की नौकरी के दौरान कà¥à¤› समय जोशीमठसे आगे ओली में गà¥à¤œà¤¾à¤°à¤¾ था और वो वहाठITBP के कैमà¥à¤ª में रà¥à¤•ते थे, दरअसल उनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ वहाठकà¥à¤› सरकारी à¤à¤µà¤¨à¥‹à¤‚ के निरà¥à¤®à¤¾à¤£ से समà¥à¤¬à¤¨à¥à¤§à¤¿à¤¤ कारà¥à¤¯ करवाने होते थे और उनकी मदद के लिये सà¥à¤¥à¤¾à¤¨à¥€à¤¯ मजदूर, खलासी और बेलदार का काम करते थे जो उनका सामान इतà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¿ लेकर चलते थे तथा अनà¥à¤¯ कारà¥à¤¯à¥‹à¤‚ में à¤à¥€ मदद करते थे, उनसे अपनी बातचीत को वो अकà¥à¤¸à¤° हमसे साà¤à¤¾ करते थे, कà¥à¤›à¥‡à¤• जà¥à¤®à¤²à¥‡ जो सà¥à¤¥à¤¾à¤¨à¥€à¤¯ लोग सà¥à¤¨à¤¾à¤¤à¥‡ थे, और आज à¤à¥€ मà¥à¤à¥‡ याद हैं, वो कà¥à¤› इस पà¥à¤°à¤•ार से थे कि “पहाड़ का वासा, कà¥à¤² का नासाâ€, और, “जो नदी के किनारे बसते हैं, नदी उनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ बसने नही देती†और यदि उन बातों को फिलहाल में केदारनाथ में हà¥à¤ˆ à¤à¤¯à¤‚कर आपदा के परिपेकà¥à¤·à¥à¤¯ में देखें तो ये मानना ही पड़ेगा कि अपने कà¥à¤·à¥‡à¤¤à¥à¤°à¥‹à¤‚ की जटिल परिसà¥à¤¥à¤¤à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ को वो ही बेहतर ढंग से जानते-समà¤à¤¤à¥‡ है |
मैं अपने इस आलेख में à¤à¤¸à¤¾ कोई दावा नही करने जा रहा कि मà¥à¤à¥‡ इन गाà¤à¤µà¥‹à¤‚ के बारे में कोई जानकारी है या मै उनकी रोजमरà¥à¤°à¤¾ की दà¥à¤¶à¥à¤µà¤¾à¤°à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ को दूसरों की अपेकà¥à¤·à¤¾ अचà¥à¤›à¥€ तरह समà¤à¤¤à¤¾ हूठ| अपितॠमेरा तो ये आलेख ही सà¥à¤µà¤¯à¤® अपने आप पर ही तंज़ (वà¥à¤¯à¤‚गà¥à¤¯,कटाकà¥à¤·) है कि à¤à¤• बार की चढ़ाई-उतराई ने ही हमारी ये हालत कर दी कि उसके बाद काफ़ी समय तक रà¥à¤• कर आराम करना पड़ा | वसà¥à¤¤à¥à¤¤à¤ƒ मै इस आलेख के माधà¥à¤¯à¤® से उन कà¥à¤·à¥‡à¤¤à¥à¤°à¥‹à¤‚ के वासियों और खास तौर पर महिलायों के जजà¥à¤¬à¥‡ और उनकी हिमà¥à¤®à¤¤ को अपना नमन करता हूठजो कि अपनी घर-गà¥à¤°à¤¹à¤¸à¥à¤¥à¥€ के अलावा बाज़ार के कामों और अपने जानवरों को à¤à¥€ समà¥à¤à¤¾à¤²à¤¤à¥€ हैं, जिन रासà¥à¤¤à¥‹à¤‚ पर चलते ही हमारी सांस फूल जाती है, वहाठवो अपने सर पर घास के गटठर या जलावन के लिठलकड़ियाठउठाये, बिना किसी शिकायत के चलती रहती हैं, वो बचà¥à¤šà¥‡ à¤à¥€ दाद के हकदार हैं जो अपने सà¥à¤•ूल तक पहà¥à¤‚चने के लिठकई-कई किलोमीटर इन कचà¥à¤šà¥‡-पकà¥à¤•े रासà¥à¤¤à¥‹à¤‚ से गà¥à¤œà¤°à¤¤à¥‡ है, जिनमे कई पहाड़ी नदियाठà¤à¥€ आती है और जंगली जानवरों का खतरा à¤à¥€ हरदम बना रहता है, पर वो अपने अदमà¥à¤¯ साहस और मजबूत जिजीविषा के बलबूते सारी विपरीत परिसà¥à¤¥à¤¤à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ के बावजूद अपने हौसले को बनाये रखते हैं | अपने पूरे सफर के दौरान कई मरà¥à¤¤à¤¬à¤¾ हम ये सोच कर हैरान-परेशान होते रहे कि इन जगहों पर गरà¥à¤à¤µà¤¤à¥€ महिलायों और किसी बीमार का कà¥à¤¯à¤¾ हाल होता होगा?, शायद उनमे से अनेकों इलाज के आà¤à¤¾à¤µ में ही दम तोड़ देते होंगे, इसलिठअकारण नही कि पूरे NCR में बहà¥à¤¤ बड़ी संखà¥à¤¯à¤¾ में पहाड़ से आये हà¥à¤ लोग बसे हà¥à¤ हैं पर उनमे से कोई à¤à¥€ अब अपने गाà¤à¤µ वापिस नही जाना चाहता, कà¥à¤¯à¥‚ंकि वहाठजीना वाकई में बहà¥à¤¤ जीवट का कारà¥à¤¯ है, ये मेरा अपना वà¥à¤¯à¤•à¥à¤¤à¤¿à¤—त आंकलन है कृपà¥à¤¯à¤¾ नेरे पहाड़ के मितà¥à¤° इसे अनà¥à¤¯à¤¥à¤¾ न लें | वसà¥à¤¤à¥à¤¸à¥à¤¥à¤¿à¤¤à¤¿ यही है कि वासà¥à¤¤à¤µà¤¿à¤• पहाड़ी गाà¤à¤µ किसà¥à¤¸à¥‡-कहानियों, और हिंदी फिलà¥à¤®à¥‹à¤‚ में दिखाये जाने वाले गाà¤à¤µà¥‹à¤‚ जितने रोचक और मनोहारी नही होते |

जो दृशà¥à¤¯ हमारे लिठनियामत हैं, वो उनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ सहज ही उपलबà¥à¤¦ हैं.

पतà¥à¤¥à¤°à¥‹à¤‚ के जोड़-तोड़ से बनी सड़क, दà¥à¤¶à¥à¤µà¤¾à¤°à¤¤à¥‹ है, पर गिरने से बचाती à¤à¥€ है.
बहरहाल, लैंसडाउन का Hill View Shanti Raj Resort हमारे लिठघर जैसा ही बन गया है और वहाठके लोग परिवार के सदसà¥à¤¯à¥‹à¤‚ जैसे ! अत: जब दिनेश ने हमे सà¥à¤à¤¾à¤µ दिया कि हम उसके गाà¤à¤µ के घर तक घूम कर आयें, तथा साथ ही रासà¥à¤¤à¥‡ में वो जगह à¤à¥€ देखें, जहाठवो अजà¥à¤žà¤¾à¤¤à¤µà¤¾à¤¸ की ही तरह swiss cottage बनवाना चाहता है तो इंकार करने का कोई पà¥à¤°à¤¶à¥à¤¨ ही नही था | नियत समय पर हम सब, सà¥à¤¬à¤¹ के नाशà¥à¤¤à¥‡ के उपरानà¥à¤¤ दिनेश का गाà¤à¤µ देखने के लिठनिकल पड़े | हमे रासà¥à¤¤à¤¾ दिखाने के लिठरिसोरà¥à¤Ÿ का à¤à¤• करà¥à¤®à¤šà¤¾à¤°à¥€ à¤à¥€ हमारे साथ था | दिनेश का गाà¤à¤µ ‘मोहरा’ इस रिसोरà¥à¤Ÿ से लगà¤à¤— 4 किमी नीचे गहराई की तरफ है, टेढ़ी-मेढ़ी पगडणà¥à¤¡à¥€à¤¯à¥‹à¤‚ पर चलना, बीच-बीच में पà¥à¤°à¤¾à¤•ृतिक पानी के शà¥à¤°à¥‹à¤¤, जिनसे बहता पानी रासà¥à¤¤à¥‡ के ऊपर से ही गà¥à¤œà¤° कर और आगे बढ़ जाता है, पतà¥à¤¥à¤°à¥‹à¤‚ से बना कचà¥à¤šà¤¾ रासà¥à¤¤à¤¾, रासà¥à¤¤à¥‡ के दोनों तरफ चीड के ऊंचे-ऊंचे वृकà¥à¤·, बीच में जंगली पौधे और खरपतवार, उनके साथ ही उगे बिचà¥à¤›à¥ घास के कंटीले पौधे, जो छू लें तो मारे जलन और खà¥à¤œà¤²à¥€ के आपका हाल-बेहाल हो जाये, हम शहरी लोगों के लिठतो बस यही टà¥à¤°à¥ˆà¤•िंग का परà¥à¤¯à¤¾à¤¯ था | बचà¥à¤šà¥‹à¤‚ का जोश कà¥à¤²à¤¾à¤à¤šà¥‡ à¤à¤° रहा था, जिन जगहों पर हम पैर जमा-जमा कर उतरते थे, वो उन जगहों को उछलते-कूदते पार कर जाते थे, अब इसे कà¥à¤¯à¤¾ माना जाये हम बूढ़े हो रहें हैं या बचà¥à¤šà¥‡ जवान हो रहे हैं …. शायद दूसरी बात ही जà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ बेहतर है –
“हमको मालà¥à¤® है जनà¥à¤¨à¤¤ की हकीकत लेकिन, दिल को खà¥à¤¶ रखने को ‘ग़ालिब’ ये खà¥à¤¯à¤¾à¤² अचà¥à¤›à¤¾ है |â€

दà¥à¤°à¥à¤—म रासà¥à¤¤à¥‡ जलà¥à¤¦ ही आपके दम-खम की परीकà¥à¤·à¤¾ लेते हैं

यदि शरीर साथ न दे तो दो घड़ी रà¥à¤• कर दम ले लेना ही अचà¥à¤›à¤¾ है.

उस पहाड़ी का टीला,यहाठअजà¥à¤žà¤¾à¤¤à¤µà¤¾à¤¸ जैसी à¤à¥‹à¤ªà¤¡à¤¼à¤¿à¤¯à¤¾à¤ पà¥à¤°à¤¸à¥à¤¤à¤¾à¤µà¤¿à¤¤ हैं
गाà¤à¤µ के करीब पहà¥à¤‚च कर वो जगह à¤à¥€ देखी, जहाठswiss cottage बनाये जायेंगे, जगह तो अदà¤à¥à¤¤ है, à¤à¤• पहाड़ी टीला और उस पर 4-5 cottege, बाहरी दà¥à¤¨à¤¿à¤¯à¤¾ से कोई सरोकार नही, बगल में ही दिनेश का गाà¤à¤µ है, खाना à¤à¥€ वहीं से आयेगा, चारो तरफ विशाल पहाड़ और चीड़ के जंगल, मगर यहाठतक पहà¥à¤‚चते-पहà¥à¤‚चते ही दम निकल जाता है, गà¥à¤°à¥à¤¤à¥à¤µà¤¾à¤•रà¥à¤·à¤£ की दिशा में आप खà¥à¤¦ को और अपने कैमरे को समà¥à¤à¤¾à¤²à¤¤à¥‡-समà¥à¤à¤¾à¤²à¤¤à¥‡ कहीं लà¥à¤¢à¤¼à¤• ही न जाà¤à¤ और आपकी रही-सही इजà¥à¤œà¤¤ का बैठे-बिठाये ही फाज़िता हो जाये, बीच रासà¥à¤¤à¥‡ कोई-कोई घर आ जाता है, जिसकी बगल से ही आगे का रासà¥à¤¤à¤¾ है, यहाठगाà¤à¤µ वैसा नही होता जैसा आप कलà¥à¤ªà¤¨à¤¾ में पाते हैं, à¤à¤• घर दà¥à¤¸à¤°à¥‡ घर से काफ़ी दूर होता है, कई दफा तो, बीच में किसी पहाड़ी की वजह से अगला घर दिखता à¤à¥€ नही | यूठलगता है, जैसे गाà¤à¤µ खाली-खाली सा है, वैसे तो लगà¤à¤— 100 परिवारों का गाà¤à¤µ है ये, लेकिन अब अधिकतर लोग लैंसडाउन या कोटदà¥à¤µà¤¾à¤° में काम करते हैं और औरतों को अपने चूलà¥à¤¹à¤¾-चोका को जलà¥à¤¦ समेट खेतों और जानवरों को à¤à¥€ समà¥à¤à¤¾à¤²à¤¨à¤¾ पड़ता है, इस गाà¤à¤µ में सरकारी विदà¥à¤¯à¤¾à¤²à¤¯ के अलावा à¤à¤• अंगà¥à¤°à¥‡à¤œà¤¼à¥€ सà¥à¤•ूल à¤à¥€ है, बचà¥à¤šà¥‡ सà¥à¤•ूलों में हैं, अत: माहौल कà¥à¤› सूना-सूना सा है ! वैसे अब गाà¤à¤µ के बहà¥à¤¤ से लोग बचà¥à¤šà¥‹à¤‚ की अचà¥à¤›à¥€ शिकà¥à¤·à¤¾ के लिये कोटदà¥à¤µà¤¾à¤° में रहने लगे हैं | सरà¥à¤¦à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ की अपेकà¥à¤·à¤¾, गरà¥à¤®à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ में पहाड़ के लोगों को जà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ काम करना पड़ता है, इसका कारण ये है कि इस मौसम में वो गेहूà¤, चावल, मकà¥à¤•ा,दाल आलू, पेठा आदि उगा लेते हैं, जिसका à¤à¤£à¥à¤¡à¤¾à¤°à¤£ फिर सरà¥à¤¦à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ में उनके काम आता है |

ये कोई मकान नही, à¤à¤• घर है, तमाम विपरीत हालातों में à¤à¥€…

गाà¤à¤µ दिख जाने की खà¥à¤¶à¥€, इसके à¤à¤• विहंगम दृशà¥à¤¯ के साथ
आगे बढ़ते बचà¥à¤šà¥‡ जैसे ही अपनी मंजिल पा लेते हैं, वहीं से चिलà¥à¤²à¤¾-चिलà¥à¤²à¤¾ कर अपने पहà¥à¤‚चने की सूचना देते हैं, चार किमी का ये ढलान का रासà¥à¤¤à¤¾ लगà¤à¤— 30 मिनट में पूरी करके हम à¤à¥€ अब दिनेश के घर पहà¥à¤‚च पाये हैं | पहले 10 मिनट तो साà¤à¤¸à¥‡ काबू में लाने में लग जाते हैं, पानी पीकर थोडा आराम मिलता है, फिर उसके घर को दायें-बाà¤à¤‚, आगे-पीछे से घूम-घूम कर देखते हैं, घर के आगे-पीछे की कचà¥à¤šà¥€ जगह पर, मिरà¥à¤š, टमाटर, बैंगन, तà¥à¤²à¤¸à¥€ के पौधे हैं, कà¥à¤› पेड़ और उनके सहारे यहाà¤-तहाठलिपटी तà¥à¤°à¤ˆ, लौकी और काशीफल इतà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¿ की बेलें à¤à¥€ हैं | à¤à¤• केले का पेड़ à¤à¥€ दिख रहा है, हर समà¥à¤à¤µ जगह का पूरी समà¤à¤¦à¤¾à¤°à¥€ से उपयोग किया गया है | दैनिक उपà¤à¥‹à¤— की हर चीज़ का सà¥à¤µà¤¯à¤® ही उतà¥à¤ªà¤¾à¤¦à¤¨ और उसका रखरखाव इनकी जिंदगी का अहम हिसà¥à¤¸à¤¾ है, कà¥à¤¯à¥‚ंकि वकà¥à¤¤ जरूरत के समय बाज़ार से लाने का तो सवाल ही नही ! यहाठके लोग पà¥à¤°à¤•ृति के साथ पूरी तारतमà¥à¤¯à¤¤à¤¾ के साथ समायोजित हैं, ये उनके लिठकोई लूट-खसोट की चीज़ नही है, ये तो इनके जीवन का à¤à¤• अà¤à¤¿à¤¨à¥à¤¨ अंग है, इसी की वजह से इनका जीवन समà¥à¤à¤µ है | ये बस इतनी सी बात है जो हम मैदानी लोग आज तक ना तो समठपाठहै और ना ही अपनी सà¥à¤µà¤¾à¤°à¥à¤¥à¤ªà¤°à¤¤à¤¾ वा अजà¥à¤žà¤¾à¤¨à¤¤à¤¾à¤µà¤¶ समà¤à¤¨à¤¾ चाहते हैं, कीमत चà¥à¤•ाने को तैयार हैं पर समà¤à¤¨à¥‡ को नही … इसे कहते है शहरी मानसिकता की विडमà¥à¤¬à¤¨à¤¾…! हमारा जà¥à¤žà¤¾à¤¨ किताबी है और इनका अनà¥à¤à¤µ जनà¥à¤¯, पारिसà¥à¤¥à¤¿à¤¤à¤¿à¤• और नैसरà¥à¤—िक ! हम और ये, नदी के दो छोरों की तरह हैं, जिनके बीच कोई सेतॠनही… कà¥à¤¯à¥‚ंकि हम à¤à¤¸à¤¾ चाहते ही नही …

पहà¥à¤‚चते-पहà¥à¤‚चते ही ये हालत हो गयी हमारी

चारा काटने की मशीन à¤à¥€ अब जैसे à¤à¤• नायाब चीज़ है हम शहरीयों के लिà¤
दिनेश और उसके à¤à¤¾à¤‡à¤¯à¥‹à¤‚ का यह पà¥à¤¶à¥à¤¤à¥ˆà¤¨à¥€ घर है, मरà¥à¤¦ तो रात रिसोरà¥à¤Ÿ में ही रà¥à¤• जाते हैं, अत: पूरे घर की वà¥à¤¯à¤µà¤¸à¥à¤¥à¤¾ औरतें ही समà¥à¤à¤¾à¤²à¤¤à¥€ है, घर-गà¥à¤°à¤¹à¤¸à¥à¤¥à¥€ के तमाम कामों के अलावा जानवरों को समà¥à¤à¤¾à¤²à¤¨à¤¾, उनका चारा लेकर आना और जिन दिनों रिसोरà¥à¤Ÿ में कसà¥à¤Ÿà¤®à¤° नही होते तो घर से ही खाना बना कर à¤à¥‡à¤œà¤¨à¤¾.. और सबसे बढ़कर पानी लाना, जो यहाठà¤à¤• दà¥à¤µà¤¸à¥à¤µà¥à¤ªà¥à¤¨ की तरह है कà¥à¤¯à¥‚ंकि मीठे पानी के सà¥à¤°à¥‹à¤¤ दूर होते है अत: औरतों को ही सिर पर गागर या मटका रख कर पानी लाना पड़ता है |
पहाड़ की जिंदगी का à¤à¤• बहà¥à¤¤ ही दà¥à¤°à¥à¤à¤¾à¤—à¥à¤¯à¤ªà¥‚रà¥à¤£ पकà¥à¤· ये à¤à¥€ है कि आज à¤à¥€ यहाठका समाज पूरी तरह से पितृसतà¥à¤¤à¤¾à¤¤à¥à¤®à¤• à¤à¥€ है और जाति मूलक à¤à¥€ | घर à¤à¤° के अधिकाà¤à¤¶ कारà¥à¤¯à¥‹à¤‚ की जिमà¥à¤®à¥‡à¤µà¤¾à¤°à¥€ औरतों पर ही है, आदमी या तो बाहर काम करते हैं या फिर पूरा समय मौजमसà¥à¤¤à¥€ | सेना और पà¥à¤²à¤¿à¤¸ में à¤à¤°à¥à¤¤à¥€ हो जाना आज à¤à¥€ यहाठरोज़गार का à¤à¤• बड़ा ज़रिया है | उतà¥à¤¤à¤°-à¤à¤¾à¤°à¤¤ के मैदानी à¤à¤¾à¤—ों में बसे दूसरे गाà¤à¤µà¥‹à¤‚ की ही तरह यहाठà¤à¥€ आप हर गाà¤à¤µ के दकà¥à¤·à¤¿à¤£ की तरफ़ में छोटी जातियों के घर देखेंगे, छà¥à¤†-छूत का रोग यहाठके सामाजिक जीवन का à¤à¤• नासूर है, जो अà¤à¥€ à¤à¥€ पà¥à¤°à¤šà¤²à¤¿à¤¤ है, ऊंची जातियों का वरà¥à¤šà¤¸à¥à¤µ यहाठके समाज में साफ़-साफ़ परिलकà¥à¤·à¤¿à¤¤ होता है, उनके वà¥à¤¯à¤µà¤¹à¤¾à¤° में à¤à¥€ और काम के बंटवारे में à¤à¥€… सच कहा है किसी ने कि,
“जाति मर के à¤à¥€ नही जाती !â€
बहरहाल, à¤à¤•दम साफ़ सà¥à¤¥à¤°à¤¾ घर है, वहीं पाये जाने वाले पतà¥à¤¥à¤°à¥‹à¤‚ को जोडकर फरà¥à¤¶ बना है, à¤à¤• जगह फरà¥à¤¶ में ही à¤à¤• छोटी सी ओखली बनी है, जो मसाला पीसने के काम आती है, तà¥à¤¯à¤¾à¤—ी जी ने इसका खूबसूरत चितà¥à¤° लिया है, पास ही जानवरों का चारा काटने की मशीन है, साधारण से कमरे, केवल बà¥à¤¨à¤¿à¤¯à¤¾à¤¦à¥€ सà¥à¤µà¤¿à¤§à¤¾à¤à¤ ही नजर आती है, कमरों के सामने ही रसोई है, ढलान पर होने की वजह से छोटा सा दरवाजा आशà¥à¤šà¤°à¥à¤¯à¤šà¤•ित करता है, उनकी इजाजत लेकर मैंने रसोई का फोटो à¤à¥€ ले लिया, रसोई के बगल में ही गौशाला है जिसकी छत वासà¥à¤¤à¤µ में रसोई का फरà¥à¤¶ ही है, छोटा सा दरवाजा इनके लिठतो बिलकà¥à¤² उपयà¥à¤•à¥à¤¤ है, ये पहाड़ों पर पायी जाने वाली गायें इतनी बौनी कà¥à¤¯à¥‚ठहोती हैं ?, शायद चढाई के कारण, या किसी और वजह से… बहà¥à¤¤ देर तक यह विषय हमारे हास-परिहास और विनोद का कारण बना रहा, पतà¥à¤¥à¤°à¥‹à¤‚ को तरकीब से लगाकर बनाई गयी सीढ़ीयां और छत पर लगा दूरदरà¥à¤¶à¤¨ का à¤à¤‚टीना 70-80 के दशक की याद दिला गया, तà¥à¤¯à¤¾à¤—ी जी से खास फरमाईश की गयी कि ये à¤à¤‚टीना फà¥à¤°à¥‡à¤® में जरूर आना चाहिये, छत पर ही à¤à¤• कनसà¥à¤¤à¤° में उगाया गया कैकà¥à¤Ÿà¤¸ हवा में इतनी आदà¥à¤°à¤¤à¤¾(नमी) के कारण पतà¥à¤¤à¤¿à¤¯à¤¾à¤‚ à¤à¥€ निकाल सकता है, ये यहीं देखा, अदà¤à¥à¤¤ !!!

à¤à¤¸à¥€ थी गाà¤à¤µ की रसोई, सरल, साधारण मगर साफ़-सà¥à¤¥à¤°à¥€ और सà¥à¤°à¥à¤šà¤¿à¤ªà¥‚रà¥à¤£

ढलवां सà¥à¤¥à¤¾à¤¨ का बेहतरीन उपयोग, लाल घेरे में रसोई का रासà¥à¤¤à¤¾ और नीचे की तरफ गौशाला

यदि छत समतल नही तो कà¥à¤¯à¤¾,सà¥à¤‚दर तो हो ही सकती है!

छोटी-छोटी छतें और उन पर TV antena, गà¥à¤œà¤°à¥‡ जमानें की याद दिलाते हैं
बचà¥à¤šà¥‹à¤‚ के मतलब का यहाठकोई सामान नही सो वो अपनी योजना बनाते है कि गाà¤à¤µ में और नीचे की तरफ जाया जाये, रावी और तà¥à¤·à¤¾à¤° का तो ठीक है, पर पारस को उसके ममà¥à¤®à¥€-पापा के दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ छोटा होने के कारण मना कर दिया जाता है कि थक जायेगा, पर पारस का जवाब सà¥à¤¨à¤¿à¤, “ कà¥à¤¯à¤¾ है… चल तो लेता हूठमैं, मैं तो थका à¤à¥€ नही , आप लोग ही बà¥à¤¡à¥à¤¡à¥‹à¤‚ की तरह कर रहे थे … जाने दो थोडा पतला हो जाऊà¤à¤—ा…†वाह रे लडà¥à¤¡à¥‚ गोपाल…! उसकी जिद पर उसे इजाजत मिलती है कि रिसोरà¥à¤Ÿ वाले अंकल का हाथ पकड़ कर ही जायेगा और जिद नही करेगा ! सच में, हम कई दफ़ा बचà¥à¤šà¥‹à¤‚ की कà¥à¤·à¤®à¤¤à¤¾à¤¯à¥‹à¤‚ को कितना कम करके आà¤à¤•ने की à¤à¥‚ल कर बैठते हैं !
खैर, इधर हम लोग अपनी टाà¤à¤—े सीधी कर रहे है, और साथ ही ये विमरà¥à¤¶ à¤à¥€ कि यहाठयदि किसी को अपने घर में सतà¥à¤¯-नारायण की कथा का नà¥à¤¯à¥‹à¤¤à¤¾ à¤à¥€ देना हो तो वो à¤à¥€ दिन à¤à¤° का पà¥à¤°à¥‹à¤œà¥‡à¤•à¥à¤Ÿ है, गाय के दूध से बनी à¤à¤•-à¤à¤• कप चाय हमारे अंदर उस जरूरी ऊरà¥à¤œà¤¾ का संचार करती है जिसकी जरूरत हमे जाते हà¥à¤ पड़ेगी, कà¥à¤¯à¥‚ंकि अब जà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ चढ़ाई है | सबको चिंता है आ तो गये अब वापिस कैसे जायेंगे, मैं अपना अनà¥à¤à¤µ उनसे बांटते हà¥à¤ उनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ तसलà¥à¤²à¥€ देता हूठकी चिंता मत कीजिये, पहाड़ पर उतरना मà¥à¤¶à¥à¤•िल होता है पर चढ़ना आसान | थोड़ी ही देर में बचà¥à¤šà¥‹à¤‚ के वापिस आते ही, हम घरवालों से विदा लेकर अपने वापिसी के सफर पर निकल पड़ते हैं | à¤à¤• बहà¥à¤¤ समà¤à¤¦à¤¾à¤°à¥€ का काम ये हो गया है कि मैंने और तà¥à¤¯à¤¾à¤—ी जी ने à¤à¤•-à¤à¤• डंडी ले ली है | बचà¥à¤šà¥‡ हम से आगे-आगे हैं और हम धीरे-धीरे पीछे छूटते जा रहे हैं, चढ़ना तो आसान है, कà¥à¤¯à¥‚ंकि गिरने का वो डर नही जो ढलान पर उतरते हà¥à¤¯à¥‡ होता है, पर इन फूलती साà¤à¤¸à¥‹à¤‚ का कà¥à¤¯à¤¾ करें? कà¥à¤› कदम आगे बढ़ाते ही फिर साà¤à¤¸à¥‡ उखड़ जाती है, मेरा और तà¥à¤¯à¤¾à¤—ी जी का हाल कमोवेश à¤à¤• सा ही है और हमारी शà¥à¤°à¥€à¤®à¤¤à¤¿à¤¯à¤¾à¤ आराम से बढ़ती जा रही हैं, वो ऊपर पहà¥à¤‚च कर जो हंसती हैं और हमारी हालत पर जो कमà¥à¤®à¥‡à¤‚ट करती हैं और फिर जो खिलखिलाकर हà¤à¤¸à¤¤à¥€ हैं तो à¤à¤• बार हम लोग फिर अपना पूरा दम और ताकत संजो कर आगे बढ़ जाते हैं पर आख़िर कितनी दूर तक ? फिर वहीं किसी पतà¥à¤¥à¤° पर बैठअपनी उखड़ती सांसो को काबू में लाने की जदो-जहद शà¥à¤°à¥‚ हो जाती है | रासà¥à¤¤à¥‡ में घास काट कर लाती औरतें à¤à¥€ हमारी हौसला-अफजाई करती हैं, कà¥à¤› पल उनके साथ बातें कर के अचà¥à¤›à¤¾ लगता है, पहाड़ों पर वाकई औरत का जीवन जीना करà¥à¤£à¤¾à¤®à¤¯ à¤à¥€ है और à¤à¤• तà¥à¤°à¤¾à¤¸à¤¦à¥€ à¤à¥€, कई मील दूर से वो घास काट कर ला रही हैं. पर घास तो यहाठपास में à¤à¥€ है तो फिर इतनी दूर से कà¥à¤¯à¥‚à¤? कà¥à¤¯à¥‚ंकि पास की घास सरà¥à¤¦à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ के लिठबचा कर रखनी है जब मौसम विषम हो जायेगा तो यहाठपास से घास लेना ही सà¥à¤µà¤¿à¤§à¤¾à¤œà¤¨à¤• रहेगा… सलाम उनकी मेहनत और जजà¥à¤¬à¥‡ को..,!
इधर हमारा संघरà¥à¤· खà¥à¤¦ से ही जारी है, कà¥à¤› चलना, कà¥à¤› रà¥à¤•ना, फिर चलना… महसूस होने लगा है कि चालीस पार करते ही हमारी मांसपेशियों में वो दम-खम नही रहा, उमà¥à¤° अब हावी होती जा रही है. जिस पà¥à¤°à¤•ृति का सानिधà¥à¤¯ पाने की कामना रहती है वही अब मà¥à¤¹à¤ चिढ़ाती सी पà¥à¤°à¤¤à¥€à¤¤ होती है … पर ये औरते कà¥à¤¯à¥‚ठनही थकती ? अपने रोजमरà¥à¤°à¤¾ के काम तो बहà¥à¤¤ जलà¥à¤¦à¥€ इनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ थका देते है पर यहाठतो इतनी चढाई के बाद à¤à¥€ à¤à¤•दम ताज़ा दम ! बहरहाल, कà¥à¤› देर का आराम फिर हमे चलने लायक बना देता है और हम लोग बढ़ चलते है आगे के सफ़र पर, दिकà¥à¤•त ये है कि आप जà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ देर रà¥à¤• à¤à¥€ नही सकते, अगर आपका शरीर à¤à¤• बार ठंडा हो जाये तो आपको नये सिरे से मेहनत करनी पड़ेगी, बीच कहीं से तà¥à¤·à¤¾à¤° लौट कर आता है, “ अरे! आप लोग अà¤à¥€ यहीं हो, हम तो पहà¥à¤‚चने ही वाले थे, मैं तो कैमरा लेने आ गया†मैं उसे दारà¥à¤¶à¤¨à¤¿à¤• à¤à¤¾à¤µ से समà¤à¤¾à¤¤à¤¾ हूठतà¥à¤® तो जलà¥à¤¦à¥€-जलà¥à¤¦à¥€ शोर करते à¤à¤¾à¤— गये, तà¥à¤®à¤¨à¥‡ सà¥à¤¨à¤¾ ये पà¥à¤°à¤•ृति तà¥à¤®à¤¸à¥‡ बातें करती है यहाठबैठकर पेड़ों को देखना कितना सà¥à¤•ून देता है, इसी के लिठतो हम यहाठआये हैं !â€, कà¥à¤› वो समà¤à¤¾ कà¥à¤› नही और कà¥à¤› उलà¤à¥‡ से à¤à¤¾à¤µà¥‹à¤‚ के साथ कैमरा लेकर रावी और पारस की दिशा में ओà¤à¤² हो जाता है |

अब वापिसी का रासà¥à¤¤à¤¾ दà¥à¤°à¥à¤—म तो है ही, मगर पार तो करना ही पड़ेगा.

और फिर जब हिमà¥à¤®à¤¤ बिलकà¥à¤² जवाब दे जाये तो सामने की चढाई को पीठदिखानी पढ़ ही जाती है !
“हिमà¥à¤®à¤¤-à¤-मरà¥à¤¦à¤¾, मदद-à¤-खà¥à¤¦à¤¾â€, तà¥à¤¯à¤¾à¤—ी जी अपने मोबाइल में राज कपूर की फिलà¥à¤®à¥‹à¤‚ के गाने लगा देते हैं और à¤à¤• बार फिर हम चारों लोग अपनी मंजिल की और रवाना हो जाते हैं, à¤à¤¸à¥‡ ही चलते, रà¥à¤•ते और फिर चलते थोडा-थोडा सा ही, रासà¥à¤¤à¤¾ कटता जाता है | थोडा सा और आगे जाकर, रिसोरà¥à¤Ÿ की जब इमारत दिखने लगती है तो à¤à¤• नये जोश और नई उमंग के साथ हम लोग बिना रà¥à¤•े आगे बदने लगते हैं, सही है जब तक लकà¥à¤·à¥à¤¯ सामने न हो इंसान के पà¥à¤°à¤¯à¤¤à¥à¤¨à¥‹à¤‚ में कमी रह ही जाती है पर à¤à¤• बार लकà¥à¤·à¥à¤¯ दिख जाने पर उसकी सारी चेषà¥à¤Ÿà¤¾à¤¯à¥‡à¤‚ और सà¤à¥€ बौदà¥à¤§à¤¿à¤• और शारीरिक शकà¥à¤¤à¤¿à¤¯à¤¾à¤‚ मिलकर उसे उसकी मंजिल तक पहà¥à¤‚चा ही देती हैं | अपने चार किमी के इस सफ़र के आखिरी 200 मीटर हम सबने बहà¥à¤¤ मजे के साथ, हंसते-हंसते तय किये | जाते हà¥à¤ जहाठहमने ये चार किमी पूरे आधे घंटे में नाप दिठथे, आते हà¥à¤¯à¥‡ हमे कम से कम à¤à¤• घंटे से à¤à¥€ ऊपर लग गया, मगर समय से महतà¥à¤µà¤ªà¥‚रà¥à¤£ तो इस सफ़र को कामयाबी से पूरा करने की ख़à¥à¤¶à¥€ थी, और इस बात का इतà¥à¤®à¥€à¤¨à¤¾à¤¨ कि जो हमारा आज का अनà¥à¤à¤µ है, वो शायद बहà¥à¤¤ कम शहरी लोगों के नसीब में ही हो सकता है. रिसोरà¥à¤Ÿ के पà¥à¤°à¤¾à¤à¤—ण में बचà¥à¤šà¥‹à¤‚ की टोली कैरम-बोरà¥à¤¡ खेल रही थी और हमे देखते ही उनके कटाकà¥à¤·à¥‹à¤‚ के बाण जैसे ही हम पर चलें, हमने पà¥à¤°à¤•ृति, सà¥à¤¨à¥à¤¦à¤°à¤¤à¤¾, शानदार अनà¥à¤à¤µ और बीच राह में मिलने वाले लोगों की जो बातें शà¥à¤°à¥‚ की तो उनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने हम से उलà¤à¤¨à¤¾ छोड़ अपना कैरम खेलना ही बेहतर समà¤à¤¾ और यही हम à¤à¥€ चाहते थे !
अब समय था कà¥à¤› देर रà¥à¤• कर, दोपहर का खाना खाया जाये और फिर à¤à¤• बार आराम करके नहा-धो कर शाम का पà¥à¤°à¥‹à¤—à¥à¤°à¤¾à¤® नियत किया जाये, आखिर à¤à¤• परà¥à¤¯à¤Ÿà¤• की यही तो नियति है, खाना, घूमना, आराम करना और फिर खाना, घूमना, आराम करना….. जब तक घर वापिसी का समय ना हो जाये, ये अंतहीन चकà¥à¤° यूà¤à¤¹à¥€ चलता रहता है,,,








मैं उत्तरांचल का ही रहने वाला हूँ , वहाँ का रोज़मरा का जीवन बहुत कठिन है | अभी भी कुछ गाँव के लिए २-३ किलोंमीटर पेदल जाना पड़ता है | पहाड़ों में नीचे गाये भेंस के लिए कमरे होते हैं ओर उपर रहने के लिए |
सार्दी में तो सुबह दरवाजे खुलते नही हैं बरफ के कारण, पानी के लिए भी काफ़ी दूर दूर जाना पढ़ता है |
आप ने अपने लेख के द्वारा वहाँ का के हालत के बारे में जानकारी दी उस के लिए धनियवाद |
Once again many thanx Mahesh जी आप से लगातार मिलने वाले स्नेह से अनुगृहित हूँ. आप उत्तराखंड से हैं ये तो ‘सेमवाल ‘ से ही पता है, मेरे कॉलेज के समय मे मेरा एक दोस्त अपनी जाति सेमवाल ही लगाता था, बस ये ही नही जानता कि आप पौड़ी से हैं, टेहरी से या कुमाऊँ से….. वैसे आपकी कई पोस्ट मै पढ़ता रहता हूँ |
आपने सही कहा, पहाड़ में जीवन जीना वाकई कठिन है, और सर्दियां शुरू होते ही उनकी मुश्किलें और बदती जाती हैं….
आप उस क्षेत्र से ही हैं, अत: आप तो सब जानते ही हैं |
अवतार जी पहाड़ों की खूबसूरती का बयां तो बहुत लोग करते हैं पर उनकी परेशानियाँ कम लोग बताते हैं। बहुत बढिया लिखा है।
( पर पहाड़ों की ४ की मी चढाई १ घंटे में हजम नहीं हो रही। ऐसा करते हैं या दूरी कम करदो या समय अधिक। LOL )
Hi SS जी
Many thanx for your comment and kudos for your observation.
दूरी तो सर, जो हमें बताई गई थी उसके अनुसार लिखी, कम ज्यादा तो माप में ही पकड़ में आ पायेगी और समय तो एक घंटा से ऊपर लिखा ही है अब कितना ऊपर ( मिनटों में या घंटों में ….lol) ये तो राज़ ही रहने दें !!!
आपका प्यार आपके कमेंट्स से मिलता रहता है इसके लिये बहुत-बहुत आभार …
सिंह साहब , वाकई आपके साथ तो हम भी ऊपर नीचे हो लिए, इन हरी भरी वादियों में । सड़क तो बहुत ही कम जगह पर है, जहाँ है भी वहां कच्चा मार्ग है , बरसातों में तो न ही पूछें । पहाड़ी परिवेश में सामान्य लोगों को इनकी कमी ज्यादा महसूस होती नहीं देखी मैने, या फिर लोकल लोंगों ने जाहिर नहीं की ।
आपके लेख ने इस पूरे अध्याय को बहुत ही तन्मयता और तरल-प्रवाहिता से पेश किया है , उस कारण से दुश्वारियां कम हो गयीं हैं :-)। धन्यवाद ।
Hi Nandan
आप इतनी बेहतरीन हिंदी लिखते हैं, आज पहली बार जाना मैंने…. मैथली का टच!!!
सर, वो क्या है कि अपने हिन्दुस्तान में बाबा लोगों ने लोगों को मोह-माया से निराकार बना दिया है, ये सब बंधन हैं जो उन्होंने अपने पास रख आम जनता को विश्वास दिला दिया है कि ये सब तुम्हारे पिछले कर्मों के फल हैं… अब कष्ट सह लो, अगले जन्मों में फल मिलेगा ..
तो बस वही कहानी है, संतोष करने वाली….
हिंदी-उर्दू के एक बेहतरीन शायर हुये हैं अदम गोंडवी, ज़रा उनकी चार लाइनों पर गौर फरमाइये, बहुत से सवालों के जवाब मिल जायेंगे_
“महज तनख्वाह से निबटेंगे क्या नखरे लुगाई के,
हजारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमाई के।
मिसेज सिन्हा के हाथों में जो बेमौसम खनकते हैं,
पिछली बाढ़ के तोहफे हैं, ये कंगन कलाई के।“
अवतार जी
बहुत ही सुन्दर , काव्यात्मक भाषा से पिरोया गया आपका यह यात्रा वृतान्त पढ़ कर मन प्रसन्न हो गया। अक्सर यात्रा वृतान्त लिखते समय साहित्यिक भाषा का चुनाव कम ही कर पाते हैं। कई जगहो पर लेख पढ़ते हुए ऐसा लग रहा था की किसी साहित्यकार की कोई रचना पढ़ रहा हूँ।
बहुत ख़ुशी हुई। ऐसे ही लिखते रहे।
धन्यवाद कमलांश जी, आपके द्वारा उत्साह वर्धन के लिये….
किसी भी सुधि पाठक की जागरूक टिप्पणी निश्चित ही लेखक के उत्साह एवम् आत्मविश्वास को बढ़ाती है …..
आपको लेख पसंद आया उसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद् !!!
Beautifully defined an other view of hilly area with nice clicks…..which is unknown to us….perhaps first time written in details in this site…..Thanks a lot Avtar Ji
Many thanx Dr Rakesh for your kind and encouraging words.
yeah. you are right that travelogue on hill stations are common features on various sites. But this kind of travel experience is some thing different and I found it appropriate enough to share it with all of you.
Thanx again.
Thank you Mr.Avtar you are very good in explanation.
My question is ‘are you a writer ?’
because in you post each and every single thing is brief and well explained without any lagging i never got bored in reading this post. I feel like fan of you. Your hindi writing skill are excellent and now i gonna read all your last post.
Keep writing Mr.Avtar
Waiting for next
Hi Monty
Many thanx for your encouraging words. Thanx a lot for your comment.
Me writer ???
Yes, in a sense that I am writing something and finding great admirers like you to appreciate it…
No, in a sense that I do not have any book (under my name) in my kitty to show!!!
ou auth
But dear, there is no certificate or diploma is available in the market, which gives y
Opps…!!! Sorry could not complete it…
But dear, there is no certificate or diploma is available in the market, which gives you command to write. It is just expressing your self. You write a bunch of such beautiful words…. you are a great writer for me. that is it!!!
Do hope to receive your warm response for others and upcoming posts too. Thanx again Monty ji
thanks for replying me Mr.Avatar
और अब शुरू करते है बात हमारी मात्रभाषा हिंदी में ….आपकी इस पोस्ट को मजबूरन दोबारा पढना पड़ा क्योंकि मन ही नहीं भरा … सबसे बड़ी बात ये है की आप english भली भांति जानते है पर फिर भी आपने इस पोस्ट को हिंदी में लिखा ये मेरा सौभाग्य है english में भी समझता हूँ बोलता भी हु पर सिर्फ ऑफिस तक ही सिमित है घुमक्कड़ पर लोग अधिकतर english में ही अपनी पोस्ट लिखते है में पढता भी हूँ पर मुझे लगता है की लोग कही न कही कुछ न कुछ छोड़ ही देते है संतुष्टि नहीं होती ऐसा लगता है की स्कूल के बच्चे की तरह क्लास में न चाह कर भी किसी विदेशी लेखक की किताब पढ़ रहा हूँ पर आपने अपनी पोस्ट में हिंदी के साथ पूरा न्याय किया है हिंदी के वाक्यों पर आपकी जानकारी और पकड़ काफी अच्छी है कुछ लोग पढ़ लिख कर लेखक बनते है पर में समझता हूँ की आप born writer है
खैर ये सब छोड़ो बस ये बताओ अगली पोस्ट कब आ रही है ?
Thanx Monty once again.
I do hope,, in a week or so I will definitely send a post to Ghumakkar.
Keep reading…. bye!!!
अवतारजी वैसे तो सभी ग्रामीण वासियों के हालात शहरी सहूलियतों की अपेक्षा दयनीय हैं (यदि कुछ समर्द्द प्रांतों के सामर्थ्यवान ग्रामों को निकाल दें) किन्तु, (जहाँ भू और स्वर्ग की झाँकी एक साथ देखने को मिल सकती है यदि राजनेता चाहें तो) पहाड़ी गाँवों की दशा अत्यंत ज़र-ज़र तथा वहाँ के वासियों का जीवन बेअंत दू:खतर है. आपने उनकी रोज़मर्रा की कठिनाइयों को अंत:करण से महसूस किया है. तथा लेख में सही मूल्यांकन कर सजीव व मर्मस्पर्शी चित्रण किया है. आपकी घुमककड़ी की बारीक़ियाँ यथेष्ठ हैं, लेखन में स्द्रशयता है, विचार समयोचित, ध्वन्यात्मकतापूर्ण व विलक्षण हैं. काश! ये पहाड़ी आकाओं का (तनावांत जी के अनुसार) टन्चत्व जगा पाए |
अद्भुत ! सादर-सह्रद्य….
आदरणीय त्रिदेव जी,
सर आपकी टीप निरुत्तर कर देती है, शब्द शून्य जैसी अवस्था हो जाती है , क्या लिखूँ और कितना ?
कितनी भी कोशिश करके देख लें, इतना तो निश्चित है कि आपकी विद्वता के स्तर के तो पासंग भी नही ….
जो आपकी टीप में समायोजित है, वो अनमोल धरोहर है, मेरे लिए भी और मैं इसे घुमक्कड़ के सभी लेखकों के साथ इसे बाँटना चाहुगा कि हमारे बीच ऐसे पाठक हैं जो हम जैसे अनाड़ियों को अपने स्नेह और मार्गदर्शन से नवाजते रहते हैं ….
और क्या लिखूँ सर वाकई शब्द नही हैं …. इसलिए केवल धन्यवाद और ये आशा कि आपका आशीर्वाद यूँ ही मिलता रहेगा!!!
beautifully written article….life is very difficult in the hills………but only a few sensitive people can feel this…
Thanx Neha ji for liking the post and also acknowledging the factual position of village life.
I guess you too belong to the UK, so you can easily co relate the suffering of the folks there.
लाजवाब पोस्ट अवतार जी,
वाकई मे असलियत के गाँव ऐसे नहीं होते जैसे फिल्मो मे दिखाए जाते है, सहूलियत तो वहा होती ही नहीं है जिनकी हमको आदत पड़ चुकी है, दुर्गम रास्ते, सुविधाओ का अभाव और पहाड़ी क्षेत्रो मे तो दिक्कते और भी ज्यादा है। लेकिन कुदरत की मेहरबानी जो इन गाँव को नसीब है वो हम शहरी लोगो को कहा, ताज़ी हवा जो शारीर का एक एक रोम जाग्रत कर दे।
आपको पहुचने मे इतनी दिक्कते हुई तो समझा जा सकता है की केदारनाथ की त्रासदी मे क्या हाल हुआ होगा, ऐसे गाँव का तो पता ही नहीं लगा होगा की वो वजूद मे है या नहीं। आप विश्वास नहीं करेगे, मुक्तेश्वर जैसी जगह पर हमें रात को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध नहीं हो पायी थी, उसके लिए नैनीताल ही आना पड़ता।
धन्यवाद कुछ अलग हटके लिखने के लिए।
Thank you so much Saurabh ji.
Yes, you are right in both the things…. facilities are not at all there but these places are blessed with so much of natural beauty.
Your concerns about Kedarnath are also appropriate, as per the TV reports, couple of days back, the authorities found 64 dead bodies there. So one can imagine the conditions there.
You like the post, sincerely thanks for it.
Hi Avtarji,
Another special post from you and this time describing the not so romantic lives of hill inhabitants.
It is my request that we men stop male bashing. I had raised this point before also. We need to respect us men. Otherwise, the times are here when legally, socially and economically, we men will be disenfranchised. I am not sure what you meant by describing the men folk doing maujmasti. We all are hard working, raising families and taking care of country. We should be proud of us men.
Many thanx for extending your nice comments bestowed regularly on my posts. I am really indebted for your kindness.
Sir, regarding your issue on gender bias, I admit, read your comment in some other writer’s post. wanted to say something, but resisted as this space is not so large enough to ignite such a centuries old debate and also the wall was not mine.
Sir, in all the living creatures humans have certain advantages over the other species, and since when they recognized this fact, they really en-cashed it thoroughly. Similarly on this line, when men got to know some physical and emotional weaknesses of their female counterparts they did not hesitate for a moment to work this for their own way.
Man created the concept of religion and started spreading all the tall stories which helped them to sit comfortably on the top position of this false pyramid of hierarchy. Sounds absurd, but unfortunately true. One can easily compare the status and stature of women in our so called men dominated society, which always boasts upon its religion, culture, tradition and civilization with the natives which are known to us as ‘Aadiwasis’ or tribals.
I do not know whether you will be agree with me or not when I say the ancient India and the India after the invasion of ‘Aryans’ are represent two different set of cultural values. In all our religious scriptures we painted them as ‘Asurs’ and “Danavs”, but they really were nature lovers and gender unbiased. You can really see this change in values in the characters of Ram and Ravanas, many more tales are there to throw more light on this.
Sir, have you ever listened the incidents of eve teasing, rape etc in tribe communities, which seize most of the times and energy of our print and electronic media ?
Why? because we purposefully convert them to please ourselves and restricted them in the four walls of our home. We took all the pleasure without taking any responsibility. We do work because we can not take the risk for allowing our women to send them outside lest they should learn the tricks we usually apply on them. This is not an act of our brave heart, in fact it is an act of our selfishness and cowardliness!!!
Due to our attitude, our society has become sick, and a sick society can only produce the sick persons, which are responsible for our current mess of affairs.
If given chance, if women of Manipur run a market independently why not the women of North India?
This is a relevant question and I would like the answer of this from all the eminent readers of this esteem site. Thanx.
P.S. Nirdesh sir, this is not personal(neither for me nor for you), but a general point of view. So please read it, in that spirit only.