मथुरा से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है गोकुल गाँव | किसी भी ऐसे व्यक्ति को, जिसने कान्हा का नाम भर भी सुना हो, बताने की आवश्यकता नही कि कान्हा को चाहने वालों के लिये गोकुल क्यूँ महत्वपूर्ण है | मथुरा की हमारी यात्रा में जिन जगहों की सूची हमारे जेहन में थी, उन स्थानों में, गोकुल का नाम हमारी प्राथमिकता में सर्वोच्च स्थान पर था | मथुरा के होटल में रात बिताने के बाद, जब, अगली सुबह हमारी मुलाकात, वहाँ के मैनेजर से हुई तो राधे-राधे और कुशल-क्षेम पूछने की औपचारिकताओं के बाद, हमारा उनसे पहला प्रश्न यही था कि गोकुल कैसे जाया जाये? किस तरफ पड़ेगा? कितनी दूर है?… आदि आदि!| मैनेजर साहिब ने हमारी जिज्ञासा शांत करते हुए हमे हमारी काम की सारी सूचना दी, कि जब आप आगरा का प्रोग्राम बनाएं तो उसके साथ ही गोकुल का भी रख लें, जिससे आपको अनावश्यक अलग से जाना भी नही पड़ेगा और समय की बचत भी होगी | किसी भी पर्यटक के लिए समय का प्रबंधन अत्यंत महत्वपूर्ण होता है अतः हमने उनकी बात गाँठ बाँध ली, और शनिवार के दिन हमने आगरा भ्रमण से वापिस लौटेते हुए ही, गोकुल जाने के प्रोग्राम को अपनी सूची में शामिल कर लिया | आगरा से लोटते हुए, जब आप हाईवे छोड़ कर मथुरा की तरफ मुड़ते हैं तो मथुरा जाने वाली सड़क पर ही कई गाईड नुमा पंडे नमूदार हो जाते हैं| हमने अपने अनुभव से ये पाया है कि यदि आप किसी भी नई जगह पर जा रहें है और आपको पहले से उस स्थान की कोई जानकारी नही है तो गाइड कर लेने में कोई बुराई नही, क्यूंकि एक गाईड उस जगह का आपको इतिहास बताने के साथ-साथ आपको उन सब जगहों पर भी ले जायेगा, यो शायद आप अपने अज्ञान या भूलवश छोड़ दे और बाद में पता चलने पर, व्यक्ति केवल हाथ मसोस कर रह जाता है कि, ओह! ये जगह भी थी वहाँ !, हमें किसी ने बताया ही नही ! इसके अलावा एक सबसे महत्वपुर्ण बात, गाइड को दिए आपके पैसे व्यर्थ नही जाते क्यूंकि वो आपको कम समय में ज्यादा जगहों पर घुमाने के साथ-साथ, कई जगहों पर होने वाले अनावश्यक खर्चों से भी आपको बचा देता है, और यही नही, उन्हें बहुत जगहों के शार्ट-कट रास्ते भी पता होते हैं, जिनकी वजह से आप फ़िज़ूल के भीड़-भड़के और लम्बी लाइनों में लगने से भी बच जाते हैं | इसका प्रत्यक्ष अनुभव हमने अपनी ताजमहल की फेरी में किया, जब हमारे गाईड ने हमें लम्बी लाइनों से बचाते हुए हमारी एंट्री एक ऐसे रास्ते से करवाई जो अपेक्षाकृत कम भीड़-भाड़ वाला था, क्यूंकि उसका रास्ता ऐसी रिहायशी गलियों से होकर था जिनसे अक्सर स्थानीय लोग ही परिचित होते हैं, मगर साथ ही एक जरूरी चेतावनी भी देता चलूं कि यदि आपको किसी ऐसी जगह से खरीदारी भी करनी हो तो फिर गाईड को साथ रखने से उरेज़ करें क्यूंकि ऐसी दुकानों पर उनका कमीशन बंधा होता है और आप घटिया सामान अधिक मूल्य पर खरीद कर बाद में अपने आप को ठगा सा पाते हैं| खरीदारी सदेव ऐसी जगह से करें, जहाँ से स्थानीय निवासी अपनी चीज़े खरीदते हैं| ये बहुमूल्य ज्ञान हमे अपने मित्र श्री परमिंदर त्यागी जी से ज्ञात हुआ है, और जब भी हम कहीं घूमने जाते हैं और उस षेत्र को समझने के लिए गाईड या किसी अन्य स्थानीय व्यक्ति की जरूरत हो, उसकी सेवाएँ लेने से गुरेज नही करते, परंतु खरीदारी अपनी पसंद की जगह से ही करते हैं |
बहरहाल, पंडे हों या गाइड अपना ग्राहक पहचानने की इनमे अदभुत क्षमता होती है, और जैसे ही हमारी कार मथुरा के रास्ते पर पहुंची हमें एक व्यक्ति ने रुकने का इशारा किया, और पास आकर बताया कि वो हमें गोकुल ले जायेगा | जात से ब्राह्मण है और कुल 50 रुपैये लेगा | हमारे मित्र त्यागी जी बोले, “ देख भई ब्राह्मण तो मैं भी हूँ, और यूपी से भी हूँ, इसलिए पहले ही साफ बोल दूँ, हर जगह के दर्शन ढंग से करवाना, पूरा इतिहास बताते चलना और बाद में पैसों के ऊपर कोई हुज्जत मत करना |” पंडा बोला, “वाह जी वाह! फिर तो सही बात हो गयी, आपसे कुछ गलत खर्चा ना करवाऊंगा | तो साहब, उस पंडे से हमारा सौदा पटने के बाद आगे-आगे वो पंडित जी अपनी फटफतिया पर हमे रास्ता दिखाते हुए, और उनके पीछे-पीछे, अपनी कार में हम बढ चले, नन्द बाबा और कान्हा की नगरी गोकुल की तरफ !
गाँव के करीब पहुंच कर, पंडे ने हमारी कार एक जगह पार्क करवा कर कहा अब आगे पैदल ही जाना होगा | सो हम सब कार से उतरने लगे पर ये क्या? परमिन्द्र जी का छोटा बेटे पारस जो चलती कार में सोया हुआ था कार रुकने पर एसी बंद होते ही बिगड़ गया मुझे नींद आई है, मैं नही जायूँगा, मुझे यही सोना है आप लोग जाओ, मै तो यहीं सौऊंगा | तमाम कोशिश कर ली, प्यार से, पुचकार के, धमका के, और फिर, जब हमारा सारा मान-मनोव्वल फेल हो गया तो पंडित जी जो दूर से सारा तमाशा देख रहे थे, आगे आये और उन्होंने पारस को गोद में लेकर कहा, “अरे! ये तो लड्डू गोपाल है! ये कैसे अपने दोस्त से मिलने नही जाएगा!” और आखिर पारस राज़ी हो ही गया और हमे उसका एक क्यूट सा नया नाम भी मिला “लड्डू गोपाल !”
गोकुल, उत्तर-प्रदेश के आम गांवों जैसा ही गाँव… यहाँ-तहां गोबर के उपले और इधर-उधर विचरती गाएँ और अन्य जानवर! दूर-पास, छोटे-छोटे खेत, सड़क के साथ ही सटे हुए, गोकुल के गाँव का बाहरी दृश्य तो एकदम आम भारतीय ग्रामीण परिवेश सा ही था| मगर अभी ऐसा बहुत कुछ था, जिसने हमे अचम्भित करना था! आखिर सोलह कलायों से परिपूर्ण एक ऐसे अवतार का स्थान जहाँ उसने अपना बच्चपन गुजारा और जिसके बच्चपन के क़िस्से आज भी देश विदेश के करोड़ों लोग इतने चाव से सुनते, गाते और देखते हैं, उसका गाँव इतना साधारण तो नही हो सकता!
और फिर आगे-आगे वो पंडित जी और उनके पीछे-पीछे हम सात लोगों का कारवाँ, गोकुल की गलियों में निकल पड़ा उस जगह को देखने के लिए जहाँ यमुना में आई बाद के बीच, नन्द बाबा वासुदेव और देवकी के नवजात शिशु को एक टोकरी में रख कर लाये थे और यहीं उसका लालन-पोषण हुआ| कौन जानता था उस वक्त कि ये बच्चा एक पूरे युग का भाग्य-विधाता होगा और कभी भविष्य में इन गलीयों को देखने के लिए दूर-दूर से लोग चल कर आयेंगे| गोकुल की गलियों में पाँव रखते ही आप इस आधुनिक दुनिया से इतर, बिलकुल ही पारम्परिक ग्रामीण दुनिया से रूबरू होते है, जिसके लिए शायद समय का चक्र रुका हुआ है या यूँ कहें जिन्होंने स्वयम ही अपने को उस काल से जोड़ कर रखा हुआ है, जब कृष्ण अपने बाल-गोपालों और गोपियों के साथ इन गलियों में खेला करते होंगे| यदि गलियों में बिछी तारकोल की काली पट्टी को छोड़ दें तो आज भी गोकुल का पूरा गाँव उसी दौर का नजर आता है| सड़क से 3 से 4 फुट ऊंचे मकान पर अर्थशास्त्र को ध्यान में रखते हुए, लगभग हर घर में एक छोटी सी दुकान, पांच गुणा पांच के आकार की जिनमे बहुतायत है हलवाइयों की! पर वो केवल लस्सी, पेड़े जैसी दो-तीन वस्तुएं ही रखते हैं | उत्तर प्रदेश में बिजली की स्थिति तो हम सब जानते ही हैं, सो हर दुकान के मालिक के हाथ में एक हाथ से ही झुलाने वाला पंखा! बाहर से आये हुए लोगों को देखते ही हर हलवाई अपनी गडवी में मथानी घुमाने लगता है और आपको यहाँ-वहाँ से आवाजें अपने कानों में पडती सुनाई देती है, “लस्सी- गोकुल की लस्सी …”! और फिर आपके जेहन में सूरदास की ये पंक्तियाँ कौदने लगती हैं –
“मुख दधि लेप किए
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥“
आखिर दूध, दही और मक्खन के बिना गोकुल की कल्पना कैसे हो सकती है !
खैर, आप की मंजिल तो अभी कहीं और है और आप इन सब का आनन्द उठाते हुए, और मुस्कराते हुए आगे बड़ते जाते है … कुछ गलियाँ और पार करके, आखिर आपके सामने वो नन्द महल मन्दिर आ जाता है जिसके बारे में आपका परिचय केवल सूरदास के पदों और अन्य धार्मिक पुस्तकों के माध्यम से ही था | दिखने में मन्दिर साधारण सा ही है, बहुत सम्भव है आपके शहर तो क्या, मोहल्ले के मन्दिर भी शानो-शोकत में इससे कहीं आगे हों पर इसका अपना जो महत्व है इसके आगे वो छोटे ही पड़ेंगे!
पंडा, अपने ज्ञान की वर्षा आप पर करता हुआ आपको कुछ-कुछ बताता जाता है और आप अपनी आँखे पूरी खोल कर चारों तरफ फैलाये रहतें हैं… इस जगह को, अपने दिलो-दिमाग में बसा लेना चाहते हैं | पंडे की बातों से आपको कोई सरोकार नही! क्यूंकि आपकी आँखें जो देखना चाहती हैं पंडा ना तो उसे अनुभव कर सकता है और ना ही उसे दिखा पाने की सामर्थ्य उसमे है! वो केवल अपना वह कर्म कर रहा है, जिसके उसने आपसे पैसे लेने है, और आपकी आँखे यहाँ-वहाँ, घूम-घूम कर उस कान्हा को ढूंढना चाहती है, जो कभी यहाँ खेला था… पर जल्द ही आप कल्पना लोक से यथार्थ के धरातल पर आ जाते हैं, जब पंडे के द्वारा आपको सूचित किया जाता है कि जूते यहाँ उतार कर रख दो, अब हम मन्दिर के अंदर जायेंगे|
नन्द महल अंदर से भी साधारण है, केवल प्लास्टर की हुई दीवालें, आम सा फर्श, मगर उस बड़े से हाल के एक किनारे की तरफ यहाँ शायद कृष्ण जी की मूर्ती हो, लाल रंग के पर्दे से ढकी हुई… फर्श पर लगभग 4*3 फुट का एक मिटटी का टुकड़ा है, जिस पर पत्थर नही लगा और आपका गाईड, उसे दिखाते हुए जोर-शोर से बोलने लगता है, “ये वो मिटटी का टुकड़ा है, जिसे कान्हा ने अपने मुख से चाटा था, पूरी सृष्टी में इससे अनमोल धरती का कोई और टुकड़ा नही | बड़े-बड़े टाटा, बिरला और अम्बानी मिन्नतें करते है, हमसे जितने करोड़ चाहे ले लो, पर हमे ये मिटटी दे दो, पर इस धरती पर ये मिटटी अनमोल है, कोई इसे खरीद नही सकता, वगैरा-वगैरा | और फिर पर्दे में छिपी मूर्ति के सम्मुख बैठे पण्डित जी आपकी बारी आने पर आपको ईशारा करते हैं और आप अपने परिवार के साथ, जहाँ आप बैठे थे, वहीं से बैठे-बैठे ही, घिसट-घिसट कर, उस मिटटी के टुकड़े पर पहुंच जाते है और फिर आपकी नजरों के आगे से वो लाल रंग का पर्दा हटाया जाता है… सोने की धातु से बनी राधा-कृष्ण की मूर्ती, एक पालकी पर विराजमान! मानना पड़ेगा, पूरी झांकी अदभुत है, राधा-कृष्ण के अतिरिक्त कुछ और चीज़ें भी हैं उस झांकी में, पर आपकी नजरें, उस झूले और उस पर मुस्कराते चेहरों से हट कर कुछ और देखने को इनकार कर देती हैं, और बस आप सिर्फ इतना ही देख पाते हैं , क्यूंकि आप स्वयम ही सिर्फ इतना ही देखना चाहते हैं… मगर उसके आगे का खेल निराशाजनक है| आपसे भोग के नाम पर अच्छी –खासी रकम ऐंठने की कोशिश की जाती है जिनमे से सबसे कम मूल्य का दाम भी 601 रुपैये है| यदि आप चतुर सुजान हैं तो अपनी कल्पना-शीलता से उनके जाल से बाहर आ जायेंगे अन्यथा उनकी छुरी तो तैयार है आपकी जेब काटने को… और फिर सभी ऐसी जगहों पर होने वाली कुछ रूटीन सी चीजों के बाद, आपको उस झूले को झुलाने का मौका मिलता है| आप के दिए गये पैसे के अनुसार ही आपको परसाद मिलता है जिसे लेकर आप बाहर आते हो और अपने पंडे कम गाइड पर चढ़ जाते हो, ”तुमने तो कहा था कोई पैसे नही मांगेगा फिर ये क्या था …” और फिर वो बेचारा खी-खी करता हुआ बगलें झाकने लगता है तो आपको ही, उसे तसल्ली देनी पडती है, भई, दान-पुण्य तो व्यक्ति की अपनी श्रध्दा पर होता है, हम भले दस दें या दस हज़ार, ना कि इस तरह से जबरदस्ती, और यदि हमे मथुरा के होटल मैनेजर ने हमारे जाने से पहले ही हमें आगाह ना कर दिया होता कि “भाई साहिब, होशियार रहना! गोकुल के पुजारी लूटने के मामले में बहुत बदनाम हैं” तो तुम लोग तो, आये लोगों को अच्छा-खासा लूट ही लेते होंगे! और फिर पंडा समझ जाता है कि हमारा ईशारा किस तरफ है, जल्दी से बोला, “ आप चिंता ना करो, अगली जगह मैं खुद ही मना कर दूंगा कि इनकी मरजी है, दें या ना दें, आपसे कोई मांगे ना , शायद उसे भी लगा हो, सामने वाला भी भाभन है, कहीं लेने के देने ना पड़ जाएँ ! चलिए साहिब, धार्मिक जगहों पर ऐसी नौटंकियाँ तो होती ही रहती है… नंद महल के बगल में ही पूतना की मूर्ती है, जो साधारण सी ही है|
गोकुल में कृष्ण जी की तरह बलराम का भी अपना अलग मन्दिर है और इन दोनों भाईओं के बारे में सूरदास के अतिरिक्त इतने भाव से कोई और लिख ही नही सकता जब वो कहते हैं कि –
मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ।
मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ?
फिर कुछ और गलियों से गुजरते हुए और अपनी जानकारी में इजाफ़ा करते हुए, अपने पंडे के साथ, हम बलराम जी के मन्दिर में पहुंचे. कृष्ण और बलराम के सम्बन्धों जैसे ही हमारे हाथों में कुछ झंडे पकड़ाकर मन्दिर के पुजारी ने उनकी कीमत वसूलनी चाही, हम कुछ कहें, हमसे पहले ही पंडे ने कहा, “ माँगो मत, इनकी जो श्रदा हो देंगे” पुजारी भी हैरान, ये आज उसका पंडा कहाँ से पड़ कर आया है ! वहीं बलराम मन्दिर में ही एक और मजेदार तथ्य हमारी नजर में आया, वहाँ के मन्दिर के पुजारी ने पंडे को एक मोटा सा भांग का गोला दिया, मैंने अपने पंडे से कहा “ बाँट के खाने के लिए ही दिया होगा?“ पंडे ने जल्दी से गोले को अपनी जेब में सरकाते हुए कहा, “नहीं, नहीं ये तो बस हम पंडितों के लिये भोग का परसाद होता है, जो प्रतिदिन बलराम जी की पालकी मन्दिर में स्थापित होने पर सारे पंडों में बंटता है|” मैंने चुटकी लेते हुए कहा मुझे तो ऐसा लगता है ग्राहक लाने का इनाम है! खैर, हमें तो इस भांग में से कोई हिस्सा चाहिए नही था, सो हमने उन पंडित जी को उनकी दक्षिणा देकर विदा किया और फैसला किया कि अब हम खुद ही पैदल घुमते हुए, इन गलियों का आनदं लेते हुए स्वयम ही जायेंगे | इन गलियों से गुजेरते हुए जैसे ही हम एक स्थान से गुजर रहे थे, एक छोटे से लकड़ी के खोखे में एक 24-25 साल का युवा लड़का हमें देख अपनी गडवी में मथनी चलाते हुए आवाज देकर बुलाने लगा , “आइये – आइये स़ाब गोकुल की मस्त लस्सी का मजा लीजिये, गोकुल में आये और लस्सी ना पी तो क्या फायदा” गरमी के इस मौसम में कुछ ठंडा पीने की इच्छा तो हम सब की थी | पर उसकी दूकान पर जाकर मैंने कहा भई लस्सी तो तेरी हम पी लें पर हमने कल रात को मथुरा में जो लस्सी पी थी, उसका स्वाद अभी भी हमारे मुहं में है, ऐसा ना हो की तेरी लस्सी पीने के बाद मजा ही खराब हो जाये! बात शायद् अपना असर कर गयी उस नौजवान पर !, उसने अपनी वो गडवी किनारे की और कहने लगा, “आप ये रहने दो, ये तो आम है, आपको मैं स्पेशल वाली बना के पिलाऊंगा और यदि उससे ज्यादा अच्छी ना लगे तो मेरे पैसे ना देना !” और फिर उसने अपनी अलग गडवी में हमारे सामने ही दही, चीनी, बर्फ डालकर और हाथ की मदानी को उसमे घुमा-घुमा कर पूरी मस्ती से बनाने लगा… आखिर मथुरा की लस्सी के आगे गोकुल की लस्सी की नाक का सवाल था और फिर उसने उसमे अपनी मरजी से उसमे गुलाब जल और केवडा आदि मिलाकर जब हमे गिलासों में दाल कर दी, तो वाकई में लस्सी अनुपम थी, किसी से मुकाबले की जरूरत नही, वास्तव में इतनी अच्छी थी कि बच्चों ने फरमाईश की एक-एक गिलास और पीने की, तथा, शायद ये उस लस्सी वाले लडके की मेहनत को अपनी रजामंदी देना था और उसके दावे पर उसके पास होने की मोहर भी !
गोकुल में आज आपको, वो ग्वाल-पाल और वो गोपियाँ तो नही दिखेंगी, हाँ गायें अवश्य ही बहुतायत में मिलेंगी पूरे गोकुल गाँव में… भैंसें तो शायद नाम-मात्र ही हों पर गायों की संख्यां हजारों में है| गोकुल की एक और विशेषता है, इसके बन्दर | कान्हा के समय ये बन्दर रहें हो, ऐसा तो कोई प्रमाण नही और ना ही मेरी जानकारी में ऐसा कोई सूरदास का पद | पर आज तो इस गाँव में आपको बन्दर बहुत मिलेंगे, और ये शरारती भी बहुत हैं | आपके सामने ही आपके हाथों से अपनी पसंद का सामान खींच कर ले जाने में इन्हें कोई गुरेज नही है| पारस के हाथ से खींच कर चिप्स का पाकेट आराम से खींच कर, और फिर एक ऊंची दीवार पर बैठकर उसे खाते हुए की एक फोटो, मेरे कैमरे ने कैद भी की है |
और फिर कान्हा के बच्चपन की मूक गवाह इन गलियों में भले ही हजारों बरस बीत जाने के बावजूद हम उन यादों को अपने आप में समेटते रहे… एक जगह रुक कर परमिन्द्र जी ने गोकुल की गायों के 2 उपलों को गोकुल की स्मृति के तौर पर कार में रख लिया जो शायद इस जगह के प्रति उनके हृदय की अगाथ आस्था का प्रतीक था! उन के इस प्रेम ने मुझे रसखान का एक दोहा याद दिला दिया –
हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम आधीन।
याही ते हरि आपु ही, याहि बड़प्पन दीन॥
और फिर हम इन गलियों से गुजरकर अपने रात्रि के गन्तव स्थल, मथुरा की और रवाना हुए…
Lovely writeup , description of place and nearby is awesome.
Good pics , co-existence of people and animals
Thanx for the nice words Mr Virag. Yeah, in small cities and in villages, one can find this co-existence b/w man and animal very commonly, it is infect their way of life, although we feel strange because of our ignorance about the harmony among all the elements of nature.
Wah ji Wah..
ek aur adhyay jod diya itni khubsurati se.
aur varnan to aisa ki hridya se chhute hue aankho me jhalakne laga..
aapki kalam aur kanha dono ki jai ho..
Gokulmay ho gaye hum to. :) :) :)
ignoring some Panda ji wali Mishap evrything is pleasing only.
awaited more..
bas ye soch lijiye ki pichhle 2 mahine se itne jyada busy hai, fir bhi ab tak bas 2 hi lekh pad paaye hain ghumakkar par, wo dono aapke hai ..
Love and blessing for your ‘Laddu Gopal’
Thanx Abhishek for your generous words. Infect your words are sound more poetic than mine. Any way, pandas were no mishaps, we know how to tackle them. Infect i love to visit Banaras one day, which has a very bad reputation for its notorious pandas.But I will definitely enjoy the encounter. Thanx again for reading the post, in spite of your busy schedule. Your love and blessings for ‘Laddu Gopal’ will definitely reach to him through me.
Nice write up. The place must be having the aroma of Krishna in its atmosphere. Thro’ your post I was visualising all his naughty playful acts.
Its high time the PANDAS should change a little, be a bit humane and let the tourists enjoy their short stays in the holy places.
Thank you very much ashok ji for your lovely comments. Yes, indeed the place itself has a aroma of ‘Kanha’, because the village is far from the so called modernization. Pandas will definitely have to change with the time and allow the people to donate as per their own will, otherwise it will be difficult for them to get the patronage of young and educated India.
Avtar Ji,
Very interesting style of writing and an informative post where you have cleverly glossed over some of the negative aspects of these places and their inhabitants. I especially loved the mix of “Gadya” and “Padya” in this article.
Thanks for sharing.
Thank you Tarun ji for reading and find time to write this beautiful comment. I am sure for getting warm responses from your side in future posts too.,
Avtar ji,
Very engrossing post – interesting details.
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Thanx a lot dear Aurujit, it always gives boost to one’s moral, when the reader like you post a comment and that too in a very encouraging words. I hope, in future too, you will be kind enough to write such comments.
Thank you for sharing your experience with us. I think you are generous about your take on Pandas :-) and guides who would keep stopping you as you drive to Agra/Mathura/Gokul with these bogus I-cards. As you rightly said that Pandas need to adapt to young and educated youth. Hopefully it happens soon.
Ha…Ha…Ha, Mr Nandan rightly said, but one always has two options in such situations, either fight with them, which you will never win but ultimately make trip sour or be firm in your determination and pay only that amount, which they really deserve for their labor, Show interest in their talks, get required knowledge but firm in your mind regarding their caliber and greed. We always prefer the second one and it works in most of the cases, except in Pushker, that too they emotionally trapped my wife for some ‘Mokshy’ pooja for the name of my father, who expired some times ago. .
Ek baar phir se bahut achha lekh Avtar Ji. Lekh padhte hue aisa mehsoos hua jaise main bhi Gokul yaatra par hi hoon. Likhte rahiye aur apne anubhav hum logon se saajha karte rahiye.
Thank you Pradeep ji for your comment. Passionate readers like you always give inspiration to write.
Avtar Ji..
Nice post..
One correction.. lord Krishna possesses 64 kinds of arts called “Chausath Kalas sampurn” not 16 as you have mentioned in both post.
Thanx naresh ji for your correction, But most of the Hindu literature says it was 16. Few are of course say for 64.
If you don’t mind, please go through the following link
http://www.speakingtree.in/spiritual-blogs/seekers/faith-and-rituals/16-kalas-of-shri-krishna
Apart from this link, superkundilini also says its 16 but can achieve 64-
” It has been seen that even Avatars undergo step by step advancement. Their Kalas keep increasing as time passes by. The Turtle and Fish Avatar possessed 1 Kala each. Varah and Vaman had 2 Kalas. Nrisinha and Parshuram had 3 Kalas. Rama had 12 Kalas, Krishna had 16 Kalas and Buddha had 30 Kalas. Regarding the Nishkalank or Taintless Avatar it has been said that it possesses 24 Kalas. This then is step by step evolution or advancement. In world creation these Avatars have appeared at the appointed hour time and again and will continue to do so till it reaches the compact omnipotent number of 64 Kalas.”
http://superenergykundalini.wordpress.com/tag/krishna-had-16-kalas/
As per my information also, it were 16 skills – ???? ??? ??????? ! But may be Nirdesh also is write. After all, the date of death of Tulsi Das is described in two different dohas –
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??? ??? ??? ?????? ??, 16 ??? ?? 64, ???? ???? ???? ????? ???? ????? ?? ??? ???? ?????? ? after all,,,,,
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Hi Avtar,
Another bansuri ki awaaz jaisa meetha account of lanes of Mathura.
Thank you very much Nirdesh Singh Ji for your extremely poetic and nice words.
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Redards and best wishes
samiersharma@gmail.com
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Dear Avtar Singh Ji,
Even though you visited Gokul as a pure ghumakkar, without any tall claims of being a devotee, you do exhibit an undercurrent of unspoilt spirituality in your writing which draws people towards you. This also explains why we ghumakkars love to read you because even though we may not be aware of it, the core processor inside us is an spiritual one!
You are spreading happiness around you through your mighty pen. Please don’t stop wandering and don’t stop sharing.
Many thanks Sushant ji for your encouraging words. I really appreciate every word of yours from the bottom of my heart. Infect, I am really thankful to you, because you were the only reason(responsible}, who brought me here.
Surprised…?
Few days back, I was just searching for some tips on photography…. and incidentally I got an acquaintance with your posts on it. They were damn good really…. filled with all the details, i was longing for… and through this I associated with Ghummakar.!!!
I am really thankful to you for this.
Yeah, I am surprised for being held responsible :) but not really surprised for Google which can find anything for you – even my posts on photography. Thank you for liking them.
So, you belong to Dehradun, you love photography, you love to travel and write about it… what more would I ask to enlist you as a dear friend? ! On this friendship day, I find my life enriched with one more friend. I am really blessed.
Sushant Singhal
Thank you Sushant ji for your kind words. believe me, its an honor for me to get the compa ny of you. Hope to stay in touch long. Many thanx and Happy friendship day to you too….
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Thank you very much Silent Soul ji for your heart full comment. You liked the post, it was a great compliment for me . As for Kalas are concerned, I mentioned 16 as I got the knowledge of 16. Nevertheless it is not a debatable issue at least for me , various sects always keep their versions. I will say you the same thing, which I said to Sushant ji
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Thank you Vipin ji for your ever encouraging words….
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