२०१५ की अंतिम तिमाही चल रही थी और तभी मैं दिल्ली से मुंबई शहर आ गया. सबकुछ बदल-सा गया था. भाषा, आबोहवा और खान-पान सबकुछ. लगता था कि समय कटे न कटे. तब, उस नए शहर में दिल न लगने से उत्पन्न बेमनी और उदासी से ग्रस्त हो कर, मैंने एक पदयात्रा करने का निश्चय किया. सोचा कि एक दिन में जितना पैदल चल सकूँगा, चलूँगा. और यही जिद ठान कर, शनिवार ६ फ़रवरी २०१६ को, मैं अपने दफ्तर के एक सहयोगी की गाड़ी में बैठ कर बोरीवली में राष्ट्रीय राजमार्ग ०८ पर स्थित “संजय गाँधी राष्ट्रीय उद्यान” के मुख्य प्रवेश द्वार तक आ गया. मुझे प्रवेश-द्वार तक पहुँचाने के पश्चात गाड़ी अपने स्थान पर वापस चली गयी और वहीं से मेरी पदयात्रा आरम्भ हो गयी.

प्रवेश द्वार
उस समय सुबह के ९ बजे थे. फ़रवरी के महीने में इतनी सुबह मौसम सुहाना था. प्रातःकाल के उस समय में, उस बड़े-से मुख्य द्वार पर ही स्थित टिकट-आफिस के सामने, ज्यादा भीड़ भी नहीं थी. वयस्क व्यक्ति के लिए ४४ रुपये का टिकट था. जो व्यक्ति अपनी कार वहाँ पार्क करना चाहते थे, उन्हें १४६ रुपये का पार्किंग टिकेट भी अलग से लेना पड़ता. मैंने तो अपनी टिकट ली और उद्यान में प्रवेश कर गया. प्रवेश-द्वार के अन्दर कुछ दूर तक तो कार और मोटरसाइकिल पार्किंग की जगह थी, जो प्रतिक्षण भरती जा रही थी. जाहिर था कि कई लोग सप्ताहांत मनाने उस राष्ट्रीय उद्यान में आते होंगे. वहां कई सूचना से परिपूर्ण नोटिस-बोर्ड भी लगे थे, जिनमें एक नोटिस बोर्ड पढ़ कर मन मलिन हो गया क्योंकि उस बोर्ड में मुंबई पुलिस द्वारा पार्क में चोरी, डकैती और बलात्कार से सावधान रहने की सलाह दी गयी थी. एक और बोर्ड पर सूचित किया जा रहा था कि लोगों का संध्या ६ बजे के बाद प्रवेश निषिद्ध है, क्योंकि इस उद्यान में बाघ भी निकलतें हैं.

नोटिस बोर्ड

मैप
इधर जैसे ही पार्किंग-स्थल समाप्त हो कर उद्यान का रास्ता खुला, वैसे ही मैंने महसूस किया कि अकेले निरुद्देश्य घूमना हो तो कहाँ जाऊं. क्या बीहड़ में भटकूँ या फिर कोई उद्देश्य खोजूं और उस उद्देश्य को पूरा करूँ. और इस प्रकार वहीँ उद्यान में खड़ा हो कर मैंने अपनी उस दिन की पदयात्रा के कुछ उद्देह्श्य निर्धारित किये. जैसे कि उस वहाँ की सभी यात्री-मनोरंजन सम्बन्धी सुविधाओं को देखना, उस उद्यान में स्थित दर्शनीय स्थलों को देखना और साथ-साथ पदयात्रा के दौरान होने वाले अनुभवों का आनंद उठाना. वैसे तो राष्ट्रीय उद्यान बहुत बड़ा है और इसके कई हिस्से तो घने जंगलों से ढके हैं, कुछ हिस्सा खाड़ी को भी छूता है, पर जन-साधारण के लिए इसके मुख्यतः दो हिस्से हैं. पहला “कृष्णागिरी उपवन” और दूसरा “कान्हेरी गुफाएं”. मैंने अपनी पद-यात्रा के लिए इन्हीं दोनों हिस्सों को चुना क्योंकि बिना विशेष उपकरणों और विशेषज्ञों के घने जंगलों में विचरण के लिए मेरे पास उपयुक्त ज्ञान नहीं था. मेरे कुछ दूर आगे चलते ही पैरों से चड़- चड़ की आवाज आने लगी. नीचे देखा तो मुझे पतझर में गिरे सूखे पत्ते दिखाई दिए. उद्यान के इस हिस्से में पतझर वाले वृक्ष थे, और इस जगह को “पत्तों का गलीचा” कहा जाता. ऐसा माना जाता है कि धरती पर गिरे पत्तों से ही तो वन्य जीवन फलता-फूलता है. कई महीनों से सूखे पत्तों पर नहीं चला था. इसीलिए बड़ा मजा आने लगा. पर धीरे-धीरे पत्तों का गलीचा भी ख़त्म हो गया और मैं एक वन-विभाग द्वारा संचालित नर्सरी के सामने जा पहुंचा.

पत्तों का गलीचा
नर्सरी सोमवार को बंद रहता है. “पौधों की नर्सरी” एक मनभावन जगह हो सकती है. पर मैं उस समय उसके भीतर नहीं गया क्योंकि मुझे एक लंबी पद-यात्रा करनी थी और उस वक्त कुछ खरीदना उचित नहीं था. नर्सरी के पीछे एक छोटा जलाशय भी नजर आया. पर उसमें ज्यादा जल नहीं था. वहीँ एक बोर्ड पर लिखा था कि बरसात के १०० दिनों में जब १०० इंच पानी बरसेगा तो सारे जलाशय भर जायेंगे और धरती हरी-भरी हो जाएगी. इधर मैं धीमी चाल से आगे बढ़ता जा रहा था. उस वक़्त मेरे सामने “नेचर इनफार्मेशन सेण्टर” का परिसर आ गया. मैं इसके अन्दर चला गया. वहाँ एक रिसेप्शनिस्ट बैठी थी, जिसने मुझे बताया कि यहाँ से कई ट्रैकिंग ट्रेल चलते हैं, जो ३ से ७ घंटे तक का होता है. कुछ ट्रेल का मैं नाम लिख रहा हूँ. “शिलोदा स्ट्रीम ट्रेल”, “कान्हेरी से गायमुख ट्रेल”, “बाबु-हट से हाईएस्ट पॉइंट ट्रेल”, “बटरफ्लाई ट्रेल” और ‘मेडिसिनल प्लांट्स – गार्डन ऑफ़ फ्रेग्रेन्स ट्रेल” इत्यादि. इस सभी ट्रेल्स के लिए एक ग्रुप की आवश्यकता होती है. इस ग्रुप का नेतृत्व इनफार्मेशन सेण्टर द्वारा चयनित गाइड करता है. काश मुझे इन सब ट्रेल्स का पहले से पता होता, यही सोच कर मन मसोसता हुआ मैं उस सेण्टर से बाहर आ गया और अपनी पदयात्रा जारी रखी.

नेचर इनफार्मेशन सेण्टर

चेक डैम – नौकायन सुविधा
तभी सामने एक “चेक-डैम” आ गया, जिसमें पानी भरा हुआ था. यह दहिसर नदी पर बना था जो राष्ट्रीय उद्यान से हो कर बहती थी. वहां बैठने के लिए सीढियां भी बनी हुईं थीं. जलाशय के सामने एक पार्क भी था, जहाँ बच्चों के खेलने हेतु कई प्रकार की सुविधाएँ थीं. उस वक़्त तो वहां ज्यादा लोग नहीं थे. परन्तु लौटती यात्रा में मैंने देखा कि सीढियां पूरी तरह से भर गयीं और कई परिवार और जोड़े उस जलाशय में नौका-विहार कर रहे थे. दो-व्यक्तियों वाली नौका के लिए ४४ रुपये और चार-व्यक्तियों वाली नौका के लिए ८८ रुपये. यहाँ से बायीं ओर जाने वाला और दहिसर नदी के समानांतर चलने वाला रास्ता भी मुझे कान्हेरी गुफा तक पहुंचा सकता था. पर मैंने इस जलाशय से दायीं ओर का रुख कर लिया और चल पड़ा. दायीं ओर चलने पर मुझे एक ऊँचे वृक्षों के साए से ढकी “पिकनिक वाटिका” दिखी, जिसमें लकड़ी के बल्लों से बने छत वाले दालान बने हुए थे. इन दालानों में परिवार के साथ-साथ पिकनिक मनाना कितना आनंददायक हो सकता है. काश मैं भी यहाँ एक पिकनिक मना पाता. उस वक़्त उस उद्यान में किसी चित्रकारी-स्कूल के बच्चे भी आये हुए थे. वे यत्र-तत्र बैठ कर अपनी आँखों से दिखने वाला नैसर्गिक दृश्य की तस्वीरें कागज़ पर बना रहे थे. मैं भी उनकी एक टोली के साथ कुछ देर बैठ कर देखता रहा कि किस तन्मयता से वे लोग अपना कार्य कर रहे थे. उद्यान उनकी लेबोरेटरी थी और वे उसके विद्यार्थी. सच में वहां तो मजा आ गया.

पिकनिक वाटिका

कृष्णागिरी स्टेशन पर वनरानी ट्रेन
पर मुझे तो अभी आगे भी जाना था. विद्यार्थियों से विदा ले कर मैं जब चला तो मुझे बच्चों की ट्रेन की पटरियां दिखीं. पटरियों के सहारे चलते हुए मैं उद्यान में स्थित एक सुन्दर स्टेशन पहुँच गया. स्टेशन का नाम “कृष्णागिरी स्टेशन” था और ट्रेन का नाम था “वनरानी”. वयस्क के लिए ३७ रुपये का टिकट और बच्चों के लिए १४ रुपये का. स्टेशन को खाली देख कर मैं ट्रेन का इंतज़ार करने लगा. कुछ ही देर में पीले इंजन वाली बच्चों की ट्रेन स्टेशन में आ गयी. बच्चे-बूढ़े और जवान यात्री उस पर चढ़ने लगे. उन्हें चढ़ते देख कर मेरा भी ट्रेन-यात्रा का बहुत मन करने लगा. पर फिर अपनी जिद याद आई कि आज तो चाहे कुछ भी हो जाए, उद्यान की पदयात्रा ही करूँगा. इसीलिए मन को झूठी सांत्वना देते हुए मैं आगे बढ़ गया. अभी तक मैं उस उद्यान के पारिवारिक क्षेत्रों में विचर रहा था. पर धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए लोगों का दिखना कम होते गया. अपने गंतव्य से बिलकुल बेफिक्र मैं एक वीरान पक्की सड़क पकड़ कर चला जा रहा था, जिसमें कभी-कभी कोई गाड़ी भी दौड़ रही थी. कुछ दूर पर उस पक्की सड़क के बायीं तरफ मुझे एक बोर्ड दिखा, जो “गाँधी-टेकरी” की दिशा इंगित कर रहा था. बस फिर क्या था, मैं उसी पर चल पड़ा. ऊँचे-ऊँचे वृक्षों से पटा वो पक्का रास्ता धीरे-धीरे मुझे एक टीले (पैविलियन हिल) के ऊपर ले आया. चढ़ाई कठिन नहीं थी. टीले के ऊपर एक गोल स्मारक बना था, जिसे “महात्मा गाँधी स्मृति मंदिर” कहते हैं. इसका शिलारोपण अक्टूबर १९४८ में हुआ था और उद्घाटन ६ अप्रैल १९५० में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद के द्वारा हुआ था. गोल स्मारक के चारों तरफ सुन्दर उपवन लगा हुआ था, जिसमें कॉलेज के छात्र-छात्राओं का उमंग से भरा हुआ एक झुण्ड अपनी सेल्फी लेने में व्यस्त था.

पैविलियन हिल के मार्ग का एक दृश्य

महात्मा गाँधी स्मृति मंदिर
गाँधी स्मृति-मंदिर में शांति थी. मैं भी कुछ देर वहाँ बैठ कर सोच रहा था कि इन स्मृति-चिन्हों का भविष्य कैसा होगा. क्या आधुनिक जीवन इन महानुभावों के जीवन-चरित की अच्छाइयों को समझ पायेगा या फिर सेल्फी के इस दौर में ये स्मृति-चिन्ह सिर्फ एक सुन्दर पृष्ठभूमि बन कर रह जायेंगे. वहां से जब निकला तो एक व्यक्ति के पीछे-पीछे चलता हुआ एक दुसरे रास्ते पर आ गया. यहाँ पत्थरों से बने रस्ते थे, जो कुछ घने वन से के गुजरता था. वह व्यक्ति तो कहीं बीच में मुड़ गया, पर मैं उसी राह पर चलते रहा. धीरे-धीरे वह रास्ता मुझे एक गेट के समीप ले आया, जो साँची-स्तूप के गेट से मिलती आकृति का था. यहाँ आ कर मुझे पता चला कि मैं उलटे रास्ते से गाँधी-टेकरी पर चढ़ा था और सीधे रास्ते से उतरा.

महात्मा गाँधी स्मृति जाने का मूल गेट
अपने-आप पर मुस्कुराता हुआ मैं फिर से एक बार चला. इस बार मैंने सोच लिया कि अब कान्हेरी गुफा तक पहुँच के ही दम लूँगा. अतः मैं वीरान से लम्बे रास्ते चलता गया. बीच में एक-दो गाँव आये, गाँव का मंदिर आया, विचित्र-प्रकार के बरगद के पेड़ नज़र आये, दीमक की बड़ी-बड़ी बाम्बियाँ दिखीं, सूखी हुई नदी और उस पर बना पुल पार किया. सड़क आमतौर पर वीरान ही रहती थी. यदा-कदा कोई गाड़ी तेजी से पार हो जाती या फिर कोई मोटरसाइकिल में बैठा युगल खिलखिलाता हुआ तेजी से चला जाता. मैं अकेला उस रास्ते पर दिखने वाले आकर्षक दृश्यों की तस्वीरें खींचता जाता था और चलता जाता. इस प्रकार लगभग ३-४ किलोमीटर चलने के बाद एक तिराहा मिला, जिसका नाम आश्चर्यजनक रूप से “पिकनिक पॉइंट” था, हालाँकि कहीं पर पिकनिक स्पॉट तो बिलकुल नहीं नज़र आ रहा था.

फलों की दूकान
तिराहा निर्जन था. पर कोने पर दो ग्रामीण स्त्रीयां जंगल से तोड़े गए फल बेच रहीं थीं. उनके साथ एक आदमी भी डंडा लिए खड़ा था. वैसे तो उनके पास खीरे, कच्चे आम, संतरे, कबरंगे, ईमली, कई तरह के बेर और बादाम थे, परन्तु मुझे आकर्षित किया उनके केलों ने. खूब सुन्दर और पुष्ट केले थे. मुझे केले खरीदता देख कर एक स्त्री ने मुझे समझाया कि मैं खीरे ले लूं और केले छोड़ दूँ. पर मैं कहाँ मानने वाला था. बस जैसे ही मैंने केले ख़रीदे, वृक्षों की डालों से तेजी-से उतर कर करीबन २०-२५ बंदरों ने मुझे घेर लिया. घबरा कर मैंने केले वहीँ जमीन पर फेंके, जो क्षण-भर में ही बंदरों द्वारा लूट लिए गए. अब उस डंडे से लैस व्यक्ति ने बंदरों को भगाने के लिए डंडा भाजना शुरू किया. बन्दर भाग गए. अब यह तो नहीं पता कि डंडे से भागे या केले चट कर के भागे. मैंने उन दोनों स्त्रियों को समझाने की कोशिश की कि जब यहाँ बंदरों का उत्पात है तो केले बेचते ही क्यों हो. दोनों स्त्रियाँ मुस्कुरायीं क्योंकि आज उन्हें एक और शहरी आदमी मिला था, जो जंगल में बिना देखे चलता था.

घने जंगल के शुरू में पहली सुरक्षा कुटी

टाइगर ट्रेल का मुहाना
अपनी मूर्खता पर शर्मा कर मैं आगे चल पड़ा. कुछ और स्त्रियों द्वारा रखी फलों की दूकानों को मैंने बिना रुके पार किया. कुछ साइकिल-सवारों ने मुझे पार किया. यह साइकिलें उद्यान के प्रवेश द्वार कर ही किराये पर मिलतीं हैं. लगभग ३-४ किलोमीटर चलने के पश्चात मैं घने जंगल के बाहर लगे चेक-पोस्ट तक पहुँच गया. संध्या ६ बजे यह चेक-पोस्ट बंद हो जाता है और किसी को भी जाने की अनुमति नहीं होती. यहाँ से वाकई जंगल घना होते जा रहा था.
मैंने पहरेदार का अभिवादन किया और आगे चलता रहा. उस समय मुझे यह नहीं पता था की लौटते समय इसी अभिवादन की वजह से वह पहरेदार मुझे अपनी कुटी में बैठा कर चाय पिलायगा. जंगल तो जरुर घना था. पर मैं तो पक्की सड़क पर चल रहा था. बीच-बीच में नीरवता इतनी फैल जाती थी कि दिन में भी डर लगने लगे. करीबन २ किलोमीटर चलते –चलते मेरे सामने बाघ-यात्रा (टाइगर-ट्रेल) का मुहाना आ गया. वीरान जंगले में मैं अकेले था और टाइगर ट्रेल को सामने देख कर मेरे पैर खुद-बखुद ही तेजी से चलने लगे. बीच-बीच में अपनी इस आकस्मिक तेज चाल पर हंसी भी आ रही की क्योंकि अगर सच में किसी बाघ ने धावा बोला तो उस वियाबान जंगल के वीरान रास्ते में मेरी तेज चाल तो कोई काम आने वाली नहीं थी. बार-बार यह सोच रहा था की इससे तो अच्छा होता यदि टिकट-काउंटर पर ५८ रुपये दे कर सिहं-सफारी ही बुक कर लेता.

दूसरी सुरक्षा-कुटी का दृश्य

कान्हेरी पहाड़ के नीचे का दृश्य
पर तेज चाल का फायदा हुआ और मैं शीघ्र ही एक सुरक्षा-कुटी के पास पहुँच गया, जहाँ महाराष्ट्र सरकार का एक वन-पुलिस बन्दूक लिए हुए सुस्ता रहा था. बन्दूक देख कर जान-में-जान आई और मैं कुछ देर उसके पास बैठ गया और इधर-उधर की बातें करने लगा. उसने बताया कि उस सुरक्षा-कुटी से वह तुलसी-झील जाने की रास्ते की रखवाली कर रहा था और उस रास्ते पर जन-साधारण का जाना मना था. सिर्फ सरकारी गाड़ियाँ जा सकती थीं. खैर उसके पास कुछ देर बैठ कर वन्य जीवन की चर्चा करने के बाद मैंने उस से विदा ली और आगे बढ़ा.
वहीँ बोर्ड पर देख कर ख़ुशी हुई कि कान्हेरी गुफा वहाँ से मात्र १ किलोमीटर की दूरी पर थी. रास्ता धीरे-धीरे चढ़ाई ले रहा था. अब फिर से लोग-बाग़ दिखने लगे. स्थानीय लोगों के द्वारा लगाया गया बाज़ार भी दिखने लगा. यह सब देख कर मेरे पैर और तेजी से चल कर कान्हेरी गुफा जाने वाले लोगों की भीड़ में शामिल हो गए, हालाँकि गुफा देखने के बाद अभी मुझे पैदल लौटना भी तो बाकी था.
Namaskar Uday Ji, I couldn’t control my laughter while reading the tiger trail account. I can imagine what you must have felt. The banana account was a bit weird and clearly shows that we as urban people have forgot what it means to live in villages/jungles or near nature!
As always a very good and elaborated post.
Moreover, your hindi posts are really helping me to learn ‘ shudh hindi’. :) Dhanyawad!
Namaskar Puja Ji
Thanks for your detailed comments. Glad to know that you liked the post. These days, I am also trying to express my thoughts and my experiences in Hindi.
Thanks once again for encouraging me.
Regards