चम्बा, उत्तराखंड के लिए ऋषिकेश से बस शाम में 4 बजे चल दी | जिस गति से बस पहाड़ों के घुमावदार रास्तों पर बढ़ रही थी उसी गति से सूरज ढल रहा था | कभी सामने वाले पहाड़ पर सूरज की शाम की हलकी रौशनी दिखती तो कभी हम खुद रौशनी में भीग रहे होते | ऐसा लगता मानो हम शाम का पीछा कर रहे हों | ऊपर जाते ही सूरज फिर से दीखता और एक और ढलती शाम का नज़ारा प्रस्तुत हो जाता | खैर मैंने लगभग चार-पांच शामों का आनंद तीन घंटे में उठाया और शाम के सात बजे के आस पास चम्बा पंहुचे | बस चम्बा मार्केट में छोडती है जहाँ से TRH चम्बा करीब 3km है | माहौल धीरे धीरे ठण्डा हो रहा था | हलकी हलकी हवा भी चलने लगी थी जो कपड़ों के विभिन्न कोने से अन्दर जाती और सिहरन दे जाती | इस ठण्ड में वाक करना एक और आनंद का अनुभव है | ऊँचे व ढलान भरे रास्ते मुझे ज्यादा पसंद हैं | शायद पूर्णिमा के आस पास का समय था; बड़ा सा चाँद आवश्यकता से ज्यादा समीप लग रहा था | सड़क खाली थी; बस केवल कुछ बच्चे शायद कोचिंग/ट्यूशन से वापस आ रहे थे | इनमें जोश देखकर अक्सर अपने वही स्कूली दिन वापस ख्याल आ जाते हैं | उन्ही दिनों की आतें करते हम लगभग तीस मिनट में होटल पंहुचे |
रास्ता होटल पर जाकर ही ख़त्म होता था | हम अन्दर गए तो रिसेप्शन पर कोई नहीं था | हलकी हलकी हवा चल रही थी बाहर लगे चीड के पेड़ झूम रहे थे | हमने आवाज दी “कोई है….” | दो चार बार आवाज देने पर भी कोई उत्तर नहीं मिला | पत्नी जी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी और मैं भी कुछ सोचने की स्थिति में नहीं था | हमने तय किया की अन्दर जाकर देखते हैं | नीचे दो ही कमरे थे और दोनों बंद थे | वहां आस पास बाहर कोई भी प्राणी नहीं दिखाई दे रहा था | हम लोग काफी थक चुके थे और ऊपर से ये आफत थी | इतने में पीछे से आवाज आई “बताइए सर, मैं क्या कर सकता हूँ” | एक 30-35 साल का एक आदमी कैप लगाये जैकेट पहने पीछे खड़ा था | मेरे दिमाग में ‘पुरानी हवेली का चौकीदार’ जैसे कुछ भूतिया चित्र उभर आये और | सब सँभालते हुए मैंने अपने रिजर्वेशन की बात कही तो उसने मुझे नीचे का एक रूम खोलकर दे दिया | पूछने पर पता चला की वहां किसी और का कमरा बुक नहीं है और अगली तीन रातों के लिए हम लोग अकेले ही वहां रूकने वाले हैं | हम लोग रूम में पहुंचे और ‘मेरे द्वारा सरकारी होटल के चयन’ विषय पर पत्नी जी का भाषण सुना | एक बार फिर मामले को सँभालते हुए मैंने शीघ्र सोने का प्रस्ताव रखा जो कुछ संक्षिप्त टिपण्णीयों के बाद मंजूर हो गया |
अगली सुबह मुझे जीवन में हमेशा याद रहेगी | जब मैं सोकर उठा तो सुबह के सात बज रहे होंगे | शायद थकने के कारण बीती रात बहुत गहरी नीद आई थी और ऐसी नीद के बाद उठने पर मन एक अनोखे अजीब से आलस्ययुक्त भाव से ग्रसित रहता है | मैं भूल भी गया था की मैं चम्बा में हूँ | पत्नी जी ने उठाते हुए कहा “बाहर सूरज निकल आया है |” मैंने आखें खोली तो कुछ ही पलों में चेतना वापस लौट आई और मैं नंगे पाँव ही बाहर आ गया | होटल के सामने से चीड़ के पेड़ों के पीछे से झिलमिलाता हुआ सूरज निकल रहा था |
हवा में ठण्ड थी, दूर दूर तक शांति बिखरी हुई थी, पक्षी आसमान में घूम रहे थे और इन सबके बीच मैं अपनी आखें पूरी खोलने का प्रयास कर रहा था जो अभी भी गहरी नींद में अलसाई हुई थी | बड़े दिनों बाद दिन की शुरुआत एक जगह शांत बैठकर कानों में पक्षियों के कलरव सुनते हुए हुई | आज यह लिखते हुए एक बार फिर से मुझे वो सुबह की याद ताजा हो आई और मेरे चेहरे पर अकारण ही मुस्कान तैर गई | (ऑफिस में आस पास बैठे लोग न जाने क्या सोच रहे होंगे !! )
TRH चम्बा टॉप पॉइंट पर स्थित है जो किसी ज़माने में PWD का गेस्ट हाउस हुआ करता था | सामने की ओर ढेर सारे फूल लगाये हुए हैं जो एक अलग ही छटा बिखरते हैं | हमने चम्बा को टूरिंग स्पॉट के लिए इसलिए चुना था ताकि वहां जाकर हम लोग विभिन्न जगहों के लिए दौड़े नहीं बल्कि वहीँ रहकर कुछ दिन आनंद ले | या यूँ कहे तो हम वहां घुमने कम रहने ज्यादा गये थे | अगर टूरिस्ट स्पॉट की बात करें तो चम्बा में कुछ भी नहीं है; है तो बस पहाड़ी व्यू | GMVN के होटल के बगल से ही पूरी वैली का दृश्य आसानी से उपलब्ध होता है |
तीन दिन की यात्रा के बाद अद्भुद आनंद मिल रहा था | हमने एक दिन वहीँ रहने का निश्चय किया | सुबह ग्यारह बजे तक हम बाहर बैठकर धूप सेंके और जीवन की कई मनोरंजक कथाओं पर चर्चा किये एवं हंसी के बड़े बड़े ठहाके लगाये |
धीरे धीरे पेट ने भोजन की मांग प्रारंभ की | हमने सोचा की वहीँ खा लिया जाये | लेकिन कई तर्कों के बाद तय हुआ की चूँकि आज हम कहीं घुमने नहीं गए हैं इसीलिए मार्केट चलकर खाना ही खा आते हैं | नहा धोकर हम एक बजे मार्केट पंहुच गये | फिर से वही कहानी स्टार्ट हुई हम लोकल फ़ूड ढूढने लगे | एक बार फिर से निराशा ही हाथ लगी | अंततः हमने एक रेस्टोरेंट में अन्य शाकाहारी महानुभावों की तरह पनीर का आर्डर दिया | शायद भूख लगने की वजह से मुझे खाना ठीक ही लगा परन्तु मेरी पत्नी जी के अनुसार वह ‘मसाले में घोली हुई पनीर’ थी | खाने के बाद हम बाज़ार में टहले, कुछ फल ख़रीदे, मूंगफलियाँ खरीदी और वापस होटल लौट चले |
3km की चढाई करके चार बजे तक हम वापस होटल पंहुचे तो ऐसा लग रहा था की मानो कुछ खाया ही नहीं | शायद खाली रहने पर भूख ज्यादा लगती है इसलिए बाहर कुर्सियों पर बैठकर मूंगफली के साथ चर्चा का एक और दौर चला | थोड़ी ही देर में आस पास के कुछ बच्चे खेलने आ गए | मैं भी पंहुच गया उनके साथ खेलने | कूदम-कूद, छुपान-छुपाई, वीस-अमृत जैसे कई खेले हम लोगों ने | कई नए खेल भी सीखे | वहां पर अपने बचपन के खेलों के मॉडिफाइड वर्सन देखकर एनालिसिस करने की इच्छा हो आई | धीरे धीरे सूरज अपनी यात्रा पूरी करके पश्चिम की पहाड़ियों की ओर बढ़ रहा था | हम लोग पहुँच गये उसी स्पॉट पर जहाँ से पूरी चम्बा वैली का दृश्य मिलता है | एक ओर सूरज डूब रहा था और दूसरी ओर हलकी ठंडी तेज हवा चल रही थी | ऑंखें मूंदकर पलकों पर सूरज की डूबती किरण पड़ रही थी साथ ही साथ पूरे चेहरे पर हवा रोमांचित कर रही थी |
हमारे साथ वो बच्चे अभी भी थे जो अब तक हमसे खूब घुल मिल गए थे | उन्होंने मुझे डांस के कुछ स्टेप सिखाने को बोला क्युकी उनके स्कूल में कोई फंक्शन था | मैंने डांस के मामले में अपनी असमर्थता जाहिर करते हुए माहौल को कविता और गीतों की ओर मोड़ा | बच्चों ने अपनी मिर्दुभाषा में कई अच्छे गीत और कवितायेँ सुनाई | वैली की ओर मुख किये सूरज की धीरे धीरे कम होती किरणों और तेज चलती हवायों के बीच कई मधुर स्वर गूँज रहे थे | सूरज के डूबने का पता तब चला जब बच्चों को उनकी माँ ने बुलाया | बच्चे अपनी घर की ओर दौड़े और हम लोग अपने रूम की ओर चल दिए |
एक बार फिर से वही अकेला सूना सूना पूरा बंगला जिसमे कोई नहीं था हम दोनों के सिवा (ऐसा विश्वास करके हम रुके हुए थे) | थोड़ी देर बचपन के भोलेपन की बातें हो रही थी की कल रात वाला व्यक्ति पानी लेकर आया | पूछने पर पता चला की उसकी रात की ड्यूटी होती है और वो रात में जस्ट बगल में ही स्थित स्टाफ क्वार्टर में चला जाता है | ये सुन के पत्नी जी ने कहा की मतलब हम लोग पूरे होटल में कल रात अकेले ही थे मैंने कहा कल की छोडो आज भी अकेले ही रहना है | खैर क्या कर सकते थे हमने उससे खाने के बारे में पूछा | तो उसने होटल का मेन्यु कार्ड थमा दिया | लिस्ट में काफी ऊपर नीचे करने के बाद हमने एग करी खाने का निश्चय किया | वह व्यक्ति मितभाषी था | उसने हाँ में सर हिलाया और चला गया |
होटल का किचन रूम से पास ही था | हम लोग बैठकर बातें कर रहे थे तो पत्नी जी की इच्छा जागृत हुई क्यूँ न चलकर देखा जाये की कैसे बना रहा है | हम लोग पहुँच गये किचन में | एक ओर अंडे उबल रहे थे और दूसरी ओर प्याज कटाई का दौर चल रहा था | हम लोग वहीँ बैठकर वहां के लोगों, टूरिज्म, लोक मान्यताओं पर चर्चा शुरू की | हमारी इस यात्रा का एक बढ़ा उद्येश्य भविष्य में उत्तराखंड में शिफ्ट होने की संभावनाओं की तलाश करना था | उसने हमें पहाड़ों के बारे में काफी कुछ बताया | उसकी बातों में, मैं बाद में चलकर पहाड़ों में बसने के अपने निर्णय को मन ही मन सही ठहरा रहा था | आधे पौने घंटे में एग करी बनकर तैयार हो गई जिसकी महक ने काफी पहले से भूख को बढ़ा दिया था | करी (curry) बहुत ही बेहतरीन बनी थी | लोकल टेस्ट और लोकल स्टाइल साफ़ झलक रहा था | पत्नी जी के चेहरे पर भी संतुष्टि के भाव थे जो चिल्ला चिल्ला के कह रहे थे की “देखा ये होता है लोकल टेस्ट और मैं इसकी बात कर रही थी |” व्यस्तता भरा दिन और एक बेहतरीन हल्का रात्रि भोजन; एक आनंददायक नीद के लिए और क्या चाहिए | कुछ मिनटों में ही मैं सो गया और एक बार फिर सुबह उसी ताजगी के साथ उठा |
हम लोग आठ बजे तक रेडी होकर मार्केट पंहुच चुके थे | जल्द ही न्यू टिहरी की बस मिल गई और हम चल दिए | न्यू तिहरी वहां से 15km के आस पास है लेकिन घुमावदार सड़कों से व्यू ज्यादा मिलता है और समय ज्यादा लगता है | बस में ढेर सारे कॉलेज के स्टूडेंट भी थे जो बीच में एक जगह उतर गये | नए नए व्यू देती बस चलती जा रही थी | हमें ‘डी केबिन’ पर उतरना था परन्तु कंडक्टर की सुनने की कम क्षमता एवं बस के शोर के कारण हम ‘बी केबिन’ पर ही उतर गये |
जिससे पूछा उसने बोला बस थोड़ी ही दूर है वहां से | इसलिए हम आगे ही बढ़ते गये | आधे घंटे पैदल चलने के बाद भी लोग यही जवाब दे रहे की बस थोड़ी देर और | धीरे धीरे आंतरिक रूप से मेरा और वाह्य रूप से पत्नी जी का धैर्य जवाब दे रहा था | जिसका प्रतिक्रिया में कभी बस वाले को, कभी मुझे शब्द प्रहार झेलने पड़ रहे थे | सड़क पर कोई पैदल चलने वाला नहीं था | एक महत्वपूर्ण फायदा थाकी पैदल चलने से व्यू और बेहतर और स्थायी मिल रहा था |
बीच में एक छोटी सी दुकान आई जहाँ से हमने चाय पानी नाश्ता किया | पहले उत्तराखंड में टिहरी नगर था जो टिहरी बाँध बनाने के कारण डूब गया | सभी लोगों को रिलोकेट किया गया जिसे आज न्यू टेहरी के नाम से जाना जाता है | टेहरी बाँध बनने से टेहरी लेक का निर्माण हुआ | टेहरी हाइड्रो पॉवर जनरेशन में महत्वपूर्ण योगदान रखता है | शायद यह सबसे उंचाई पर बनाई गई तीसरी सबसे बड़ी झील है |
हम लोग लगभग 5km चल चुके होंगे लेकिन घुमावदार रास्ते वापस वहीँ लेकर आते थे; कम होती थी तो बस ऊंचाई | एक जगह बैठने के लिए सीट बनी हुई थी | हम लोग वहीँ झील की ओर मुख किये बैठ गये और बैग से मूंगफली निकाल कर खाना शुरू किया | थोड़ी थोड़ी देर पर पीछे से गाड़ियाँ निकल रही थी | हम लोग एक गिलहरी के साथ मूंगफली खाते हुए शांत नीली झील को निहार रहे थे |
काफी देर हम वहीँ बैठे रहे | हिम्मत जुटाकर फिर चलने लगे | एक तरफ बड़ी झील थी और दूसरी ओर बड़े पर्वत जिस पर ढेर सारे अनेक प्रकार के पेड़-पौधे उगे थे | हम इधर-उधर व्यू का आनंद उठाते, एक दुसरे का हाथ पकडे चलते रहे | सच कहा है किसी ने साथ चलने से मंजिल जल्दी नज़र आती है |
हमने साथ में पुराने डुएट गीत गाने शुरू किये | वैसे तो मैं बेसुरा हूँ पर अपनी पत्नी सुर में संभाल लिया करती हैं | मुझे सभी गानों की लिरिक्स याद रहती और इन्हें उसकी लय | जब मैं गाता तो मुझे लगता है की मई डिट्टो ओरिजिनल गायक की तरह गा रहा हूँ पर असलियत इससे कोसो दूर होती है | लेकिन फिर भी अक्सर हम साथ साथ गाते हैं | ‘गीत गाता चल ओ साथी मुस्कुराता चल’, ‘एक तेरा साथ मुझे दो जहाँ से प्यारा है‘, ‘जब जब बाहर आई और फूल मुस्कुराये मुझे तुम याद आये’ जैसे गाने हमने गाए | आधे घंटे में THDC के एंट्री गेट पर पंहुच गये | पहुचकर लगा गाने का ये दौर थोड़ी देर और चलता तो ठीक था |
जिस बस ने हमें गलती से बी केबिन पर उतार दिया था वो हमें इस गेट पर उतारना था | वो अपने वापसी के यात्री बिठा रही थी | वहां से हम लेक तक चल कर गये | बाँध को अन्दर से देखने की इतनी इच्छा नहीं थी (वैसे अन्दर से देखने के लिए किसी THDC एम्प्लोई का रेफ़रल चाहिए होता है) हम लेक के पास कुछ देर खड़े रहे और वापस चल दिए |
ये महसूस हो गया की रास्ता मंजिल से ज्यादा आनंददायक होता है | वही बस पकड़कर हम लोग वापस चम्बा के लिए चल दिए | चार बजे शाम तक हम लोग चम्बा होटल पर पंहुच गये | वहां बच्चे हमारा पहले से इंतज़ार कर रहे थे | हमने फ्रेश होकर खेल के क्षेत्र में उनके साथ कुछ नए प्रयोग किये | गढ़वाली हिंदी और खड़ी बोली हिंदी में शब्द परिवर्तन का भी दौर चला और एक बार फिर सूरज पहाड़ियों के पीछे छिपने लगा, बाल्य मधुर गीत गूंजे और खूबसूरत शाम उसी तरह ढलने लगी |
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Dear Shivam,
I found the same answers “bas thodi dur hai” almost in all hilly places and Himalayan regions. So these days I never ask anyone, how far it is. Because I know the answer :-) Anyway, a nice post. Thanks
Thanks alot Sir.
I think hilly ups and downs are in their daily routine so they are used to it. For us its a big task to accomplish. So its kind of relativity.
Dear shivam,
We have enjoyed a lot , oh what a style of writing, very well written, you have scrpitted it rather than writing, very nice
Dear Baldev,
Many many thanks for such a admiration. Glad you liked it.
+ 1 to Anupam’s comment on the ‘how long is left’ question. Bus ek pathhar aur ?
A very romantic holiday overall. I often visit Uttarakhand (Nainital side) and from whatever limited I have seen (all around) , the place looks like a fab place to stay. Wishes.
Yeah Nandan its a very calm and quiet place to stay with…
‘Bas ek patthar aur…” always gives a new energy and a kind of motivation.
Another great Post. Really enjoyed reading it.
I have also gone through the same experience of being single guest in entire Guest house in Lansdowne. Me & my wife spent 2 nights there. While we pursuit the silence in busy life of metros, the same silence was really uncomfortable in 1st night of our stay.
Pics are just great.
Keep writing….
Thanks Pravesh.
Calmness of hills is all i want.
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Your write up is so minute and lovely and gave me a pleasant feeling as if I have reached there and enjoying as if you were enjoying. Really I would like to read more of your such articles. Please inform how it is possible.
Thanks alot Pankaj. I m very glad to know u liked it and felt it. An author doesn’t need anything more than this.
Thanks again.
For more posts u can log on to…
https://www.ghumakkar.com/author/shivom/
Very good post…enjoyed thoroughly. Its always good to leave behind our laptop-life and take some rest in Nature’s lap, specially in hilly areas…
Arun
Thanks Arun.
Hills give new life.
very nicely written post. It feels while reading that reader is present with you,