एक यात्रा ऐसी भी… पीरान कलियर, पुरकाजी और रुढ़की का सफरनामा

एक घुमक्कड़ के लिये, घर के दायरे मे सिमट कर रह जाना यदि उसकी अपेक्षाओं के लिये तिमिर की अवस्था का सूचक है, तो अनायास ही मिला कोई ऐसा निमन्त्रण, जो उसके कदम घर की दहलीज़ से खींच बाहर की दुनिया में ले जाने में सहायक हो, सूरज की वो किरण बन सामने आता है, जो उसके अंत:मन को अपने जगमग प्रकाश से आलोकित कर जाती है | पाँव में चक्कर होना, शायद ये मुहावरा हम जैसे लोगो के लिये ही बना है, जो ऐसे मौको को हाथों-हाथ लेते है | ऐसा ही एक अपरिहार्य संयोग बना जब लैसडाउन मे अपना रिसोर्ट चलाने वाले बिष्ट परिवार की तरफ़ से हमे उनके सबसे छोटे भाई दिनेश की शादी का निमंत्रण मिला(जिनसे आप भी मेरी कुछ लैसडाउन की पोस्टों की वजह से परिचित हो)| पारम्परिक भारतीय शादीयों की तरह उनके प्रोगाम का कई दिनो तक फैला हुआ होना और नवम्बर के महीने की, शादियों और बच्चों की पढ़ाई, दोनों के ही नजरिये से महत्वपूर्ण उपयोगिता, और फिर शादी की तिथि का काम काजी दिन पर होना! ऐसे अनेक अपरिहार्य कारक थे, जो हमारी राह में अवरोध बन मुहँ बाये सामने खड़े थे | मगर, बिष्ट परिवार द्वारा भेजा गया निमंत्रण निश्चित तौर पर ही, हमारे और उनके स्नेह की अतिरेकता को दर्शाने का एक पर्याय था जो वास्तव में भाव-विभोर ही कर गया | अच्छा लगता है, यह महसूस करके जब आपके दर्शाये प्रेम और भावनाओं को दूसरी तरफ़ से भी प्रतिदान मिलता है, जब संबंध व्यवसायिकता से इतर आत्मीयता के स्तर पर उतर आते हैं | मगर जैसे इतना ही पर्याप्त नही था, इस निमन्त्रण के चंद रोज़ के भीतर ही मुझे और हमारी घुमक्कड़ी के साथी आदरणीय श्री प्रेम त्यागी जी को रोजाना ही किसी ना किसी भाई के इतने फ़ोन आये कि हमारे लिये इसे टाल पाना सम्भव नही रह गया | मगर, व्यवहारिकता भी सामने खड़े होकर मुँह चिड़ा रही थी, तो ऐसे में हमारे और त्यागी जी के परिवार ने आपस में बैठ कर यह तय किया कि फिलहाल इस शादी पर दोनों परिवारों से एक-एक व्यक्ति ही चला जाये, बाकी फिर कभी जब मौका लगेगा, देखा जायेगा |

हालंकि दिनेश समवेत समस्त बिष्ट भाइयों का हठ पूर्ण आग्रह था कि सबने सपरिवार पहले लैंसडाउन में आना है, मगर ऐसा कर पाना, जब व्यवाहरिकता के धरातल पर किसी भी तरह से सम्भव ना हो पाया तो हमने ये निश्चित किया कि सीधा रूड़की ही जाया जायेगा, जहाँ बारात को लैंसडाउन से चलकर पहुँचना था | मंगलवार का दिन, तारीख 19 नवम्बर, गुडगाँव से रूडकी लगभग 5 घंटे की ड्राइविंग तो हो ही जाती है, यदि सीधा अपनी मंजिल पर ही जाना हो ! मगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जहाँ हमारे त्यागी जी के अपने गाँव से लेकर तमाम नाते-रिश्तेदारों के घर हों, और जाने वाले केवल दो विशुद्द घुमक्कड़, तो ये सोचना भी वास्तव में ही बेमानी सा लगने लगता है कि हम अपने घर से लगभग सवा दौ सौ किमी दूर महज एक शादी में हाजिरी भर कर आ जाएँ | अत: आदरणीय त्यागी जी ने नितान्त ही निजी और साधारण सी यात्रा के पथ में कुछ नये क्षितिज और जोड़कर, इसे एक विस्तृत आयाम दे दिया | समस्या तो केवल एक बार घर छोड़ने भर की होती है, इसके बाद तो आप और आसमान में उड़ता एक पंछी, दोनों ही अपने अपने गगन में मुक्त भाव से अपने डैनों को लहरा ही सकते हो, खास तौर पर जब आप जानते हैं कि आज तो आप बंधन मुक्त भी हो तो प्रफुल्लित मन से अपनी गाड़ी कभी और कहीं मोड़ भी सकते हो और रोक भी सकते हो |


तो, कुछ ऐसा प्रोग्राम बना कि मुँह-अंधेरे ही भोर की बेला मे घर से निकला जायेगा, जिस से सडकों पर अपेक्षाकृत कम भीढ़-भाढ़ मिले और अपनी इस यात्रा में राह में पड़ने वाले कुछ ऐसे क्षेत्रों को भी शामिल कर लिया जायेगा, यहाँ कुछ पूर्व परिचितों से मुलाकात होनी अव्श्यम्भावी है | दोपहर बाद का समय पुरकाजी में त्यागी जी के एक ऐसे परिचित के यहाँ रुक कर बिताने का नियत हुआ, जिनका कोल्हू इस समय ताज़े बनने वाले गुढ़ की महक से सरोबार है | और, उसके बाद का समय हरिद्वार के समीप पीरान कलियर में सूफी संत हजरत साबिर अली की दरगाह में सज़दा करने के लिये, तथा फिर उसके बाद दिनेश और उसके परिवार के साथ, कँयुकि उनका भी बरात के साथ गौधूलि की बेला तक ही रुइकी पहुँच पाना अपेक्षित था |

सब कुछ पूर्व नियोजित ढंग से रहा और राह में रुकते रुकते हम दोपहर बाद पुरकाजी जाने वाली सडक पर थे | गंग नहर के साथ-साथ, एक ऐसी सड़क पर चलना रोमांचक है, जो केवल 8 से 10 फुट ही चौड़ी है और अगर आपके आगे या सामने से कोई ऐसा गन्ने से लदा फदा ट्राला या बुग्गी वाला मिल जाता है, तो सोचिये उसे पार कर आगे निकल पाना कितना कष्टदायी होता होगा |  मगर उद्यमेन हि सिध्यंति कार्याणि न मनोरथै:” के भावानुसार चलते रहिये, आखिरकार कभी तो आपको मौका मिलेगा और आप आगे निकल पाने में सफल हो कर अपने गन्तव्य की और कुछ और तीव्र गति से बड़ पायेंगे |

गंग नहर के साथ-साथ जाती सुनसान सड़क, जिस पर सफ़र आज भी रोमांचक तो है ही

गंग नहर के साथ-साथ जाती सुनसान सड़क, जिस पर सफ़र आज भी रोमांचक तो है ही

जब आपके आगे गन्ने से लदा कोई ट्राला या बुग्गी हो, तो आप सिवाय मौका मिलने के अलावा और क्या कर सकते हैं

जब आपके आगे गन्ने से लदा कोई ट्राला या बुग्गी हो, तो आप सिवाय मौका मिलने के अलावा और क्या कर सकते हैं

बहरहाल रफ्ता-रफ्ता ही सही, आप राह की इन दुश्वारियों से निजात पाते हुये पुरकाजी में उस गाँव तक पहुँच जाते हो, यहाँ पूरा क्षेत्र गन्ने की खेती से लहलहा रहा है | खेतों में जगह-जगह पर लगे कोल्हू इस गन्ने के रस से गुड़ बना रहे हैं, जिससे पूरे आसपास के वातावरण में एक अजब सोंधी सी ताजे बनते गुड़ की महक बिखरी हुई है | पुरकाजी के हमारे मेजबान टिंकू के घर चाय-पान से निवृत हो कर हम उनके खेत में लगे कोल्हु पर बनते हुए गुड़ को देखने चल दिये | यहाँ मैं आपको ये भी बता दूँ कि मुजफ्फरनगर के आस-पास के इन क्षेत्रों में इस गुड़ को मिठाई के नाम से जाना जाता है |

आईये, किसी कोल्हू पर चलकर गुड़ बनाने की प्रकिया समझते हैं

आईये, किसी कोल्हू पर चलकर गुड़ बनाने की प्रकिया समझते हैं

तो आइये आपको परत दर परत इस गुड़ उर्फ़ मिठाई के बनने की प्रक्रिया बताते है | सबसे पहले गन्ने का वजन किया जाता है, फिर उसे रोलर में डालकर उसका रस निकाला जाता है, जिसे गन्ने की पिराई करना कहते हैं | यह  रस एक बड़ी सी हौद में इकट्ठा होता रहता है  रहता है जहाँ से एक नाली के द्वारा इसे लोहे के बने बड़े-बड़े कड़ाहों में पहुँचाया जाता है | क्रमागत तरीके से बनी भट्टीयों में, अलग-अलग चरणों में, एक के बाद दूसरी और फिर तीसरी कड़ाही में इस रस को उबाला जाता है, और, फिर बीच-बीच में कुछ रसायन भी इसमें मिलाये जाते हैं, जो वैसे तो उचित प्रकिया नही है क्यूंकि ये रसायन हमारे शरीर में जा कर विषाक्त प्रभाव डालते है, परन्तु इनकी वजह से एक तो इस गुड़ के बनने मे लगने वाला समय काफी कम हो जाता है और दूसरा इसका रंग बहुत अच्छा निकल कर आता है, जिसकी बाजार में अपेक्षाकृत अधिक मांग है | आम शहरी ग्राहक अपने स्वास्थ्य से समझौता करने को तैयार रहता है परन्तु रंग और स्वाद से नही! बहरहाल, गुड़ बनाने की विधि अपेक्षाकृत आसान है और गाँव के आम किसान और मजदूर इसे आसानी से बना लेते हैं | जिस चीज़ की हमने कमी महसूस की, वो थी ‘ऱाब’ की, जिसे इस समय कोई भी कोल्हू नही बना रहा था | बस दो ऐसी चीज़े हैं जो आपका ध्यान विचलित करती हैं, पहला इसे बनाने में काफी अधिक श्रम शक्ति लगती है, और दूसरा इसे बनाने की प्रकिया में साफ़-सफाई का बिल्कुल ख्याल नही रखा जाता |

Step A, सबसे पहले गन्ने का वजन किया जाता है

Step A, सबसे पहले गन्ने का वजन किया जाता है

Step B, फिर इस गन्ने की पिराई अर्थात इसका रस निकाला जाता है

Step B, फिर इस गन्ने की पिराई अर्थात इसका रस निकाला जाता है

step C, फिर इस रस को लोहे के बड़े-बड़े कड़ाहों में चरणबद्द तरीकों से एक निश्चित स्तर  तक उबाला जाता है, इसके साथ ही इसमें कुछ रसायन भी मिलाएं जाते हैं

step C, फिर इस रस को लोहे के बड़े-बड़े कड़ाहों में चरणबद्द तरीकों से एक निश्चित स्तर तक उबाला जाता है, इसके साथ ही इसमें कुछ रसायन भी मिलाएं जाते हैं

Step D, इस प्रकिया का अहम चरण है, इसे एक खास रंग तथा कंसिस्टेंसी तक लाना

Step D, इस प्रकिया का अहम चरण है, इसे एक खास रंग तथा कंसिस्टेंसी तक लाना

Step E फिर इस तैयार गुड़ को सेट होने के लिये इस तरह से बिछा दिया जाता है

Step E फिर इस तैयार गुड़ को सेट होने के लिये इस तरह से बिछा दिया जाता है

Step F, इस प्रकिया का अंतिम मगर महत्वपूर्ण चरण, रस निकलने के बाद गन्ने के छिलके, जिसे खोई कहते है, सुखाया जाता है, जो फिर कोल्हू की भट्टी में जलाने के काम आता है

Step F, इस प्रकिया का अंतिम मगर महत्वपूर्ण चरण, रस निकलने के बाद गन्ने के छिलके, जिसे खोई कहते है, सुखाया जाता है, जो फिर कोल्हू की भट्टी में जलाने के काम आता है

मगर, हमे मानना पड़ेगा, यह हिन्दुस्तानी मिठाई ऐसे ही बनती है और सदियों से हमारे अनेको सांस्कृतिक और धार्मिक उत्सवों का एक आवश्यक तत्व बन, हमारा मुँह मीठा करवाती आ रही है | टिंकू ने हमे बताया कि होली के करीब जब इन गन्नो का रस अच्छी तरह से पक जायेगा, तब अपने परिवार और परिचितों के लिये बिना रसायन मिलाये मिठाई और सिरका बनाया जायेगा, और इस दफ़ा वो किसी भी तरह इसे हमारे लिये भिजवाने की भी व्यवस्था करेगा | वाकई, आज के इस भौतिकवादी युग में भी ग्रामीण जीवन सरल और निश्चल है जबकि हमारा निज स्वार्थ और वितृष्णा से भरा !

घुमक्कड़ के साथियों के लिये हमने इसका एक छोटा सा वीडियो भी बनाया है ,जो आप यहाँ देख सकते हैं |

समय की सुईयां,  अपनी रफ़तार से आगे सरक रही हैं, अत: रात मे एक बार दुबारा से लौटने का वादा कर, पुरकाजी से विदा लेकर हम रूढ़की की तरफ बढ़ चले | रूढ़की शहर पार करके हरिद्वार की तरफ लगभग 24 किमी दूर पीरान कलियर गाँव पड़ता है जो यदि हरिद्वार की तरफ से आया जाये तो वहाँ से 12 किमी के आसपास है | सब कुछ ठीक चलते चलते अचानक ही हमारी गाड़ी की अगली खिड़की के पावर विंडो ने काम करना बंद कर दिया | सारे यत्न करके देख लिये, शीशा बीच में ही अटका पढ़ा था, फौरन रूड़की शहर वापिस लौटकर एक कार मैकेनिक को ढूँढा, जिसने अगले दरवाजे की सारी पैकिंग वगैरह खोल कर, सिद्ध किया कि इसका प्लग खराब हो गया है, अब ये तो बड़ा और झंझट का काम था, मगर उसने किसी तरह शीशा ऊपर चढ़ा दिया और कनैक्शन हटा दिया, जिससे कोई गलती से शीशा नीचे ना कर दे, क्यूंकि शीशा एक बार नीचे उतर कर ऊपर नही जा पाता | बहरहाल, चलताऊ काम हो गया, मगर इस सब में एक महत्वपूर्ण घंटा निकल गया | लेकिन अब हम निश्चिंत होकर अपनी कार कहीं भी खडी कर सकते थे | इस अकस्मात हुये अवरोध की वजह से हमारे पीरान गाँव पहुंचते-पहुँचते, शाम की धुंधिलका छानी शुरू हो गयी थी, अब समर समय के साथ भी था, अत: रुकने की जगह सब कुछ जल्दी जल्दी करना था | तमाम तरह के झंझावातों से पार पाते हुये, आखिरकार गौधूली की  बेला में हम इस गाँव में पहुंचे | बिल्कुल साधारण सा गाँव है, यूपी के तमाम दूसरे गाँवों की तरह ही, तरक्की से बिल्कुल अछूता, गाँव में अंदर की तरफ जाती कच्ची-पक्की सढ़क और दूर तक फैला मिटटी का मैदान | हाँ, गाँव के प्रवेश स्थान पर पत्थर का बना एक बड़ा सा गेट, इस गाँव की कुछ विलक्षणता की मुनादी सा करता प्रतीत होता है, मगर इतना समय नही निकाल पाये कि चंद पल रुक कर, इस गेट की फोटो उतार पाते, क्यूंकि जंग अब घड़ी की सुईओं के साथ भी थी, और इधर शाम अब अपना सुरमई रूप बदल, कालिमा की तरफ़ बड़ने को अग्रसर थी | अत: फोटो का मोह छोड़ सीधे इमाम साहब की खानकाह में सजदा करने पहुंचे | ऐसी रवायत है कि हजरत साबिर अली की दरगाह पर दस्तक देने से पहले इमाम साहब और शाह बाबा की दरगाह पर हाजिरी भरनी पडती है, और दोनों जगहें एक दूसरे से लगभग 2 किमी की दूरी पर हैं | पहले हमने यहीं इमाम साहब की दरगाह पर अपना सजदा किया और अपनी मन्नत का धागा बाँधा | बाहर सेहन में कितने ही धागे और अर्जियां लोग अपनी मनोकामनायों की पूर्ती हेतु बाँध गये थे |

ये है कलियर में इमाम साहब की दरगाह

ये है कलियर में इमाम साहब की दरगाह

अपनी अर्जियां इस प्रकार से लोग लगा जाते हैं,

अपनी अर्जियां इस प्रकार से लोग लगा जाते हैं,

हम भी अपनी फरियाद दर्ज़ करवाने पहुंचे इस दरगाह में

हम भी अपनी फरियाद दर्ज़ करवाने पहुंचे इस दरगाह में

इमाम साहब की मज़ार पर चादर चड़ा कर दुआ करते श्री त्यागी जी

इमाम साहब की मज़ार पर चादर चड़ा कर दुआ करते श्री त्यागी जी

कुछ नजरें इनायत और रहम की आस में हमने भी अपनी हाज़री भरी

कुछ नजरें इनायत और रहम की आस में हमने भी अपनी हाज़री भरी

“खुसरो सोई पीर है, जो जानत पर पीर!
जो पर पीर न जानई, सो काफ़िर-बेपीर!!”

कई दफा तो अपने देश के हालात देख कर लगता है कि धर्म ही सब बुराइयों की जढ़ है, पर ऐसी जगहों पर आम लोगों की इतनी अपार आस्था देख कर लगता है कि यदि ये भी उनके जीवन में ना हो तो इनका जीवन और भी दुरूह और दुश्वारियों से भारी हो जाये | इसी बहाने, कम से कम किसी अकीदे तथा चमत्कार की डोर से तो बंधे रहते हैं, और इस बात से भी कुछ संतोष प्राप्त कर लेते है कि हमने अपनी दुःख तकलीफें बाबा तक पहुंचा दी हैं, शायद अब तो कुछ हल निकल ही आयेगा | ऐसी आस्था और अपनी पुकार सुनी जाने का जज्बा ही उन्हें जीने के लिये जरूरी संबल प्रदान करता रहता है | वो, कहते हैं ना कि गम बाँटने से उसका एहसास कम हो जाता है, तो बस, फिर कोई दीन-दुखी और मज़लूम जब ऐसे किसी दर पर अपनी अर्जी लगा आता है तो उसके आने वाले दिन इस सुखद एहसास में कट जाते हैं कि अपने तईं वो जो कर सकता था कर दिया, अब तो डोर उसके हाथ में ही है | अपनी नियति का तो मनुष्य प्रतिकार नही कर सकता मगर उसे बदलने का हर संभव यत्न तो वो करता ही रहता है | धर्म और आस्था की आपनी सीमायें और समस्यायें तो हैं, मगर यदि इनके हाथों से इसका आलम्बन भी ले लिया जाये, तो निश्चित ही वर्तमान परिस्थितियो में आम जन का जीवन और भी ज्यादा दुरूह और दुष्कर हो जायेगा |

दरगाह काफी बड़ी और खुली जगह में बनी है, और हर धर्म के मानने वाले, यहाँ आपको दिख जाते हैं | दरगाह के परिसर में ही एक मदरसा भी चल रहा है | अब यहाँ से निवर्त हो हमने अपना रुख अगले और महत्वपूर्ण स्थल हजरत साबिर पाक की दरगाह की तरफ किया |

हजरत साबिर पाक का नाम सभी धर्मो के मानने वालों के दिलों में अपना एक ख़ास मुकाम रखता है | अजमेर के ख्वाजा की दरगाह के बाद, यह दूसरा ऐसा स्थान है, यहाँ सबसे ज्यादा दर्शनार्थी आते हैं | साबिर पाक, बाबा फरीद के भांजे भी थे और शागिर्द भी | वैसे तो उनके जलाल के बारे में अनेको-अनेक किस्से-कहानियाँ सुनाने वाले मिल जाते हैं, पर जो मैं आप से साँझा करना चाहता हूँ, वो उनका नाम साबिर पड़ने से सम्बंधित है | मैंने सुना है कि, बाबा फरीद की बहन हज़ जाने से पहले अपने बेटे को अपने भाई के पास छोड़ गयी | बाबा फरीद ने उस बच्चे को लंगर के इंतजामात में लगा दिया | बारह सालों के बाद, बहन जब हज से लौट कर आई तो देखा, उसका बेटा सूख कर काँटा हो चुका है, उसने इस बारे में बाबा से शिकायत की | बाबा ने उस बच्चे को बुलाकर पुछा,”तूने इन बारह सालों में खाना क्यूँ नही खाया?” उस बच्चे ने उत्तर दिया, “आपने मुझे लंगर की सेवा-सम्भाल का काम दिया था, खाने के लिये नही कहा था |” तो फिर इस पेट की भूख का क्या?  बस, जब भूख, हाल-बेहाल कर देती, तो समीप के जंगल में जा कर कुछ कंद-मूल ही पेट की जठराग्नि को शांत करने का जरिया बन जाते | बाबा फरीद ने उसे अपने अंग लगा कर कहा, तू तो बड़ा साबिर (सहन-शक्ति वाला) है और उसे तालीम देनी शुरू की तबसे उस का नाम साबिर ही हो गया | तालीम के बाद बाबा फरीद से विदा लेकर हजरत साबिर, हरिद्वार के समीप कलियर में आ गये और उनके नाम का जलवा दूर दूर तक फ़ैल गया, और उन्हें मानने वाले कलियर कहलाये जाने लगे | बाबा फरीद के एक और मुरीद हजरत निजामुद्दीन औलिया के नाम से मशहूर हुये और उनके मानने वाले आगे चलकर निजामी कहलाये |

साबिर पाक की दरगाह का जलवा, मैं नही जानता कि क्यूँ और कबसे, कुछ अदृश्य ताकतों और ऊपरी ह्वायों से पीड़ित बीमारों के लिये उम्मीद की आखरी किरण बन गया | भूत-प्रेत, जिन्न और जिन्नात अपना अस्तित्व रखते हैं या नही, सदियों से विज्ञान नकारता आया है, मगर जन मानस आज भी इन पर विश्वास करता है, क्यूंकि कुछ प्रश्नों पर विज्ञान भी मौन ही रहता है | और इस जगह, जहाँ तक आप की नजर जाती है, दूर-दूर तक ऐसे बीमार अपनी दिमागी कमजोरियों के चलते, रोते-बिलखते, या कुछ ऊट-पटाँग सी हरकतें करते नजर आते हैं | गरीबी, बिमारी और आधुनिक चिकित्सा प्रणाली से निराश लोगो का यहाँ डेरा लगा रहता है |

शाम का वो समाँ एक अजब सा मंजर बयाँ कर रहा था, दरगाह की जाली पकड़, लोग साबिर-साबिर करते चीख रहे थे, चिल्ला रहे थे और उनके विलाप और रूदन से माहौल में एक अजीब सी मुर्दनी सी छायी हुयी थी | समीप में ही नंगे फर्श पर ही बैठे, ऐसे मरीजों के परिवार वाले, बेबसी और लाचारी के भावों से अपनी कातर आँखों में केवल इतनी इल्तिजा लिये कि पीर साबिर का जलाल उनके दुःख दूर करेगा | इतना दुःख, इतनी तकलीफ और बेकसी के मारे लाचार चेहरे,, आप यहाँ कोई फोटो नही उतार सकते, कैमरा आपके पास होते हुये भी इतनी बेबस और बिलखती रूहों की बैचैनी और नम आँखों से अपने किसी अज़ीज़ को इस  हालत में देखते उनके परिजनों की व्यथित दशा, आपके हाथ जैसे जम जाते हैं, नही इस जगह और ऐसे हालातों की कोई फोटो नही ! बस, हज़रत साबिर पाक की मजार पर यही दुआ कर चले आये कि इन सब की बैचैन रूहों को करार दे, तसल्ली दे, शान्ति दे | साबिर पाक की दरगाह एक सूफी दरवेश की है, किसी दुनियावी बादशाह की नही, अत: आपको यहाँ कोई आलीशान भवन नही दिखेगा और ना ही बेहतरीन नक्काशी वाले झरोखे और मेहराब, कोई छतरी और मीनार भी नही, ये तो बस एक खुला हुआ ऐसा दर है, जिसमे रोजाना दीन-दुनिया से परेशान हजारों लोग, इस खानकाह में अपनी रूहानी शान्ति की तलाश में अपने आप या अपने परिवार वालों द्वारा लाये जाते हैं | इसलिये आपको यहाँ हर कदम पर सादगी और पाक़ीजगी का दीदार होता है |

हज़रत साबिर पाक की दरगाह के बाहर लगा बाज़ार

हज़रत साबिर पाक की दरगाह के बाहर लगा बाज़ार

इसी बाज़ार की एक दूकान के आगे, कुछ यहाँ का जायका चख लिया जाये

इसी बाज़ार की एक दूकान के आगे, कुछ यहाँ का जायका चख लिया जाये

यहाँ से बाहर आते ही आपको अपनी उस मंजिल की तरफ बढ़ना है, जिसके लिये आप घर की चौखट से बाहर निकले थे | वहीं से बात करके पता चला कि बारात रूड़की पहुँच चुकी है, इसलिये हम भी जल्दी से हजरत साबिर पाक की खानकाह को नमन कर वहाँ से निकले | नहर के साथ साथ घुप्प अँधेरी सडक पर लगभग 10-12 किमी का सफर, जो UP की क़ानून-व्यवस्था के मौजूदा हालातों के मद्देनजर निश्चित ही बेहद खतरनाक है, मगर ये गुणात्मक रूप से आपके काफी समय को बचा देता है | जिस मोड़ से हमे अब गंग नहर के साथ-साथ गुजरना था, वहीं मोड़ पर खड़े लडकों ने हमे आगाह किया इस रास्ते को लेने के लिये, लेकिन जब देखा हम जायेंगे तो इसी रास्ते से ही, तो उन भले मानुषों ने हमे सलाह दी कि भैया भले कोई हाथ दे या कैसे भी रुकने के लिये ईशारा करे, बस आप रुकना नही | उनकी बात गाँठ बाँध और आगे के लिये रास्ता समझ हमने उस राह पर अपनी कार बड़ा दी | सड़क छोटी है, और पूर्ण अंधकारमय भी, किसी आपदा की सूरत में आप किसी मदद की आशा नही कर सकते भले ही आपके सामने से कोई और गाड़ी भी गुजर रही हो, क्यूंकि जिस मनोस्थिति के प्रभाव में आप हो, सम्भवत: दूसरे व्यक्ति भी उसी मनोदशा में हों | मगर समय की किफ़ायत और मूलतय: अपने बचपन से ऐसे ही क्षेत्र देखते रहने की वजह से हमे इस पथ को चुनने में कोई संकोच नही हुआ | मगर रास्ता आराम से कटा और ऐसा कुछ खतरनाक नही लगा क्यूंकि उस समय लगभग साढ़े आठ का समय था और अभी कारें तो क्या बाइक सवार भी इस मार्ग का प्रयोग कर रहे थे | हाँ, कई जगहों पर सढ़क की हालत खस्ता थी, ऊपर से घटाटोप अन्धकार, कार की रौशनी में ही हमने सढ़क पर विचरती कई नील गाय और गीदढ़ तथा लोमड़ी को भी देखा, मगर इतनी हिम्मत नही जुटा पाये कि आराम से गाड़ी रोक कर उन्हें निहार सकें | बस, जब तक मुख्य सड़क यानी कि राष्ट्रीय राजमार्ग नही मिल गया, राम-राम और साबिर-साबिर भजते रहे !

रूढ़की पहुँचते-पहुँचते ही हमने रास्ते में ही दिनेश के सबसे बड़े भाई शिवचरण जी से बात करके, बारात के रुकने की जगह की जानकारी ले ली थी | बस, अगले 15-20 मिनट में हम उस जगह पर पहुँच गये जहाँ बारातियों के रुकने का इंतजाम था | और फिर, अगले आधे घंटे में अपने कपड़े-लत्ते बदल कर बारात का हिस्सा बन गये | बरसों बाद किसी ऐसी बारात का हिस्सा बनकर अच्छा लगा, जिसमे आज भी गायक बैंड के साथ चलते हुये लड़के और लड़की की आवाज बदल–बदल कर गाता है, अन्यथा NCR में तो इनकी जगह भांगड़ा पार्टियों ने ले ली है | क्यूंकि बारात गढ़वाल से थी तो स्वाभाविक है कि हिंदी और पंजाबी गानों के साथ-साथ कुछ गढ़वाली तड़का भी हो, सो “बबली तेरो मोबाइल…..” की धुन पर थिड़कते और लढ़खड़ाते बरातियों के साथ हम भी जब जनवासे में पहुंचे तो बरात के स्वागत सत्कार से निवृत होते ही हमने दिनेश को उसके जीवन के इस बेहद महत्वपूर्ण दिन के लिये अपनी शुभकामनाये दी और उसके सुखी और उज्जवल दाम्पत्य जीवन की मंगल कामनाये करते हुये समस्त बिष्ट परिवार से विदा ली |

और उसे कैसे भूल सकते हैं, जिसकी वजह से ये यात्रा हुई

और उसे कैसे भूल सकते हैं, जिसकी वजह से ये यात्रा हुई

हमारी शुभकामनाएं, दिनेश को जीवन के एक महत्वपूर्ण चरण में प्रवेश करने पर

हमारी शुभकामनाएं, दिनेश को जीवन के एक महत्वपूर्ण चरण में प्रवेश करने पर

अब एक बार फिर से रात की नीरवता को चीरते हुये हम सडक पर थे क्यूंकि रुड़की से शीघ्र अति शीघ्रतम हमे रात बिताने के लिये, पुरकाजी पहुँचना था और फिर वहाँ से पौ फटते ही गँगा किनारे बसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँवों में से सुबह की धुँध और कोहरे के साम्राज्य में से रास्ता बनाते हुये दिल्ली की तरफ़ गमन करना था…. इति

29 Comments

  • arun says:

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    • Avtar Singh says:

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  • AJAY SHARMA says:

    Dear Avtarji,
    It took me a long time to read your extensive marriage trip coupled with visiting the rural life and revered places. Long time, because I was too involved in the virtual tour with you. So well written, I believe you can author a series of books on travels. Making of Jaggery (Mithai) in a crude rural style with every minute mechanism is a WOW! I don’t think I could think of writing upon such subjects. The fear and dare driving on Gang-Nahar, Kawariyans road reminded me of similar journey on the route few years back, voluntarily chosen to enjoy the serenity alongwith the canal but never tried again because of obvious reasons. Narrow, bumpy and multiple road breakers soon vanished the thrill and we were left repenting our decision. However, today after reading your post, I bounced back to see the route again soon. Overall, a very matured writing with adequate photographs.

    Keep traveling
    Ajay

    • Avtar Singh says:

      Hi Ajay ji

      Thank you very much for all the encouraging words you bestowed on me. You are right that this road is especially laid for the kanwariyas. If one has an ample of time in one’s kitty and little adventures too, then this road provides excellent landscapes all along the whole stretch. On the one hand you have the canal and the another with dense forests of bamboos. Undoubtedly the area has a rich flora and fauna, but at the same time the quality and safety of one’s traveling is a big issue hereu, no denying!

      Watching the production of jeggry and getting the opportunity of tasting it on its raw stages is quite an experience really!

      I like spending some quality time in villages and small towns because what you loose out in your city life, it has the capacity to return it with enormous valour to you.

      Thanx for all your support!

  • Parmender says:

    Dear Pahwa Ji

    namaskar
    You have written a nice post with a great combination of Religious and rural touch. The words which you have picked to write this journey are really in a good compilation . Before a long back i also went there to Visit this great Place of Baba SABIR Sahib Piran kaliyar . You have written a new and different story for further awareness to all concerned Ghumakkars. Usually people likes to visit on popular places but a real Ghumakkar should discover the unexplored places also , like u.
    Thanks for nice experience and knowledge sharing.

    Parmender
    (Ghaziabad, UP )

    • Avtar Singh says:

      Thanx a lot Parminder ji.

      You are always been so nice through all your comments.

      There is one thing i like to know, why kliyar is famous for all the super natural and mental problems. I do hope, you will provide me the precise reason for that.

      Thanx again.

  • s.s.kushwaha says:

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    • Avtar Singh says:

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    • Avtar Singh says:

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  • Nirdesh Singh says:

    Hi Avtarji,

    Surprising and pleasant writeup about gur making – it brought back memories of both the gur making in our village and the taste of home made gur we used to have in the winter months. Team it up with freshly roasted shakar kandi and the old days are back.

    Had no idea about Hazrat Sabir Dargah. And that it attracts so many devotees. I have seen such petitions written on paper at Hazrat Nizamuddins chilla and Feroz Shah Kotla. I have visited his uncles Baba Farid chilla in the forests of Mehrauli.

    There is so much to know and to visit Thanks for the introduction and for sharing!

    • Avtar Singh says:

      Hi Nirdesh ji

      Preparation of gud at this time of early winter is at full swing in western UP, which is also.the sugar elt of northern India. Moreover the famous Gud Mundi of Hapur is near to it. I know, you already have familiar to all this nut it could be uuseful and informative for any other vivid reader of ‘Ghumakkar’.

      Sir, I too was unfamiliar to Kaliyar and.even Hazrat Sabir, untill I went to the place and saw the devotion in the hearts and eyes of the people. It is famous but why only for the illment of supernaturals, why? A mystry too me, still…
      But a must place to visit

      Thanx for reminding the divine tastes of roasted sweat potatoes in these chilly days.

      • Avtar Singh says:

        Sorry, Nirdesh ji, my net connection was disturbing me on laptop, so I wrote the reply on mobile. Now I am watching lots of spelling mistakes, which might be happened because of small size of keypad.
        I do hope, you will understand this genuine mistake and pardon me for this. Thanks.

  • SilentSoul says:

    A very different post. Very interesting read. Kuchh hat ke padne ko mila.

    preparation of jaggery is indeed very dirty and flies are all around. Once I happened to see this process and could not eat gur for long time.

    • Avtar Singh says:

      Hi SS Sir

      I know, during these days you are busy with family and celebrating Xmas with extensive traveling etc. But you extract some time for reading and posting your comment
      I must really appreciate your love and admiration for Ghumakkari, which is commandable.

      I agree, there

      • Avtar Singh says:

        Ops!

        Soory. net connection ditched me for completing the comment. Sir, you are right by saying that the people responsible for making gud etc. do not care for hygienes. In fact in our country normally we do avoid this factor, although it is related to our health.

        People spend lakhs of rupees on marriages and decorations, but if you see how the ‘halwaies’ preparing the food, probably you will not swallow it down easily.

        Anyway, SS sir, you spared some time from your busy schedule for reading and making your comment, I am really thankful for this.

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    • Avtar Singh says:

      Hi Kamlansh sir,

      Really thankful for your comment. It is indeed very true that initially it was just any other traveling, one has to do for fulfilling some social obligations, but by climbing it with the preparation of gud making and visiting Sabir Kaliyar’s dargah, its purpose and scope had widened. Thanx.

  • Dr.Rakesh Gandhi,Advocate says:

    Bha ji you proved that how a simple journey/travelling is special for everybody………beautiful defined.i would like to add when v travel in Punjab from Phagwara to Hoshiarpur n Dasuya to Jalandhar v use to find number of Kulhari’s on roadside making gur…..now it shows how important these r.Beside than it there is quoting in Punjab…..Farmer will not give u a piece of sugar cane but may hanover lot of gur in free.Thanks a lot Sir.

  • Avtar Singh says:

    Hi Dr. Ghandhi

    Yes sir, it was indeed an ordinary travel for a personal reason but adding some small stop overs with in it make this journey purposeful.

    Your experiences with the farmers of Punjab are quite appropriate. Basically all the small farmers of India are very generous and meet with an open heart with city people but they can not get the same from the other side.
    Thank you for commenting and wish you a very happy and new year.

  • Nandan Jha says:

    Dear Mr. Singh – I could read this only now. I was on road most of last two weeks.

    The Gang-Nahar was a brilliant drive when it came up initially. Though it was meant for Kanwariays, they decided to not take the offer so it came to our kitty. Over time the road has not been maintained well and now it is in pretty bad condition. The regular NH-58 has seen good times though and it is much better. I went to Lansdowne in Novmember and NH58 till ‘Cheetal Grand’ was pretty good.

    Your thoughts about religion echo with me, if not this then probably a lot of misery wont have any outlet of hope and miracle. All said, we all pray that more of us get to get a good meal and a roof over their heads.

    Wishing and your loved ones a great year ahead.

    • Avtar Singh says:

      Hi Nandan

      Thanx a lot for spending some moments on my post for reading it and posting your comment.

      I am under the impression that the road of Gang nehar is still used by the kanwariyas during the month of ‘Sawan’. Although in the peak days the administration open the whole NH58 for the kanwariyas and restrict the general traffic on this road. Thus kanwariyaas need not to take that route for their destination as they roam free on NH58 at their will.

      I must appreciate your thoughts on religion.

      I am sure you must have enjoyed your trip of December end, which we definitely going to read in the coming days.

      Wishing you and your loved ones a great year ahead :)

  • jaishree says:

    Avtar Ji

    This is much more and way beyond the ” Off beat places”. Liked that you wrote about it and wrote so beautifully.

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    • Avtar Singh says:

      Hi Sushant ji

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  • Shiv Sangal says:

    Mujhe aapka ye aalekh boht accha lga. Main wha se boht baar aa-jaa chuka hu pr aajtak iss nazar se nazaara nhi dekha. Aap mera blog bhi pdh skte h.

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