आमेर दुर्ग : चल खुसरो घर आपने….

  1. जयपुर पर्यटन के लिये जाना, और आमेर दुर्ग की यात्रा ना करना, कुछ असंभव सा है | जब से पर्यटकों की वरीयता सूची में राजस्थान का नाम शुमार हुया है, आमेर का यह अम्बर किला और इसके आसपास का क्षेत्र और समीपस्थ स्थित कुछ अन्य किले और दुर्ग ना सिर्फ जयपुर अपितु पूरे राजस्थान की शान बनकर उभरें हैं | यहाँ यह भी जानना दिलचस्प होगा कि कभी राजस्थान की राजधानी जयपुर न होकर आमेर ही थी, परन्तु पानी की कमी और बढ़ती जनसंख्या के दबाव के कारण जयपुर का निर्माण किया गया | और फिर, देखते ही देखते जिस जयपुर को आमेर के एक कस्बे के रूप में विकसित किया गया था, वही आमेर, कालान्तर में केवल 300 साल पुराने जयपुर का ही एक कस्बा भर बन कर रह गया | आमेर, जिसका अपना इतिहास ही लगभग 1100 वर्ष पुराना है, अपनी हवेलियों, बुर्जों, जलाशयों, मंदिरों, बावड़ियों, छतरियों और मेहराबों के लिये जाना जाता है | आमेर में ही स्थित अम्बर फोर्ट, अपनी निर्माण कला और वास्तुकारी के कारण देश-विदेश के पर्यटकों में अत्यंत लोकप्रिय है | जयपुर से करीब 11 किमी दूर और जयपुर-दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित, राजा मान सिंह द्वारा निर्मित यह किला सन 1592 में बन कर तैयार हुया | यूँ तो राजस्थान अपने अनेक किलों के लिए मशहूर है, पर आमेर का यह किला उन सभी मे से, अपनी विशालता, भव्यता, बेहतरीन नक्काशीकारी और वास्तुकला के कारण अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है | लाल रंग के सैंडस्टोन पत्थरों और संगमरमर के प्रयोग से, अरावली की एक ऊंची पहाड़ी पर, मोठ झील के करीब बना ये किला और इसके चारो तरफ का लैंडस्केप इसे अपने आप में ही अनुपम सौन्दर्य बोध देता है | इसे एक पर्यटक के रूप में देखते हुये निश्चित रूप से आपको इसके अप्रितम सौन्दर्य बोध का सुखद एहसास होता है |
आमेर फोर्ट का मुख्य प्रवेशद्वार

आमेर फोर्ट का मुख्य प्रवेशद्वार

बेहतरीन नक्काशी से सुसज्जित किले के विशाल झरोखे

बेहतरीन नक्काशी से सुसज्जित किले के विशाल झरोखे

आमेर का यह किला कब अम्बर किला या अम्बर फोर्ट के नाम से जाने जाना लगा, इसके बारे में कोई पुख्ता जानकारी उपलब्ध नही है, पर इस सफ़र के हमारे गाईड के अनुसार, आमेर सम्भवत: एक मारवाड़ी भाषा का शब्द है, जबकि अम्बर नाम इसे एक पारम्परिक राजस्थानी पहचान देता है, अत: शायद पर्यटकों में अधिक लोकप्रियता की आशा से इसका नाम अम्बर फोर्ट हो गया | आमेर के इस दुर्ग के चारो तरफ, इसकी सुरक्षा के लिये सुदूर पहाड़ियों में जो बुर्ज स्थापित हैं, और उन तक पहुँचने के लिये जो रास्ता है, सीढ़ी नुमा, आपको याद दिलाता है कि शायद चीन की बनी दीवाल भी कुछ इसी प्रकार की रही होगी | और, दोनों को ही बनाने में लगने वाला श्रम, जो असाध्य को भी साध्य कर दिखाता है, श्रमिकों की मेहनत और इसे बनवाने वाले राजायों की अपनी सुरक्षा के प्रति चिंता को बताता है | वाकई, जब हम इन दुर्गों और इन बुर्जों के बारे में जानने की चेष्टा करते हैं तो इतिहास हमे केवल उन्हें बनवाने वाले राजायों के बारे में ही बताता है,परन्तु, इन्हें बनाने में कितने कारीगरों ने अपना खून, पसीना बना कर बहा दिया, उस पर आश्चर्यजनक रूप से चुप्पी साध लेता है |

किले के चारो तरफ फैली पहाड़ियां, चौकसी बुर्ज और उन तक जाती सीडियां copy

किले के चारो तरफ फैली पहाड़ियां, चौकसी बुर्ज और उन तक जाती सीडियां copy

किले से दिखती आस-पास की पहाड़ियां

किले से दिखती आस-पास की पहाड़ियां

कहते हैं, 1726 में आमेर पर हमले की स्थिति में, अपने और अपने परिवार की सुरक्षा के लिहाज से, राजा जय सिंह ने अरावली की पहाड़ी पर ही एक और किला जयगढ़ बनवाया और उस तक पहुँचने के लिये, आमेर के इस किले से एक गोपनीय रास्ते का निर्माण भी करवाया, जिसे संकट काल के समय प्रयोग किया जा सके, मगर पर्यटकों के लिये इसका प्रयोग वर्जित है | बहरहाल, आमेर का यह दुर्ग विशाल है, और इस पर हिन्दू और मुगल आर्किटेक्चर की स्पष्ट छाप स्वत: ही दृष्टिगोचर होती है | विदेशी और देशी सैलानी, यदि चाहें तो उनके लिए इस दुर्ग तक पहुँचने के लिए, हाथी और ऊँट की सवारी का भी इंतजाम है, और अक्सर ही आपको, इस दुर्ग की तरफ जाते रास्ते पर कुछ विदेशी पर्यटक इसका लुत्फ़ उठाते भी नज़र आ जायेंगे, लेकिन यदि आप अपनी ही गाड़ी से जा रहें हैं तो इस के प्रवेश द्वार तक गाड़ी जा सकती है, और फिर पहाड़ी पर ही पार्किंग है, दुर्ग के विशालकाय गेट से प्रवेश करते ही, आपको टिकट लेनी होगी, यहीं आपको गाइड भी मिल जाते हैं, जो लगभग 200 रुपैये में आपके साथ दो-तीन घंटे रहकर आपको उन सभी महत्वपूर्ण जगहों को दिखा सकते है जो सम्भवतः आप से छूट सकती हैं, और यदि ना भी छूटें, तो शायद उस स्थान का इतिहास और उस दौर में उसकी उपयोगिता, की जानकारी तो स्थानीय गाइड, बेहतर ढंग से उपलब्ध करवा ही देता है |

मुख्य प्रवेश द्वार से अंदर जाते ही एक विशाल, खुला स्थान है, जिसे पार कर आपको मुख्य दुर्ग में प्रवेश करना होता है, मुख्य ईमारत के विशाल प्रवेश द्वारों पर की गयी नक्काशी बेहद सुंदर है, और उस दौर की विकसित चित्रकला का भली भान्ति व्याख्यान करती है | चुनांचे, राजस्थान, एक गर्म और रेतीला प्रदेश है, और आज की तरह उस दौर में ना तो बिजली थी और ना ही वायु को अनुकूलित करने वाले यंत्र(AC), अत: गर्म रेतीली ह्वायों और लू के थपेड़ो से बचाव के लिये इन भवनों में पुख्ता उपाय किये जाते थे, जिनका अवलोकन आप यहाँ भी कर सकते हैं | छतें विशालकाय है, मोटी-मोटी दीवालें जो मौसम की मार से बचाने के अलावा, कभी आक्रमण होने की स्थिति में दुश्मन सेना द्वारा, तोप द्वारा चलाये गोलों से बचाव का उपाय भी करती थी | सरिये की मदद से आजकल जिस तरह RCC वाली छतें डाली जाती हैं, वह तकनीक उस दौर में नामालूम होने की वजह से मेहराब(arch) बनाये जाते थे, और इस दुर्ग में आपको बहुत से ऐसे ऐसे विशाल और सुंदर कलाकारी और नक्काशी से सुसज्जित मेहराब दिखते है, जो वाकई में राजस्थान के कलाकारों को एक अलग मुकाम पर पहुंचाते हैं | खम्बों, दीवालों और मेहराबों की मदद से, पत्थरों की छोटी-छोटी टुकड़ियों से टिकी विशाल छतें, आज भी सर उठा कर उस दौर की उन्नत वास्तु कला की गवाही भरती हैं |

किले के भीतर,

किले के भीतर,

किले में सेना के लिये बनी वो पटरी, जिसका प्रयोग 'जोधा-अकबर' में हो चूका है

किले में सेना के लिये बनी वो पटरी, जिसका प्रयोग ‘जोधा-अकबर’ में हो चूका है

यदि रेत के तूफ़ान आपका जीना मुश्किल करते हैं तो, इस दुर्ग के चारो तरफ फैली पहाड़ियां और उन पर कुछ-कुछ छितरी हुयी हरियाली भी है, और फिर ऐसे ही प्राकृतिक संसाधनों से छन कर यदि तन को ठंडक देने वाली निर्मल हवा आती है, तो उस से कोई राजा भला अपनी रानियों को कैसे महरूम कर सकता था, अत: उनके लिये दीवालों में जगह-जगह जालीदार झरोखे बनाये गये है, जिनके सामने खड़े होकर वो ना केवल शांत और शीतल हवा का आनंद ले सकती थी, अपितु वहीं से वो इस दुर्ग के बाहर फैली दुनिया को भी देख सकती थी | ये झरोखे ही शायद, उनके लिये बाहरी दुनिया से सँवाद का एकमात्र पर्याय भी होते होंगे, क्यूंकि उत्तर भारत के सामन्तवादी और रूढ़ीवादी समाज में उनके लिये इससे ज्यादा स्वतन्त्रता की अपेक्षा करना बेमानी था | इन्ही झरोखों से आप इस बागीचे को भी देख सकते हैं, जिसे मुगल गार्डन तथा केसर क्यारी के नाम से जाना जाता है, और जब यह  बरसात के मौसम में, पूरी तरह से हरा-भरा होता होगा तो इस जलाशय में तैरते हुये किसी गलीचे का एहसास करवाता होगा | इसके समीप में बनी पटरी का फिल्मांकन जोधा अकबर में हो चुका है |

झरोखे से महल का बाहरी दृश्य

झरोखे से महल का बाहरी दृश्य

केसर बगीचा, जो मानसून में पानी में तैरते गलीचे का भ्रम देता है

केसर बगीचा, जो मानसून में पानी में तैरते गलीचे का भ्रम देता है

इसी दुर्ग के भीतर, सुहाग मन्दिर है, जहाँ रानियाँ, राजा को युद्ध में जाते समय, अथवा वापिस लौट कर आते समय, उसकी आरती उतार कर स्वागत करतीं थी, और उनकी विजय की कामना करती थी | दुर्ग में घुमते हुये आपको कई जगहों पर छतरियां और बावड़ियाँ भी दिख जाती हैं, जो निश्चित तौर पर इसकी भव्यता को और अधिक बढ़ाती हैं, वैसे यह पूरा दुर्ग वास्तु के हिसाब से बनाया गया है, और इसी वजह से इसका मुख्य प्रवेश द्वार पूरब दिशा की तरफ है | इस महल के भीतर प्रवेश करते ही, दायीं तरफ शिला देवी मन्दिर है, जिसमें स्थापित देवी को इस राजघराने की कुल देवी माना जाता है | कहते हैं, कुछ समय पहले तक इसी मन्दिर से बकरों की बली देने के साथ ही नवरात्रों की शुरुआत होती थी | इसके आलावा, दीवाने-आम और दीवाने-ख़ास, कभी राजा की कचहरी और दरबारियों से मन्त्रणा के केंद्र रहे होंगे |

इसी दुर्ग में यह, वह स्थान है, यहाँ राजा के लिए, गीत, संगीत और नृत्य की महफ़िल सजती थी, इसी से आगे चलते हुये आपको शीश महल दिखेगा, जो वास्तव में ही अनुपम है, हमारे गाइड ने बताया कि राजा ने इसके लिये बेल्ल्जियम से कांच और कारीगर मँगवाए, जिससे इस अदभुत भवन का निर्माण हुआ | कहते हैं, यदि रात के समय इस हाल में केवल एक मोमबत्ती जला दी जाये, तो उसका प्रितिबिम्ब इस अनगिनत कांच के टुकड़ों से परावर्तित हो कर इस हाल को अदभुत रूप से जगमगा देता था | मगर आज आप इसकी सिर्फ कल्पना भर ही कर सकते हैं क्यूंकि शाम के बाद इस किले को आम जनता के लिये बंद कर दिया जाता है | हिंदी सिनेमा की कालजयी फ़िल्म मुगले आज़म का वह गीत तो आपने देखा ही होगा, “जब प्यार किया तो डरना क्या….”, कहते हैं, इस गीत के फिल्मांकन में शीशों के प्रयोग का विचार, इसके निर्माता, आसिफ साहब को यहीं से मिला था और फिर इसी महल की तर्ज़ पर बंबई में ऐसा ही एक सेट बनवा कर ये गीत फिल्माया गया, जो इस अदभुत प्रयोग की वजह से आज भी अविस्मरणीय है, गाइड का फायदा आपको तब समझ में आता है वह आपको शीश महल में एक ऐसे स्थान पर खड़ा करता है, कि वहाँ से आपका प्रितिबिम्ब परिवर्तित होकर दीवाल पर लगे एक खास आईने में दीखता है और फिर कैमरे की मदद से खींचा गया वो चित्र एक फोटो फ्रेम में जड़ा नज़र आता है जिस पर फ्लेश का भी कोई प्रभाव नही होता, ये उस दौर की वास्तु कला का एक बेझोड़ नमूना है |

आमेर दुर्ग में बने महल में बने कक्ष

आमेर दुर्ग में बने महल में बने कक्ष

काँच के टुकड़ों से बनी शीश महल की छत और दीवालें

काँच के टुकड़ों से बनी शीश महल की छत और दीवालें

राजा के मनोरंजन के हेतु, नृत्य-संगीत के लिये बना रंग महल

राजा के मनोरंजन के हेतु, नृत्य-संगीत के लिये बना रंग महल

सुहाग मन्दिर के समीप, एक फ़ोटो सपरिवार, मय गाइड महोदय के साथ

सुहाग मन्दिर के समीप, एक फ़ोटो सपरिवार, मय गाइड महोदय के साथ

शीश महल में खींची गयी एक तस्वीर, ब्लर इसे हमने स्वयम किया है

शीश महल में खींची गयी एक तस्वीर, ब्लर इसे हमने स्वयम किया है

यदि आपने, मुगले आजम अथवा अकबर जोधा जैसी फिल्मे देखी हों तो ये जरूर महसूस किया होगा कि उस दौर में रानियों को कितना हार-श्रृंगार अपने जिस्म पर करना पड़ता था, वो भारी भरकम परिधान और ऊपर से कई किलो तक वजनी गहने, हो सकता है, आज की औरतें ये देख कुछ ईर्ष्यालु भी हो जाती हों, मगर यकीन मानिये, अपने शरीर पर इतने अतिरिक्त वजन को लाद कर रखना असाध्य कार्य ही होता था, और इसकी गवाह यह कुर्सी है, जिसमे रानी को बैठा कर लाया जाता था, क्यूंकि इतने भारी-भरकम श्रृंगार के बाद स्वयम चल पाना, उन नाजुक शरीर रानियों के लिए सर्वथा असम्भव था |

रानियों की पालकी, जिसमे उन्हें बैठा कर लाया जाता था

रानियों की पालकी, जिसमे उन्हें बैठा कर लाया जाता था

राजा लोग तो अपना अधिकाँश समय युद्धों में और यदि युद्ध ना हो तो शिकार में ही व्यतीत कर देते थे, और फिर उनके मनोरंजन के लिये अन्य कई प्रकार के दूसरे साधन भी मौजूद होते थे, पर रानियों का क्या? तो उनके लिए महल के इस हिस्से में यह खास व्यवस्था की गयी थी कि बरसात के मौसम में छत का पानी पाईपों से गुजरकर, रानियों के कमरों से बाहर बहती नालियों से होता हुआ कुछ इस प्रकार से गुजरता था की जब रानी छत की हुक से अटके, झूले पर झूलती थी तो उसके पाँव इस नाली में बहते पानी को छूकर गुजरते थे, और सम्भवतः ही इस गर्म रेगिस्तानी प्रदेश में ऐसी सुविधा, उन्हें राजा के प्रति कृतज्ञता और स्निग्धता के भाव से भर देती होगी, क्यूंकि गाइड के मुख से ये वर्णन सुनते ही आस-पास खड़ी औरतों के मुख से निकले इसकी ही चुगली करते थे, Wow!!! Great innovation !!!

उस दौर में जब राजायों के लिये शादियों का अर्थ केवल पारिवारिक अथवा भावनात्मक जुड़ाव नही होता था, और राजा के लिये शादी केवल अपना राज्य बचाने के लिये एक संधि भर तथा अपनी हैसियत जाहिर करने का एक जरिया भर होती थी या फिर कभी अपनी सत्ता का ऐसा दुरुपयोग, जिसके लिये, किसी भी ऐसी लडकी को जबरदस्ती रानी बना राजा के हरम में पहुंचा दिया जाता था, जो राजा के मन को भा जाये, तो ऐसे में एक राजा और उसकी अनेक रानियों के परस्पर सम्बन्ध कैसे होते होंगे, इसका प्रत्यक्ष स्वरूप आप इसी दुर्ग के उस भाग में, जिसे सुख निवास के नाम से जाना जाता हैं, में देख सकते हो, जहाँ राजा और रानियों के कमरे बने हैं

अपने गाइड को धन्यवाद देते हुये, और निहायत ही तंग सीढ़ियों को पार कर, जिसे अधिकतर पर्यटक अनजाने में नजरअंदाज ही कर जाते हैं, हम इस आमेर के किले के उस भाग में पहुंचे यहाँ राजा और रानियों के शयनकक्ष बने हुये हैं | गर्मियों के मौसम में कमरों को ठंडा रखने के लिये, यहाँ पानी को नालियों और पाइपों के द्वारा गुजारा जाता था जिस से कमरों में ठंडक रह सकें, शायद ऐसे ही कुछ मौलिक प्रयोग कालान्तर में कूलर के निर्माण के प्रेरक रहे होंगे ! राजा और रानियों के रहने की व्यवस्था आपको उस दौर के राजशाही समाज में प्रचलित पितृसत्ता, और सामन्तवादी सोच,और स्त्रियों की दयनीय अवस्था का एहसास ही करवायेगी, भले ही वो कोई साधारण स्त्री हो अथवा कोई रानी !, ( इस टिप्पणी के लिये श्री निरदेश सिंह जी से क्षमा याचना सहित!), अपने सुनहरी अतीत में राजा का शयनकक्ष, सबसे एकांत में और सबसे भव्य अवश्य ही रहा होगा, हालांकि अब तो केवल दरो दीवारें ही अवशेष के रूप में हैं, जिन पर कबूतरों और चमगादड़ों ने अपने रैन-बसेरे बसा लिये हैं, छोटे कक्ष रानियों के लिये हैं, और प्रत्येक रानी के कक्ष का सीधा सम्बन्ध एक ऐसे रास्ते से जुड़ा हुया है, जिसका एक सिरा राजा के कक्ष से जुड़ता है, और इस रास्ते का उपयोग केवल राजा ही कर सकता था | राजा, किस रात को, किस रानी के साथ गुजारना चाहता है, इसके लिये वो उस रास्ते का उपयोग कर सीधा उस रानी के कक्ष में पहुँच जाता था और बाकी किसी रानी को कानो-कान खबर भी नही होती थी ! हाँ, मगर प्रत्येक रानी के लिये यह निहायत ही जरूरी था कि वो पूरे हार-श्रृंगार के साथ तैयार हो राजा का इंतज़ार करती रहें, पता नही किस रात राजा की कृपा दृष्टि उन पर भी पड़ जाये |

यहीं आपको उस दौर के शाही गुसलखाने भी दिख जाते हैं, जो शायद, जब आबाद रहे होंगे तो जाने कितनो की जुगुप्सा और आकर्षण का केंद्र होते होंगे, रानियों और राजकुमारियों के हार-श्रृंगार और उन के स्नान कक्षों से जुड़े तमाम किस्से, आज भी दुनिया भर में, बहुत चटखारे ले कर पड़े और सुने जाते हैं, मगर आज, आमेर में ये उजाड़ पड़े हैं और आराम से कुछ भी खाते-पीते आप वहाँ विचरण कर सकते है और जैसे चाहे, उस अवस्था में, इन स्थानों का फोटो भी खींच सकते हैं |

अब यहाँ से निकल यदि आप इस महल के निचले तल पर आयें तो राजा और उसकी रानियों के विचार विमर्श करने के लिये ये छतरी बनी हुयी है, जिसमे राजा के चारो तरफ बैठने वाली रानियों का स्थान नियत होता था, जिसे बारादरी कहते हैं | बारादरी, नाम सम्भवत: राजा की बारह रानियों की संख्या को निरुपित करता होगा | इसी के बगल में कुछ और ऐसे ढरबे नुमा कमरे से बने हुये हैं, जिनमे दासियाँ रहती होंगी अथवा राज महल के अन्य सेवक और परिचारिकाएँ !

महल के प्रांगण में बनी बारादरी

महल के प्रांगण में बनी बारादरी

राजस्थान पर्यटन विभाग की तरफ से यहाँ आपको सपेरे, शहनाई वादक और सारंगी वादक बजाने वाले, कई लोक कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते भी मिल जायेंगे, हालांकि पहली नज़र में आपको ऐसा लग सकता है, कि यह सब पर्यटकों के मनोरंजन और उन्हें आकर्षित करने के लिये है, और इस से राजस्थान की संस्कृति झलकती है, लेकिन यदि आप जरा गौर से सोचें तो आपको इसके पीछे की सोच और मानसिकता पर हैरानी ही होगी | मेरी अपनी समझ से, इस सबका कुल मनोरथ यहाँ आने वाले उन यूरोपियन पर्यटकों के दिलों में बसी हिन्दुस्तान की उस छवि को पुख्ता भर करने से ज्यादा और कुछ नही है, जिसके वशीभूत वो आज भी हिन्दुस्तान को सपेरों, जादूगरों और मदारियों का देश ही समझते हैं, उनकी इन मान्यतायों और पूर्वाग्रहों को सच साबित करने के लिये ही, ऐसे कलाकार यहाँ बैठाये जाते हैं, जिनके साथ आप फोटो खिचँवा कर जब वापिस अपने देश पहुँचते हैं तो वहाँ के समाज को ऐसे चित्र दिखा कर साबित कर सकते हैं कि वास्तव में ही भारत आज भी उस दौर में ही है, जैसा कभी हमारे पूर्वज छोड़ कर आये थे ! इन सबके अलावा, इस दुर्ग में ही अलग-अलग दिशायों में खुलने वाले प्रवेश द्वारों में से त्रिपोलिया दरवाज़ा सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है, क्यूंकि यहाँ से तीन जगहों के लिये रास्ता निकलता है, जिनमे से एक रास्ता आमेर शहर की तरफ भी है |

आमेर दुर्ग में पर्यटन विभाग द्वारा बैठाये गये परम्परागत भारतीय पहचान के प्रतीक

आमेर दुर्ग में पर्यटन विभाग द्वारा बैठाये गये परम्परागत भारतीय पहचान के प्रतीक

सारंगी वादक के साथ

सारंगी वादक के साथ

कभी इस महल के भीतर रहने वाले लोगों के लिये, उनकी दैन-दिनी आवश्यकतायों की पूर्ती हेतु, इसी दुर्ग के भीतर ही छोटा-मोटा सा बाजार भी लगता होगा, जिसका प्रतिरूप आप इस फ़ोटो में प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं | इस बाज़ार को आज मीना बाज़ार का नाम दिया गया है, और इसमें बिकने वाली वस्तुयों में हस्तशिल्प की वस्तुओं के आलावा, रंग-बिरंगे पत्थरों तथा मोतियों से बनी उन चीज़ों की बहुतायत है, जिनके लिये, वाकई राजस्थान अपना एक अलग स्थान रखता है, और स्त्री वर्ग में उनकी भारी मांग है | समीप ही एक रेस्टोरेन्ट भी है, और यदि इतना घूम फिर कर आप थक गयें हों तो कुछ पल यहाँ रुक कर विश्राम कर खा-पी भी सकते हैं |

महिला वर्ग के लिये आमेर दुर्ग का सबसे आकर्षित स्थल, मीना बाज़ार

महिला वर्ग के लिये आमेर दुर्ग का सबसे आकर्षित स्थल, मीना बाज़ार

आमेर के इस किले के समीप ही बसा हुआ आमेर का वो शहर है, जो आपको वास्तविक और पारम्परिक राजस्थान को समझने में सम्भवता इस किले से अधिक मददगार हो सकता है, क्यूंकि ये आपको आम राजस्थानी समाज से जोड़ता है, और आपको ये समझा सकता है कि राजायों और रजवाड़ों के उस दौर में आम जन किस प्रकार से अपना जीवन व्यतीत करता होगा | उसके घर, उसकी हवेलियाँ, उसका रहन सहन, खान-पान, पूजा के स्थान तथा बाज़ार इत्यादि आपकी जानकारी में आश्चर्यजनक रूप से काफी वृद्धि कर सकते है | और कहते हैं कि आमेर को घूमना अपने आप में एक अनूठा अनुभव है, परन्तु समयाभाव के कारण हमे इस दफ़ा तो इसके भ्रमण का मौका नही मिल पाया, लेकिन इस आशा के साथ कि कभी निकट भविष्य में इस क्षेत्र की कोई ऐसी यात्रा करेंगे, जो आपको राजघरानो के पारिवारिक, वर्तमान और इतिहास में ना ले जाकर, आम जन के करीब ले जाये और आप उन के माध्यम से किसी शहर को जाने, हम यहाँ से निकलते है | कुल मिलाकर, आमेर का यह किला आपको निराश नही करता और निश्चित ही राजस्थान वासी अपनी इस धरोहर पर गर्व कर सकते हैं |

किले की छत से बाहर के शहर का एक दृश्य

किले की छत से बाहर के शहर का एक दृश्य

जयपुर की तरफ वापिसी के रास्ते में ही जल महल भी आता है, लेकिन, हवा महल की ही तरह से यह भी पर्यटकों को उतना प्रभावित नही कर पाता, कम से कम हमने तो कुछ ऐसा ही महसूस किया, क्यूंकि हम जितना समय यहाँ रुके, हमने अपने आलावा और किसी पर्यटक (देशी/विदेशी/स्थानीय) को इस खूबसूरत महल को देखते नही देखा | इसकी तरफ, पर्यटकों का ऐसा उपेक्षा पूर्ण रवैया, शायद स्थानीय लोग ही बेहतर बता सकें | हालाँकि, निश्चित तौर पर मानसरोवर झील में बना ये महल और उसके आस पास का स्थान दिलक़श है | बीच झील में पानी में डूबा ये महल आपको सहसा ही डल झील में तैरते किसी शिकारे की याद दिला देता है | इसका निचला तल तो पूर्ण रूप से इस झील में डूबा हुया है और यहाँ तक पहुँचने के लिये आपको क़िश्ती पर बैठ कर जाना पड़ता है | मगर, उस समय हमें ऐसी कोई व्यवस्था भी नज़र नही आई और सड़क किनारे से ही इसका अवलोकन कर हमने संतोष महसूस कर लिया |

जलमहल, अद्दभुत, मगर उपेक्षित

जलमहल, अद्दभुत, मगर उपेक्षित

पानी में डूबा इसका एक बुर्ज

पानी में डूबा इसका एक बुर्ज

दोपहर ढल चुकी है, और आज शाम की ही अज़मेर शताब्दी से हमारी वापिसी नियत है, विदा के समय, मन में जो भावनाएं उमड़ती हैं, उनका सारांश, अमीर खुसरो ने कुछ इस प्रकार से किया है –

“गोरी सोये सेज पे, मुख पर डारे केस |

चल खुसरो घर आपणे, सांझ भई चहुँ देस ||”

अंततः यही निश्चित होता है कि अब शहर की तरफ ही प्रस्थान किया जाये, जो कुछ खाना-पीना और खरीदारी का काम है, वहीं करते हुये, अपने अज़ीज, सोमेश को स्टेशन पर ही उसकी कार भी सपुर्द कर दी जाये |

इस आलेख के साथ ही मैं अपनी राजस्थान की इस यात्रा को यहीं पर रोक अपनी कलम को विराम देना चाहूँगा और उन सब का तहेदिल से शुक्रिया, जिनका स्नेह और आशीर्वाद इन आलेखों पर मिलता रहा, और बहुत ही जल्द आपके साथ किसी और जगह की यादें लेकर हाज़िर होता हूँ….. धन्यवाद!!!

44 Comments

  • Mahesh Semwal says:

    Beautifully narrated !

    Thanks for refreshing our memories.

    • Avtar Singh says:

      Thanx Mahesh Ji

      For all the appreciation you bestowed on my posts. really thanx for this.

      Although I am anxiously awaiting your post, for which you did make promise at fb.

  • s.s.kushwaha says:

    Dear Sir
    If you give me detail of fare and how we can save Money By Travelling as far as your photograph is good ,beautifully narrated

    • Avtar Singh says:

      Dear s.s.Kushwaha ji

      The charges of Double Decker, which we took from Gurgaon is around Rs. 400/- per person, and for Azmer shatabdi, you can add their catering charges also.

      For this I like you to visit the site of Indian Railway for up-to-date information, for the choice of train you like to take.

      As for as budget travelling is concerned, it is totally up to you, as no one can guide you, what to eat, shop or where to stay.

      hope this will help you… Gud luck for travelling and thanx for commenting…..

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    • Avtar Singh says:

      Hi Kamlansh ji

      Many thanx for your comment.

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  • AJAY SHARMA says:

    Avtar ji,
    After performing the most important duty of casting vote today, I stuck to your intoxicating narration about Jaipur, Pushkar & Ajmer. Hats off man! What a style. Its great to see your intricacies more than the sculpted ones in the forts. Wow! what to say about the captions on the photos. Great learning, I wish I could reach little closer to your excellent skill of narrating. Copying you Sir! keep awaited to see a copy cat narration style in my future logs. Hope you wont mind Master!

    Regards
    Ajay

    • Avtar Singh says:

      Hi Ajay ji

      First of all to congratulate for casting your vote. By doing this, you proved your trust in the democracy, which is still the best way to govern in spite of its many flaws.

      Now, come to the business…. thank you very much Ajay ji, for all your nice words.
      These gestures really matters for a writer to inspire himself for writing more.

      Your travel log on Kumaon is selected as the featured story for the month, in spite of that if you praise some one else, then it shows your humbleness.

      Thanx and keep travelling….

  • SilentSoul says:

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    • Avtar Singh says:

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      Thanx for all the ??????-????? !

      • Avtar Singh says:

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      • SilentSoul says:

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        @ Nandan – Yes this post has got many comments… … Why ???

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        • Avtar Singh says:

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  • Ram Dhall says:

    Avtar Singh ji,

    Only last night Nandan and I were talkng about your poetic touch in your writings. The very title of your post talks a volumes about your proficiency in poetry.

    The post is a class in itself, besides being extremely informative. Some of the pictures are simply scintlallating.

    Would look forward to your next write up.

    • Avtar Singh says:

      Oh My God…

      Nandan Jha and Ram Dhall were talking on my writing….. unbelievable

      Ram sir is writing himself for me ! another Amazing surprise …

      Oh Heaven… whats next in your store!!!

      Ram Sir, at first I read your post on Sikkim and at once became your follower for the sake of learning the art about, how to narrate a travel log. Such was theimpact of magic spell of your writing! Later, your interview with Archana, provided precious information about you as a human being.

      And now getting appreciation from you… No words to explain… can only say… thank you, sir!!!

  • Nandan Jha says:

    Thank you Mr. Singh for helping us better understand the difference between Amer and Amber. I must have been to Jaipur many many times and would have visited Amer-Fort few times and every time I would wonder on why people called it ‘Amer’ where-as it is written as Amber everywhere.

    The ‘Sheesh Mahal’ has gone for some big time restoration and the sacrifice has been stopped, probably 20 years back. You have detailed it out beautifully. Closer to the fort, there is a also a shop-cum-exhibtion centre where they show you the art of block-printing. One can also avail an elephant-ride to climb up the rocky-path to fort entrance.

    All in all, a great log. It is also very heartening to see a sea of comments, which we have been missing for last few weeks. :-)

    • Avtar Singh says:

      Hi Nandan

      Thanx for finding time on an election day to post your comment.

      Yes, you are right about the block printing. That place is not just a shop, in fact it is a big show room run by a co-operative society and one can find each and every thing for which Rajasthan is famous for. Rates are fixed and competitive, but quality is a big issue.

      We went there, spent a few thousand bucks and were happy for avoiding all the hue and cry over prices in the open market but back home, after using the things, we realized our mistake.

      After all, a market is a market, nothing can their place!
      Thanx for all the nice words…

  • Very Nice and detailed and beautiful pictures. I have never visited Jaipur, but can see it from your post. Thanks.

    • Avtar Singh says:

      Hi Upanshu ji

      First of all, please accept my heart full greetings for becoming the featured author for December. It will be an opportunity for me to know about you.

      I wish, when ever you get enough time, visit Jaipur. Rajasthaan itself is a tourist friendly state and Jaipur is not an exception.

  • Rakesh Bawa says:

    Avatar Ji very nice and informative post typically in Avataresque style.

    • Avtar Singh says:

      Hi Rakesh Bawa ji

      You coined a new word… Avataresque ! Amazing blend indeed!!!

      Why shouldn’t it be patented….. LOL

      Thanx

  • AUROJIT says:

    Hi Avtarji,

    the description is so elaborate and touching as well; Jaipur redefined for me despite of many previous visits.

    Jal Mahal – suppose that is how our tourism industry is, one needs to work on the imagination more than the real stuff …..-)

    Great stuff.

    Auro.

    • Avtar Singh says:

      Hi Aurojit

      Its really great to find you on my post after a long time.

      Thank you for your kind words. I do echo your concerns over our mismanagement and unprofessional marketing approach. Thanx again.

  • AJAY SHARMA says:

    @ Nandan if there is any award of excellence apart of the conventional ones, please bestow the one for this series……. ! Despite of more than 20 visits, I have never visited these places as intimately as I did it today while perusing these logs. The showers of brilliant remarks are inevitable. Great job BOSS!

    Regards
    Ajay

    • Avtar Singh says:

      Ajay ji, somewhere I feel blessed myself for getting a wonderful opportunity to be a part of this elite club of such a nice and gentle human beings. The love and affection, I am getting here, is more precious for me than any other title. I really appreciate your gesture. Many thanx… God bless!!!

  • arun says:

    Hello Avtar Ji,

    Again you have created the magic of words.

    Thanks,
    Arun

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    • Avtar Singh says:

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  • Nirdesh Singh says:

    Dear Avtarji,

    I think its time I went back to see Amer Fort it has been 25 years and I seem to have almost no recollection. The photos and the writeup are awesome.

    Here we go again on one hand you say the males were mostly busy fighting battles and hunting, but they made sure the womenfolk lived in luxury. You have described the separate sleeping rooms, makeup rooms, plumbing to keep the interiors cool. Then why was the condition of the womenfolk dayaniya? Farooq Abdullah says they do want to send all the males to jail. And Avtarji would love it when that happens.

    Adhyatmik angle has been jettisoned but laceration of menfolk continues for reasons best known to you!

    • Avtar Singh says:

      Hi Nirdesh Sir

      I was expecting it!

      I knew, because of that lines, Nirdesh Bhai definitely put forward these age old questions.

      Sir, my logic is very simple and I am not a feminist of that class, who seldom come on street taking candles in their hands and shouting slogans.

      I am a student of science, and I only know that male and female are just a biological process. It is as simple as XX and XY pair of chromosomes. Nature can not differentiate, between both the genders, then why should we do?

      SS sir is right, when he says, Mughal invasions could be the reason behind their ‘Lajja-janak sithiti’ but, believe me this was only the one aspect. The others lie in our customs and practices.

      Guru Nanak says,’ ?? ????? ????? ?????, ??? ????? ?????…” means how can we do or speak ill about women, when the kings take birth through their womb…

      This is a greater issue and even world wide too, so for the being I am leaving it aside.

      You like the post, including the photos, that is a big relief, knowing the fact that your’s, Vipin’s and SS sir’s photographs are cause of jealous for any professional photographer.

      You did not recollect your memories about Amer but now at present it undoubtedly a sublime beauty beauty.

      Thanx for your comment, sir!

  • parmender says:

    Dear Pahwa Sahab
    Really nice one as usual, gazab ka lekhan hai…
    Beside this i hope that every one is enjoying Amir Khusro,s poetry….
    Nice , thanks , Keep it up… and continue…
    Regards

    • Avtar Singh says:

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  • Ashok Sharma says:

    beautiful post,very very good photographs.you have got a very nice way of narration that holds the reader till the post ends.Ending the post with Khusro makes it unique.

    • Avtar Singh says:

      Thanx Ashok Sharma ji for your gracias words like always.

      Sir, I sincerely think its always been a pleasure for a reader if he finds a piece of poetry in the end, as it brings some relief and imaginations to his thoughts. And I am experiencing it with the facts that I even getting the great couplets from the readers too.

  • Mukesh Bhalse says:

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    • Avtar Singh says:

      Hi Mukesh ji

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  • Munesh Mishra says:

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    • Avtar Singh says:

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      Many thanx for your comment.

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  • Pravesh says:

    Great Narration Pahwa ji,

    Amer fort & Jaipur are all time favorite.

    All 4 parts of this post are awesome.

    Keep writing..

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