अनजान सफ़र : उत्तरकाशी – गंगोत्री – गौमुख

अगले दिन तडके उठके गंगोत्री की बस पकड़ी जिसने हमें १२.०० के आसपास गंगोत्री उतार दिया, गंगोत्री में गढ़वाल मंडल का बहुत ही खूबसूरत रेस्ट हाउस है, यहाँ पर भी हम दोनों ने अपनी तीन दिन  की और आने वाले ग्रुप की बुकिंग भी करवाई.

गंगोत्री हिंदुओं के पावन चार धामों मे से एक है इसका धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व सभी को आलौकिक करता है धार्मिक संदर्भ के अनुसार राजा सगर ने देवलोक पर विजय प्राप्त करने के लिये एक यज्ञ किया यज्ञ का घोडा़ इंद्र ने चुरा लिया राजा सगर के सारे पुत्र घोड़े की खोज में निकल पडे. घोड़ा पाताल लोक में मिला जो एक ऋषि के समीप बँधा था. सगर के पुत्रों ने सोचा की ऋषि ने ही घोड़े को पकडा है इस पर उन्होंने ऋषि का अपमान किया तपस्यारत ऋषि ने अपनी आँखें खोली और क्रोध से सगर के साठ हज़ार पुत्रों को जलाकर भस्म कर दिया और वह मृत आत्माएँ भूत बनकर भटकने लगीं क्योंकि उनका अंतिम संस्कार नहीं हो पाया था. भगीरथ जो राजा दिलीप के पुत्र थे. उन्होने अपने पूर्वजों का अंतिम संस्कार करने का निश्चय किया तथा गंगा को पृथ्वी पर लाने का प्रण किया जिससे उनके अंतिम संस्कार की रीतिपूर्ण कर राख को गंगाजल में प्रवाहित किया जा सके. और भटकती आत्माओं को मोक्ष प्राप्त हो. भगीरथ ने भगवान ब्रह्मा की घोर तपस्या की ताकि गंगा को पृथ्वी पर लाया जा सके. ब्रह्मा कठोर तपस्या देखकर प्रसन्न हुये और गंगा को पृथ्वी पर अवतरित होने को कहा ताकि सगर के पुत्रों की आत्माओं की मुक्ति संभव हो. उस समय गंगा ने कहा कि इतनी ऊँचाई से पृथ्वी पर गिरने से पृ्थ्वी मेरा इतना वेग नहीं सह पाएगी. तब भगीरथ ने भगवान शिव से निवेदन किया और भगवान शिव ने अपनी खुली जटाओं में गंगा के वेग को रोक कर एक लट खोल दी जिससे गंगा की पृथ्वी पर अविरल रुप से प्रवाहित हुई और सगर-पुत्रों का उद्धार हुआ गंगोत्री वह स्थान है जो गंगा का उद्गम स्थल बना.

यहाँ पर शंकराचार्य  ने गंगा देवी की एक मूर्ति स्थापित की थी। जहां इस मूर्ति की स्थापना हुई थी वहां 18वीं शती ई. में एक गुरखा अधिकारी ने मंदिर का निर्माण करा दिया है। इसके निकट भैरवनाथ का एक मंदिर है। इसे भगीरथ का तपस्थल भी कहते हैं। जिस शिला पर बैठकर उन्होंने तपस्या की थी वह भगीरथ शिला कहलाती है। उस शिला पर लोग पिंडदान करते हैं। गंगोत्री में सूर्य, विष्णु, ब्रह्मा आदि  देवताओ  के नाम पर अनेक कुंड हैं।

भगीरथ शिला से कुछ दूर पर रुद्रशिला है। जहां कहा जाता है कि  शिव ने गंगा को अपने मस्तक पर धारण किया था। इसके निकट ही केदारगंगा, गंगा में मिलती है। इससे आधी मील दूर पर वह पाषाण के बीच से होती हुई 30-35 फुट नीचे प्रपात के रूप में गिरती है। यह प्रताप नाला गौरीकुंड कहलाता है। इसके बीच में एक शिवलिंग  है जिसके ऊपर प्रपात के बीच का जल गिरता रहता है।

होटल वाले से गौमुख की जानकारी ली तो उन्होंने बताया की अभी १ बजा है आप लोग भोजवासा के लिए निकल जाये जो की गौमुख से पहले पड़ता है और गढ़वाल मंडल के होटल के साथ और भी होटल वहां पर है, हमने अपना जरुरी सामान लिया और चल दिए गौमुख की और. गंगोत्री से चलते ही एक गेट आया जहाँ हमारी तलाशी ली गयी की हमारे पास प्लास्टिक का सामान है की नहीं और कितना है, हमारे पास २ पानी की बोतल थी तो उन्होंने हमसे १०० रूपये मांगे की जब आप वापस आओगे तो आप के पास दोनों पानी की बोतल होनी चाहिये और आपको आपके पैसे वापस मिल जायेगे. हमने पूछा की ऐसा कियु तो उन्होंने बताया की वो लोग सरकार की तरफ से है और गौमुख की सफाई की जिम्मेदारी उन लोगो पे है, वो हर यात्री को चेक करते है की प्लास्टिक का सामान कितना है और १ सामान की ५० रूपये लेते है, अगर वापसी मे कोई अपना सामान वापस नहीं लाता तो वो पैसे वापस नहीं देते है और उन पैसो का इस्तमाल गौमुख की साफ सफाई मे खर्च कर देते है, हर रोज़ वो गौमुख जाते है और जितना भी प्लास्टिक का कूड़ा उन्हें मिलता है वो उसे गंगोत्री ला कर जला देते है जिसका हिसाब वहां लगे बोर्ड पर लिखा होता है की कितना कूड़ा आज इक्कठा किया और जलाया. उन लोगो के जस्बे को सलाम. ( मेरा अनुरोध उन सभी से है जो गौमुख जाते है की जो भी प्लास्टिक का कूड़ा है उसे अपने साथ वापस लाये और इस नेक  काम में अपना सहियोग दे)

खैर आगे के यात्रा चालू रखी, जो मेरे साथ जो थे वह फौजी थे, मै उनका चलने मे मुकाबला नहीं कर पा रहा था, काफी चलने के बाद मैंने उन्हें कहा की आप चलते रहो  मै आराम आराम से आऊंगा, पहाड़ी होने के बावजूद मै अपने आप को बहुत कमजोर महसूस कर रहा था ( दोस्तों मुझे जयादा चलने के आदत नहीं है). करीब १-२ किलोमीटर चलने के बाद मुझे चलने मे बहुत परेशानी होने लगी कमर के नीचे का हिस्सा बहुत दर्द कर रहा था, जब दर्द बर्दाश से बाहर हो गया तो मै एक पत्थर पर बठे गया, करीबन १० मिनट के बाद मुझे आगे से एक अंग्रेज जोड़ा आता दिखा उन लोगो ने मुझे बैठा देख उसनका कारण पूछा, मेरे बताने पे उन्होंने मुझे कुछ गोली खाने के लिए और लगाने के लिए टयूब दी, और वो चले गए, करीब १० मिनट के बाद जैसे दर्द था ही नहीं, अपनी यात्रा आगे जारी करते हुए और प्रक्रति का आनंद लेते हुए मै चलता रहा, रस्ते मे टेंट वाली कई दुकाने भी थी जहाँ आराम करने की और खाने पीने की भी सुविधा थी. एक बात जो सामने आई की कई टेंट साधुओ के भी थे जिसमे कई अंग्रेज थे, पता चला की वह १ महीने से उस साधू के साथ है, यात्रा मे साथ साथ भागीरथी जो कभी पास तो कभी दूर होती जा रही थी, खैर किसी तरह मे भोजवासा पहुच गया, वहां गढ़वाल मंडल के रेस्ट हाउस मे अपने लिए एक बेड़ भी बुक करा दिया मुझे अपने साथ का फौजी नजर नहीं आ रहा था. थोड़ी ही देर मे वो मुझे दुसरे गेस्ट हाउस से आते दिखाई दिए, उन्होंने बताया की वो दुसरे गेस्ट हाउस में अपनी व्यवस्था करा चुके है और मेरा ही इंतजार कर रहे थे.

भोज पत्र विषयक जानकारी:(दैनिक जागरण से साभार)हमारे देश के कई पुरातत्व संग्रहालयों में भोजपत्र पर लिखी गई सैकड़ों पांडुलिपियां सुरक्षित रखी है। जैसे हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय का संग्रहालय। कालीदास ने भी अपनी कृतियों में भोज-पत्र का उल्लेख कई स्थानों पर किया है। उनकी कृति कुमारसंभवम् में तो भोजपत्र को वस्त्र के रूप में उपयोग करने का जिक्र भी है। भोजपत्र का उपयोग प्राचीन रूस में कागज की मुद्रा ‘बेरेस्ता’ के रूप में भी किया जाता था। दरअसल, भोजपत्र भोज नाम के वृक्ष की छाल का नाम है, पत्ते का नहीं। इस वृक्ष की छाल ही सर्दियों में पतली-पतली परतों के रूप में निकलती हैं, जिन्हे मुख्य रूप से कागज की तरह इस्तेमाल किया जाता था। भोज वृक्ष हिमालय में 4,500 मीटर तक की ऊंचाई पर पाया जाता है। यह एक ठंडे वातावरण में उगने वाला पतझड़ी वृक्ष है, जो लगभग 20 मीटर तक ऊंचा हो सकता है। भोज को संस्कृत में भूर्ज या बहुवल्कल कहा गया है। उत्तराखंड में गंगोत्री के रास्ते में 14 किलोमीटर पहले भोजवासा आता है। भोजपत्र के पेड़ों की अधिकता के कारण ही इस स्थान का नाम भोजवासा पड़ा था, लेकिन वर्तमान में इस जगह भोज वृक्ष गिनती के ही बचे है। यही हाल गंगोत्री केडनास दर्रे का भी है।2007 में डेक्कन हेराल्ड में छपी रिपोर्ट के अनुसार यह पेड़ विलुप्ति की कगार पर है। इसे सबसे ज्यादा खतरा कांवडियों और पर्यटकों से है, जो गंगोत्री का पानी लेने आते है और भोज वृक्ष को नुकसान पहुंचाते है।

पहाड़ो का घुप अँधेरा, भोजवासा के होटलों के अलावा कहीं लाइट नहीं थी, खामोशी को चीरती भागीरथी जैसे कहीं पहुचने की जल्दी में थी, खैर ठण्ड और थकन की वजह से  और कुछ नहीं देख पाया. होटल में और भी यात्री थे, अपना पहाड़ी हुनर और होटल में काम करना आज काम आया जल्द ही वहां के कर्मचारियो से दोस्ती कर ली, फायदा .. १ गरम बाल्टी पानी और खाने के लिया उन लोगो का बना खाना जो घर जैसा था बिलकुल मुफ्त.  एक कर्मचारी जो वहां खाना बनता था उसने मुझसे गढ़वाली मे बात करनी शरू करी, ( हमारी बोली ( पौड़ी वाली) और उनकी बोली (टेहरी वाली) में काफी फर्क है, थोडा बहुत जो समझ आया उस से पता चला की उस की रिश्तेदारी हमारे गाँव के पास की है, और जब मैंने उसे बताया की मै यहाँ के बाद अपने गाँव जाऊंगा तो वो काफी खुश हुआ उसने कहा की उसकी चिट्टी अगर हो सके तो उस गाँव के बाज़ार में दे देना, मुझे क्या दिक्कत होती अरे भाई वो बाज़ार हमारे रस्ते में जो था. खैर रात काफी हो गयी थी, तो वार्तालाप को विराम देते हुए मैंने उन्हें कहा की वो मुझे सुबहे ४ बजे उठा दे गौमुख के लिए.

सुबहे १ गरम बाल्टी पानी के साथ पञ्च स्नान किया, बाहर गया तो देखा की वो ( कुक) एक खच्चर  के साथ तैयार था, मैंने कहा की इसकी क्या जरुरत है तो  उसने कहा की आप जब भोजवासा आ रहे थे तो मैंने आपको देखा था आपको चलने मे परेशानी हो रही थी और आगे का रास्ता और कठिन है और ये रेस्ट हाउस का की खच्चर  है जो सामान लाने के लिए रखा है, मैं भी चलूँगा आपके साथ… अंधे को क्या चाहिये दो रोटी ( ऑंखें वाला dialog  पुराना हो गया है), तो जी हम तीनो चल पड़े गौमुख की और.

सुबहे जल्दी निकले थे पर अकेले नहीं थे बहुत सारे यात्री भी थे, गौमुख, गौमुख दिल मे जपते जपते आगे बढ़ते रहे, फिर एक जगह खच्चर को रोका गया की इस से आगे की यात्रा पैदल ही करनी पड़ेगी, कमर कस कर आगे चले. आगे की यात्रा सच मे कठिन है बड़ी बड़ी चट्टानों को पार करना पड़ रहा था, भागीरथी की गर्जना और वेग बढ़ता जा रहा था.  चट्टानों से गौमुख नजर आने लगा था.

जय जय भगीरथ नन्दिनि, मुनि-चय चकोर-चन्दनि,
नर-नाग-बिबुध-बन्दिनि जय जहनु बालिका।
बिस्नु-पद-सरोजजासि, ईस-सीसपर बिभासि,
त्रिपथ गासि, पुन्रूरासि, पाप-छालिका।1।
बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि,
भँवर बर, बिभंगतर तरंग-मालिका।
पुरजन पूजोपहार, सोभित ससि धवलधार,
भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका।2।
थ्नज तटबासी बिहंग, जल-थल-चर पसु-पतंग,
कीट,जटिल तापस सब सरिस पालिका।
तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुवंस-बीर,
बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका।3।

गंगोत्री से 19 किलोमीटर दूर 3,892 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गौमुख गंगोत्री ग्लेशियर का मुहाना तथा भागीरथी नदी का उद्गम स्थल है। कहते हैं कि यहां के बर्फिले पानी में स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं।

25 किलोमीटर लंबा, 4 किलोमीटर चौड़ा तथा लगभग 40 मीटर ऊंचा गौमुख अपने आप में एक परिपूर्ण माप है। इस गौमुख ग्लेशियर में भगीरथी एक छोटी गुफानुमा ढांचे से आती है। इस बड़ी वर्फानी नदी में पानी 5,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक बेसिन में आता है जिसका मूल पश्चिमी ढलान पर से संतोपंथ समूह की चोटियों से है।

यात्रा जारी है …….

15 Comments

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