कश्मीर चलना है क्या?

मार्च के प्रथम सप्ताह की बात है, रात को मोबाइल पर एस.एम.एस. की टिक-टिक हुई। देखा तो एक संदेश था जिसमें “दो रात – तीन दिन” के मनाली टूर के बारे में जानकारी भेजी गई थी। मैं अपने फोन पर डी.एन.डी. पंजीकरण के बावजूद यदा कदा आ टपकने वाले promotional message बिना पढ़ने का कष्ट किये ही रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया करता हूं पर यह संदेश मेरे एक टूर आर्गेनाइज़र मित्र पंकज गोयल द्वारा भेजा गया था अतः कुछ लिहाज जरूरी हो गया और मैने एक बार उसे पढ़ा और अपनी भावनाओं को डिलीट बटन के माध्यम से सुन्दर अभिव्यक्ति दे डाली।

इस घटनाक्रम की जानकारी मैने अपनी पत्नी को दी जो हमारे डबल बैड के अपने लिये आरक्षित आधे हिस्से में, मोबाइल लिये बैठी बड़े मनोयोग से कोई वीडियो गेम खेल रही थी और साथ ही साथ एकता कपूर के सड़े हुए धारावाहिकों की टी.आर.पी. बढ़ाने के लिये टी.वी. भी खोले बैठी थी। खेल का एक राउंड पूरा हुआ और टी.वी. पर एक सैनिटरी नैपकिन का विज्ञापन शुरु हुआ जिसमें नाव में बैठी लड़कियों के हाथ से नैपकिन का पैक उछल कर नदी में गिर जाता है और वह नैपकिन पूरी की पूरी नदी को सुखा डालता है। रिमोट से टी.वी. का गला घोंटते के बाद श्रीमती जी मेरी ओर उन्मुख हुईं और पूछा – “कौन सी तारीख का टूर है? चलते हैं।“ मैं परेशान क्योंकि एस.एम.एस. तो अब स्वर्ग सिधार चुका था और उसमें टूर की क्या तारीख थी, इस पर मैने ध्यान ही नहीं दिया था। मैने बताया कि एस.एम.एस. तो मैने delete कर दिया।

“चलना है तो फोन करके पंकज से पूरी डिटेल ले लें?” मैने पूछा ।

अपनी वामांगिनी से एन.ओ.सी. प्राप्त होते ही मैने पंकज को फोन लगाया। टूर के बारे में पूछा तो बोला, “ भैया, टूर को छोड़ो! वह तो फुल हो गया है। उसमें में अधिकांशतः एक ही कंपनी के कर्मचारियों के परिवार हैं, आप लोगों को उस ग्रुप के साथ घूमने में मज़ा नहीं आता। अगर आप दोनों की इच्छा हो तो हम दोनों परिवार अलग से चले चलते हैं। अकेले तो हमारा भी प्रोग्राम नहीं बन पाता है।“

पंकज मुझसे लगभग २० वर्ष छोटा है, अतः अगर मुझे अंकल जी कहता तो भी मैं उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता था पर वह मुझे बड़े भाई का दर्ज़ा देता है। उसकी पत्नी चीनू की भी मेरी पत्नी के साथ खूब अच्छी पटरी बैठती है। दोनों के पास ढाई वर्ष का एक बच्चा है। हम दोनों परिवार कभी एक साथ घूमने नहीं गये थे परन्तु हमें इतना विश्वास था कि अगर साथ-साथ जायेंगे तो सब का खूब मन लगेगा। छोटे बच्चे के कारण अकेले वह भी नहीं जाना चाहते थे और हमारी भी यही इच्छा रहती है कि कम से कम एक परिवार तो अवश्य ही साथ हो। अगर कभी आपस में किसी बात पर झगड़ पड़ें तो कोई बीच – बचाव कराने वाला तो हो!
फोन पर पंकज से मनाली चलने की बात तय करते समय मेरी पत्नी ने केवल एक शर्त रखी कि नवरात्रों से पहले-पहले वापिस आना होगा क्योंकि वह अखंड ज्योत जलाती हैं। अगले दिन पंकज का फोन आया कि अगर हम दोनों परिवारों को ही चलना है तो मनाली ही क्यों, कश्मीर क्यों नहीं ! हमने फिर सोचा-विचारा कि बालक बात तो सही कह रहा है। मनाली तो कभी भी चले जायेंगे, कश्मीर जाने का प्रोग्राम थोड़ा कठिनाई से बनता है। क्यों न हो ही आयें। छः रात और सात दिन के लिये निकल चलते हैं। इस यात्रा की सारी तैयारियां करने की जिम्मेदारी हमने पंकज को ही सौंप दी क्योंकि बन्दा टूर आर्गेनाइज़र जो ठहरा। कहां ठहरेंगे, कहां कहां घूमने जायेंगे, क्या-क्या देखेंगे, इसका पूरा विस्तृत विवरण उधर पंकज ने तैयार करना आरंभ किया और मैने Google Earth और wikitravel पर जाकर कश्मीर के बारे में ऐसे पढ़ाई करनी आरंभ कर दी मानों बोर्ड की परीक्षा सर पर खड़ी हो और मास्टर जी ने बताया हो कि कश्मीर का चैप्टर इंपोर्टेंट है। दरअसल, मैं चाहता हूं कि जब गन्तव्य स्थल पर पहुंचूं तो लोगों से पूछ – पूछ कर रास्ते न टटोलने पड़ें। बिल्कुल लोकल बाशिन्दे की तरह से पूर्ण आत्मविश्वास के साथ घूम सकूं! जो कुछ पढ़ कर गया, उसका वास्तविकता से तुलनात्मक अध्ययन करते चलना मेरी आदत बन चुका है और मुझे इसमें बहुत आनन्द आता है। हर किसी को कोई न कोई बीमारी होती ही है, सो मुझे भी ये बीमारी है।

एक बात जो मोटे तौर पर हमने पहले ही तय कर ली थी, वह ये कि हम हवाई यात्रा नहीं करेंगे बल्कि सड़क मार्ग से जम्मू से श्रीनगर जायेंगे। मुझे पटनीटॉप और जवाहर टनल का बहुत क्रेज़ था। घुमक्कड़ साइट पर पटनीटॉप के हसीन नज़ारे और कुद के पतीसे के बारे में पढ़ ही चुका था अतः इन सबको ’मिस’ करने का मन नहीं था।

तीन दिन बाद पंकज गोयल का फोन आया कि रिज़र्वेशन हो गया है, एक फोर्ड फियेस्टा टैक्सी भी जम्मू स्टेशन पर हमारी इंतज़ार करेगी जो हमें छः दिन बाद वापिस जम्मू स्टेशन पर ही छोड़ेगी। कश्मीर में कहां ठहरना है यह वहीं पहुंच कर देखा जायेगा। होटल ढूंढने में दिक्कत होने की संभावना नहीं थी क्योंकि कश्मीर में मार्च ऑफ सीज़न माना जाता है। उम्मीद थी कि सौदेबाजी करके अच्छा और सस्ता होटल मिल ही जायेगा। यदि सौदेबाजी करने की कहीं कोई अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता होती हो तो आप लोग कृपया मुझे अवश्य ही सूचित करें। मैं उस प्रतियोगिता के लिये पंकज का नामांकन कराना चाहूंगा। सॉलिड बार्गेनर बन्दा है। मुझे तो शक है कि वह रेल और बस का टिकट खरीदते समय भी थोड़ी बहुत सौदेबाजी कर ही लेता होगा। दो-तीन वर्ष पहले दिल्ली के एक लैब में वह और मैं साथ-साथ गये थे जहां हमें दो सी-टी स्कैन कराने थे। 4200 रुपये में एक स्कैन बताया गया पर आधा घंटे की सौदेबाजी के बाद 3800 रुपये में दो सी-टी स्कैन पर सौदा पट गया देख कर मेरी तो आंखें फटी की फटी रह गई थीं! उसका यह दुर्लभ गुण हमारी पूरी यात्रा में बहुत बहुमूल्य सिद्ध हुआ। हमने समझदारी का एक काम और भी किया । वह ये कि संपूर्ण यात्रा की अवधि के लिये खजांची की पदवी पंकज को सौंप दी। आरक्षण से लेकर पानी की बोतल खरीदने तक सारा खर्च पंकज के हाथों से कराया जायेगा और बाद में जितना भी खर्च हुआ होगा, उसे आधा – आधा बांट लेंगे।

बर्फ से ढके पहाड़ों पर यात्रा करनी थी अतः मैने श्रीमती जी से कहा कि सिर के लिये टोपी से लेकर पैर के लिये मौजे तक ऊनी वस्त्रों का प्रबन्ध करना होगा। पर वह इस हिसाब से तैयारी कर रही थीं जैसे अंतराष्ट्रीय सौन्दर्य प्रतियोगिता में भाग लेने जा रही हों। फेशियल, मैनिक्योर, पैडिक्योर तक तो फिर भी ठीक था, पर एक शाम वह अपने हाथों – पैरों पर ढेर सारा गाढ़ा सा चिपचिपा गर्म पदार्थ लेप कर मेरे पास आ बैठीं और एक सूती कपड़ा और संडासी देकर कहा कि इस कपड़े को उनके बांह पर संडासी से रगड़ – रगड़ कर ठीक से चिपकाऊं। मरता क्या न करता ! आदेश हुआ था तो पालन तो करना ही था। जब कपड़ा ठीक से चिपक गया तो बोलीं, “शाबाश ! अब इस कपड़े का एक सिरा पकड़ कर झटके से उखाड़ डालो। अपनी तो हवा गोल! कोई आपके हाथ में पिस्तौल देकर कहे कि मुझे ’ठां’ कर दो, तो क्या आप उसे खट से ’ठां’ कर देंगे? अरे, और किसी को तो जाने दें, आप अपनी धर्मपत्नी को भी ’ठां’ नहीं कर सकते जिसको ’ठां’ करने के हसीन सपने आप कभी कभी, चुपके-चुपके देख लिया करते होंगे।

“ये कैसे धर्मसंकट में डाल दिया, देवि ! मैं तुम्हें इतना कष्ट देने की तो स्वप्न में भी नहीं सोच सकता।“ मैने चेहरे पर ऐसी दर्द की लकीरें खींची जैसी दाढ़ के दर्द के समय स्वाभाविक रूप से आया करती हैं। पिछले हफ्ते दांत में दर्द हुआ भी था, उसकी स्मृति से वैसा ही चेहरा बनाने में काफी सहायता भी मिली। पर पत्नी बोली, “28 साल से आपको झेल रही हूं, आपकी रग-रग से वाकिफ़ हूं।“ अपना मुंह दूसरी ओर घुमा कर और कस कर दांत भींच कर बोलीं – “हे मेरे बेदरदी बालमा ! चलो, खींचो! बस, मैने भी दांत पीसते हुए कपड़ा त्वचा से ऐसे खींच दिया मानों कपड़ा नहीं, हाथ ही जड़ से उखाड़ने की तैयारी हो। वाह, क्या बात है! अन्दर से ऐसी हसीन, बिल्कुल मक्खन जैसी रोमरहित त्वचा निकल कर आई कि बस, क्या बताऊं ! मेरी उत्सुकता शांत करते हुए उन्होंने बताया कि इस प्रक्रिया को हिंदी में ’वैक्सिंग’ कहते हैं। त्वचा से बाल गायब हो जाते हैं पर साली वैक्सिंग होती बहुत पेनफुल है। मैने कहा भी कि इतना कष्ट उठाने की क्या जरूरत है, वहां सिर से लेकर पैर तक गर्म कपड़ों से ढंकी रहने वाली हो, फिर तुम्हारे इस कमल-कोमल-किसलय रूप की अद्भुत छटा को कौन निहारने जा रहा है? श्रीमती जी ने शरमाने का अभिनय करते हुए कहा, “अरे, ये सब आपके ही लिये तो कर रही हूं ! शादी के 28 साल बाद ही सही, पर जा तो कश्मीर रहे हैं ना! सुना है, बड़ी रोमांटिक जगह है।“ घबराहट में हमारे मुंह से निकला, “तुम्हारे तो इरादे बड़े खतरनाक लग रहे हैं। क्यों मुझे terrorize क्यों कर रही हो?” दरअसल, कुछ ही दिन पहले मैने लेक्सिकोग्राफी की एक किताब में पढ़ा था – “Beauty is a power by which a woman charms a lover and terrifies a husband!” पर मन ही मन अपुन बहुत परसन्न भये ! कश्मीर में लाटरी जो लगने जा रही थी!

बस, ऐसे ही यात्रा की तैयारियां करते करते हमारे प्रस्थान की नियत तिथि 15 मार्च आ गई और हम दोनों (अर्थात् मैं और मेरी पत्नी) एक अटैची और चार बैग के साथ साइकिल रिक्शा पर लदे-फदे रात को 7.45 पर सहारनपुर स्टेशन पर पहुंच गये जहां से हमें शालीमार एक्सप्रेस जम्मू तक लेकर जाने वाली थी। पंकज गोयल मय बाल-बच्चे हमें प्लेटफार्म पर पूर्व नियत ओवरब्रिज के नीचे खड़े मिल गये। उनके पास दस बैग व तीन अटैची देख कर मैने पूछा कि कश्मीर में ही शिफ्ट करने का प्लान बना लिया है क्या? चीनू बोली, “नहीं भैया! छोटे बच्चे का साथ हो तो इतना सामान तो हो ही जाता है! बल्कि, पंकज ने दो बैग तो घर पर ही रखवा दिये हैं । मुझे तो डर है कि ट्रेन के टिकट कहीं उन्हीं में न रखे रह गये हों!” इतना सुनना था कि मेरी पत्नी तो माथा पकड़ कर अटैची पर ही बैठ गई और पंकज ने अपनी पत्नी के कंधे पर टंगे काले रंग के बैग पर जोर से झपट्टा मारा, चेन खींच कर खोली और पाकिट में से कुछ कागज़ बाहर निकाल कर उलटने – पुलटने लगा ! टिकट मिल गये तो उसने इतनी जोर से राहत भरी सांस ली कि मुझे कोयले के इंजन द्वारा झटके से भाप निकाले जाने की स्मृति मन-मस्तिष्क में कौंध गई। हमारी श्रीमती जी की भी जान में जान आई! अविश्वास में गर्दन हिलाते हुए बोली, “अभी तो शुरुआत है, आगे – आगे देखिये होता है क्या!”

मैने पंकज से पूछा, “कोच नंबर क्या है? जहां अपना डब्बा आकर रुकेगा, वहीं चल कर खड़े होते हैं, इतने सामान के साथ तो भागा भी नहीं जा सकता। पंकज ने कुली को रोक कर पूछा कि C-6 कोच कहां पर आयेगी? हमें गाड़ी में चढ़ाने का क्या लोगे? मैं अपनी सांस रोक कर सौदेबाजी का पहला शानदार नमूना देखने के लिये खुद को तैयार कर रहा था परन्तु तभी घोषणा हो गई कि शालीमार एक्सप्रेस प्लेटफार्म 6 पर आ रही है। अब सौदेबाजी का समय शेष नहीं रह गया था। कुली ने 300 रुपये बोले, पंकज ने 100 रुपये बताये ! साथ में, यह और जोड़ दिया कि गाड़ी आ गई है, अब कहां दूसरा ग्राहक ढूंढते फिरोगे? जितना मिल रहा है, जेब में डालो वरना 100 से भी जाओगे! कुली ने फाड़ खाने वाली दृष्टि से पंकज को देखा पर फिर हालात की गंभीरता को परख कर 200 रुपये कहते हुए सामान अपनी हाथ ठेली पर रखना शुरु कर दिया। गाड़ी प्लेटफार्म पर लगते ही सामान और हम सबको अन्दर ठेल दिया गया।

कोच नं० C-6 में प्रवेश कर के, मेरी पत्नी ने पूछा कि कौन – कौन सी बर्थ हैं तो पंकज का जवाब आया – “20 – 21” | मैने पूछा “और बाकी दो?” पंकज ने रहस्यवाद के कवि की सी भाव भंगिमा दोनों महिलाओं की ओर डाली और मेरे कान के पास आकर धीरे से बोला, “अभी दो ही कन्फर्म हुई हैं, बाकी दो यहीं गाड़ी में ले लेंगे।“ मेरी पत्नी को हमेशा से अपनी श्रवण शक्ति पर गर्व रहा है। बात कितनी भी धीरे से कही जाये, वह सुन ही लेती हैं! इस मामले में वह बिल्कुल मेरे बड़े बेटे पर गई हैं! जब वह यू.के.जी. में पढ़ता था तो उसे घर के किसी भी दूर से दूर कमरे में पढ़ने के लिये बैठा दो पर उसे न सिर्फ टी.वी. बल्कि हम दोनों की बातचीत भी सुनाई देती रहती थी। बीच – बीच में आकर अपनी मां को टोक भी देता था, “नहीं मम्मी जी, ऐसी बात नहीं है। स्कूल में मैम ने आज थोड़ा ही मारा था, वो तो परसों की बात थी !

सिर्फ दो ही शायिकाओं का आरक्षण हुआ है, यह सुनते ही दोनों महिलाओं के हाथों के तोते उड़ गये। मेरी पत्नी तो बेहोश होते होते बची ! तुरन्त दीवार का सहारा लिया, बीस नंबर की बर्थ पर बैठी, फिर आहिस्ता से लेट गई। पानी का गिलास दिया तो एक – दो घूंट पीकर वापिस कर दिया और ऐसी कातर दृष्टि से मेरी ओर देखा कि मेरा भी दिल भर आया। पंकज की पत्नी ने भी तुरन्त 21 नंबर बर्थ पर कब्ज़ा जमाया और पंकज से बोली, “अब आप पूरी रात यूं ही खड़े रहो, यही आपकी सज़ा है। हम दोनों बेचारी शरीफ, इज्जतदार महिलाओं को धोखा देकर ले आये। हमें पता होता कि टिकट कन्फर्म नहीं हुए हैं तो घर से बाहर कदम भी नहीं रखते!”

अचानक मेरी छटी इन्द्रिय को कुछ खतरे का एहसास हुआ । धड़कते दिल से मैने पंकज से पूछा, “और वापसी का ? वह तो कन्फर्म है ना?” पंकज बोला, “भैया, आप भी?” और ठीक वैसा ही चेहरा बनाया जैसा सीज़र ने तलवार के वार से दम तोड़ने से पहले अपने सबसे विश्वसनीय मित्र ब्रूटस को धोखेबाजों के बीच में देख कर बनाया था – “Et tu, Brute?” पर मेरी प्रश्नवाचक भावभंगिमा में कोई परिवर्तन न आता देख कर बोला, “वह तो कन्फर्म ही समझो! आर.ए.सी. में हैं, नंबर 1,2,3 और 4 ! अगर वह कन्फर्म न हों तो आप मेरा नाम बदल देना !“ सच, एक क्षण के लिये तो मेरा मन किया कि यहीं खड़े – खड़े पंकज का एन्काउंटर करवा दूं ! मुझे समझ नहीं आ रहा था कि वापिस लौट कर आकर मेरी बीवी मेरे साथ क्या सलूक करेगी ! रही बात पंकज का नाम बदल देने की तो मैं पंकज का नाम बदल कर क्या कर लेता? हाईस्कूल प्रमाणमत्र में जो भी नाम हो, वह जीवन भर के लिये स्थाई हो जाता है, ऐसे में अगर मैं कोई पंकज का नाम बदल कर रीठा सिंह जैसा गन्दा सा नाम रख भी दूं तो उसकी कोई वैलिडिटी तो होगी नहीं !”

इस खतरनाक विषय को बदलने के प्रयास में पंकज ने फटाफट अपना काला बैग फिर खोला और थर्मस निकाला, थर्मोकोल के दो गिलास निकाले, चाय गिलास में डाली और मेरी पत्नी से बोला, “भाभी, चाय ! घर की चाय अब आठ दिन बाद ही मिलेगी, यह सोच कर ले आये थे। वाह, क्या ब्रह्मास्त्र चलाया था पंकज ने, एक तीर से दो शिकार! चाय का ज़िक्र कानों तक पहुंचते ही दोनों महिलाएं एक झटके से उठ बैठीं और अपने अपने गिलास लपक लिये! मेरी पत्नी ने पंकज से कहा, “वैसे भैया, आप बड़े धोखेबाज हो, फोन पर तो आपने कहा था, रिज़र्वेशन हो गया है। टिकट वेटिंग में मिले हैं, यह पता होता तो मैं घर से आती ही नहीं। प्रोग्राम कैंसिल कर दिया होता।“

“बस इसी डर से तो नहीं बताया। आपको कब-कब छुट्टी मिलती हैं, कब-कब घूमने के प्रोग्राम बनते हैं। साल भर आप मेहनत करती हैं, चीनू तो आपको अपना आइडल मानती है। ज़िन्दगी में पहली बार तो हमने आपके साथ जाने का प्रोग्राम बनाया, वह कैंसिल होने की सोच कर ही हमारा तो मन भर आता था। बस, सोचा कि हिम्मत करके चले चलते हैं, दो बर्थ तो मिल ही चुकी हैं, दो और भी मिल ही जायेंगी। अगर नहीं मिली तो भी कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। अगर भैया भाभी गुस्सा भी करेंगे तो हंसते-हंसते सह लेंगे पर विश्वास रखिये, आप दोनों को हम कोई तकलीफ नहीं होने देंगे, भाभी ! जरूरत पड़ेगी तो हम दोनों बर्थ के बीच में फर्श पर ही बिस्तर फैला लेंगे। आप बिल्कुल भी चिंता न करें। पंकज के इन भावुकता पूर्ण उद्गारों को सुनकर चीनू ने भी पंकज के सुर में सुर मिलाया । मेरी पत्नी इतनी भावुकता कभी भी सहन नहीं कर पाती, तुरन्त दिल भर आया! चाय की सुड़की लेते हुए बोली, “अरे, नहीं, मैं तो मज़ाक कर रही थी ! घर से घूमने निकले हैं तो कष्टों की क्या चिन्ता करनी?” जो भी होगा, देखा जायेगा। वैसे, चाय बहुत अच्छी है।“

हमने अपने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई ! सामने वाली बर्थ पर एक महिला और एक पुरुष बैठे थे जिनके ’मास’ और ’वॉल्यूम’ को देखकर मैं भौंचक्का रह गया। मैने सहयात्रियों से बात शुरु करने के लिहाज से उनसे पूछा, “आपकी बर्थ कौन – कौन सी हैं? मुझे सीधे जवाब न देकर उस सहयात्री महिला ने मेरी पत्नी की ओर उन्मुख होकर उत्तर दिया, “हमारे पास भी एक ही बर्थ है। देवबन्द से बैठे हैं, जम्मू जा रहे हैं, वहां से कटरा, माता वैष्णो देवी के दरबार में ! टी.टी. की इंतज़ार कर रहे हैं, जो होगा देखा जायेगा। जैसी मातारानी की इच्छा होगी, हो जायेगा। इतना कह कर उन्होंने आकाश की ओर देख कर हाथ जोड़ दिये। उनकी देखा देखी, हम सब ने भी आकाश की ओर देखा और हाथ जोड़ दिये। आकाश की ओर देखने के प्रयास में ऊपर की बर्थ पर निगाह पड़ी तो एक नव-दंपत्ति अपर बर्थ पर बैठे हुए खुसर-पुसर के अंदाज़ में बातचीत में लीन दिखाई दिये। युवती के हाथों में कलाई से लेकर कुहनी तक चूड़ियां ही चूड़ियां थीं ! इससे पहले कि मैं उनसे भी अपना वही प्रश्न दोहराऊं, युवक ने इशारे से दोनों अपर बर्थ की ओर इशारा कर दिया कि वे दोनों उनकी हैं। दूसरी बर्थ पर उन्होंने अपनी अटैची – बैग सजाये हुए थे। मैने आहिस्ता से पत्नी से कहा कि तुम इन दोनों से पूछ लो, अगर ये एक बर्थ को खाली ही रखने वाले हों तो वह बर्थ हम इस्तेमाल कर लें ! पत्नी ने अपनी बड़ी-बड़ी आंखें तरेरीं और दोनों महिलाएं इस बात पर खी-खी कर हंस पड़ीं ।

मैने कोच से बाहर झांका तो देखा कि कोई परिचित सा स्टेशन है। जरा गौर से देखा तो दिल को धक्का लगा, अरे, यह तो सहारनपुर ही था। इसका मतलब अभी तक गाड़ी सहारनपुर में ही खड़ी हुई है? केवल दस मिनट का हाल्ट था, मगर आधा घंटे से अधिक हो चुका था और गाड़ी इंच भर भी आगे नहीं बढ़ी थी! मुझे लगा कि हो न हो, गाड़ी लोड मान रही है। शायद इंजन ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया हो! और भला क्यों नहीं ! चालीस किलो प्रति व्यक्ति की अधिकतम सीमा को लांघ कर पंकज कम से कम चार सौ किलो वज़न का सामान लिये हुए था। दो-दो सौ किलो के ये सामने वाले दंपत्ति भी होंगे!

मुझे परेशान देख कर, दो सज्जन जो अपने घुटनों पर ब्रीफ केस रख कर ताश खेल रहे थे और शक्ल सूरत से दैनिक यात्री लग रहे थे, बोले, अभी गार्ड के घर से टिफिन नहीं आया होगा। जब तक उसका खाना नहीं आयेगा, वह हरी बत्ती नहीं दिखायेगा। मुझे लगा ये जरूर लक्स का अंडरवीयर बनियान पहनते होंगे जो अन्दर की बात बता पा रहे हैं। खैर, पांच मिनट बाद गाड़ी ने रेंगना शुरु कर दिया तो हमने भी अपनी चिन्तनधारा का मुख अन्दर की ओर मोड़ लिया। अपना सामान अपनी दोनों बर्थ के नीचे सैट करने का प्रयास किया पर भला बर्थ के नीचे कितने अटैची – बैग समा सकते थे? बाकी बाहर ही रखे रहे। दोनों महिलाओं ने अपने – अपने खाने वाले बैग खोले। दोनों ही इतना सारा खाना बना कर लाई थीं कि हम अपने पड़ोसियों को भी निमंत्रित कर सकते थे। पर किसी अनजान सहयात्री को भोजन के लिये पूछना, वह भी यात्रा का शुभारंभ होते ही, उसे धर्मसंकट में डाल देने जैसा गुनाह है। भारतीय रेल में हर स्टेशन पर लिखा होता है, “कृपया अनजान व्यक्ति के कोई भी खाद्य पदार्थ ग्रहण न करें, शायद उसमें विष मिला हो।“ अगर आप किसी को खाने के लिये पूछते हैं तो वह भी आपसे खाने के लिये पूछता है। ऐसे में जब तक अपरिचय की दीवार न ढह जाये, समस्त शंकायें लघु हो जायें और उसके बाद तिरोहित हो जायें तब तक किसी से भी औपचारिकतावश भोजन के लिये पूछना गलत ही प्रतीत होता है। हां, मूंगफली की बात अलग है। कोई मूंगफली का वह लिफाफा आपके आगे करे जिसमें से वह खुद भी खा रहा हो तो एक मूंगफली तो अवश्य ही खा लेनी चाहिये।

आमने सामने की दोनों बर्थ पर हमने अपना आसन जमाया और एक दूसरे के कटोरदान में से खूब प्रेमभाव से खाना खाया। दो सब्ज़ियां और पूरी हमारे पास, पनीर के पराठे, दो सब्ज़ियां और दही का टैट्रापैक उनके पास। जम कर दावत उड़ाई गई। हमें खाना खाते देख कर हमारे सहयात्रियों को भी भूख लग आई। उन्होंने भी अपना चार डब्बे वाला शाही आकार का टिफिन बैग में से बाहर निकाला, साथ में एक बड़ा कटोरदान भी। उन दोनों के आकार प्रकार को देखते हुए इससे छोटा टिफिन तो बेहूदा ही लगता। बचपन में हम ओम प्रकाश शर्मा के जासूसी उपन्यास पढ़ा करते थे जिसमें एक डायलॉग होता था – “जितना बड़ा जूता होगा, उतनी ज्यादा पालिश लगेगी!” तो बस, संदर्भ भले ही अलग हो, पर निहितार्थ तो वही था।

अम्बाला में टी.टी.ई. का आगमन हुआ तो पंकज उस से बिल्कुल ऐसे चिपक गया जैसे फेविक्विक लगा रखी हो ! टी.टी.ई. पहले तो भाव खाता रहा, इधर उधर घूमता रहा पर अपना पंकज भाई भी कम थोड़ा ही था, “तू जहां – जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा” वाले अंदाज़ में उसके आगे अपना पर्स हिलाता घूमता रहा और एक बर्थ आबंटित कराये बिना वहां से हिल कर नहीं दिया। अब दो लोअर बर्थ के अतिरिक्त एक मिडिल बर्थ भी हमारी हो गई थी। पंकज और मैं दोनों इस मिडिल बर्थ पर एक दूसरे की विपरीत दिशा में पैर करके लेट गये। मेरा एक बैग जिसमें मेरा कैमरा और लैपटॉप थे, मेरे से एक पल के लिये भी जुदा नहीं हो सकता था सो वह बैग भी मेरे सिरहाने में था। हालत ऐसी थी कि हम दोनों के लिये ही करवट बदलना भी असंभव था। मुझे बार-बार यही लगता रहा कि अपने ऊपर वाले युगल को प्रेरित करूं कि वह दोनों प्रेम भाव से एक ही बर्थ पर एडजस्ट हो जायें और एक बर्थ हमें दे दें। बिना मेरी प्रेरणा के भी वह शायद ऐसा ही करने वाले थे, पर अपने बेशकीमती सुझाव को मैने अपने तक ही रखा। आज कल किसी को अच्छी राय भी कब बुरी लग जाये, क्या पता।

हमारे दो सौ किलो वाले सहयात्रियों को टी.टी.ई. ने मांगने पर भी एक और बर्थ नहीं दी थी और उन दोनों का वृहत्त आकार इस बात की अनुमति नहीं देता था कि वह दोनों पूरी रात एक बर्थ पर किसी भी ढंग से विश्राम कर सकें। मैं तो यही सोच सोच कर परेशान था कि इनका दर्ज़ी इनकी कमर का नाप कैसे लेता होगा? एक टेप से तो काम नहीं चल सकता था और अगर दो टेप आपस में बांध दिये जायें और फिर नाप लेने की कोशिश की जाये तो दर्ज़ी के हाथ भी तो उतने लंबे होने चाहियें जो कमर का पूरा घेरा पार कर के पीछे एक दूसरे को छू लें। बस, नाप लेने की केवल एक संभावना हो सकती थी और वह ये कि दर्ज़ी अपने चेले से कहे कि तू इधर से टेप का एक सिरा पकड़ और मैं दूसरी तरफ से चक्कर लगा कर अभी आता हूं । खैर जी, हमें क्या?

हमारी दोनों लोअर बर्थ पर दोनों महिलाओं को सोते देख कर सामने वाली वृहत्ताकार महिला ने दोनों बर्थ के बीच में फर्श पर ही बिस्तर डाल लिया और सो गई। मुझे भी अब राहत थी, अगर पंकज या मैं सोते – सोते मिडिल बर्थ से नीचे गिरते भी तो चोट लगने का खतरा अब पूरी तरह से समाप्त हो चुका था।
पूरी रात इसी प्रकार सोते-जागते बीती और सुबह पांच बजे जम्मू पहुंचे। बाहर आये तो टैक्सी ड्राइवर को फोन करके पूछा कि टैक्सी कहां खड़ी है। नई – नवेली फोर्ड टैक्सी देखी तो रात की कष्टकर यात्रा का ग़म कुछ कम हुआ। मेरा कैमरे का बैग और पंकज के बच्चे का बैग छोड़ कर बाकी सारा सामान टैक्सी ड्राइवर ने बड़े कलात्मक ढंग से कार की डिक्की में किस तरह से समा दिया, यह वास्तव में सीखने लायक था।

रेलयात्रा कैसी भी रही हो, पर अब हमें 2200 रुपये रोज़ की दर पर एक नयी नवेली वातानुकूलित टैक्सी और एक बहुत ज्यादा बोलने वाला ड्राइवर मिल गया था जिसने मेरी पत्नी के पूछने पर “भैया, आपका नाम क्या है?” अपना नाम प्रीतम प्यारे बताया तो मुझे धर्मेन्द्र और अमिताभ बच्चन की “चुपके – चुपके” फिल्म की याद आगई जिसमें धर्मेन्द्र अपनी साली के घर में टैक्सी ड्राइवर की नौकरी पाने के लिये पहुंचता है और पूछने पर अपना नाम “प्रीतम प्यारे” बताता है और साथ में अपनी साली से यह भी कहता है, “आप चाहे तो प्रीतम कह लें या प्यारे कह लें – कुछ भी चलेगा। मुझे भी शक हुआ कि ये इसका वास्तविक नाम है या चुपके-चुपके फिल्म से प्रेरित होकर इसने अपना नाम प्रीतम प्यारे रख लिया है। खैर !

क्रमशः

54 Comments

  • प्रिय भाई मनु,

    सबसे पहले तो रोचक विवरण के लिये बहुत बहुत धन्यवाद क्योंकि मैं परसों ही श्रीनगर घूमने जा रहा हूं सपरिवार और इस वैबसाइट पर कुछ दिन पहले पटनीटॉप का विवरण पढ़ने के बाद से जानने का प्रयास कर रहा था कि पटनीटॉप जम्मू – श्रीनगर राजमार्ग पर ही पड़ेगा या अलग रास्ता पकड़ना पड़ेगा ! आपने वहां का भूगोल भी स्पष्ट कर दिया, यह बहुत ही सही किया ! बिल्कुल ऐसे लग रहा है जैसे आप सामने बैठे हुए अपनी यात्रा का विवरण सुना रहे हों ! यही आपके यात्रा – वृत्तान्त की सबसे बड़ी खूबसूरती है। जम्मू से श्रीनगर के लिये टैक्सी लेंगे, यह सोच कर जा रहे हैं, पता नहीं, वहां ऊंट किस करवट बैठेगा ! यदि फुल टैक्सी ले पाये तो पटनीटाप / तत्थाटाप जाना पक्का (अगर बर्फ के आसार हुए तो ) ! वरना तो आपने कहा ही है कि गर्मियों में कोई खूबसूरती नज़र नहीं आती ! एक बार फिर धन्यवाद !

    सुशान्त सिंहल

    जब आपने मुझे पटनीटाप की पोस्ट पर ये कमेंट लिखा तो मै नही जानता था कि मुझे आप जैसे प्रिय लेखक की ओर से ये कमेंट आया है । मै हमेशा घुमक्कड और इंटरनेट का शुक्रगुजार रहूंगा

    या तो आप लिखते हैं या लिख सकते हैं एक शानदार नावेल यानि उपन्यास जिसमें फोटो की जरूरत ही नही होगी बिल्कुल भी और जिसका हर एक पेज बुकमार्क करके रखा जायेगा ताकि अगले दिन भी पढ सकें ।
    आपका प्रशंसक मै खुद बन गया हूं आपकी शैली लाजबाब है दिल छू लेने वाली । रोमांच बन आया है इसे ऐसे ही बनाकर रखियेगा

    आगे के वृतांत का इंतजार रहेगा ।

    मनु प्रकाश त्यागी

    • बहुत बहुत शुक्रिया, मेहरबानी, थैंक यू और धन्यवाद ! सब आप ही का किया धरा है ये । आपके वृत्तान्त पढ़ कर ही मुझे भी ये बुरी लत लगी है मनु ! :D

      सुशान्त

  • Surinder Sharma says:

    सुशान्त सिंहल जी,
    यह तो सरासर तोहीन है “एकता कपूर के सड़े हुए धारावाहिकों”. भारत की आधी आबादी जिन्हें पसंद करती है, आप ही उनके बारे में लिख सकते हैं. आपके जज्बे को सलाम. मैंने तो कितने ही साल से TV नहीं देखा, और पत्नी जी आप को एकता कपूर के एक एक सीरियल के बारे में बता सकती हैं. मैं तो कितना मुसकरा रहा हूँ आप अंदाजा नहीं लगा सकते. यात्रा वर्णन अति सुंदर है. ओम प्रकाश शर्मा तो थोक के भाव लिखने लगे थे, वेद प्रकाश शर्मा के ओरिजनल उपन्यास मेरट से छपा करते थे. इतना अच्छा लिखने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद.

    • प्रिय सुरिन्दर शर्मा जी, आपका हार्दिक आभार ! एकता कपूर के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि वह पैसे कमाने के चक्कर में समाज को गलत सन्देश दे रही है। कलर्स टी.वी. चैनल वालों को तो समाज द्रोह के लिये फांसी पर चढ़ा दिया जाना चाहिये। उनकी हर कहानी में घर के ही सदस्य नायक / नायिका के साथ क्रूरतम अपराध कर रहे हैं । पहले जमाने में सास खराब दिखाई जाती थीं, पर अब तो हर रिश्ता खराब है । मां, बेटी, भाभी, भाई, बहिन, दादी, दादा – हर कोई भयंकर अपराधी दिखाया जा रहा है और लगातार उसी की जीत होती दिखाई जाती है। कुल मिला कर कलर्स चैनल का प्रयास यह है कि परिवारों में आपस में अविश्वास की भावना की सृष्टि करके परिवार संस्था का ही बैंड बजा दिया जाये । संयुक्त परिवार के प्रति लोगों के मन में इतनी विरक्ति उत्पन्न हो जाये कि लोग संयुक्त परिवार में अपनी लड़की देने से ही मना कर दें । लोग इसे मनोरंजक कहानी मान कर देखते चल रहे हैं पर मैं समझ सकता हूं कि कलर्स चैनल वालों के इरादे क्या हैं। वह अपनी घृणित (और मूर्खतापूर्ण) कहानियों के जरिये लोगों के अवचेतन मस्तिष्क में संयुक्त परिवार संस्था के प्रति वितृष्णा पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं, सारे रिश्तों में आपसी समझदारी, विश्वास व प्रेम की भावना पर जान बूंझ कर चोट पहुंचा रहे हैं।

  • चटपटी भाषा के साथ सूचनाएं लपेट कर आपकी बात कहने अंदाज ही निराला है और विशिष्ट भी !!

  • Neeraj Jat says:

    गजब, कहां थे आप अब तक? क्या गजब का लिखा है? आपके आसपास अभी तक कोई नहीं है। सहारनपुर से जम्मू तक जबरदस्त मनोरंजक अन्दाज में विस्तार से लिखा। और छोटे छोटे प्रसंगों से पोस्ट और भी आकर्षक लग रही है।
    ऐसा ही लिखते रहिये, और लिखते ही रहिये, बन्द मत करना।
    कोच C-6 की बजाय S-6 लिखना चाहिये था। स्लीपर कोच को S से सम्बोधित किया जाता है। गलती से आपने C लिख दिया है।

    • प्रिय नीरज भाई,

      क्या करूं ! बुढ़ापे का शरीर है, ’एस’ को ’सी’ लिख गया । खता माफ :) आपने प्रशंसा में कुछ ज्यादा ही लिख दिया है। संकोच अनुभव कर रहा हूं।

      सुशान्त

  • Sanjay Khera says:

    Again humoristic Hindi language use in this article is superb. Your description about vaccine, your simplicity to write about delayed train (parichit sa station dekhna). All things are superb. Sushant ji pls keep it up.

  • DHANESH SHARMA says:

    SINGHAL JI,WHAT A DETAILED DESCRIPTION ! I HAVE NEVER READ IN MY LIFE.AFTER READING THIS,I FEEL PHOTOS ARE NOT NECESSARY FOR MAKING A POST BEAUTIFUL.I WILL ALWAYS READ YOUR ALL POSTS.I AM ALSO A BANKER WORKING IN STATE BANK OF PATIALA AT FARIDABAD.AGAIN VERY VERY THANKS FOR WRITING SUCH A BEAUTIFUL POST.

  • DHANESH SHARMA says:

    SINGHAL JI,WHAT A DETAILED DESCRIPTION ! I HAVE NEVER READ IN MY LIFE.AFTER READING THIS,I FEEL PHOTOS ARE NOT NECESSARY FOR MAKING A POST BEAUTIFUL.I WILL ALWAYS READ YOUR ALL POSTS.I AM ALSO A BANKER WORKING IN STATE BANK OF PATIALA AT FARIDABAD.AGAIN VERY VERY THANKS FOR WRITING SUCH A BEAUTIFUL POST.

    • Thanks a lot Dhanesh Sharma Ji, Glad to know that you are a banker and also a ghumakkar ! All the ghumakkars of this portal should make a program to meet and interact some day. It would be nice if many of us would travel in a single coach on a long journey – say for Kerala. What an idea, Sir Ji !

      Sushant

  • Mukesh Bhalse says:

    सुशांत जी,
    आज जैसे ही मैंने घुमक्कड़ की खिड़की खोली और आपकी पोस्ट देखी तो प्रथमद्रष्टया इस बार भी तस्वीरें न पाकर पोस्ट पढने से पहले ही मन बना लिया था की आज तो टिप्पणी के माध्यम से सुशांत जी की खूब खिंचाई करूँगा, और बड़े ही अनमने मन से पोस्ट को यूँ ही पढना शुरू कर दिया और बस पढता ही चला गया.

    पोस्ट पढने के बाद मेरे विचारों में आश्चर्यजनक परिवर्तन आया और आप जानना चाहेंगे की पोस्ट पढने के बाद अब मेरे पोस्ट के बारे में मेरे क्या विचार है ? जी हाँ अब मैं अपने पुरे आत्मविश्वास और होशो हवाश में कहना कहता हूँ की मैंने घुमक्कड़ पर इतनी रोचक और मनोरंजक पोस्ट आज तक नहीं पढ़ी.

    मैंने आज तक किसी भी पोस्ट को इतना एन्जॉय नहीं किया (अपनी खुद की भी नहीं) जितना आपकी आजकी इस पोस्ट को किया. आप एक महान लेखक हैं, आपने हिंदी साहित्य की एक नई विधा “हास्य व्यंग्य मिश्रित यात्रा वृत्तान्त” को जन्म दिया है, जिसके लिए आप बधाई के पात्र हैं. और प्रभु आपकी पोस्ट को तस्वीरों की रत्ती भर भी जरुरत नहीं है, बल्कि मैं तो यह कहूँगा की तस्वीरें होने से लेखन के प्रवाह में रुकावट आएगी और लेख में रस में कमी आने की संभावना है.

    जिन पंक्तियों ने मुझे पेट पकड़कर साड़ी शर्म हया छोड़कर बेतहाशा हंसने के लिए मजबूर किया उनका जिक्र जरुर करना चाहूँगा.
    १. रिमोट से टी.वी. का गला घोंटते के बाद श्रीमती जी मेरी ओर उन्मुख हुईं.
    २. पंकज मुझसे लगभग २० वर्ष छोटा है, अतः अगर मुझे अंकल जी कहता तो भी मैं उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता था.
    ३. कश्मीर के बारे में ऐसे पढ़ाई करनी आरंभ कर दी मानों बोर्ड की परीक्षा सर पर खड़ी हो और मास्टर जी ने बताया हो कि कश्मीर का चैप्टर इंपोर्टेंट है.
    ४.वेक्सिंग वाला किस्सा.
    ५. “नहीं मम्मी जी, ऐसी बात नहीं है। स्कूल में मैम ने आज थोड़ा ही मारा था, वो तो परसों की बात थी !
    ६. दो-दो सौ किलो के ये सामने वाले दंपत्ति भी होंगे!
    ७. दर्ज़ी अपने चेले से कहे कि तू इधर से टेप का एक सिरा पकड़ और मैं दूसरी तरफ से चक्कर लगा कर अभी आता हूं.

    और सबसे धमाकेदार
    “मुझे लगा ये जरूर लक्स का अंडरवीयर बनियान पहनते होंगे जो अन्दर की बात बता पा रहे हैं”

    अगले भाग के बेसब्री से इंतज़ार में……………….

    • अब मैं क्या कहूं मुकेश जी, आपका कमेंट पढ़ते पढ़ते मुझे गुदगुदी हो रही है। आपको अच्छा लगा तो मेरी मेहनत सफल भई !

  • Sharma Shreeniwas says:

    श्री सुशांत सिंघल जी, आपका लेखन पढकर आनन्द आ गया। पारिवारिक जीवन/सम्बन्धों के प्रति चुटकियाँ लेते हुये जो आपने प्रवाहता के साथ वर्णन किया है, लगता नहीं कि आप लेखन में नये हैं। ओमप्रकाश शर्मा व चुपके-चुपके फिल्म के बारे में लिखते हुये, पंकजजी की मोल-भाव की विशेषता के बारे में सरसतापूर्ण भाषा में वर्णन पढकर किसी का भी आपकी लेखन शैली के प्रति कायल होना स्वाभाविक है। आपके सरस लेखन का इंतजार है।

  • Biswajit Ganguly says:

    Adarniye Sushantji,
    Samajh nahi aa rahaa ki kaise aapki is vichitra lekhan shelley ko sarahoon, shabdo ka abhav mehsoos kar rahaa hoon. Dar asal main abhi bhi unn drrisshyon se bahar nahi aa pa rahaa hoon jinka aapney bahoot hi gehraiyon se varnan kiya hay. office main bethkar shayad hi maine kabhi shalintaa ko langha hai parantoo is lekh ko padkar mai shayad apni ayoo aur pad ko bhool gaya aur lagbhag zamin par bethkar hanstaa hi chala gaya. Ishwar ki banai iss srishti main shayad isse mehetvapoorn koi vastu mujhey nahi dikhti jo aap kar rahe hain….Khushi aur aanand se sabko sarabor kar diya hain aapney. Aapki shalintaa se paripurn bhasha aur stree purush sambandho ki garima aur maryada ka dhyan rakhtey hooye vyangya karna nischay hi bahoot kathin karya hey par aap isme nipurn hey. Ghumakkari ko aapney ek nai sangya aur swaroop de diya hey. aapke sabhi lekho ki apeksha rahegi…….Biswajit

  • sarvesh n vashistha says:

    सुशांत जी ऐसी यात्रा करवाएँगे तो कश्मीर क्या स्वर्ग में भी चलने को तैयार हैं
    जासूसी तथा कमेडी मेंस सी ६ या एस ६ कुत्च भी चलेगा

    • सर्वेश जी,

      घुमक्कड़ में स्वर्ग की यात्रा का फार्मेट स्वीकार्य नहीं है इसलिये हम अपने देश को ही स्वर्ग बनाने की चेष्टा कर सकते हैं। आपको लेख पसन्द आया, मोगाम्बो खुश हुआ !

      सुशान्त सिंहल

  • प्रिय मित्रों,

    आप सब के स्नेहपूर्ण पत्र के लिये बहुत बहुत आभार ! वास्तव में मनु प्रकाश त्यागी की पटनीटॉप वाली पोस्ट ने मुझे में बहुत प्रभावित किया था और मैने उसका प्रिंट आउट निकाल कर पत्नी को भी पढ़ाया था। उसके बाद ही मैने भी घुमक्कड़ पर लिखने का मन बनाया । सोचा था कि श्रीनगर से लौट कर घुमक्कड़ डॉट कॉम के लिये लिखूंगा, पर आलस्य में बहुत दिन निकल गये। अगर यह अनुभूति होती कि इतना जोरदार स्वागत होगा तो निश्चय ही तीन-चार महीने का विलंब नहीं होता। इससे आगे का विवरण लाइन में लगा हुआ है, आशा है आप तक इसी सप्ताह में पहुंच सकेगा। आपका स्नेह यूं ही बना रहे, प्रभु से यही याचना है। घुमक्कड़ साइट ने मुझे इतने कम समय में इतना अधिक प्यार दे दिया है कि समझ नहीं आ रहा, कहां संभाल कर रखूं ! :)

    सुशान्त

    • SilentSoul says:

      संभाल कर मत रखो सिंहल जी उस प्यार को बांटो साथी घुमक्कड़ो के बीच…क्योकि प्यार ही एक ऐसी चीज है जो बांटने से और बढ़ती है…

      मजेदार वर्णन…पिछले पोस्ट में भी तारीफ करी थी पर शायद अकिंचन व्यक्तियों के कमैट का उत्तर नही देते आप..

      व्यंग लिखना सबसे मुश्किल काम है जिसे आपने बड़ी सरलता से लिखा

      • Dear Silent Soul,

        First of all, I am terribly sorry having missed your comment on earlier post. Being already your fan, I was looking forward to hear from your side since your views on my post were highly valuable for me. I did a great disservice to myself by not noticing your comment. It is like waiting eagerly for your hero and when he finally arrives, you are not there.

        Having said this much, I am deeply indebted to you and to all the other ghumakkar friends who have taken the pains to write their beautiful comments, rather showering their praises over me. I am not habitual of receiving such generous comments from my readers and feel somewhat awkward about it. I am more comfortable with critics. Being married for more than two decades conditions you that way, I suppose ! :) :D

        I have read many of your posts and have made my wife also to read them. I specially liked your experiences – खट्टी मीठी यादें ! पैसे कमाने के नायाब तरीके – पब्लिक फोन बूथ, जुगाड़बाजी and all that. You are a celebrated author at Ghumakkar and by referring to yourself as अकिंचन has generated some NOT OK feelings within me. Sorry again, dear.

        Cordially,

        Sushant Singhal

  • jaishree says:

    Sushant ji

    अरे! क्या आप श्रीमतीजी की जेब कतरने वाली कला से दुखी होकर शर्टपेंट में एक अदद जेब भी रखवाना छोड़ दिए हैं? जेब के अनेको ‘ऐब’! अब देखिए ना, प्यार भी उसी में संभाल कर रख लीजिए, और अर्धांगिनी को आधा ले लेने दीजिए.

    ‘जस का तस’ धर देने के लिए माफी चाहती हूँ, पर कायल हूँ आपके लेखों की.

    अगली कड़ी शीघ्र प्रस्तुत करिएगा.

    • प्रिय जयश्री जी,

      इस मामले में मैं उन सौभाग्यशाली पतियों में हूं जिनकी जेब उनकी पत्नी कभी नहीं कतरती ! पता नहीं कैसी सतयुग के जमाने की पत्नी मेरे हिस्से में आई है जो वाशिंग मशीन में कपड़े डालते समय मेरे जितने भी रुपये – पैसे मिलते हैं, सब मेज़ पर टिका देती है। कभी बहुत सारे नोट मिल जायें तो मुझे शिक्षा देने के लिये दो-तीन दिन तक चुप बैठी रहती है कि शायद मैं अपने पैसों के लिये परेशान दिखाई दूं । पर जब मैं नहीं मांगता (मुझे पता ही नहीं चलता कि मेरे कुछ पैसे कम हो रहे हैं) तो फिर झल्ला कर खुद ही पूछती है – “आपके कुछ पैसे कम नहीं हो रहे? कितने कम हैं, बिल्कुल सही सही बताओ तो मिल जायेंगे, वरना तो समझो चुर गये।”
      आपके प्रोत्साहन के लिये हार्दिक आभार सहित,

      सुशान्त

  • Harish Bhatt says:

    Sushant Ji,

    This is the first post on Ghumakkar that I have read at one stretch without leaving the computer screen even for a second. The simplicity and polite humour in your language is unique kept me glued through out the post. Even thou there are no pictures, but not at a single point the need for the pictures was felt. Your narration about different face expressions of you, your wife, Pankaj Ji and his wife at different occasions was so precise that I could visualize the expressions they must have had on their faces. Truly an exceptionally outstanding write up… Thank you for sharing and I look forward to many more such stories…

    Harish

  • Harish Bhatt says:

    और हां चलचित्र “चुपके – चुपके” में धर्मेन्द्र का नाम शायद “प्यारे मोहन” था “प्रीतम प्यारे” नहीं :-)

    • Priya Harish Ji,

      A bucketful of thanks to you for embellishing my post with your comment. I think Pyare Mohan was the name when Dharmendra had met Sharmila Tagore for the first time in the garb of a watchman – ghaas phoons ka daaktar !

      Sushant

  • kavita Bhalse says:

    सुशांत जी ,
    सभी ने आपके लेख की इतनी तारीफ कर दी की अब मेरे लिए शब्द ही नहीं बचे फिर भी अपने शब्दकोश से कुछ चुनकर आपके लिए लाई हूँ .ऐसा हास्य व्यग्य तो मुझे शरद जोशी के लेख में मिलता हैं बहुत बढ़िया लिखते रहिये .
    धन्यवाद .

    • कविता जी, आप मेरी तुलना आदरणीय स्वर्गीय शरद जोशी जी से करके मुझे चले के झाड़ पर क्यों चढ़ाये दे रही हैं? :) किशोरावस्था से ही शरद जी के व्यंग्य पढ़ पढ़ कर आनन्दित होता रहा हूं । हो सकता है अपने आदर्श का कुछ प्रभाव उनके फैन में भी आ गया हो। बस, इससे अधिक कुछ नहीं ! आपका हार्दिक आभार !

  • Nandan Jha says:

    सुशांत जी (सच कहें तो ये जी वाला सिस्टम थोडा औपचारिक हो जाता है, आप की कुछ सुझाव दें की किस नाम से आप जाने जायेंगे यहाँ या कुछ शोर्ट में ) , बात निकली है तो दूर तलक जायेगी | कई बार पढ़ा मैं ये लेख, तीन चार बार पूरा एक ही बैठक में और कई बार किश्तों में , और अब तो लगता है की जैसे पंकज एक काल्पनिक किरदार हैं, :-) और दो बर्थ केवल आप दोनों के लिए ही थीं | हे हे | मैं तो कहता हूँ की पंकज का नाम बदल दिया जाए और आपके हर लेख में एक चरित्र कलाकार की तरह वो आपका साथ निभाएंगे | पिछली बार श्री लाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’ का ज़िक्र किया था, इस बार पंकज अध्याय के सिलसिले में आपको P. G. Wodehouse के Mr. Jeeves का हवाला देना चाहता हूँ |

    सहारनपुर से जम्मू तक ले आये आप , अब श्रीनगर की ओर रुख है |

    • प्रिय नन्दन,

      कल ही जब SilentSoul ने कमेंट किया कि मैं शायद “अकिंचन” लोगों के कमेंट का जवाब नहीं देता तो मैं स्टीयरिंग घुमा कर वापस पुरानी वाली पोस्ट पर गया और गाड़ी से उतर कर पैदल चल – चल कर हर एक कमेंट को ऐसे देखता रहा जैसे पंकज का मोबाइल ढूंढ रहा होऊं ! मुझे न सिर्फ SilentSoul का एक प्यारा सा, नन्हा सा, दुलारा सा कमेंट नज़र आया बल्कि एक सुपर डुपर कमेंट आपका भी मिला जिसका उत्तर नहीं दिया जा सका था। आप और SS – दोनों ही मुझे इतने प्रिय हैं कि कमेंट तो छोड़िये, मैं खुद चल कर आपसे मिलने और आभार व्यक्त करने के लिये आऊं तो हार्दिक प्रसन्नता अनुभव करूंगा।

      पंकज काल्पनिक किरदार तो नहीं है पर हां, आपका आइडिया विचारेबल अवश्य है। अच्छा यह होगा कि पंकज और मैं अक्सर साथ-साथ घुमक्कड़ी शुरु कर दें और फिर मैं नमक – मिर्च लगा कर वह सारे यात्रा के किस्से आप सब तक पहुंचाता रहूं । सच, मैं आपके सुझाव पर गंभीरली विचार करूंगा ।

      सुशान्त

      आप मुझे संक्षेप में क्या नाम देना चाहते हैं? जो इच्छा हो दे लीजिये, आपका स्वागत है। बस, सुसु कहने से बचियेगा। सुकुसि भी चल जायेगा। :)

  • Sanjay Kaushik says:

    सिंघल जी, बहुत हे अच्छा विवरण. लग ही नहीं रहा की घुमक्कड की कोई पोस्ट पढ़ रहे हैं. ऐसा लग रहा था जैसे “सरिता” या “गृहशोभा” का कोई व्यंग लेख पढ़ रहे हों. लगता ही नहीं की किसी Mango Man (अरे भाई “आम आदमी”) द्वारा लिखा हुआ लेख हो, ऐसा लगता है जैसे किसी “लेखक” (अब “लेखक” कहने पे बुरा मत मान जाना ) ने लिख रखा हो .

    सहारनपुर से याद आया, एक बार हम (मेरे अलावा दो मित्र और थे) भी सहारपुर की टिकेट ले के रेल मैं बैठे थे, हरिद्वार गंगा स्नान के लिए जाना था, लेकिन रास्ते मैं ही “ज्ञान” प्राप्त हो गया (वही आपके “लक्स” वाले दैनिक यात्रियों से) और हम मुजफ्फरनगर ही उतर गए और वहाँ से बस पकड़ ली.. …

    वैसे सच बताऊँ, “फेसबुक” के बाद अब मुझे “घुमक्कड” से भी डर लगने लगा है, एक बार गलती से भी घुस गए तो फिर “दफ्तर” का काम भी “घुस” ही जाता है….

    लेकिन आप लिखते रहना, “सोचना क्या है, जो भी होगा देखा जायेगा…. :) “

    • Sanjay Kaushik says:

      हाँ , वैसे फोटो ना होने का कोई कारण समझ मैं नहीं आया. LAPTOP और कैमरा तो आपके साथ था, फिर इस्तेमाल क्यों नहीं हुआ ?? या अभी तक जरुरत ही महसूस नहीं हुई ?

      • भाई जान, हमारी श्रीमती जी मेरे कैमरे और लैपटॉप को अपनी सौत की श्रेणी में रखती हैं। अगर सहारनपुर में ही कैमरा गले में लटका लेता और फोटो खींचनी चालू कर देता तो वह कहतीं – आप और आपका कैमरा खुश रहो, मैं तो घर में ही भली ! मैने सोचा कि एक बार जम्मू पहुंच जाऊं फिर कैमरा बैग में से बाहर निकाला जाये। वैसे भी मैं फ्लैश फोटो खींचना पसन्द नहीं करता । मेरी सारी फोटो में फ्लैश ऑफ ही रहती है। रात भर की यात्रा में क्या फोटो खींचता ?

    • प्रिय संजय कौशिक,

      आप आफिस का काम छोड़ छोड़ कर यात्रा वृत्तान्त पढ़ते हैं? बाप रे, यह तो हमारे देश और देशवासियों के लिये बहुत बुरी बात हो जायेगी । आप प्लीज़ ऐसा न करें। अब रही बात मैंगो मैन की तो हम सब मैंगो मैन ही तो हैं। अगर मेरे लेख समाचार पत्र पत्रिकाओं में छपते रहते हैं तो भी मैं आम से विशेष तो नहीं हो जाऊंगा न? मुझे आप सब का इतना प्यार मिल रहा है, मेरे लिये यह सबसे बड़ी उपलब्धि है। आभार !

  • Ritesh Gupta says:

    वाह क्या बात ….क्या बात….| सच पूछो तो ….बहुत मजा आया आपका रुचिकर शैली में व्यवस्थित लेख पढ़कर …| आप लिखते रहिये हम भी पढ़ने को तैयार हैं……|
    आशा करता हू कि शायद अगले लेख में आपके द्वारा खिचे चित्र और चलचित्र भी देखने को मिलेंगे ….|
    धन्यवाद

  • सर्वप्रथम तो देरी के लिए क्षमा करें तनावान्त सुशान्त जी . मैँ घुमक्कड़ पर तो आया मगर कैसे (कश्मीर) चलना है क्या? छूट गया. दूसरी बात ये कि आपने जो अपना चित्र घुमक्कड़ पर लगा रखा है वह् ऐसा प्रतीत होता है मानो मास्टरजी गु़स्से मैँ पूरी कक्षा पर नजरें गड़ाए यह देख् रहे हों कि कौन सा बच्चा शरारत कर रहा है (मगर मैं जानता हूँ कि आप देखते है कि कौन सा घुमक्कड़ इतना ढीठ है जो मेरी घुमक्कड़ी पर गुदगुदा नहीं रहा). गुदगुदी क्ा आलम तो यह है कि एक तो बुढ़ापे ने मोटा चश्मा चढवा दिया ऊपर से पड़ते हूए आनन्द हास्य फूटता है और दोनों आँखों के शटर कुछ समय के बंद हो जाते हैं अर्धांगिनी समझती है बूढ़ा सठिया गया है ना जाने मॉनीटर मॆं आँखें गड़ाए हँसता जां रहा है और क्या दुंद रहा है.

    सहारनपुर मेरे लिए अब तक केवल मायावती का चुनावक्षेत्र था मगर अब वह मेरे लिए “सराहनपुर” हो गया है जिसने घुमक्कड़ परिवार को ‘तनावान्त सुशान्त’ जैसा लेखक दिया है

    आपका हर लेख स्वर्गीय शरद जोशी जी को सच्ची श्रद्धांजलि है.
    धन्यवाद.

    • प्रिय त्रिदेव चरन जी,

      सबसे पहले एक जरूरी बात ! कल फोन आपका ही आया था क्या? मैं उस समय अपने बैंक के अधिकारियों व प्रबन्धकों की क्लास ले रहा था, जो छात्र के रूप में मेरे सामने बैठे थे। उस समय विस्तृत बात करना संभव / उचित नहीं लगा। बाद में, यह पता लगाना कठिन हो गया कि received calls में से आपके वाली कॉल कौन सी है। उस दौरान इतने सारे फोन आ गये जितने आम तौर पर नहीं आते। यदि फोन आपका ही था तो कृपया अपना नंबर मुझे एक बार लिख दें ताकि आपसे गप-शप चालू की जा सके। वैसे मैं फोन पर बहुत अच्छे ढंग से बात नहीं कर पाता हूं।

      दूसरी बात, आपने मेरे लेखन की सराहना में बहुत कुछ लिख डाला है, जिसके योग्य मैं संभवतः नहीं हूं । आपने तनावान्त नामकरण किया है, मैं आपकी भावनाओं को समझ पा रहा हूं और आपका ऋणी हूं। एक बार पुनः आभार सहित,

      सुशान्त सिंहल

      पुनश्च – मेरी फोटो कभी भी अच्छी नहीं आती या यूं कहिये कि मैं सच्चाई को पसन्द नहीं कर पाता और इस लिये अपनी फोटो को हमेशा “बहुत खराब आई है” कह कर रिजेक्ट कर देता हूं । ये एक फोटो मेरी एक छात्रा ने खींची थी जो आयु में मुझसे भी चार-पांच साल बड़ी थीं । उनकी खींची हुई फोटो मेरी सर्वश्रेष्ठ फोटो हैं जिनको मैं सब स्थानों पर उपयोग कर लिया करता हूं। :)

  • D.L.Narayan says:

    घुमाक्कर में आपका हार्दिक स्वागत है, सुशांत जी।
    आपके आने से याहां चार चाँद लग गये।
    You write with effortless elegance and spice it with an amazing sense of humour.
    Where were you hiding all these days, Mr. Singhal?

    PS: I suspect that your talkative driver is a mix of Pyare Mohan Allahabadi of Chupke Chupke and Basanti of Sholay. Coincidentally both films starred Dharmendra and Amitabh and both films are on my all-time favourites list.

  • Eskay says:

    Dear DL,

    Ha ha ha ha. You are right about our driver. Every person has his own eccentricities and our Pritam Pyare was no exception. Basically, he is a good human being who used to tell about his past experiences of life in much the same way as Rajesh Khanna used to describe in Bawarchee. Working as taxi driver is not considered in our country as a very highly respectable job. People don’t think it fit to invite their driver at share their dining table even. He is expected to sit on some remote table in the restaurant so that he does not harbour any notion of same equal social status as we have got. It is all wrong but it is the way it happens in our country. In such scenario, if I am much more than a mere taxi driver and wish others to know about the ‘real me’, I would keep on trying to impress my fellow travellers so that I may earn more respect in various ways. This exactly was happening with Pritam Pyare too.

    Being a great fan of your writing myself, I value your kind words of appreciation a lot. Thanks a ton.

    Sushant

  • ????? ???? says:

    मजा आ गया सुशांत जी …. इस बार आपकी लेखन प्रतिभा का लोहा मान गए ….हम लोग …

  • कश्मीर श्रृंखला का प्रारंभ बहुत ही अच्छा हुआ है. मजेदार पोस्ट है, आपका घटनाओं का तुलना करने का अंदाज बहुत ही अच्छा है. अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी. एक सुझाव देने का दुस्साहस कर रहा हूँ कि हमेशा व्यंग्य और घुमक्कडी का सही अनुपात बनाके रखें. और जरूरत पड़ने पर घुमक्कडी ही हावी रहनी चाहिए.

    • सोलंकी जी, हार्दिक आभार – कश्मीर यात्रा वृत्तान्त पसन्द करने के लिये भी और अमूल्य सुझाव के लिये भी । आपकी बात बिल्कुल सही है और अब मैं निश्चिन्त भाव से आगे का वृत्तान्त लिख सकता हूं। वास्तव में जब आप दर्शनीय स्थलों का वर्णन कर रहे हों तो उस वर्णन में व्यंग्य के लिये बहुत कम गुंजाइश होती है बल्कि होती ही नहीं है। मुझे लग रहा था कि मेरी आगामी पोस्ट में जब पाठक मित्रों को व्यंग्य नहीं मिलेगा तो उनको निराशा तो नहीं होगी ? कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझसे सिर्फ व्यंग्य की अपेक्षा की जाने लगी हो ? यदि ऐसा हुआ तो जन भावनाओं के दबाव में आकर मैं भी टाइप्ट होकर रह जाऊंगा । पर अब आपका पत्र पाकर मैं सुकून अनुभव कर रहा हूं !

  • Sharma Shreeniwas says:

    सुशांतजी, मैं समझता हूँ कि आप किसी पर व्यंग्य नहीं करते, आपकी लेखन शैली व्यंगात्मक है जिससे अपनों के प्रति स्नेह/प्यार औदार्य रूप से “टपकता” है तो किसी सामाजिक-बुराई के प्रति सहज रूप से आप अपने उद्गार प्रकट कर जाते हैं। आपके लेखन के सभी दीवाने हैं। आपके लेखन में व्यंग्य है या नहीं इसपर नहीं विचारते हुये, आपके स्वाभाविक लेखन का ही इंतजार रहता है और इसके लिये आपको घुमक्कड परिवार से असीम प्यार मिलेगा। ‘पब्लिक’ क्या चाहती है इसी की पूर्ति के कारण ही तो ‘एकता कपूर’ व ‘कलर्स’ के सीरियल घटिया व सतही भावनाओं को उभारकर पेश करने की सामाजिक-अपराध के कृत्य की श्रेणी में आ गये हैं। आशा है कि आपका लेखन अनवरत मिलता रहेगा।

  • rajesh priya says:

    singhal saheb sarvpratham aapko dil ki gehrai se dhanywad.ek baat to tay hai aap kamaal ke lekhak hain,hasyaVYANG(wo bhi aisa jo kisi ko bura na lage,balki maza hi aayega)ki aisi rachna ghumakkari kya kahin nahi padhi.wife normaly post nahi padhti hain,par jab maine unhe aapke is kashmir yatra ka varnan sunana shuru kia,wo saare kaam chor kar tv ke saamne aakar baith gayee,aur pet pakar kar aise hanste unko apni 11 saal ki vivahit jivan me pehli baar dekha,maine suna tha ki insaan jab jyada hansta hai to uski aankh se pani nikalta hai,aaj maine dekh lia.main(maaf kijiye akele nahi patni bhi saath me padh rahi hai) aapki ye pehli post pdh raha hun,aur apne ko rok nahi pa raha agle post ko padhne se. ja raha hun page ke top par aapka dusra post padhne.aur haan lekhan aur apka face viprit hai.

    • Dear Rajesh Priya,

      I don’t know what to say – except that your pleasure has pleased me a lot. The purpose of this write up was to spread happiness and if I have been able to do it even a little bit, my purpose is amply served. Aapki 11 saal purani priya ko meri ardhangini aur meri or se saadar namaskar aur shubh kaamnaayen.

      Sushant Singhal

      पुनश्च – कोयले की खान में से कभी – कभी हीरे की कनी भी निकल आती हैं ! अतः मेरे जैसे खूसट चेहरे के इंसान के “श्रीमुख” से आपको हास्य-व्यंग्य की वर्षा मिल रही है तो इसमें कितना सुख है !!! है ना ? :) :) आपने कभी हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा से कहा कि भाई, चार लाइना सुनाते हुए हंसते – मुस्कुराते क्यों नहीं हो? अरे साब, हम अपने दिल के दर्द खुद के अन्दर समेट कर दुनिया को हंसाते हैं ! हा-हा-हा !

  • Sanjeev Bajaj says:

    कमाल ही कमाल …… सुशांत भाई आपकी लेखनी मै क्या जादू है ,ऐसा लगा के आपके साथ हम भी यात्रा के साथी है .बहुत ही मज़ा आया ,

    • शुक्रिया संजीव बजाज जी ! आप तो साइकिल पर सहारनपुर से कन्याकुमारी का टूर कर आये हो। उसका वर्णन यहां लिख डालिये ना !

  • Kalpana says:

    Fantastic… It reminded me my travel to Jammu…
    Your and Mam’s conversation creates fun in this blog… Amazing as usual..

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