हरिद्वार और देहरादून का तूफानी दौरा – २
मेरा विचार था कि बुद्धा टैंपिल मेरे 1980 में देहरादून छोड़ देने के बाद अस्तित्व में आया है किन्तु जब मैने भाई से पूछा तो उसने बताया कि पहले ये इतना लोकप्रिय नहीं हुआ करता था अतः हम लोग पहले यहां आया नहीं करते थे। पिछले कुछ वर्षों से, जब से ISBT यहां पास में बनी है और इस क्षेत्र में जनसंख्या भी बढ़ गई और बाज़ार भी बन गये तो लोगों को पता चला कि ऐसा कोई सुन्दर सा मंदिर भी यहां आसपास में है। क्लेमेंटाउन में स्थित इस बौद्ध मठ के बारे बाद में मैने जानने का प्रयास किया तो इसके महत्व की अनुभूति हुई। यह मठ तिब्बत के विश्वविख्यात बौद्ध मठ की प्रतिकृति है और इसकी सबसे बड़ी विशेषता इसके मुख्य भवन की दीवारों पर मौजूद भित्तिचित्र हैं, कलाकृतियां हैं जिनके माध्यम से भगवान बुद्ध के जीवन की अनेकानेक घटनाओं को अंकित किया गया है। (इनका चित्र लेना मना है)। इसका निर्माण वर्ष 1965 में हुआ बताया जाता है। लगभग पचास कलाकार तीन वर्ष तक इन दीवारों पर स्वर्णिम रंग के पेंट से कलाकृतियां बनाते रहे हैं तब जाकर यह कार्य पूरा हुआ। बहुत दूर से ही इस मंदिर का स्तूप दिखाई देता है जो 220 फीट ऊंचा है। यह जापान की वास्तुकला शैली पर आधारित है। इस मुख्य भवन में पांच मंजिलें हैं और हर मंजिल पर भगवान बुद्ध की व अन्य अनेकानेक प्रतिमायें भी स्थापित की गई हैं। यह मानव की स्वभावगत कमजोरी है कि वह जिस कला को देखकर प्रारंभ में चकित रह जाता है, बाद में उसी कला के और भी अगणित नमूने सामने आते रहें तो धीरे-धीरे उसका उत्साह भी कम होता जाता है। बहुत ज्यादा ध्यान से वह हर चीज़ का अध्ययन नहीं कर पाता। पहली मंजिल पर स्थित कलाकृतियों और प्रतिमाओं को देखने में हमने जितना समय लगाया उससे थोड़ा सा ज्यादा समय में हमने बाकी चारों मंजिलें देख लीं ! शायद इसकी एक मुख्य वज़ह ये है कि हम उन सब कलाकृतियों को समझ नहीं पा रहे थे और हमें सब कुछ एक जैसा सा लग रहा था। कोई गाइड यदि वहां होता जो एक-एक चीज़ का महत्व समझाता तो अलग बात होती।
मुख्य मंडप में से निकल कर सीढ़ियां उतर कर लॉन में आये तो बायें ओर भी एक स्तंभ दिखाई दिया। लॉन में एक धर्मचक्र स्थापित किया गया है। आपने तिब्बतियों को अपने हाथ में एक धर्मचक्र लिये हुए और उसे हाथ की हल्के से दी जाने वाली जुंबिश से निरंतर घुमाते हुए देखा होगा। वे पोर्टेबल धर्मचक्र वास्तव में इसी धर्मचक्र की अनुकृतियां हैं। इस स्तूप में लगभग 500 लामा धार्मिक शिक्षा ग्रहण करते हैं। बताया जाता है कि तिब्बत के बाद यह एशिया का सबसे बड़ा स्तूप है।
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