सफर सिक्किम का भाग 7 : बर्फ की वादियाँ , छान्गू झील और कथा बाबा हरभजन सिंह की !

पिछली पोस्ट में आपने इस श्रृंखला में मेरे साथ यूमथांग घाटी की सैर की थी। शाम को हम गंगतोक लौट चुके थे। रात भर आराम करने के बाद अगली सुबह पता चला कि भारी बारिश और चट्टानों के खिसकने की वजह से नाथू-ला का रास्ता बंद हो गया है। मन ही मन मायूस हुये कि इतने पास आकर भी भारत-चीन सीमा को देखने से वंचित रह जाएँगे। पर बारिश ने जहाँ नाथू-ला जाने में बाधा उत्पन्न कर दी थी तो वहीं ये भी सुनिश्चित कर दिया था कि हमें सिक्किम की बर्फीली वादियाँ के पहली बार दर्शन हो ही जाएँगे। इसी खुशी को मन में संजोये हुये हम छान्गू या Tsomgo (अब इसका उच्चारण मेरे वश के बाहर है, वैसे भूतिया भाषा में Tsomgo का मतलब झील का उदगम स्थल है ) की ओर चल पड़े। 3780 मीटर यानि करीब 12000 फीट की ऊँचाई पर स्थित छान्गू झील गंगतोक से मात्र 40 कि.मी. की दूरी पर है ।

गंगतोक से निकलते ही हरे भरे देवदार के जंगलो ने हमारा स्वागत किया। हर बार की तरह धूप में वही निखार था ।

धूप में निखरते देवदार...


कम दूरी का एक मतलब ये भी था की रास्ते भर जबरदस्त चढ़ाई थी। 30 कि.मी. पार करने के बाद रास्ते के दोनों ओर बर्फ के ढ़ेर दिखने लगे। मैदानों में रहने वाले हम जैसे लोगों के लिये बर्फ की चादर में लिपटे इन पर्वतों को इतने करीब से देख पाना अपने आप में एक सुखद अनुभूति थी। पर ये तो अभी शुरुआत थी।

चारों ओर सफेदी ही सफेदी...



स्टेट बैंक आफ इंडिया हर कहीं हर जगह...


छान्गू झील के पास हमें आगे की बर्फ का मुकाबला करने के लिये घुटनों तक लम्बे जूतों और दस्तानों से लैस होना पड़ा ।

बर्फ में लिपटी हुई छांगू झील


दरअसल हमें बाबा हरभजन सिंह मंदिर तक जाना था जो कि नाथू-ला और जेलेप-ला के बीच स्थित है। ये मंदिर 23 वीं पंजाब रेजीमेंट के एक जवान की याद में बनाया है जो ड्यूटी के दौरान इन्हीं वादियों में गुम हो गया था ।

बाबा मंदिर की भी अपनी एक रोचक कहानी है। यहाँ के लोग कहते हैं कि चार अक्टूबर 1968 को ये सिपाही खच्चरों के एक झुंड को नदी पार कराते समय डूब गया था। कुछ दिनों बाद उसके एक साथी को सपने में हरभजन सिंह ने आकर बताया कि उसके साथ क्या हादसा हुआ था और वो किस तरह बर्फ के ढेर में दब कर मर गया। उसने स्वप्न में उसी जगह अपनी समाधि बनाने की इच्छा ज़ाहिर की। बाद में रेजीमेंट के जवान उस जगह पहुँचे तो उन्हें उसका शव वहीं मिला। तबसे वो सिपाही बाबा हरभजन के नाम से मशहूर हो गया। इस इलाके के फौजी कहते हैं कि आज भी जब चीनी सीमा की तरफ हलचल होती है तो बाबा हरभजन किसी ना किसी फौजी के स्वप्न में आकर पहले ही ख़बर कर देते हैं।

बाबा हरभजन सिंह मंदिर (चित्र सौजन्य विकीपीडिया)


सिपाही हरभजन सिंह हर साल पन्द्रह सितंबर से दो महिनों की छुट्टी में घर जाया करता था। इन दो महिनों में यहाँ के जवान गश्त और बढ़ा देते हैं क्यूंकि बाबा की भविष्यवाणी छुट्टी पर होने के कारण उन्हें नहीं मिल पाती। इस मंदिर के सामने से गुजरते वक़्त आप इसकी तस्वीर नहीं ले सकते । जो बाबा के दर्शन करने उतरता है उसे ही तस्वीर खींचने की अनुमति है।

छान्गू से 10 कि.मी. दूर हम नाथू ला के इस प्रवेश द्वार की बगल से गुजरे । हमारे गाइड ने इशारा किया की सामने के पहाड़ के उस ओर चीन का इलाका है। मन ही मन कल्पना की कि रेड आर्मी कैसी दिखती होगी, वैसे भी इसके सिवाय कोई चारा भी तो ना था!

नाथू ला की ओर जाता रास्ता

थोड़ी ही देर में हम बाबा मंदिर के पास थे। सैलानियों की जबरदस्त भीड़ वहाँ पहले से ही मौजूद थी । मंदिर के चारों ओर श्वेत रंग में डूबी बर्फ ही बर्फ थी । उफ्फ क्या रंग था प्रकृति का, जमीं पर बर्फ की दूधिया चादर और ऊपर आकाश की अदभुत नीलिमा, बस जी अपने आप को इसमे. विलीन कर देने को चाहता था। इन अनमोल लमहों को कैमरे में कैद कर बर्फ के बिलकुल करीब जा पहुँचे।

उफ्फ इससे ज्यादा नीला आसमां कहाँ मिलेगा..


हमने घंटे भर जी भर के बर्फ पर उछल कूद मचाई । ऊँचाई तक गिरते पड़ते चढ़े और फिर फिसले। अब फिसलने से बर्फ भी पिघली ।कपड़ो की कई तहों के अंदर होने की वजह से हम इस बात से अनजान बने रहे कि पिघलती बर्फ धीरे-धीरे अंदर रास्ता बना रही है। जैसे ही इस बर्फ ने कपड़ों की अंतिम तह को पार किया, हमें वस्तुस्थिति का ज्ञान हुआ और हम वापस अपनी गाड़ी की ओर लपके। कुछ देर तक हमारी क्या हालत रही वो आप समझ ही गये होंगे:) । खैर वापसी में भोजन के लिये छान्गू में पुनः रुके।
भोजन में यहाँ के लोकप्रिय आहार मोमो का स्वाद चखा।

बर्फ में फिसलने का आनंद

भोजन कर के बाहर निकले तो देखा कि ये सुसज्जित यॉक अपने साथ तसवीर लेने के लिये पलकें बिछाये हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। अब हमें भी इस यॉक का दिल दुखाना अच्छा नहीं लगा सो खड़े हो गए गलबहियाँ कर!:) नतीजा आपके सामने है।

इस याक की रंगत के सामने भला कौन टिक सकता है?


वापसी में बादलों की वजह से पानी का रंग स्याह हो चला था। जगह जगह बर्फ और पानी ने मिलकर तरह तरह की आकृतियाँ गढ़ डाली थीं। एक नमूना आप भी देखिए…

बर्फ के बीच से झाँकती चट्टानें...


अगला दिन गंगतोक में बिताया हमारा आखिरी दिन था ! क्या घटा हमारे साथ आखिरी दिन? कैसे वापसी की रेलगाड़ी छूटते-छूटते बची ये ब्योरा अगले हिस्से में..

16 Comments

  • Mukesh Bhalse says:

    वाह मनीष जी,
    जितना ख़ूबसूरत वर्णन उससे बढ़कर छायाचित्र . सुबह सुबह आपकी बर्फ से ढंकी हुई पोस्ट पढना सचमुच एक अद्वितीय अनुभव था. मन प्रसन्न हो गया. बाबा हरभजन सिंह मंदिर के छायाचित्र नहीं दिखाई दिए ? क्या वहां छायाचित्र लेना प्रतिबंधित है?

    धन्यवाद

    • Manish Kumar says:

      मुकेश जी, दरअसल मैंने जो चित्र लिया था वो सही नहीं आया था। पर आपकी वाज़िब शिकायत दूर करने के लिए आज विकिपीडीया पर उपलब्ध चित्र को यहाँ लगा दिया है। चित्र आपको पसंद आए जानकर खुशी हुई।

  • मनीष भाई,
    मैं सिर्फ़ इन फ़ौजी बाबा का मन्दिर देखने के लिये ही यहाँ जाना चाहता हूँ,
    पहाडों के प्रति तो मेरा खास प्यार है ही, देखो कब तक जाना होगा यहाँ पर,
    वैसे अगर आप को जानकारी हो तो क्या आप बता सकते है कि यहाँ अपनी निजी गाडी भी ले जा सकते है क्या?

    • Manish Kumar says:

      जहाँ तक मुझे याद है नाथू ला की ओर जाने वाली हर गाड़ी को एक परमिट की जरूरत होती है जो सेना देती है। ये मंदिर नाथू ला जाने वाले रास्ते को छोड़ते हुए दूसरे रास्ते में पड़ता है। निजी वाहन से जाने पर भी परमिट लेना पड़ेगा। चौपहिया निजी वाहन तो मैंने वहाँ देखे थे पर किसी बाइक सवार को देखा हो ऐसा याद तो नहीं पड़ता।

  • Ritesh Gupta says:

    मनीष जी ,
    बहुत ही सुन्दर छायाचित्र और मनमोहक वर्णन हैं . एक बार हम भी गंगटोक गए थे पर टैक्सी वालो की हड़ताल की वजह से हम लोग गंगटोक नहीं घूम पाए थे और बिना घूमे ही वापिस आ गए थे .

    आपकी पोस्ट बहुत अच्छी लगी .

    धन्यवाद

  • AUROJIT says:

    मनीष जी,
    आपके साथ हम भी सिक्किम के सफ़र का का पूरा लुत्फ़ उठा रहे है.
    छांगु झील की तस्वीर बड़ी ही लुभावनी है.
    बाबा मंदिर की कहानी काफी रोचक है. ऐसी ही कहानी एक और पोस्ट में है जो की शायद जम्मू/कश्मीर सेक्टर में है – एक शहीद सिपाही का ऐसा ही आस्ताना है जहा यह माना जाता है की वह अभी भी हमारे सैनिको की रक्षा करता है – उसे बकायदे छुट्टी दी जाती है और उस वक़्त सैनिक उनके घर जाते है, वगैरह. शायद बाना पोस्ट नाम है उसका (या की वह इसी पोस्ट की कहानी है ?).

    कल परसों ही बेटी को पढ़ा रहा था अंध-विश्वास का मतलब और मै इस शब्द के प्राकृत संधि पर ही जोर दे रहा था – (blind faith) – एक नकारात्मक मायने में. परन्तु अब मुझे लगता है की यह शब्द सकारात्मक भी है कुछ मायनो में ( जैसे यहाँ ). अतः अब उसे बताऊंगा की अच्छा अन्धविश्वास भी एक मान्यता है और ऐसे अच्छे अन्धविश्वासो का हमें आदर करना चाहिए.

    पुनः धन्यवाद् आपका – इस रोमंचक यात्रा में हमें साथ लेने के लिए.

    • Manish Kumar says:

      आपकी भावना से पूरी तरह सहमत हूँ Auro ! दरअसल व्यक्तिगत रूप से ऐसी बातें मुझे आकर्षित नहीं करती। पर अगर कोई विश्वास या मान्यता इतनी कठोर परस्थितियों में लड़ने के लिए आत्मबल दे तो शायद उसके माएने ही बदल जाते हैं। बाबा मंदिर ऍसी ही एक मिसाल है।

  • Vibha says:

    बहुत ही खूबसूरत लेख मनीष जी।
    बाबा हरभजन सिन्घ की कहानी दिल को छू गयी। धन्य हैं ऐसे सिपाही जो मौत के पश्चात भी देश की रक्शा करते हैं।
    सुन्दर तस्वीरों के साथ बहुत अच्छा लेख।

  • Manish Kumar says:

    विभा एक बात जो मैंने पोस्ट में नहीं लिखी वो ये कि यहाँ के लोग कहते हैं कि सीमा पार की चीनी टुकड़ियाँ भी बाबा के चमात्कारिक शक्ति की बात मानती हैं। चीनी सिपाहियों ने भी घोड़े पर गश्त करते हुए एक व्यक्ति को रात में गश्त लगाते देखा है । ख़ैर मुख्य बात ये है कि बाबा मंदिर सिपाहियों को ये अहसास जरूर दिलाता है अपने घर बार से इतनी दूर कोई उनका ख्याल रखने वाला है।

  • Ram Dhall says:

    सिक्किम पर आपके सातों आलेख मैने पड़े हैं. बहुत बदिया लिखते हैं आप. आपके लेख पड़ते हुए ऐसा लगता है की हम भी आपके सैलानी ग्रूप का ही एक अंग हैं.

    आप यूँही लिखते रहिए और हम एंजाय करते रहें, यही प्रार्थना है. आपके अगले लेख का इंतेज़ार रहेगा..

    Please do excuse my poor hindi writing. I have visited most of the places mentioned by you in your posts and fully agree with Vibha’s comment on Baba Harbhajan Singh ji.

  • Nandan says:

    सफ़र के अंतिम पराव पर आते आते आप रोमांटिक हो गयें हैं मनीष , हा हा हा , खैर गर बैय्याँ का आनंद हमें भी मिल गया थोडा बहुत. गंगटोक की यात्रा तो मैने की है पर क्शोंगो झील जाना नहीं हो पाया |

  • Manish Kumar says:

    नंदन ऐसा मत कहिए भला यॉक ही मिला था हमें अपनी रोमांटिसिज्म दिखाने के लिए :) हाँ इतना जरूर है कि इस श्रृंखला की अगली कड़ी का शीर्षक जरूर रोमांटिक रहेगा।

  • Abhishek says:

    काफी समय बाद आ पाया आपके ब्लॉग पर. प्रकृति के इस दुलारे भूभाग पर आपकी पोस्ट काफी अच्छी लगी. एक साल अभी मैं अरुणाचल में ही रहा, और जब सिक्क्किम जाने का प्लान बना तो जॉब ही चेंज हो गई. देखूं फिर कब मौका मिल पाता है !

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