गुरुडांगमार से वापस अब हमें लाचुंग की ओर लौटना था । सुबह से 70 कि.मी.की यात्रा कर ही चुके थे । अब 120 कि.मी की दुर्गम यात्रा के बारे में सोचकर ही मन में थकावट हो रही थी। इस पूरी सिक्किम यात्रा में दोपहर के बाद शायद ही कही धूप के दर्शन हुये थे। हवा ने में फिर वही तेजी थी। सामने दिख रहे एक पर्वत पर बारिश के बादलों ने अपना डेरा जमा लिया था ।
वापसी में हम थान्गू के पास चोपटा घाटी में थोड़ी देर के लिये रुके । गुरुडांगमार की यात्रा के बाद सिर भारी सा होने लगा था। दो विशाल पर्वतों के बीच की इस घाटी में इक नदी बहती है जो जाड़ों के दिनों में पूरी जम जाती है। इसलिए चोपटा घाटी का ये विराम मन को सुकून देने वाला था। घाटी में नदी के नाम पर सिर्फ एक पतली सी लकीर दिख रही थी। बादलों के स्याह रंग की चादर ने घाटी की उस दिन की रंगत को भी फीका कर दिया था।
वैसे भी गुरुडांगमार से लाचेन की ये वापसी यात्रा हमारे और खासकर बच्चों के लिए बेहद तकलीफ़देह थी। उसी दिन लाचेन से लांगुँग लौटना हमारी मजबूरी थी। पर क़ायदे से लाचुँग से गुरुडांगमार जाकर वापस लाचेन में ही आकर रात गुजारनी चाहिए।
लाचेन पहुँचते पहुँचते बारिश शुरू हो चुकी थी। हमारे ट्रैवल एजेन्ट का इरादा लाचेन में भोजन करा के तुरंत लाचुंग ले जाने का था । पर बिना हाथ पैर सीधा किये कोई आगे जाने को तत्पर ना था। नतीजन 3 बजे के बजाए 4.30 में हम लाचेन से निकले । जैसे जैसे रोशनी कम हो रही थी वर्षा उतना ही प्रचंड रूप धारण करती जा रही थी । गजब का नजारा था…थोड़ीथोड़ी दूर पर उफनते जलप्रपात, गाड़ी की विंड स्क्रीन से टकराती बारिश की मोटी मोटी बूँदे, सड़क की काली लकीर की अगल बगल चहलकदमी करते बादल और मन मोहती हरियाली… सफर के कुछ अदभुत दृश्यों में से ये भी एक था। चलती गाड़ी से ली हुयी ये तसवीर में बादलों की इस चाल की झलक देखें।
चुन्गथांग करीब 6 बजे तक पहुँच चुके थे। यही से लाचुंग के लिये रास्ता कटता है। चुंगथांग से लाचुंग का सफर डरे सहमे बीता । पूरा रास्ता चढ़ाई ही चढ़ाई थी । एक ओर बढ़ता हुआ अँधेरा तो दूसरी ओर बारिश की वजह से पैदा हुई सफेद धुंध ! इन परिस्थितियों में भी हमारा कुशल चालक 60-70 कि.मी प्रति घंटे की रफ्तार से अपनी महिंद्रा हाँक रहा था। अब वो कितना भी चुस्त क्यूँ ना हो रास्ते का हर एक यू टर्न हमारे हृदय की धुकधुकी बढ़ाता जा रहा था । निगाहें मील के हर एक बीतते पत्थर पर अटकी पड़ीं थी….आतुरता से इस बात की प्रतीक्षा करते हुये कि कब लाचुंग के नाम के साथ शून्य की संख्या दिखाई दे जाये ।
7.30 बजे लाचुन्ग पहुँच कर हमने चैन की साँस ली। बाहर होती मूसलाधार बारिश अगले दिन के हमारे कार्यक्रम पर कुठाराघात करती प्रतीत हो रही थी। थकान इतनी ज्यादा थी कि चुपचाप रजाई के अंदर दुबक लिये। प्रातः 5.30 बजे होटल की छत पर सैलानियों की आवाजाही देख कर हमें भी छत पर जाने की उत्सुकता हुई कि माजरा क्या है?
लाचुंग की वो सुबह अनोखी थी। दूर दूर तक बारिश का नामोनिशान नहीं था। गहरे नीचे आकाश के नीचे लाचुंग का पहाड़ अपना सीना ताने खड़ा था।
पहाड़ के बीचों बीच पतले झरने की सफेद लकीर, चट्टानों के इस विशाल जाल के सामने बौनी प्रतीत हो रही थी। पर असली नजारा तो दूसरी ओर था। पर्वतों और सूरज के बीच की ऐसी आँखमिचौनी मैंने पहले कभी नहीं देखी थी।
पहाड़ के ठीक सामने का हिस्सा जिधर हमारा होटल था अभी भी अंधकार में डूबा था। दूर दूसरे शिखर के पास एक छोटा सा पेड़ किरणों की प्रतीक्षा में अपनी बाहें फैलाये खड़ा था। उधर बादलों की चादर को खिसकाकर सूर्य किरणें अपना मार्ग प्रशस्त कर रहीं थीं।
थोड़ी ही देर में ये किरणें कंचनजंघा की बर्फ से लदी चोटियों को यूं प्रकाशमान करने लगीं मानो भगवन ने पहाड़ के उस छोर पर बड़ी सी सर्चलाइट जला रखी हो। शायद वर्षों तक ये दृश्य मेरे स्मृतिपटल पर अंकित रहे। अपने सफर के इस यादगार लमहे को मैं अपने कैमरे में कैद कर सका ये मेरी खुशकिस्मती है।
हमारा अगला पड़ाव यूमथांग घाटी था । ये घाटी लॉचुंग से करीब 25 कि.मी. दूर है और यहाँ के लोग इसे फूलों की घाटी के नाम से भी बुलाते हैं । दरअसल ये घाटी रोडोडेन्ड्रोन्स की 24 अलग अलग प्रजातियों के लिये मशहूर है। सुबह की धूप का आनंद लेते हुये हम यूमथांग की ओर चल पड़े।
कैसा रहा यूमथांग का हमारा सफ़र ये बताएँगे आपको इस यात्रा की अगली कड़ी में…
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Hi Manish,
Superb pics.
But rendition of your prose takes the cake; smoothly flowing over the reader’s senses (as Vibha says above, like poetry). It reminds me of R Sankrityayan/ Shonku Maharaj (Bong travel writer), where the drab looking litho, with its paperback sincerity, was able to create bigger impression than all the digital pics and flourishes put together.
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Auro
Thx Auro for your encouraging words.
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