लाचेन की वो रात हमने एक छोटे से लॉज में गुजारी । रात्रि भोज के समय हमारे ट्रैवल एजेन्ट ने सूचना दी (या यूँ कहें कि बम फोड़ा) कि सुबह 5.30 बजे तक हमें निकल जाना है । अब उसे किस मुँह से बताते कि यहाँ तो 9 बजे कार्यालय पहुँचने में भी हमें कितनी मशक्कत करनी पड़ती है। सो 10 बजते ही सब रजाई में घुस लिये । अब इस नयी जगह और कंपकंपाने वाली ठंड में जैसे तैसे थोड़ी नींद पूरी की और सुबह 6 बजे तक हम सब इस सफर की कठिनतम यात्रा पर निकल पड़े।
मौसम से मुकाबले के लिये हम कपड़ों की कई परतें यानि इनर,टी शर्ट, स्वेटर, मफलर और जैकेट चढ़ाकर पूरी तरह तैयार थे । वैसे भी 4-5 घंटों में हम 17000 फीट की ऊँचाई छूने वाले थे ।
लाचेन से आगे का रास्ता फिर थोड़ा पथरीला था । सड़क कटी-कटी सी थी । कहीं कहीं पहाड़ के ऊपरी हिस्से में भू-स्खलन होने की वजह से उसके ठीक नीचे के जंगल बिलकुल साफ हो गये थे । आगे की आबादी ना के बराबर थी। बीच-बीच में याकों का समूह जरूर दृष्टिगोचर हो जाता था। चढ़ाई के साथ साथ पहाड़ों पर आक्सीजन कम होती जाती है । इसलिये हमें 17000 फीट पहुँचने के पहले रुकना था, 14000 फीट की ऊँचाई पर बसे थान्गू में ताकि हम कम आक्सीजन वाले वातावरण में अभ्यस्त हो सकें ।
करीब 9 बजे हम थान्गू में थे । बचपन में भूगोल का पढ़ा हुआ पाठ याद आ रहा था कि जैसे जैसे ऊपर की ओर बढ़ेंगे वैसे वैसे वनस्पति का स्वरूप बदलेगा। इसी तथ्य की गवाही हमारे अगल बगल का परिदृश्य भी दे रहा था । चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों की जगह अब नुकीली पत्ती वाले पेड़ो ने ले ली थी । पर ये क्या थान्गू पहुँचते पहुँचते तो ये भी गायब होने लगे थे। रह गये थे, तो बस छोटे छोटे झाड़ीनुमा पौधे।
थान्गू तक धूप नदारद थी । बादल के पुलिंदे अपनी मन मर्जी इधर उधर तैर रहे थे । पर पहाड़ों के सफर में धूप के साथ नीला आकाश भी साथ हो तो क्या कहने ! पहले तो कुछ देर धूप छाँव का खेल चलता रहा ।
पर आखिरकार हमारी ये ख्वाहिश नीली छतरी वाले ने जल्द ही पूरी की और उसके बाद जो दृश्य हमारे सामने था वो आप इन तसवीरों में खुद देख सकते हैं।
नीला आसमान, नंगे पहाड़ और बर्फ आच्छादित चोटियाँ मिलकर ऐसा मंजर प्रस्तुत कर रहे थे जैसे हम किसी दूसरी ही दुनिया में हों ।
15000 फीट की ऊँचाई पर हमें विक्टोरिया पठारी बटालियन का चेक पोस्ट मिला । दूर दूर तक ना कोई परिंदा दिखाई पड़ता था और ना कोई वनस्पति ! सच पूछिये तो इस बर्फीले पठारी रेगिस्तान में कुछ हो हवा जाये तो सेना ही एकमात्र सहारा थी ।थोड़ी दूर और बढ़े तो अचानक ये बर्फीला पहाड़ हमारे सामने आ गया !
गुनगुनी धूप, गहरा नीला गगन और ऊपर से इतनी पास इस पहाड़ को देख के गाड़ी से बाहर निकलने की इच्छा सबके मन में कुलबुलाने लगी ।
पर उस इच्छा को फलीभूत करने पर हमारी जो हालत हुई उसकी एक अलग कहानी है । वैसे भी हम गुरूडांगमार के बेहद करीब थे ! अरे चौंकिये मत यही तो था इस यात्रा का पहला लक्ष्य ! दरअसल गुरूडांगमार एक झील का नाम है जो समुद्र तल से करीब 17300 फीट पर है । खैर, गाड़ी से निकलने से लेकर गुरूडांगमार तक का किस्सा अगले भाग में……
Nice Pictures……..
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Bilkul Sandeep. Yaatra Jaari hai :-)
Fellow Ghumakkars – Please read Manish’s interview with Ghumakkar here – http://www.nandanjha.com/2011/07/03/ghumakkar-interview-meet-hindi-ratna-manish-kumar/
Being a ‘Featured Author’ of June, his interview was published in June’s Author Newsletter, which would have reached all the Authors.
Really breath-taking beautiful pics. Very well narrated.
Kostubh, Sandeep Nandan, Vinay Thx guys for your appreciation.