मेरे घुमक्कड़ सदस्यों, पिछले भाग में मैंने आपके साथ अपनी दिल्ली से कीर्तिनगर तक की यात्रा के खट्टे मीठे अनुभव साँझा किये थे, ठीक उसी प्रकार अब हम अपनी कीर्तिनगर से श्री बद्रीधाम तक की यात्रा को आगे बढ़ाते हैं। तो दिनांक छब्बीस जून दो हजार अठारह को प्रातः नौ बजे नाश्ता करने के बाद हम लोगों ने अपना सामान उठाया और रिवरसाइड रिसोर्ट को अलविदा कहते हुए अपने ड्राइवर साब से गाड़ी श्री बद्रीधाम की तरफ बढ़ाने को कहा। ज्ञात रहे की रिसोर्ट के रिसेप्शन में मैनेजर साब से वोमिटिंग की टेबलेट लेकर मैं पहले से ही माताश्री और बहनाश्री को खिला चुका था ताकि आगे के मार्ग में उन्हें किसी प्रकार की कोई समस्या न हो और श्री बद्रीविशाल जी के जयकारे के साथ हमने अपनी अगली दो सौ किलोमीटर लम्बी यात्रा का शुभारम्भ किया।
बता दूँ की ऋषिकेश से बद्रीधाम तक जाते हुए इस मार्ग पर पांच प्रयाग पढ़ते है जैसे की देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, विष्णुप्रयाग और नंदप्रयाग। अपनी पिछली यात्रा में हम देवप्रयाग से आगे आ चुके थे इसलिए अब केवल चार प्रयाग ही पार करने थे। जैसे-जैसे हमारी गाड़ी आगे बढ़ती गयी रस्ते में कईं सरे मनोरम दृश्यों को देखते हुए मन प्रफुल्लित हो गया। मार्ग में धारी देवी मंदिर, विष्णु मंदिर और श्री नृसिंह मंदिर (जोशीमठ) भी पड़े जिनके दर्शन तो हम नहीं कर सके क्यूंकि शाम ढलने से पहले हमे श्री बद्रीधाम पहुंचना था, किन्तु मन ही मन प्रणाम करते हुए आगे बढ़ गए।
लगभग आठ घंटो की यात्रा करते हुए और मनोरम दृश्यों को देखते हुए अंततः हम पहुँच गए श्री बद्रीधाम, जहाँ तक पहुंचना एक दिन पहले तक असंभव लग रहा था। यहाँ पहुँच कर सबसे पहले तो हमने अपने ठहरने की व्यवस्था की और होटल स्नो एंड क्रेस्ट में अपने लिए एक रूम बुक किया। श्री बद्रीनाथ जी के दर्शन की अभिलाषा इतनी तीव्र थी की रूम में जल्दी से हाथ मुंह धो कर व् वस्त्र बदल कर हमने रूम किया लॉक और निकल पड़े प्रभु के मंदिर।
हालाँकि यहाँ का टेम्पेरेचर दोपहर में सात डिग्री और रात में दो डिग्री चल रहा था इसलिए हम अपने साथ पर्याप्त गर्म कपडे ले कर आये थे जिसमे जैकेट और शाल को प्राथमिकता दी गयी थी। बाहर का नजारा अत्यंत ही नयनाभिराम था, जिधर तक नजर जाती थी वहां केवल ऊँचे ऊँचे पहाड़ और उन पर जमी सफ़ेद बर्फ ही नजर आती थी। यह स्थान समुद्र तल से लगभग ग्यारह हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। इस मंदिर की स्थापना आदि शंकराचार्य ने सातवीं शताब्दी में की थी। इसके अतिरिक्त कहा जाता है की भगवान् विष्णु ने इस स्थान पर तपस्या की थी, किन्तु मौसम के प्रभाव से उनका पूरा शरीर श्याम पड़ गया था। देवी लक्ष्मी से उनकी यह दशा देखि नहीं गयी और वो स्वयं एक बेर का पेड़ बनकर उनकी रक्षा करने लगी। इस प्रकार भगवान् विष्णु को बद्री (बेर) नाथ कहा जाने लगा और यहाँ उनकी जिस मूर्ति की पूजा होती है उसका रंग भी श्याम ही है।
वैसे इस पवित्र मंदिर के विषय में मुझसे अच्छी जानकारी गूगल विकिपीडिया पर उपलब्ध है अतः आप लोग यदि भविष्य में भगवान् बद्रीनाथ के दर्शन करने जाने के इच्छुक हो तो एक बार सभी स्त्रोतों से जानकारी अवश्य जुटा कर जाएं।
खैर हमें तो फिलहाल भगवान् बद्रीनाथ के दर्शन करने के लिए जाना था अतः हम सीधे गए मंदिर की तरफ जो की हमारे होटल से लगभग पांच सौ मीटर की दुरी पर था। कभी रास्ता ऊपर की तरफ हो जाता था तो कभी नीचे की तरफ, पहाड़ी रास्ता जो था किन्तु हमारे उत्साह में कोई कमी नहीं थी और देखते ही देखते हम पहुँच गए प्रभु के मंदिर। इस सीजन में यहाँ ज्यादा भीड़ नहीं थी और बिना किसी धक्का-मुक्की के हम शीघ्र ही मंदिर के भीतर पहुँच गए। प्रभु के खुले दर्शन हुए और मन प्रसन्नता से अत्यंत ही भाव विभोर हो गया। मंदिर के भीतर कुछ पुरोहितों के द्वारा मंत्रोचार किया जा रहा था और माहौल अत्यंत ही दैवीय लग रहा था। दर्शन के पश्चात हम लोगों ने बाहर शोर मचाती अलखनंदा नदी की तरफ जाने का तय किया। मेरे मित्रों बद्रीनाथ मंदिर के समीप ही एक पवित्र नदी बहती है जिसे हम अलकनंदा के नाम से जानते हैं।
यह वही नदी है जो देवप्रयाग में गौमुख से आती भागीरथी से मिलती है। बद्रीनाथ मंदिर के समीप अलकनंदा नदी की गति इतनी तेज थी की यदि हाथी अपने चारों पैरों के बल पर भी खड़ा हो जाये तो बमुश्किल ही चार से पांच सेकंड खड़ा हो पायेगा और शीघ्र ही अनियंत्रित होकर अलकनन्दा के समक्ष घुटने टेक देगा। गति का अंदाजा आप आवाज से भी लगा सकते हैं, क्यूंकि जिस तरह से अलकनंदा जयघोष करते हुए आगे बढ़ रही थी हमें तो देख कर विश्वाश ही नहीं हो रहा था।
हमने निर्णय लिया की एक डिब्बे में इस पवित्र नदी का जल ले चलते हैं, तो हमने वहीँ पास ही से एक दूकान से एक डिब्बा खरीदा और जल भरने की जिम्मेदारी मुझे दी गयी। नदी के पवित्र जल को स्पर्श करते ही मुझे प्रकृति के बल का पता लग चुका था, अर्थात जल इतना शीतल था की मुझे अपने हाथ पैरों की उँगलियाँ दो तीन सेकंड में ही सुन्न होती लगी। किन्तु जल तो भरना ही था इसलिए मैंने कलाई तक डिब्बा जल में उतार दिया परन्तु माँ अलकनंदा की गति के आगे डिब्बा भरना थोड़ा मुश्किल लग रहा था और ऊपर से बर्फ की ठंडक। जैसे तैसे डिब्बा तो भर गया किन्तु जून के महीने में इतना ज़बर्दस्त बर्फ का जल देखकर मेरा मन प्रकृति के प्रति नतमस्तक हो गया। प्रकृति के एक और चमत्कार से हमारा सामना हुआ तप्त कुंड में जो की मंदिर के ही समीप है। तप्त कुंड के बारे में आपको बता दूँ की जैसा इसका नाम है वैसा ही इसका रूप है। तप्त कुंड का जल बेहद खौल रहा था जिसमे हाथ डालने की हिम्मत हमारी तो हुयी नहीं किन्तु कुछ लोग इसमें स्नान अवश्य ही कर रहे थे।
मुझे तो यकीं ही नहीं हो रहा था की मंदिर के प्रांगण में एक तरफ बर्फ से अधिक ठंडा पानी बह रहा था और उसके दूसरी तरफ खौलता हुआ तप्त कुंड। यह प्रकृति क्या क्या दिखाएगी हमने कभी सोचा भी नहीं था। तप्त कुंड में खौलते हुए पानी से धुआं निकल रहा था और दूसरी तरफ शीतल जल से लबालब माँ अलकनंदा। वाह मजा आ गया।
कृति के इतने सरे चमत्कारों से रूबरू होने और स्थानीय बाज़ार से थोड़ा बहुत सामान खरीद लेने के बाद अब बारी थी वापिस अपने होटल जाने की, क्यूंकि रात्रि का भोजन भी तो करना था। अगले दिन फिर से आ कर दर्शन करने का स्वयं से वादा किया और हम अपने होटल की तरफ बढ़ चले। यहाँ पर आकर थोड़ी देर हमने भोजन करने में लगाई और फिर अपने रूम में जा कर रजाई में छिपकर सो गये। दिनभर की थकान के कारण नींद जल्दी आ गयी और अगली सुबह आँख भी जल्दी खुल गयी। फटाफट नहा धोकर हम लोग एक बार फिर से मंदिर में भगवान् बद्रीनाथ जी के दर्शन के लिए चल पड़े। सुबह सुबह का नजारा बेहद खूबसूरत था और पहाड़ों में दूर दूर तक बादल तैर रहे थे। इन्हे देखते ही मन प्रफुल्लित हुए जा रहा था और क़दमों को तेजी से मंदिर की तरफ जाने के लिए बल भी मिल रहा था।
बहुत अच्छी लगी यात्रा प्रस्तुति और तस्वीरें, लगा जैसे हम भी कुछ पल साथ हो लिए हों
जय श्री बद्रीविशाल!!
लेख को पढ्ने और एक अच्छी टिप्पणी करने के लिये आपका धन्यवाद।