मेरी माँ उन दिनों मुंबई में मेरे घर पर आई हुईं थीं. उनके मुंबई प्रवास के दौरान हमलोग मुंबई-स्थित विश्व-प्रसिद्ध महालक्ष्मी मंदिर, सिद्धि विनायक मंदिर इत्यादि घूम ही चुके थे. मैं उन्हें वहाँ के कुछ और प्रसिद्ध स्थलों का दर्शन कराना चाहता था. उस दिन 4 जून २०१६ को शनिवार के छुट्टी का दिन भी था. इसीलिए हमारे मन में अपनी माताजी को “विश्व विपासना पैगोडा” दिखाने का ख़याल आया. तब दोपहर के भोजन के पश्चात मैं और माताजी अपनी गाडी पर सवार हो कर बोरीवली जेट्टी के लिए चल पड़े. बोरीवली जेट्टी के सामने खाड़ी से पकड़ी गयी मछलियों के विक्रय हेतु एक मछली-बाज़ार भी बना हुआ है. पास ही में कई सारे होटल-रेस्टोरेंट हैं, जिनमें लोग मुख्यतः समुद्री-मछली से बने पकवानों का स्वाद लेने जाते हैं. उन्हीं में से एक होटल के पार्किंग स्थल पर हमने गाडी पार्क कर दी. ८०/- रुपये की पार्किंग टिकेट देख कर मैं चकित हो गया. पर गाडी सुरक्षित जान कर हमलोग पैदल मार्ग से जेटी की और चल पड़े.
वैसे तो पैगोडा तक कार भी चली जा सकती है और वहां पार्किंग स्थल भी है. परन्तु मैं जेट्टी से छोटी नाव पर बैठ कर खाड़ी की जल-यात्रा करने का अनुभव भी लेना चाहता था. मुख्य द्वार पर स्थित जल-यात्रा के लिए टिकट-खिड़की से ५०/- रुपये प्रति-व्यक्ति की दर से मैंने टिकट ले लिया. इस टिकट में बोरीवली-जेट्टी से एस्सेल वर्ल्ड-जेट्टी तक जाना और वापस लौटना, दोनों यात्राएँ सम्मिलित थी. अभी तक मुंबई में २०१६ के मानसून ने दस्तक नहीं दी थी. खाड़ी में जलस्तर कम था और सीमेंट से बनी जेट्टी दूर तक साफ़ दिखाई दे रही थी. नाव तक पहुँचने के लिए काफी दूर तक चल कर जाना था. जलस्तर कम होने से खाड़ी की दलदली जमीन साफ़-साफ़ दिखाई दे रही थी. इस तरह के सूखी खाड़ी को देख कर महसूस हो रहा था कि अगले कुछ ही दशकों में वह भी पूरी तरह से पट जाएगी और फिर उस पर भी निर्माणी-कार्य शुरू हो जायेगा. और तब नावें नहीं चला करेंगी. पर अभी तो नावें चल ही रहीं थीं.
“ऍम. अल. हरिश्चंद्र” नामक एक नाव यात्रियों की प्रतीक्षा कर रही थी. कर्मचारी-गण एस्सेल वर्ल्ड की रंग-बिरंगे यूनिफार्म पहने हुए थे और उसका कप्तान सफ़ेद यूनिफार्म पहने था. कर्मचारी सभी यात्रियों का टिकट चेक करते हुए नाव पर चढ़ने और बैठने में सहायता कर रहे थे. हमलोग भी नाव पर चढ़ कर बैठ गए. यात्रियों के भर जाने के पश्चात हमारी नाव चल पड़ी. नाव को जेट्टी से बाएं जाना था. पर जेट्टी के ठीक सामने का दृश्य भी बड़ा मनोहारी था. कई नौकाएं प्लास्टिक के तिरपाल से ढकीं हुई दुसरे किनारे पर खड़ी थीं. पूछने पर पता चला कि मानसून के उपरांत खाड़ी में जल के भरने पर यह नौकाएं एक बार फिर निकल पड़ेंगी.
नाव का सफ़र करीबन १५ मिनट का था. बेंचों पर बैठ कर हमलोग खाड़ी के बीच में चलती नाव की खिडकियों से आती हुई ठंडी हवा का आनंद लेते हुए बाहर का नज़ारा ले रहे थे. जब एक नाव बोरीवली जेट्टी से निकलती थी, तो दूसरी नाव एसेल वर्ल्ड जेट्टी से चलती थी. इस प्रकार खाड़ी के बीच में एक दुसरे को पार करती हुई नौकाएं यात्रियों को हरेक जेट्टी पर उपलब्ध हो जाती थीं. तुरंत ही नाव की खिड़की से पैगोडा का सुनहरा शिखर दिखाई देने लगा. माँ तो बेंच पर बैठ कर ही देखती रहीं, पर मैं उठ कर खिड़की के पास आ गया और खड़े हो कर पैगोडा का फोटो लेने लगा. उस समय ऐसा लग रहा था मानो वह सफ़र कभी ख़त्म ही ना हो.
खैर यात्रा धीरे-धीरे ख़त्म हो गयी और “एम्. एल. हरिश्चंद्र” एक हलकी “थड” की आवाज से एस्सेल वर्ल्ड जेट्टी पर जा लगा. यहाँ भी जलस्तर काफी नीचे हो चूका था. इसीलिए नाव से उतर कर जेट्टी पर काफी दूर चलते हुए हमलोग पार कर गए. उस पार जेटटी के मुहाने पर ही रंग-बिरंगी फूलों, जानवरों के सुन्दर मॉडल्स तथा बैठने की कुर्सियों से सुसज्जित एस्सेल-वर्ल्ड का प्रवेश द्वार था. वहां जाने के लिए बस सीधे चलते जाना था, पर पैगोडा जाने के लिए उस प्रवेशद्वार के पहले ही एक रास्ता बायीं तरफ खुल रहा था. इस पैदल रास्ते पर धीमी चाल से चलने से पैगोडा करीब १५ मिनट की दूरी पर था. रास्ते में टिकट-चेकिंग काउंटर, जल संरक्षण हेतु बनी तालाबें इत्यादि थे, जिन्हें देखते हुए हमलोग पैगोडा के प्रवेश द्वार पर आ गए. वहां आ कर पता चला कि पैगोडा मैनेजमेंट की तरफ से एक वैन भी चलायी जाती है, जो थोड़ी-थोड़ी देर पर यात्रियों को जेट्टी से ले कर पैगोडा तक लाती और फिर वापस पहुंचाती है, हम भी अगर जेट्टी पर थोड़ी देर रुकते तो वह वैन मिल जाती.
पर जल-यात्रा कर के हमलोग वैसे भी प्रसन्न थे और ऊपर से हमें अपने सामने पैगोडा का भव्य प्रवेश द्वार दिख रहा था. सुनहरे और गहरे लाल रंगों से चमकता हुआ प्रवेश द्वार बर्मा-शैली में बना प्रतीत हो रहा था. उसका ७ स्तरों वाला छत था और उस द्वार के दोनों तरफ सफ़ेद रंग के एक-एक विशाल सिहं बने हुए थे, जो द्वार की सुरक्षा प्रदान करने का द्योतक थे. इस द्वार का नाम “म्यांमार गेट” था. गेट के अन्दर के मंडप की छत पर सुनहरे रंगों से की गयी कारीगरी तो बेहद खूबसूरत थी. इस गेट से चल कर जब हमलोग अन्दर आये तो आगे सीढियां मिलीं, जिस पर चढ़ कर हमलोग सुरक्षा-मंडप में आ गए.
सुरक्षा-जाँच वाले कमरे की छत से जो रौशनी की बल्ब्स लटक रहे थे, उनकी डिजाईन देखने योग्य थी. जाँच के पश्चात पैगोडा की निचली मंजिल पर पहुंचे, जहाँ देखने के लिए कई स्थल थे. सीढ़ी के दोनों तरफ कलात्मक चबूतरे थे. एक चबूतरे पर बड़ा-सा घंटा लिए हुए मनुष्यों की प्रतिमाएं थीं और दुसरे चबूतरे पर घरियाल लिए हुए मनुष्यों की प्रतिमाएं थीं. इसलिए पहले को Bell-tower और दुसरे को Gong-tower कहा जाता था. यह दोनों स्थल लोगों में बहुत प्रिय थे क्योंकि इन पर चढ़ना मना नहीं था. लोग इन पर चढ़ कर अपनी सेल्फी ले सकते थे और साथ ही इन्हें बजा भी सकते थे.
निचली मंजिल पर ही “गौतम बुद्ध की एक सुन्दर प्रतिमा” थी, जिसमें बुद्ध को मननशील स्थिति में दिखाया गया था. उसी प्रतिमा के आधार पर अंकित शब्द थे, “महामानव बुद्ध : आध्यात्म क्षेत्र के सर्वोत्तम वैज्ञानिक”. ऐसा माना जाता है कि विपासना पद्धति का आविष्कार भगवान् बुद्ध के द्वारा ही हुआ हो. बुद्ध-मूर्ति के नजदीक इसी मंजिल पर खाने-पीने के लिए एक कैफेतारिया भी था, जहाँ भांति प्रकार के व्यंजन उपलब्ध थे. कुछ खाने और चाय पीने के पश्चात मैं दोनों चबूतरों के बीच बनी चौड़ी सीढ़ियों से ऊपर की मंजिल पर चला गया. जाते हुए मैंने बुद्ध को नमन करता हुआ हाथी का राजा, प्रणाम करते हुए भौमिया देवता और भौमिया देवी की मूर्तियाँ देखीं.
ऊपर जाते ही पैगोडा के वृहत आकार पर ध्यान जाता है. वहां लिखे सूचना पट के अनुसार, इस पैगोडा की ऊँचाई ३२५ फीट है. इसके शिखर पर धातु से बनी ४० फीट ऊँची कैनोपी है, जिसमें घंटियाँ लगी हुईं हैं. सबसे ऊपर शिखर पर ३ फीट का क्रिस्टल लगा हुआ है. और जो धर्म-ध्वज है उसमें हीरे-जवाहरात जुड़े हुए हैं. इस गुम्बद और पैगोडा को १००० वर्षों के लिए बनाया गया है. इसके लिए इनमें चट्टानों की अन्तर-लॉकिंग प्रणाली का उपयोग लिया गया है, जो भारत के प्राचीनतम मंदिरों में पाई जाती है. पैगोडा से सभी दरवाजे बर्मा टीक से बने थे और उनपर भव्य नक्काशियां की गयीं थीं. इस पैगोडा के अन्दर एक बहुत बड़ा मनन हाल है, जिसमें एक बार में ८००० व्यक्ति बैठ सकतें हैं. हाल के अन्दर कोई भी खम्बा नहीं है. उसका गुम्बद का व्यास २८० फीट है. इसी गुम्बद के शिखर पर भगवान् बुद्ध के व्यक्तिगत अवशेष रखे गए हैं, जो इस स्थान का आध्यात्मिक महत्त्व बढाते हैं. कहा जाता है की यह भारत का समसे बड़ा गुम्बद है, जिसके व्यास ने बीजापुर के गोल गुम्बद को मात दे दी है.
जब मैं पैगोडा के अन्दर जाना चाहते था, तो मुझे ऐसा ही एक भव्य दरवाजा दिखा, जिसके सामने वहां के कर्मचारीगण बैठे थे. वहीँ जूते-चप्पल रखने के लिए स्थान भी बना हुआ था. वहां फिर से एक सामान्य सुरक्षा-जांच हो रही थी. उसी पूरा करने के पश्चात मैं पैगोडा के अन्दर प्रवेश कर गया. वहां एक गलियारा था. साधारण दर्शक मनन-दीर्घा में प्रवेश नहीं कर सकते. उनको उस गलियारे में खड़ा हो कर शीशे से मनन-हाल को देखना पड़ता है. मैंने भी वैसा ही किया और फिर गलियारे से बाहर आ गया.
बाहर निकलते ही सामने नज़र पड़ी, पञ्च मूर्तियों पर. यह पांच मूर्तियाँ आकाश-देवता और आकाश देवीयों की थीं. उनके निकट बैठने के लिया सीढ़ी बनी थी. यहाँ पानी के झरने की व्यवस्था भी , परन्तु वो उस समय चल नहीं रही थी. बैठने का मन नहीं था, अतः मैं आगे चला. वहां से कुछ दूर पर एक वाटिका दिखी जिसमें एक स्तम्भ दूर से दिखाई दे रहा था. इस वाटिका में बच्चों के खेलने कूदने की व्यवस्था थी, जैसे की झुला और ऊपर चढ़ कर फिसल जाने वाली सीढियां. वहीँ जल-देवता और जल-देवी की भी मूर्तियाँ थीं. यात्री अगर चाहें तो यहाँ पार्क में बैठ कर विश्राम भी कर सकते थे. जो स्तम्भ दूर से दिख रहा था, उसका नाम “अशोक स्तम्भ” था. बुद्ध-धर्म और मौर्य-काल का इतिहास से तो सभी परिचित होंगे. लगता था कि उसी सम्बन्ध से यहाँ पर अशोक-स्तम्भ की संरचना की गयी थी.
मुख्य पैगोडा के दोनों और एक-एक छोटे-छोटे प्रार्थना स्थल हैं. इनमें कोई भी जा सकता था और बैठ कर प्रार्थना कर सकता था. इनको उत्तर और दक्षिण पैगोडा कहते हैं. इनका डिजाईन भी मुख्य पैगोडा जैसा ही है. आमतौर पर मैं ऐसी जगहों पर कुछ देर जरूर बैठता हूँ, परन्तु उस दिन मुझे बैठने की इच्छा नहीं हुई और मैं अगले स्थान के लिए चलता गया. अब तक मैं पैगोडा की एक परिक्रमा कर चूका था. इसीलिए अब मुझे वहां से बाहर निकल जाना था. बाहर निकलने का भी एक ही रास्ता था, जिससे मैं उपरी मंजिल पर आया था. उसी रास्ते से चल कर जब मैं प्रथम मंजिल पर आया तो वहाँ एक चलचित्र भवन, पुस्तकालय और चित्र-कला प्रदर्शनी दिखाई दी. पुस्तकालय तो काफी बड़ा और समृद्ध था. चित्रकला प्रदर्शनी भी मोहक थी. पर मैं चल-चित्र भवन में नहीं गया.
बाहर आने के ठीक पहले एक छोटा-सा सुन्दर दूकान भी लगा था, जिसमें बौद्ध धर्म से सम्बंधित वस्तुएं मिल रही थी. वहीँ पर पैगोडा की यादगारी के लिए, चाभी का रिंग, तस्वीरें, अशोक-स्तम्भ का मॉडल, पैगोडा का धातु का बना मॉडल, भगवान् बुद्ध की प्रतिमाएं इत्यादि विक्रय के लिए लगी थीं. ऐसा लगता था की थाईलैंड की एक दूकान वहां आ कर लग गयी हो. मुझे वहां सबसे अच्छा लगा जापानी छाता, हालाँकि मुझे छाते की कोई आवश्यकता नहीं थी.
दूकान में फोटोग्राफी वर्जित थी. इसीलिए जब मैं फोटो लेने लगा तो मुझे रोका गया. मुझे बात समझ में नहीं आई कि दूकान में बिकने वाली वस्तुओं का फोटो लेना वर्जित क्यों. मेरे अनुसार जितने लोग फोटो देखेंगे, उतने ही संख्या में दूकान में ग्राहकों की वृद्धि होगी. पर खैर, मैं सभी स्थानीय नियमों का पालन करने में ही उचित समझता हूँ. वैसे भी अब शाम ढल चुकी थी और हमें खाड़ी के रास्ते जल-यात्रा करनी थी. इसलिए फोटोग्राफी की उस मुद्दे को वहीँ छोड़ कर हमलोग एस्सेल-वर्ल्ड जेट्टी पर आ गए, जहाँ “एम्.एल. मयूर” यात्रियों के इंतज़ार में खड़ा था. धीरे-धीरे नाव भर गयी और खाड़ी के रास्ते हमलोग बोरीवली जेट्टी पर आ गये, जहाँ हमारी कार लगी हुई थी.
मुंबई के मशहूर पैगोडा की हमारी यात्रा तो इस प्रकार समाप्त हो गयी. पर यदि आप वहां बच्चों के साथ जाना चाहें तो एस्सेल-वर्ल्ड भी जरूर जाएँ, जो वहीँ पर था और एक दिन में यह दोनों स्थल की यात्रा संभव भी है.
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