लखनऊ में हैं गर तो
इमामबाड़ा देखना ना भूलियेगा जनाब!
लखनऊ में हैं आप और बड़ा इमामबाड़ा नहीं देखा तो ऐसा ही है जैसे आगरा जाकर ताजमहल ना देख पाए हों या दिल्ली में होकर भी इंडिया गेट नहीं देख पाये.

मुख्य द्वार से प्रवेश के लिए कोई टिकेट नहीं है, लेकिन उसके बाद के प्रवेश द्वार पर पूछताछ केंद्र तथा टिकेट घर स्थित है.
कहते हैं कि एक बार अवध प्रान्त (जिसकी राजधानी लखनऊ था) में भयावह अकाल पड़ा. लगभग पांच साल से भी अधिक अवधि तक चले इस अकाल से लोगों के पास रोज़गार तक नहीं रहा जिससे भुखमरी की समस्या पैदा होने लगी. तब अवध के तत्कालीन नवाब आसिफ-उद-दौला ने बड़े इमामबाड़े का निर्माण कराया. इस विशाल परिसर के निर्माण के पीछे कोई नायाब संरचना की प्रस्तुति या वास्तुकला के क्षेत्र में झंडे गाड़ना नहीं था अपितु दुर्भिक्ष के शिकार लोगों को आज की काम के बदले अनाज जैसी सरकारी योजना की भांति उनके जीवन यापन को सुव्यवस्थित बनाये रखना था.

वितीय प्रवेश द्वार से मुख्य द्वार की आन्तरिक संरचना भी बहुत खूबसूरत है.
कहा तो यह भी जाता है कि आरम्भ में इस विशाल इमामबाड़े के लिए किसी नक़्शे के तहत काम नहीं किया गया और लम्बे समय तक लोगों से मजदूरी करा कर पिलर बनवाये जाते थे. दिन भर जो पिलर तैयार होते थे, रात की पाली के लोगों को उन्हें फिर से तोड़ने का काम दिला जाता था. दिन के उजाले में निर्माण का काम साधारण लोगों से लिया जाता था जबकि रात को नगर के गणमान्य व्यक्ति धीमी रौशनी में उन्हें जमींदोज करने का जिम्मा उठाते थे.

मुख्य परिसर में प्रवेश करने पर दायीं ओर मस्जिद तथा सामने मुख्य हाल स्थित है.
अकाल से पीड़ित ऐसे तमाम लोग जिन्हें रोज़ी-रोटी मुहैया नहीं हो रही थी, बिना किसी भेदभाव के इस काम में लगाये जाते थे और उन्हें समान रूप से पारिश्रमिक दिए जाने की व्यवस्था थी. आज भी जब आप इमामबाड़े के भ्रमण के लिए जायेंगे तो गाइड आपको यही बताएँगे कि “जिसको ना दे मौला, उसको दे आसिफ-उद-दौला”. लेकिन यह भी जानना जरूरी है कि इस शोहरत का पता चलने पर नवाब साहब ने क्या कहा. उनका कहना था, “जिसको ना दे मौला, उसको क्या दे आसिफ-उद-दौला!”, अर्थात यह सब मात्र ईश्वर की ही देन है यदि वह उन्हें इस लायक ही नहीं बनता तो वो जनता की सेवा कैसे कर पाते, यानि उस सर्व संप्रभु सत्ता के उसके सामने उनकी कोई हैसियत नहीं.

मस्जिद का सामने से लिया एक व्यू
तथ्य यह हैं कि जब अपने वास्तुविद के परामर्श से आसिफ-उद-दौला ने सुनियोजित तरीके से बड़े इमामबाड़े परिसर का निर्माण कराया तो सबसे पहले शाही बावली, या पञ्च महल का निर्माण किया गया. (इमामबाड़े की शाही बावली पर इस वेबसाइट पर मेरा लेख पूर्व में ही प्रकाशित हो चुका है). यह इसलिए जरूरी था कि इस संरचना को परिसर में प्रस्तावित विशाल भवनों के लिए पानी के स्रोत की भरपूर आवश्यकता थी, जिसे बावली से लिया जाना एक बेहतर विकल्प था. बावली स्वयं में एक अद्भुत व नायाब संरचना है, जिसका सीधा लिंकेज निकट ही प्रवाहित गोमती नदी से है.

बावली का प्रवेश द्वार

बावली का प्रसिद्ध कुवां

बावली से मस्जिद तथा इमामबाड़े का एक भाग ही दिखाई देता है.
इस इमामबाड़े का निर्माण सन १७८६ में आरम्भ करवाया था जो सुन १७९१ तक चला. मुख्य परिसर में बना विशाल गुम्बदनुमा हॉल ५० मीटर लंबा और १५ मीटर ऊंचा है. यह एक ऐसी इमारत थी जिसे बनाने में कोई बीम या गर्डर का इस्तेमाल नहीं हुआ. अनुमानतः इसे बनाने में उस ज़माने में पाँच से दस लाख रुपए की लागत आई थी. यही नहीं, इस इमारत के पूरा होने के बाद भी नवाब इसकी साज सज्जा पर ही चार से पाँच लाख रुपए सालाना खर्च करते थे. इसमें विश्वप्रसिद्ध भूलभुलैया बनी है, जो अनचाहे प्रवेश करने वाले को रास्ता भुला कर आने से रोकती थी इस इमामबाड़े में एक ओर खूबसूरत आस़फी मस्जिद भी है जहां गैर-मुस्लिम लोगों को प्रवेश की अनुमति नहीं है. कहते हैं कि बावली के बाद आसिफ-उद-दौला ने खुदा की बंदगी के लिए मस्जिद बनाने की सोची. परिणामस्वरुप यह बेहतर मस्जिद बन कर तैयार हुई. मस्जिद परिसर के आंगन में दो ऊंची मीनारें हैं जो इसकी भव्यता में चार चाँद लगाते हैं. इसके बनने के बाद में इमामबाड़े के मुख्य भवन के निर्माण का कार्य प्रारंभ किया गया.

परिसर से रूमी दरवाजे की खूबसूरती देखते ही बनती है.
वास्तुशिल्प के लिहाज़ से उस दौर की यह शानदार इमारतों में शीर्ष पर हुआ करती थी। कहते हैं इसका सेंट्रल हॉल दुनिया में सबसे बड़ा गुम्बदाकार छत वाला हॉल है. इसकी आंतरिक साज-सज्जा में सिर्फ गलियारों को छोड़ दें तो और कहीं भी लकड़ी का इस्तेमाल नहीं हुआ है. कहा जाता है कि नवाब साहब इसका इस्तेमाल अपने दरबार की तरह से करते थे जहाँ जनता की समस्याएँ सुनी जाती थी. अब इसका इस्तेमाल शिया मुसलमान अज़ादारी के लिए करते हैं. इमामबाड़ा की वास्तुनकला, ठेठ मुगल शैली को प्रदर्शित करती है जो पाकिस्तामन में लाहौर की बादशाही मस्जिद से काफी मिलती जुलती है और इसे दुनिया की पाचंवी सबसे बड़ी मस्जिद का दर्जा दिया गया है.
एक पर्यटन संबंधी वेबसाइट ने बड़े इमामबाड़े के विषय में कम शब्दों में लिखा है, “The Bara Imambara is an interesting building. It is neither a mosque, nor a mausoleum, but a huge building having interesting elements within it. The construction of the halls and the use of vaults show a strong Islamic influence.”

भूलभुलैया का प्रवेश यहाँ से होता है.
इस इमारत की डिजायन की मुख्यय विशेषता यह है कि इसमें कहीं भी लोहे का इस्तेeमाल नहीं किया गया है और न ही किसी यूरोपीय शैली की वास्तुषकला को शामिल किया गया है। इस इमारत का मुख्यै हॉल ५०x१५ मीटर का है जहां छत पर कोई भी सपोर्ट नहीं लगाया गया है। बड़ा इमामबाड़ा को यहां की भूलभूलैया के लिए भी जाना जाता है जहां कई भ्रामक रास्ते हैं जो एक दूसरे से जुड़े हुए हैं जिनमें कुल ४८९ एक से दरवाजे तथा लगभग १००० रास्ते हैं. यह माना जाता है कि यहां एक लम्बाग सुरंगनुमा रास्ता भी था जो गोमती नदी की ओर जाता था, वर्तमान में इस रास्तेह को बंद कर दिया गया है. इसके नीचे कई भूमिगत रास्ते हैं, जिन्हें भी अब बंद कर दिया गया है. मुख्य संरचना टेढ़े-मेढे रास्तों का एक ऐसा जाल है कि आम आदमी इसमें फंसकर रह जाता है. इसकी दीवारों की भी कुछ अलग ही संरचना है. कई दीवारें इस तरह से खोखली बनाई गई हैं कि एक कोने पर खड़े व्यक्ति यदि कोई बात करते हैं तो वह दूसरे छोर पर खड़े व्यक्ति को स्पष्ट सुनाई देगी. यहाँ के गाइड आपको अपनी बात साबित करने के लिए एक कोने पर खड़े होकर माचिस की तीली जलाकर दिखायेंगे जिसकी साफ़ आवाज आप दूर छोर पर स्पष्ट सुन सकते हैं. “दीवारों के भी कान होते हैं”, मुहावरा इन्हीं दीवारों के कारण गढ़ा गया था. यह भी अफवाह खूब चलती है कि यहाँ के भूमिगत रास्ते फैजाबाद तक जाते थे जहाँ से तत्कालीन सत्ता का संचालन होता था. आप अगर इमामबाड़े में जाएँ तो अकेले भूलभुलैया जाकर वहां से निकलने का दुस्साहस ना कीजियेगा. आपको भारी पड़ेगा जब आप रास्तों में उलझकर रह जायेंगे. वैसे भी युगल के रूप में तो आपको स्वयं इसे अवलोकित करने की अनुमति नहीं है. यदि पति-पत्नी इसे देखने जा रहे हैं तो कम से कम १०० रु. इस भूलभुलैया के गाइड के लिए भी तैयार रखिये. दो से अधिक लोगों के लिए यह दरें बढती जायेंगी.

मुख्य हाल से लिए गए बाहर के दृश्
बताते हैं कि इस इमामबाड़े के निर्माण के समय उरद की दाल,बड़ियां, चावल की लुगदी, बेल का गूदा, सरेस, शीरा, बुझा हुआ चूना और लखनऊ के पास के कंकरखेड़ा गांव के महीन कंकरों का इस्तेमाल हुआ था. इमामबाड़े के केंद्रीय भवन के तीन विशाल कक्षों में से एक चाइनीज प्लेट डिजाइन का है, दूसरा पर्शियन स्टाइल में बना हुआ है और तीसरा भारतीय खरबूजा पैटर्न पर है. हॉल की लंबाई लगभग 163 फीट और चौड़ाई 60 फीट होने के बावजूद इसमें कोई खंभा नहीं है. खंभे के बिना बने इस हॉल की छत 15 मीटर से ज्यादा ऊंची है, जिस पर आश्चर्य यह कि ये हॉल लकड़ी, लोहे या पत्थहर के बीम के बाहरी सहारे के बिना खड़ा है. मुख्य हाल में नवाब आसिफ-उद-दौला की कब्र बनी है.

मुख्य हाल का एक झरोखा.

झाड़-फानूस से सज्जित मुख्य हाल का एक कॉरिडोर.
बड़े इमामबाड़े के नजदीक ही मुख्य मार्ग पर बने रूमी दरवाजे से आज भी लखनऊ के पुराने शहर को जाने वाला ट्रैफिक गुजरता है. इसकी भव्यता अलग ही है. इमामबाड़े में स्थित भूलभुलैया से इसका खूबसूरत रूप मन मोह लेता है. बताते हैं पूर्व में प्रकाश आलोकित करने पर इसकी चाता निराली दिखती थी. अभी भी समय समय पर रात में इसे प्रकाशमय किया जाता है.

मुख्य परिसर की ईमारत का एक भाग.

एक रास्ता.
समय समय पर यहाँ रखरखाव का काम चलता रहता है. जब मैं वहां गया तो रूमी गेट पर पुरातत्व विभाग को रेस्टोरेशन का काम चालू था.

सड़क से रूमी दरवाजे का एक दृश्य.

सोवेनियर्स शॉप
मुख्य द्वार के पास सोवेनियर्स शॉप लगी हैं जहाँ से आप कुछ स्मृति चिन्ह ले जा सकते हैं. यह अच्छी बात है कि अब वहां भिखारियों का जमघट दिखाई नहीं देता जिस कारण लोग इन हेरिटेज भवनों से दूरी बनाते हैं. गार्डन भी अच्छे से रखे गए हैं और बागबानी और लॉन का रख रखाव स्तरीय कहा जा सकता है. इमामबाडा परिसर का मैप तथा उसके इतिहास के शिला पट्ट भी स्थापित हैं.

मुख्य परिसर

मुख्य परिसर
यदि आप मुग़ल स्थापत्य कला तथा इतिहास पर दृष्टिपात करना चाहते हैं तो बड़े इमामबाड़े की किसी भी कीमत पर अवहेलना नहीं की जा सकती. या कहिये कि बड़े इमामबाड़े के बिना लखनऊ, अवध प्रान्त तथा मुग़ल साम्राज्य का इतिहास अधूरा है.

परिसर से बाहर का दरवाजा ऐसा दीखता है.
समय: सूर्योदय से सूर्यास्त तक (सोमवार को बंद).
प्रवेश शुल्क: रु 25.00 )तथा रु 50 का एकीकृत टिकेट सम्बद्ध अन्य स्मारकों के लिए भी. Dslr कैमरा के लिए रु 25 अतिरिक्त).
प्रवेश शुल्क रु.: 500.00 (विदेशी पर्यटकों के लिए सभी स्मारकों का)
A very detailed and apt description of this significant monument. And its even more heartening to read the overall upkeep of the place has gone for better. Thank you Mr. Verma for writing such a beautiful and deserving log on this place. I have visited Lucknow many times and unlike Taj or IndiaGate or even Chowpati, Imambara is not highly recommended by locals even though I personally feel that it is a place of great importance.
Hopefully logs like these would make more people travel to these wonders, which are part of our daily lives.
very well written.
whenever you are free go through my post on Imambara.
https://www.ghumakkar.com/sham-e-awadh-lucknow/