इस यात्रा वृत्तांत के पिछले भाग में आपने पढ़ा कि कैसे राँची से रेल यात्रा प्रारंभ कर हम सब नागपुर पहुँचे। नागपुर में दीक्षा भूमि, समोसेवाला और तेलांगखेड़ी झील को देखने के बाद अगली सुबह पचमढ़ी की ओर बढ़े। खस्ता हाल रास्तों को पार कर शाम तक पचमढ़ी पहुँचे। अब पढ़िए पचमढ़ी में बिताए पहले दिन की दास्तान…
पचमढ़ी सतपुड़ा की पहाड़ियों की गोद में बसा हुआ एक हरा भरा हिल स्टेशन है। करीब 13 वर्ग किमी में फैले इस हिल स्टेशन की समुद्र तल से ऊँचाई 1067 मी है । इस जगह को ढ़ूंढ़ने का श्रेय कैप्टन जेम्स फार्सिथ को जाता है जो 1857 में अपने घुड़सवार दस्ते के साथ यहाँ के प्रियदर्शनी प्वाइन्ट पर पहुँचे । जिन लोगों को पहाड़ पर चढ़ने उतरने का शौक है उनके लिये पचमढ़ी एक आदर्श पर्यटन स्थल है । यहाँ किसी भी जगह पहुँचने के लिए 200 से लेकर 500 मी तक की ढलान और फिर ऊँचाई पर चढ़ना आम बात है। इसलिए इस छोटे पर्वतीय स्थल का प्रचार करते समय मध्यप्रदेश पर्यटन पचमढ़ी के खूबसूरत दृश्यों के साथ जूतों की तसवीर लगाना नहीं भूलता..
पचमढ़ी की पहली सुबह जैसे ही हम सब नाश्ते के लिये बाहर निकले तो पाया कि सड़क के दोनों ओर हनुमान के दूत भारी संख्या में विराजमान हैं। दरअसल पिछली शाम को जहाँ चाय पीने रुके थे वहीं का एक वानर दीदी के हाथ पर कुछ भोजन मिलने की आशा में कूद बैठा था । रात में होटल वालों ने बताया था कि बंदरों ने यहाँ भी काफी उत्पात मचाया हुआ है और टी.वी. पर केबल अगर नहीं आ रहा तो ये उन्हीं की महिमा है। सुबह जब ये फिर से दिखाई पड़े तो कल की सारी बातें याद आ गयीं सो जलपानगृह पहुंचते ही हमने अपनी शंकाओं को दूर करने के लिये सवाल दागा ।
भइया क्या यहाँ बंदर कैमरे भी छीन लेते हैं?
फिल्म ‘बीस साल बाद’ के लालटेन लिये चौकीदार की भांति भाव भंगिमा और स्थिर आवाज में उत्तर मिला
हाँ सर ले लेते हैं ।
पापा की जिज्ञासा और बढ़ी पूछ बैठे और ऐनक ?
हाँ साहब वो भी, अरे सर पिछले हफ्ते जो सैलानी आये थे उनके गर्मागरम आलू के पराठे भी यहीं से ले कर चलता बना था । :)
सारा समूह ये सुनकर अंदर तक सिहर गया क्योंकि उस वक्त हम सभी पराठों का ही सेवन कर रहे थे। पचमढ़ी पूरा घूमने के बाद हमें लगा कि बन्दे ने कुछ ज्यादा ही डरा दिया था । महादेव की गुफाओं और शहर को छोड़ दें तो बाकी जगहों पर ये दूत सभ्यता से पेश आते हैं ।
यहाँ पर सबसे पहले हमने रुख किया जटाशंकर की ओर । मुख्य मार्ग से यहाँ पहुँचने के लिये पर्वतों के बीच से 200 मीटर नीचे की ओर उतरना पड़ता है । इन्हीं विशाल पहाड़ियों के बीच की संकरी जगह में है निवास शंकर जी का…
बड़ी बड़ी चट्टानों के नीचे उनके बीच से रिसते शीतल जल पर नंगे पाँव चलना अपनी तरह का अनुभव है । प्राकृतिक रुप से गुफा में बने इस शिवलिंग की विशेषता ये है कि इसके ऊपर का चट्टानी भाग कुंडली मारे शेषनाग की तरह दिखता है ।
जटाशंकर से हम पांडव गुफा पहुँचे । पहाड़ की चट्टानों को काटकर बनायी गई इन पाँच गुफाओं यानि मढ़ी के नाम पर इस जगह का नाम पचमढ़ी पड़ा । कहते हैं कि पाण्डव अपने 1 वर्ष के अज्ञातवास के समय यहाँ आकर रहे थे। वैसे देश भर में ऐसी कई पांडव गुफाओं से मेरा पाला पड़ चुका है इसलिए इतना तो तय है कि वे हम सबसे ज्यादा घुमक्कड़ रहे होंगे। पुरातत्व विशेषज्ञ के अनुसार इन गुफाओं का निर्माण 9-10 वीं सदी के बीच बौद्ध भिक्षुओं ने किया था । इन गुफाओं का शिल्प देखकर मुझे भुवनेश्वर के खंडगिरी (यहाँ देखें) की याद आ गई जो जैन शासक खारवेल के समय की हैं। पांडव गुफाओं के ऊपर से दिखते उद्यान, आस पास की पहाड़ियाँ और जंगल एक नयनाभिराम दृश्य उपस्थित करते हैं और इस सौंदर्य को देखकर मन वाह-वाह किये बिना नहीं रह पाता ।
खैर यहाँ से हम सब आगे बढ़े अप्सरा विहार की ओर । अप्सरा विहार में वन विभाग की जीप कुछ दूर तो आपको ले जाती है पर नीचे की ओर का करीब दो किमी का रास्ता पैदल तय करना पड़ता है। ढलान से उतरते ही आप चौड़े पत्तों वाले वन और लाल मिट्ती के ऊबड़ खाबड़ रास्तों के बीच अपने आपको पाते हैं। अप्सरा विहार में अप्सराएँ तो नहीं दिखी अलबत्ता एक छोटा सा पानी का कुंड जरूर दिखा । हम नहाने के लिये ज्यादा उत्साहित नहीं हो पाए, हाँ ये जरूर हुआ कि मेरा पुत्र पानी में हाथ लगाते समय ऐसा फिसला कि कुंड में उसने पूरा गोता ही लगा लिया ।
पास ही कुछ दूरी पर ही यही पानी 350 फीट की ऊँचाई से गिरता है और इस धारा को रजत प्रपात के नाम से जाना जाता है । प्रपात तक का रास्ता बेहद दुर्गम है सो दूर से जूम कर ही इसकी तस्वीर खींच पाए।
वापस ऊपर चढ़ते चढ़ते सबके पसीने छूट गए और एक एक गिलास नीबू का शर्बत पीकर ही जान में जान आई। खैर ये तो अभी शुरुआत थी…. अगले दिन तो हाल इससे भी बुरा होना था । पर अभी तो भोजन कर महादेव की खोज में जाना था। अपराह्न में खाना खाने के बाद हम जा पहुँचे हांडी खोह के पास । 350 फीट गहरे इस खड्ड में ऊपर से देखने पर भी बड़े बड़े वृक्ष बौने प्रतीत होते हैं।
इस दृश्य को देख कर ही शायद कवि के मन में ये बात उठी होगी
जागते अँगड़ाईयों में ,
खोह खड्डे खाईयों में
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
डूबते अनमने जंगल
साथ ही ये विचार भी मन को मथ रहा था कि भगवान शिव को क्या पड़ी थी जो इन गहरे खड्डों खाईयों में विचरते आ पहुँचे । हांडी खोह से महादेव का रास्ता हरे भरे जंगलों से अटा पड़ा है। सड़क के दोनों ओर की हरियाली देखते ही बनती थी । महादेव की गुफाओं की ओर जाते वक्त चौरागढ़ की पहाड़ी पर स्थित शिव मंदिर स्पष्ट दिखता है। महाशिवरात्रि के समय हजारों श्रृद्धालु वहाँ त्रिशूल चढ़ाने जाते हैं। ना तो अभी शिवरात्रि थी और ना ही हमारे समूह में कोई इतना बड़ा शिवभक्त कि 1250 सीढ़ियाँ चढ़कर वहाँ पहुँचने का साहस करता। तो चौरागढ़ ना जाकर हम सब बड़े महादेव की गुफा की ओर चल पड़े । कैमरा गाड़ी में ही रख दिया क्यो.कि इस बार वानर दल दूर से ही उछल कूद मचाता दिख रहा था । समुद्र तल से 1336 मी. ऊँचाई पर स्थित ये गुफा 25 फीट चौड़ी और 60 फीट. लम्बी है। गुफा के अंदर प्राकृतिक स्रोतों से हर समय पानी टपकता रहता है । अंदर एक प्राकृतिक शिव लिंग है जिसके ठीक सामने एक पवित्र कुंड है जिसे भस्मासुर कुंड कहते हैं ।
भस्मासुर की कथा यहाँ के तीन धार्मिक स्थलों चौरागढ़, जटाशंकर और महादेव गुफाओं से जुड़ी है । अपने कठिन जप-तप से उसने भगवान शिव को प्रसन्न कर ये वरदान ले लिया कि जिस के सर पर हाथ रखूँ वही भस्म हो जाए । अब भस्मासुर ठहरा असुर बुद्धि, वरदान मिल गया तो सोचा क्यूँ न जिसने दिया है उसी पर आजमाकर देखूँ । भगवन की जान पर बन आई तो भागते फिरे कभी जटाशंकर की गुफाओं में जा छिपे तो कभी गुप्त महादेव और अन्य दुर्गम स्थानों पर । पर भस्मासुर कोई कम थोड़े ही था भगवन को दौड़ा – दौड़ा कर तंग कर डाला। भगवन की ये दुर्दशा विष्णु से देखी नहीं गई और उतर आये पृथ्वी पर मोहिनी का रूप लेकर । अपने नृत्य से मोहिनी ने भस्मासुर पर ऍसा मोहजाल रचा कि खुद भस्मासुर उसी लय और हाव भाव में थिरकते अपने सिर पर हाथ रख बैठा । कहते हैं कि बड़े महादेव की उस गुफा में ही भस्मासुर भस्म हो गया ।
बड़े महादेव से 400 मीटर दूर परएक बेहद संकरी गुफा हे जो कि गुप्त महादेव का निवास स्थल है । इस गुफा में एक समय 8 ही व्यक्ति घुस सकते हैं । ऐसी गुफा में कोई मोटा व्यक्ति घुस जाए तो रास्ता जॉम ही समझिए । गुफा में आप साइड आन ही चल सकते हैं। खुद को पतला समझ कर मैंने एक बार सीधा होने की कोशिश की तो कमर को दो चट्टानों के बीच फँसा पाया। पहले 10 फीट पार हो जाए तो गुफा में घना अँधेरा छा जाता है । कहने को गुफा के अंतिम छोर पर शिवलिंग के ऊपर एक बल्ब है पर वो भी जलता बुझता रहता है । जल्दी -जल्दी में प्रभु दर्शन निबटाकर हम झटपट गुफा से बाहर निकले ।
वापसी में राजेंद्र गिरी से सूर्यास्त देखने का कार्यक्रम था पर हमारे रास्ता भटक जाने की वजह से सूर्य देव हमारे वहाँ पहुँचने से पहले ही रुखसत हो लिये । पहले दिन का ये अध्याय तो यहीं समाप्त हुआ । अगले दिन की शुरुआत तो एक ऐसे दुर्गम ट्रेक से होनी थी जिसमें बिताये गए पल इस यात्रा के सबसे यादगार लमहे साबित हुये । क्या थी हमारी मंजिल और कैसा था हमारा वहाँ तक पहुँचने और लौटने का अनुभव ये बताऊँगा मैं आपको अगले हिस्से में…
ati vishist varnan. aapki sundar-rupen prastuti ne humein satpura aur pachmadi ke sair karaye. aapke iss lekh ke liye sat sat naman.
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in panktiyon ne darsha dia he ki aap ek kavi hridaya lekhak hain. Atyant hi sunder lekh. Dhanywad.
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Manish ji,
Bahut badiyaa likhte hain aap.
A brilliant write up on Pachmari. The description of “Bhasmasur ki katha” is amazing.
Shall await the next part.
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Hi Manish,
It was an interesting post (both the parts), i.e. in addition to its novelty of being in Hindi – in your own dhang.
I don’t really know how to respond, so I do it in the easiest manner:-
‘ Prem….
Aakele hone ka hi
Ek aur dhang hai’
(Shrikant Varma – ‘Ek Aur Dhang’)
In our childhood, our trip to Panchmarhi was always fraught with mysterious unknowns like ‘ a sadhu who takes you inside the gupha – to eat your flesh – when you come out its not you but something resembling you controlled by sadhu, etc.’
A great description, heart rending.
Thanks.
Auro.
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One of my close friends went to Pachmarhi on his honeymoon and after reading his account, it seemed like one destination to not-miss. Though we could never plan enough to make it happen but it remained firm-n-waiting, somewhere in the back of mind.
Read his account here – https://www.ghumakkar.com/2007/12/09/pachmarhi-elemental-high
samaya beeta and recently (couple of years back), another close friend visited and he summed up the place as one which has a lot of nature (read ‘anmane se jungle’) and a lot of religious stuff and being ‘religiously challenged ghumakkars’ (read more here on why – ) , Pachmarhi sort of took a even backer (i know there is no such work, dont know why) seat.
His accounts are here – https://www.ghumakkar.com/2009/01/09/trip-to-pachmarhi-and-others-part-1/
After reading the couple of stories posted by you, my interest has gone up manifold. I also deliberated myself on whether it is because of your excellent story telling skill or is it really the place and I somehow get the answer that it needs a well planned visit for sure, possibly a Delhi-Bhopal kind of long drive.
Eagerly waiting for next one.
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Hi Manish,
Fright/fear (dar) is an intrinsic part of our childhood memories (despite its [childhood’s] distance, in terms of attainability; and quality of own mind in terms of holding on to memories). ‘Dar’ relates to our parents narrating stories about a giant/rakshash or something equally terrorising, and we snuggling close to them.
Darawani kahaniya – therefore is a relative term –
whether they are stories sourced from tickling memories from a distant past; or whether they actualise an unsavoury phenomenon in our being.
‘Pero ke saath saath
hilta hai siir
Yeh mausam ab nahi
Aayega phir.’
Vasant Raag – Sarveshvar Dayal Saxena
Thanks
Auro
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plz ya mandir kaha hai aap mujhe bata saketa hai plz
this is a vary nice place.