यादें पचमढ़ी की भाग 1 : राँची से पचमढ़ी तक का सफ़र !

14 अक्टूबर 2006 की सुबह आ चुकी थी । और हम नागपुर (Nagpur) की ओर कूच करने को तैयार थे। वहीं मेरी बहन का अभी का निवास है। दरअसल इस बार सारे परिवार को इकठ्ठा होने के लिये हमने पचमढ़ी को चुना था । नागपुर तक ट्रेन से जाना था और उसके बाद सड़क मार्ग से पचमढ़ी पहुँचना था । समय से आधे घंटे पहले हम हटिया स्टेशन पर मौजूद थे ।

अब यात्रा की शुरुआत एकदम सामान्य रहे तो फिर उसका मजा ही क्या है । कार की डिक्की खुलते ही इस रहस्य से पर्दाफाश हुआ कि माँ की एक अटैची तो घर ही में छूट गयी है। गाड़ी खुलने में 25 मिनट का समय शेष था और स्टेशन से वापस घर का रास्ता कार से 8-10 मिनट में तय होता है । आनन फानन में कार को वापस दौड़ाया गया । खैर गाड़ी खुलने के 7-8 मिनट पहले ही अटैची वापस लाने का मिशन सफलता पूर्वक पूरा कर लिया गया।

आगे की यात्रा पारिवारिक गपशप में आराम से कटी । दुर्ग (Durg) पहुँचते पहुँचते हमारी ट्रेन 2 घंटे विलंबित हो चुकी थी। यानि 11.30 बजे रात की बजाय हम 1.30 बजे पहुँचने वाले थे । पूरी यात्रा शांति से कट जाए ये भला भारतीय रेल में संभव है । हम अलसाते हुये नीचे उतरने का उपक्रम कर ही रहे थे कि स्लीपर के अतिरिक्त डिब्बे को सामान्य डिब्बा समझ स्थानीय ग्रामीणों की फौज ने बोगी में प्रवेश करने के लिये धावा बोल दिया । अब न हम गेट से बाहर निकल पा रहे थे और ना उनका दल पूरी तरह घुसने में कामयाब हो रहा था । भाषा का भी लोचा था । खैर अंत में हमारी सम्मिलित जिह्वा शक्ति काम में आई और किसी तरह धक्का मुक्की करते हुये हम बाहर निकल पाए । खैर इस प्रकरण से एक फायदा ये रहा कि हम सब की नींद अच्छी तरह खुल गई ।

अगला दिन आराम करने में बीता । शाम को हम दीक्षा भूमि पहुँचे । सन 1956 में लाखों समर्थकों के साथ डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने यहीं बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की थी । दीक्षा भूमि स्तूप का गुम्बद करीब 120 फीट ऊँचा और इतने ही व्यास का है । बाहर से देखने में पूरी इमारत बहुत सुंदर लगती है । अंदर के हॉल में बुद्ध की प्रतिमा के आलावा प्रदर्शनी कक्ष भी है जिसमें भगवान बुद्ध और बाबा साहेब के जीवन से जुड़ी जानकारी दी जाती है । एक बात जरूर खटकी कि इतनी भव्य इमारत के अंदर और स्तूप परिसर में साफ सफाई का उचित इंतजाम नहीं था ।

शाम ढ़लने लगी थी । पास के एक मंदिर से लौटते हुये हमें एक नई बात पता चली कि संतरे के आलावा नागपुर के समोसे भी मशहूर हैं । और तो और यहाँ तो इन की शान में पूरी दुकान का नाम भी उन्हीं पर रखा गया है , मसलन समोसेवाला, पकौड़ीवाला.. .

खैर सबने चटपटी पीली हरी चटनी के साथ समोसों का आनंद उठाया और चल पड़े तेलांगखेड़ी झील (Telangkhedi Lake) की तरफ ।
झील तो आम झीलों की तरह ही थी पर आस पास का माहौल देख के ये जरूर समझ आ गया कि इस झील का नागपुर के लोगों के लिये वही महत्त्व है जो मुंबई वासियों के लिये मैरीन ड्राइव का ये कलकत्ता के लोगों के लिए विक्टोरिया गार्डन का । उमस काफी हो रही थी सो कुछ समय बिता, इस लाल रंगत बिखेरते फव्वारे की छवि लेकर हम वापस लौट गए ।

पचमढ़ी के लिए अगली सुबह 9 बजे तक चलने के बजाय हम 10 बजे ही निकल पाए । 8 लोगों और सामान से पैक ट्रैवेरा में मुझे पीछे ही जगह मिल पाई थी। साथ में जीजा श्री बैठे थे। मौसम साफ था । संगीत का आनंद उठाते और एक दूसरे की खिंचाई करते सफर आराम से कट रहा था। करीब 50-60 किमी. का सफर शायद तय हो चुका था । बीच-बीच में, रास्ते के दोनों ओर संतरे के बाग दिख जाया करते थे। अचानक विचार आया कि क्यों ना संतरे का बाग अगर सड़क के पास दिखे तो अंदर जाकर तसवीर खींची जाए। खैर वैसा बाग पास दिखा नहीं और फिर हम गपशप में मशगूल हो गए । हमारी मस्ती का आलम तब टूटा जब हमें एक जोर का झटका नीचे से लगा और पीछे की सीट में हम अपना सिर बमुश्किल बचा पाए । गाड़ी के बाहर नजर दौड़ायी तो एक तख्ती हमारी हालत पर मुस्कुराते हुये घोषणा कर रही थी

मध्य प्रदेश आपका स्वागत करता है !

अगले एक घंटे में ही मध्य प्रदेश की इन ‘मखमली सड़कों’ पर चल-चल कर हमारे शरीर के सारे कल पुर्जे ढ़ीले हो चुके थे । और बचते बचाते भी जीजा श्री के माथे पर एक गूमड़ उभर आया था । अब हमें समझ आया कि उमा भारती ने क्यूँ सड़कों को मुद्दा बनाकर दिग्गी राजा की सल्तनत हिला कर रख दी थी । खैर जनता ने सरकार तो बदल दी पर सड़कों का शायद सूरत-ए-हाल वही रहा ।

सौसर (Sausar) और रामकोना(Ramkona) पार करते हुये हम करीब साढ़े तीन घंटे में करीबन 130 किमी की यात्रा पूरी कर जलपान के लिये छिंदवाड़ा (Chindwara) में रुके । रानी की रसोई ( Rani ki Rasoi) हमारी ही प्रतीक्षा कर रही थी क्योंकि हमारे सिवा वहाँ कोई दूसरा आगुंतक नहीं था । जैसा कि नाम से इंगित हो रहा है खान-पान की ये जगह छिंदवाड़ा नरेश की थी । भोजनालय के ठीक पीछे राजा साहब ने एक महलनुमा खूबसूरत सा मैरिज हॉल बना रखा था जिसे देख कर हम सब की तबियत खुश हो गई।

छिंदवाड़ा के आगे का रास्ता अपेक्षाकृत बेहतर था यानि गढ़्ढ़े लगातार नहीं पर रह रह कर आते थै । परासिया (Prasia) से तामिया तक का रास्ता मोहक था । सतपुड़ा की पहाड़ियाँ, उठती गिरती सड़कें और पठारी भूमि पर सरसों सरीखे पीले पीले फूल लिये खेत एक अद्भुत दृश्य उपस्थित कर रहे थे। देलाखारी (Delakhari) पार करते करते सांझ ढ़ल आयी थी पर परासिया के बाद हमें उस रास्ते पर पचमढ़ी की तख्ती नहीं दिखी थी । देलाखारी के 20-25 किमी चलने के बाद फिर जंगल शुरु हो गए पर मील का पत्थर ये उदघोषणा करने को तैयार ही नहीं था कि यही रास्ता पचमढ़ी को जाता है । या तो मटकुली (Matkuli) का नाम आता था या फिर भोपाल का। मन ही मन घबराहट बढ़ गई की हम कहीं दूसरी दिशा में तो नहीं जा रहे। सांझ के अँधेरे के साथ ये शक बढ़ता जा रहा था। पचमढ़ी के 45 किमी पहले एक जगह एक बेहद पुराना साइनबोर्ड जब दिखा तब हमारी जान में जान आई । बलिहारी है मध्य प्रदेश पर्यटन की कि इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाओं में लगातार दो तीन हफ्तों से दो दो पन्ने के रंगीन इश्तिहार देने में कंजूसी नहीं करते पर पचमढ़ी जाने वाली इन मुख्य सड़कों में इतनी मामूली जानकारी देने में भी कोताही बरतते हैं ।

मुटकली आते ही हमारी सड़क पिपरिया पचमढ़ी मार्ग से मिल गई और। पचमढ़ी जाने का ये अंतिम 30 किमी का मार्ग पीछे के रास्तों से बिलकुल उलट था । सीधी सपाट सफेद धारियाँ युक्त सड़कें, हर एक घुमाव पर चमकीले यातायात चिन्ह और सड़क के दोनों ओर हरे भरे घने जंगल ! अब सही मायने में लग रहा था कि हम सतपुड़ा की रानी के पास जा रहे हैं।

वैसे सतपुड़ा के इन जंगलों के साथ हम दिन भर कई बार आँख मिचौनी कर चुके थे । भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्तियाँ पूरे सफर में रह रह कर याद आती रही थीं

झाड़ ऊँचे और नीचे
चुप खड़े हैं आँख मींचे
घास चुप है, काश चुप है
मूक साल, पलाश चुप है
बन सके तो धँसों इनमें
धँस ना पाती हवा जिनमें
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
डूबते अनमने जंगल

शाम के करीब साढ़े सात तक हम पचमढ़ी में अपने आरक्षित ठिकाने पर पहुँच चुके थे।पचमढ़ी के इस यात्रा वृत्तांत के अगले भाग में आपको बताएँगे कि कैसे बीता पचमढ़ी में हमारा पहला दिन!

21 Comments

  • Virag Sharma says:

    Wow writing in Hindi … tough task.
    Nice writeup

    • Manish Kumar says:

      Thanks Virag ! No it’s not so difficult to write in hindi. There are so many Hindi phonetic softwares available. The only thing is that you ned some practice.

  • Mahesh Semwal says:

    Dear Manish,

    A nice post with mix experiences :-) supported with beautiful pictures , specially Fountain – Telangkhedi Lake.

    Bhopal – Panchmari is my radar. Waiting for your next post.

  • Ram Dhall says:

    Manish ji,

    Aap ka aalekh pad kar anand aa gaya. A brilliant description of your journey to Pachmari.

    My wife is very fond of samosas. Seeing your post, I am afraid, she may insist on taking her to Nagpur.

    Shall await the next post.

  • sskagra says:

    aap ka sundar sa aalekh pakorha bala aur bhojnanay ki photography achhi thi Thanking you
    sskagra

  • P D KULKARNI says:

    That was good!
    waiting for your next episode f panchamarhi proper.

  • manish khamesra says:

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  • Nandan says:

    Satpura ke Ghaney Jungle. Wow

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    I did a long road-trip last december and things are getting better in terms of tourism (cleaner govt hotels, information avail, nice polite staff, enough focused marketing etc etc) but I believe roads are with greater powers and they are not doing much.

    looking fwd to part 2.

    • Manish Kumar says:

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  • jaishree says:

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  • Manish Kumar says:

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  • Dear Manish,
    Aapka Aalekh padha. Padhkar man ati prasanna tatha bhav vibhor ho gaya. Yatra Sansmaran, hindi sahitya ki ek ati ruchikar vidha hai par lagbhag marnasanna avastha men. Aapka yatra sansmaran padhkar aisa prateet hua ki aapne internet ke madhyam se is vidha men nayee jaan funk di hai. Yatra ka itna sajeev thatha rochak bhasha men varnan kaee salon ke baad padhne ko meela, aapki bhasha shaili bahoot pasand aayi.

    Thanks.

  • Manish Kumar says:

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  • Ravi says:

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  • HUMTY says:

    SOOOOOOOOOOOOOOOO NICE MANISH IT HELPS ME IN MY PROJECT ALSO ND WRITTING IN HINDI IS VERY TOUGH …………………:)

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