“बास करहु तहँ रघुकुल राया, कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया. चले राम मुनि आयसु पाई, तुरतहिं पंचवटी नियराई”…
यह पंक्तियाँ गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड से उधृत हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि अपने वनवास के दौरान श्रीरामचन्द्र जी ने वर्तमान नाशिक शहर में गोदावरी नदी के तट पर स्थित पंचवटी में निवास किया था. इस स्थान का यही सबसे बड़ा महत्त्व है. २५ मार्च २०१६ को मैं सपरिवार नाशिक शहर में था. उसी दिन सुबह में हमलोग सप्त्श्रींगी देवी की यात्रा करके दोपहर तक नाशिक लौटे थे. वह हमारे लिए एक नया शहर था, इसीलिए हमसभी उत्सुकता इस शहर के बारे में जानने की प्रतीक्षा कर रहे थे. मैं देखना चाहता था वे सारे स्थल जहाँ शूर्पनखा का नाक-कान कटा गया था, जहाँ से सीता का अपहरण हुआ था और जिस स्थान पर श्री रामचन्द्रजी ने अपने पिता दशरथ का अंतिम संस्कार किया था. अतः दोपहर के खाने के बाद थोड़ा विश्राम करके करीब चार बजे अपने गेस्ट हाउस से एक कार पर सवार हो कर गोदावरी-नदी के तट के लिए निकल पड़े. जल्दी ही हमारी कार पुराने नाशिक की तंग गलियों से होती हुई गोदावरी तट पर राम-तीर्थ के पास पहुँच गयी. यहाँ हमसब उतर गए, कार को उचित पार्किंग स्थल के लिए भेज दिया गया और हमारी गोदावरी-तट की पैदल यात्रा शुरू हो गयी.
भारतवर्ष में चार स्थानों पर कुम्भ का आयोजन होता है, जिसमें से एक नाशिक का गोदावरी तट है. यह कुम्भ का समय भी था. बारह वर्षों के पश्चात आने वाले कुम्भ की कई धार्मिक लोग-बाग़ वर्षों प्रतीक्षा करते हैं. कुम्भ का स्नान पवित्र तथा पापमोचक मन जाता है. जैसे ही हमें कुम्भ के बारे में पता चला, हमारी ख़ुशी और बढ़ गयी, क्योंकि हमने तो इस उद्देश्य से तो यहाँ आने का सोचा ही नहीं था. ऐसे ही में भगवान् के बुलावे के बारे में प्रसिद्ध लोकोक्ति का स्मरण हो जाता है. इस स्थान पर गोदावरी नदी पर बने सारे घाट पक्की सीढ़ियों वाले हैं. ठीक दायीं ओर एक प्राचीन-सा दिखने वाला “गंगा-गोदावरी मंदिर अथवा गोदावरी-भागीरथी मंदिर” था. स्थानीय नियमों के अनुसार यह मंदिर प्रत्येक बारह-वर्षों के बाद सिर्फ कुम्भ के समय में ही खुलता है. उस समय इसकी सफाई की जाती है और फिर कुम्भ में आये लोग इसमें पूजा-अर्चना करते है. हमारी तो ख़ुशी का ठिकाना नहीं. पहली बार नाशिक आये और एक ऐसे मंदिर में पूजा करने का सौभाग्य मिला जो अब बारह वर्षों के बाद ही खुलेगा.
उस मंदिर से बाहर निकले तो देखा कि इसी मंदिर के पास पीतल से बने ध्वज-खंभ पर “कुम्भ की ध्वजा” फहरायी गयी थी. वहीँ पता चला की कुम्भ के समय ध्वज फहराने और उतारने का भी एक कोड है. ग्रहों की गति के साथ साथ कुम्भ भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर मनाया जाता है. उसी की निर्धारण से यह बताया जाता है कि किस स्थान पर कुम्भ की ध्वजा कब चढ़ेगी और कब उतरेगी. और इसी ध्वज के उतार-चढ़ाव के समय से सारे कुम्भ-स्थलों के धर्म-गुरु और श्रद्धालु एक-दुसरे से जुड़े रहते है. ध्वजारोहण के समय काफी विशाल कार्यक्रम भी आयोजित किया जाता है, जिसमें सभी गण्य-मान्य भी आमंत्रित रहते है. कुम्भ की ध्वज के महत्त्व का हमें पहले ज्ञान नहीं था, अतएव यह जानकारी संजो कर हम आगे चल पड़े क्योंकि अब यह प्रक्रिया तो अगले बारह वर्षों के बाद ही होगी.
वहीँ मंदिर के सामने गोदावरी-नदी के घाट में एक बड़ा और पीछे एक छोटा कुण्ड बना था, जिसमें अभी कुछ जल शेष था. बड़े कुण्ड को “राम-कुण्ड”, तथा छोटे कुण्ड को लक्ष्मण-कुण्ड कहा जाता है. किम्वदंती है कि वनवास प्रवास के दौरान श्रीराम राम-कुण्ड में और श्रीलक्ष्मण लक्ष्मण-कुण्ड में स्नान किया करते थे. श्रीराम-कुण्ड के पास ही एक छोटा सीता-कुण्ड भी बताया गया. जल रुका हुआ और गन्दा प्रतीत होता था. फिर भी कई श्रद्धालु उसमें स्नान कर रहे थे. हमलोगों ने स्नान करना तो उचित नहीं समझा, पर धार्मिक मान्यताओं का अनुसरण करते हुए अपने पर जल का छिडकाव किया और उस स्थान पर आये, जहाँ खड़े हो कर श्रीराम ने अपने पिता दशरथजी की अस्थियाँ गोदावरी नदी में प्रवाहित की थी.
वह स्थान, जहाँ श्रीराम ने अस्थियाँ प्रवाहित की थीं, वर्तमान में सीमेंट के प्लेटफार्म से चिन्हित था और लोहे की रैलिंग्स से घेरा हुआ था. इसे वर्तमान में “अस्थि विलय तीर्थ” कहते हैं. आज-कल भी कई लोग अपने विशेष परिवार-जनों की अस्थियाँ यहीं विसर्जित करते हैं. स्थानीय लोकोक्ति है कि कोई नहीं जानता कि वे विसर्जित अस्थियाँ कहाँ लुप्त हो जाती हैं. अब यदि एक वर्ष में पांच हज़ार लोग भी यहाँ अस्थि विसर्जित करें तो इस स्थल पर एक छोटा उभार बनना तो स्वाभाविक था, परन्तु उभार तो क्या, वहाँ तो बिलकुल-ही नीचे तक नदी की धारा-ही बह रही थी. इसीलिए इस लोकोक्ति पर विश्वास करना तर्कसंगत लगा. मैंने भी कुछ समय तक वहां खड़ा होके अपने पुरुखों की मानसिक प्रार्थना की और फिर अगले पॉइंट की ओर चला.
अगला पॉइंट ‘गाँधी स्मारक” और “गाँधी तालाब” थे. यह दोनों भी गोदावरी-तट पर राम-तीर्थ के निकट ही थे. गाँधी स्मारक उस स्थान पर बना है, जहाँ से गाँधी जी की अस्थियाँ १९४८ में गोदावरी नदी में प्रवाहित की गयीं थीं. स्मारक काफी बड़ा है और उस पर ऊपर चढ़ने के लिए सीढियां बनी हुईं हैं. ऊपर स्मारक में गीता के कुछ श्लोक अंकित हैं. नीचे काले पत्थर और ऊपर संगमरमर से बने यह स्मारक पश्चात-काल में कितना भव्य दीखता होगा. परन्तु अब यहाँ सफाई की अत्यंत आवश्यकता प्रतीत होती थी. वहीँ पता चला कि महात्मा गाँधी के अतिरिक्त कई बड़े-बड़े नेताओं की अस्थियों को भी इसी स्थान पर विसर्जित करने के लिए लाया गया था. गाँधी तलब में कुछ जल शेष था, जिसमें बच्चे तैरने का अभ्यास कर रहे थे. साथ-ही वहां कुछ नौकाएं भी किनारे लगीं हुईं दिखीं, जिन्हें शायद नौका-विहार के लिए प्रयोग में लाया जाता होगा.
अब तक गोदावरी-नदी का यह तट हमें पाप-पुण्य-मृत्यु इत्यादि के बारे में स्मरण करा रहा था. पर साथ-साथ मैं वहां की आबो-हवा का अनुभव करने का प्रयास भी कर रहा था. हलकी-हलकी हवा चल रही थी, जिसने दोपहर की धूप की तपिश को हरना शुरू कर दिया था. आंशिक संध्या काल में एक धार्मिक स्थल होने के कारण वहां का सारा वातावरण निस्संदेह धर्मपरायणता के अहसास दिला रहा था. परन्तु मैं किसी बात से खिन्न था. और वह था गोदावरी नदी में पानी का न होना. नदी का पाट छोटा था, परन्तु पार जाने के लिए एक सीमेंट का पुल बना हुआ था. पुल के ऊपर चढ़ने से सारा तट साफ दिखाई देने लगा. राम-तीर्थ के सारे घाट पक्की सीढ़ियों से बने थे. काफ़ी सुविधाएं भी यात्रियों के लिए उपलब्ध थीं. पर वहीँ मैंने देखा कि नदी के पाटों के बीच तक लोगों की गाड़ियाँ लगी हुईं थीं. अब ऐसे में, जब नदी के बीच में ही निर्माण कार्य हो, तो नदी में जल कहाँ से आये.
घाट पार करने के उपरान्त हमलोग एक लाल रंग से रंगी एक विशाल ईमारत के समीप आये. चार मंजिला और गोल गुम्बद वाली उस ईमारत पर नज़र पड़ते ही कौतुहल स्वाभाविक था. नजदीक जाने से पता चला की हाल में ही निर्मित वह ईमारत एक साधू की समाधी थी. निसंदेह वह कोई विशेष प्रभाव रखने वाला मठाधीश होगा, ऐसा सोच कर हमलोग वहां से आगे बढे. वैसे तो हर थोड़ी-थोड़ी दूर पर कोई मंदिर या कोई धार्मिक स्थल दीखता था, पर साधू की समाधि के बाद उस घाट पर और कोई विशेष कौतुहल शेष नहीं होने की वजह से हमलोग वापस लौटने लगे.
नदी के ठीक बीचो-बीच दोनों पाटों को जोड़ता हुआ एक रास्ता बना हुआ था, जिसमें स्थानीय आदिवासी तरह-तरह की जड़ी-बूटियाँ बेच रहे थे. हमें सड़कों पर बिछी हुई ऐसी जड़ी-बूटियों वाली दुकानें बहुत आकर्षित करतीं हैं, हालाँकि मैं इनके बारे में ज्ञान नहीं रखता. कुछ समय रुकता हूँ, कुछ तस्वीरें खींच कर आगे बढ़ जाता हूँ. पर कभी-न-कभी मैं इनके बारे में जानने की और कोशिश करूँगा, ऐसा सोच कर आगे बढ़ा तो आगे “दू-तोंद्य मूर्ति” की प्रतिमा दिखी. एक तरफ हनुमानजी के द्वारा किसी राक्षस का वध किया जाना अंकित था तो दूसरी तरफ हनुमानजी भक्तिभाव से अपने आराध्य की पूजा कर रहे थे.
दो-मुखी हनुमान प्रतिमा के बाद हमलोग अत्यंत प्राचीन “नारोशंकर मंदिर” के ठीक सामने थे. १७६४ ईस्वी में बने इस मंदिर के द्वार पर एक बड़ा-सा घंटा लटक रहा था. इस “नारोशंकर घंटे” की भी एक कहानी है. लोकोक्ति है कि १७३९ में तत्कालीन पेशवा बालाजी राव प्रथम ने पोर्तुगिसों से वसई किला जीत लिया था और उसी जीत के बाद वसई चर्च में लगा घंटा यहाँ ला कर लगा दिया गया. किम्वदंती यह भी है कि इस घंटे की आवाज २-३ किलोमीटर तक जाती है, पर मंदिर के जीर्ण-शीर्ण होने की वजह से अब इसे बजाया नहीं जाता. यह भी मान्यता है कि जब गोदावरी नदी का पानी ऊपर चढ़ कर इस घंटे को छूने लगे तो पुराने नाशिक शहर पर बाढ़ का खतरा होगा.
नारोशंकर मंदिर की छत अपने आप में स्थापत्य-कला के लिए प्रसिद्ध है. काफ़ी विदेशी पर्यटक इस मंदिर की छत का अध्धयन करने आते हैं. चट्टानों के नक्काशीदार टुकड़े सिर्फ उन टुकड़ों पर बने खांच में लग कर अभी तक खड़े है. मंदिर के अन्दर के सभा मंडप में एक नंदी और एक कछुए की मूर्ति है. कछुए की मूर्ति तो जमीन के सतह पर ही अंकित है. कुछ ऐसा-ही त्रैम्बकेश्वर मंदिर में भी देखने को मिलता है. मंदिर के बाहर के प्रांगन में भी कई कलात्मक आकृतियाँ हैं, जैसे की काल-सर्प की प्रतिमा. नारोशंकर मंदिर में कुछ समय बिताने के बाद हमलोग फिर से राम-तीर्थ की तरफ बढ़े.
राम-तीर्थ पर ही एक और मंदिर की नक्काशी ने हमलोगों को आकर्षित किया. यह इंदौर की होलकर मराठाओं की रानी अहिल्याबाई द्वारा निर्मित ‘सर्वेश्वर मंदिर’ था. मंदिर की दीवार पर लगे पत्थर पर उकृत सूचना दर्शा रही थी कि इस मंदिर की स्थापना शक संवत १७०७ (१७८५ ईस्वी) में हुई थी. पर मंदिर अभी बंद था. अतः हमलोग इस मंदिर का दर्शन नहीं कर पाए, जिसका हमें खेद रहेगा.
पर अब तक संध्या के ५.४५ बज चुके थे. गोदावरी तट से बाहर निकलने का समय हो चुका था. अभी हमें उस धरती पर भी जाना था, जिसे रामायण काल में “दण्डकारन्य” कहा जाता था. इसीलिए हमलोग राम-तीर्थ से बाहर आये तो देखा कि इस स्थान पर कई धर्मशालाएं, लॉज और खाने-पीने की व्यवस्था है. कुछेक पुराने संस्थान तो शताब्दियों से चल रहे थे. हर थोड़ी दूर पर एक मंदिर था. अब यदि कोई चाहे तो हरेक मंदिर का दर्शन कर सकता है. परन्तु समय का अभाव सभी को होता ही है, हमारे पास भी यही हाल था. इसीलिए, राम-तीर्थ से बाहर निकल कर हमलोग सीधे “श्री कपालेश्वर मंदिर” आ गए.
श्री कपालेश्वर मंदिर में जाने के लिए संकरी सीढियां थीं. सुबह ही हमलोगों ने सप्त्श्रींगी देवी के मंदिर की ५०० सीढियां चढ़ी थीं, जिससे पैरों में थोड़ी जकड़ जरुर थी. परन्तु कपालेश्वर मंदिर में जाने का हाथ आया मौका भी कैसे छोड़ा जाता. इसीलिए बिलकुल धीरे-धीरे चल कर हमलोग ऊपर चढ़ ही गए. इस मंदिर में पूजन करने हेतु यदि पूजन सामग्री-फूल इत्यादि लेने हों, तो वे सीढियां चढ़ने से पहले ही ले-लेने चाहिए क्योंकि ऊपर सिर्फ मंदिर ही है.
श्री कपालेश्वर महादेव की भी एक कहानी है. ऐसा कहा जाता है कि भगवान् शिव को किसी वक़्त गो-हत्या का पाप लगा. उस पाप से छुटकारा पाने के लिए उनके वाहन नंदी ने उन्हें गोदावरी नदी स्थित राम-तीर्थ में पूजन करने की सलाह दी. नंदी की बात मान कर शिवजी अकेले ही राम-तीर्थ आये और वहां पूजा-अर्चना की, जिससे उनका पातक छूट गया. यही वजह है कि इस शिव मंदिर में नंदी की कोई प्रतिमा नहीं है. यहाँ शिवजी का काफ़ी श्रृंगार किया गया था, जो दर्शनीय था. कई लोग इस मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे. उन्ही से सुना कि श्री कपालेश्वर की परिक्रमा करने से कई मनोरथ पूरे हो जाते है. मनोरथ ले के तो हम आये नहीं थे, परन्तु परिक्रमा करने में सच में आनंद आ गया. उस परिसर में और भी कई छोटे-बड़े मंदिर थे. वहीँ हमलोगों ने एक विदेशी महिला को भी देखा, जिसने गेंदा के फूलों की एक माला खरीद ली थी और उस माला से एक-एक फूल तोड़-तोड़ कर बड़ी शांति एवं तन्मयता से हरेक मंदिर में चढ़ाये जा रही थी. कुछ दूर तक तो हम साथ-साथ चले, फिर हमलोग अपने रास्ते बढ़ गए क्योंकि अभी हमारी दण्डक-वन या तपोवन की यात्रा शेष थी.
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