मुंबई लोकल ट्रेन नेटवर्क पर, मात्र २० रुपये के टिकट पर, बोरीवली स्टेशन से विरार स्टेशन तक पहुँच कर, स्टेशन के प्लेटफार्म पर अकेला खड़ा हो कर, मैं यही सोच रहा था कि मैं पूर्व की ओर जाऊं या पश्चिम की ओर. तब मैंने अपने पाकेट से एक सिक्का निकाला और टॉस किया. हेड आया तो पूर्व जाऊंगा और टेल आया तो पश्चिम. सिक्का उछल कर हेड की तरफ दिखाते हुए गिरा. अपने निर्णय के अनुसार, मैं विरार स्टेशन के पुल को पार कर, पूर्व की ओर चल पड़ा. तत्पश्चात मेरा शेयर-ऑटोरिक्शा, पीछे की सीट की तीन सवारी और ड्राईवर सीट की दो सवारियों को लेने के बाद, विरार (पूर्व) शहर की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से होता हुआ, एक पर्वत की तलहटी पर आ खड़ा हुआ.
उस समय दोपहर के लगभग ०१.३० बज चुके थे. मानसून के बारिश का कहीं नामो-निशान नहीं था. चटकीली और गर्म धूप फ़िज़ा में खिली हुई थी. और ऐसे में मुझे, उस पर्वत के शिखर पर स्थित जीवदानी माता के मंदिर तक पहुँचने के लिए, १३०० सीढ़ियों वाले मार्ग पर चढ़ना था. सीढियां जहाँ से शुरू होतीं थीं, वहीँ एक पंडाल था, जिसमें, पर्वत चढ़ने की इच्छा रखने वाले श्रद्धालु-गण, अपने-अपने चप्पलों-जूतों को रख सकते थे. शुरुआत में ही एक गणेश मंदिर और जीवदानी माता की एक प्रतिमूर्ति स्थापित थी. शायद यह उन लोगों के लिए थी, जो चाह के भी ऊपर तक नहीं चढ़ सकते थे. ऐसे लोग यहीं से दर्शन-लाभ और पूजन-भजन कर वापस लौट सकते थे. पूरा मार्ग टिन-शेड से ढका हुआ था, जिससे कि यात्रियों को धूप और बारिश से निज़ात मिलती थी. जगह-जगह पर दूकानें लगी हुईं थीं. क्या-क्या उपलब्ध नहीं था. ऐसा लगता था कि एक छोटा-मोटा मेला लगा हुआ था. बच्चों के खिलौनें, स्त्रियों के लिए भांति-भांति की वस्तुएँ, पूजन-सामग्री, जलपान-सामग्री, जंगली बेर, कच्चे आम, खीरे-ककड़ी, ईमली, आइसक्रीम, जूस, निम्बू-पानी इत्यादि वहाँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे. जगह-जगह लोगों के लिए सूचना-पट भी लगे थे. इन सूचना-पट के माध्यम से लोगों को निर्देश दिया जा रहा था कि सीढ़ियाँ चढ़ते और उतरते समय विशेष ध्यान दें.
मेरे लिए संभव नहीं था कि मैं इतनी सीढ़ियाँ एक साँस में चढ़ पाता. इसीलिए मैंने निश्चय किया कि प्रत्येक १०० सीढ़ियों के बाद मैं विश्राम करूँगा. पहली बार जब मैं विश्राम करने के लिए रुका, तो मुझे अपने आप पर बहुत शर्म आई. मुझे लगा कि मैं ही एक अकेला व्यक्ति हूँ, जिसे १०० सीढ़ियों के बाद ही विश्राम की आवश्यकता पड़ गई. पर बाद में मैंने देखा कि सभी यात्री कहीं-न-कहीं रुक कर विश्राम कर रहे थे. उसके बाद मुझे कभी-भी विश्राम करने के लिए आत्म-ग्लानि नहीं हुई. महाराष्ट्र में स्थित माता के मंदिरों में सुहाग-वस्तुओं के साथ-साथ नारियल चढ़ाना उचित माना जाता है. इसीलिए यहाँ की दुकानों में यह सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी.
शायद ही कोई ऐसा परिवार हो, जो इस प्रकार की व्यवस्था के बिना, वहाँ आया हो. इसी प्रकार, उस वातावरण का सम्पूर्ण आनंद लेते हुए, क़रीब एक घंटे की यात्रा के बाद मैं मंदिर-भवन में प्रवेश कर गया. वहाँ अहाते में स्टील के बारिकेड लगे हुए थे, जिनसे लोगों की लाइनें स्वतः ही लग जातीं हैं. वैसे तो मंदिर प्रातः ४ बजे से संध्या ०८.१५ तक खुला रहता है और प्रतिदिन तीन बार आरती भी होती है, परन्तु दोपहर में लगभग १ घंटे तक इसकी साफ़-सफाई के लिए बंद किया जाता है. उस समय मंदिर का पट बंद होने की वज़ह से अन्य सभी लोगों के साथ मैं भी बारिकेड के अन्दर लाइन में ही बैठ कर इंतज़ार करने लगा. पट खुलने के उपरांत लाइनें चल पड़ी और लोगों की भीड़ ने मंदिर के मंडप में प्रवेश किया. मंडप ख़ूबसूरत फूलों की अच्छी सजावट से कुछ अलग-सा दिख रहा था, मानों वनदेवी की सजावट ऐसी ही होती होगी. माता की नूतन और मनोहारी प्रतिमा के पास पुरोहित-जन भी लगातार आने वाले श्रद्धालुओं की समूह को पूजन-इत्यादि में सहायता कर रहे थे. सभी प्रकार के लोग वहाँ आते और अपनी पूजन-विधि संपन्न करने के बाद आगे बढ़ जाते थे और प्रसाद वितरण स्थल पर जा कर प्रसाद ग्रहण करते थे. फोटोग्राफी वर्जित थी और नियमों का पालन भी सख्ती से हो रहा था. इसीलिए फ़ोटो लेने का ख़्वाब छोड़ कर मैं मन-ही-मन वहाँ की छटा निहारने लगा.
जीवदानी माता मंदिर की स्थापना का श्रेय महाभारत काल में पांडवों को जाता है. लोकोक्ति है कि अपने वनवास के दौरान पांचो पांडव यहाँ आये थे और इस मंदिर की स्थापना की थी. उस दौरान पांडवों ने वैतरणी नदी के निकट इस क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी एकवीरा का पूजन किया था और आस-पास के पर्वतों पर कई गुफाओं का निर्माण भी किया था. उन्होंने इन्ही एकवीरा देवी के एक स्वरुप का नाम जीवदानी देवी रखा और पर्वत के एक गुफा में इन्हें अधिष्ठित किया. “जीवदानी” का शाब्दिक अर्थ “जीवन दान” से है. चूँकि इस क्षेत्र के जंगलों में कई जीवनदायिनी औषधियाँ पाई जातीं हैं, इसीलिए शायद ऐसा नामकरण हुआ होगा. परन्तु महाभारत काल (द्वापर युग) के बाद, कालांतर में, यह मंदिर सामाजिक दृष्टि से लुप्तप्राय हो गया था. कहते हैं कि कलियुग में जगद्गुरु शंकराचार्य के प्रवास के दौरान, उनके द्वारा प्रेरित एक गौ-पालक की भक्ति से प्रसन्न हो कर, देवी ने इसी पर्वत पर दर्शन दे कर उसे मोक्ष प्रदान किया था. उसकी भक्ति इतनी निर्मल थी कि स्वयं कामधेनु भी उसके गौ-समूह में शामिल रहती थी. यही कारण है कि इस पर्वत पर स्थित मंदिर के प्रांगन में कामधेनु का मंदिर भी है. ऐसी मान्यता है कि कामधेनु सभी श्रद्धालुओं की मनोकामना पूर्ण करतीं हैं. इसी वज़ह से लोगों ने कामधेनु मंदिर के प्रांगन में यत्र-तत्र लाल कपड़ों के टुकड़ों से गांठे बाँध रखी थीं.
उस परिसर में महाकाली देवी और बरोंडा देवी का मंदिर भी था. इन मंदिरों के अलावा वहाँ एक पक्षी-घर भी बना हुआ था, जिसमें भांति-भांति के तोते और अन्य पक्षी थे. स्टील के जालों में बने छिद्र से लोग उन पक्षियों को कुछ प्रसाद के टुकड़े खिला रहे थे. कुल मिला कर बच्चों के लिए तो वही पक्षी-घर सबसे बड़ा आकर्षण केंद्र थी. बच्चों का नाम लेते ही स्मरण हो रहा है कि वहाँ स्थानीय लोग अपने नवजात शिशुओं को ले कर उनका प्रथम मुंडन करवाने के लिए भी आते हैं. प्रथम मुंडन की वज़ह से बच्चों द्वारा किए जाने वाले करुण कन्द्रण से वातावरण गुंजायमान भी हो रहा था. इस प्रकार कहीं खिलखिलाहट, कहीं श्लोकों की बुदबुदाहट, कहीं कन्द्रण तो कहीं श्रद्धा से गिरते हुए आसुंओं को देखते हुए मैं उस मंदिर से बाहर आ गया. सीढ़ियों से वापसी की यात्रा तो कठिन नहीं थी और बिना कहीं रुके पूरी की जा सकती थी. वैसे जीवदानी माता मंदिर के ट्रस्ट ने यात्रियों की सुविधा के लिए एक रोप-वे का भी निर्माण करवाया है. जो यात्री सीढ़ियों से यात्रा नहीं कर सकते वे उस रोप-वे से जा सकते है. पर्वत के नीचे, तलहटी पर, खाने-पीने की कई व्यवस्था है. ट्रस्ट द्वारा संचालित प्रसादालय भी है, जो दोपहर के ३ बजे तक चलता है. इस प्रकार मेरी जीवदानी-माता मंदिर की यात्रा संपन्न हुई.
तत्पश्चात, वहीँ से शेयर-ऑटोरिक्शा ले कर, मैं पुनः विरार रेलवे स्टेशन आ गया. अब स्टेशन से पश्चिम जाना बाकी था. अरनाला गाँव ९ किलोमीटर की दूरी पर था और २० रुपये शेयर-भाड़ा लगता था. पीछे तीन और आगे दो सवारियों को ले कर, विरार शहर को पार कर, छोटे-बड़े कस्बों से होते हुए, हमारे ऑटोरिक्शा ने, सभी यात्रियों को अरनाला गाँव के मछली-बाज़ार के पास बने अपने स्टैंड पर उतार दिया. यहीं से मछली की गंध नाक में समा गयी और तब-तक रही, जब-तक मैं वापसी यात्रा में, वापस विरार स्टेशन तक नहीं पहुँच गया. उस औटो-स्टैंड से अरनाला के समुद्र-तट की दूरी लगभग १ किलोमीटर की थी. पूछने पर सभी लोग रास्ता बताते हैं, कोई भी मना नहीं करता. जैसे-जैसे समुद्र-तट नज़दीक आता जात है, वैसे-वैसे मछुआरों की बस्तियां दिखने लगतीं हैं. वह समुद्री-तट अरनाला गाँव और अरनाला द्वीप के बीच चलने वाली नौकाओं के लिए, एक छोटा पत्तन से कम नहीं था. प्रत्येक व्यक्ति पर प्रति यात्रा १५ रुपये का भाड़ा लगता है. माल-असबाब के लिए अलग लागत आती होगी.
परन्तु वहाँ कोई सीमेंट से बनी जेट्टी नहीं थी. यात्रियों को, अपने-अपने सामानों के साथ, समुद्र के पानी में घुटने से थोडा ऊपर तक जा कर, पानी में हिलती-डुलती नाव में, उचक कर चढ़ना पड़ता है. कुछ लोग अपने-अपने जूते-चप्पल हाथों में उठा कर पानी में घुसते हैं, तो कुछ उन्हें पहने हुए ही चल पड़ते हैं. स्थानीय स्त्रियाँ अपनी-अपनी साड़ियों को घुटनों-जांघों तक उठा लेतीं हैं और स्थानीय पुरुष भी अपने कपड़ों को ऊपर कर लेते हैं. इसके बाद, तट पर आने वाली नाव से उतरने वाली भीड़ और तट पर खड़े यात्रियों की नाव पर चढ़ने वाली भीड़ में घमासान मुशक्कम होता है. घुटने से अधिक पानी में जाने के पश्चात् भी नाव काफ़ी ऊँची होती है और उस पर यात्रियों के बीच स्थान पाने हेतु जम कर धींगा-मुश्ती हो रही होती है. यदि, ऐसे में, असावधान यात्री फिसल जाए तो वह सराबोर पानी में ही तो गिरेगा, चोट भी आएगी, वस्त्र भींगेंगे और मोबाइल का तो सत्यानाश हो जाएगा. परन्तु यदि आपमें सामर्थ हो, आपको अरनाला द्वीप में जाने की अटूट इच्छा हो, आपको स्थानीय लोगों के उस धींगा-मुस्ती के बीच से निकलने का जोश आये, तो, यक़ीनन नाव पर चढ़ने के इस खेल में बड़ा मजा आयेगा. तत्पश्चात ऐसा लगेगा मानों आप भी वहीँ के हो कर रह गए हैं.
धीरे-धीरे समुद्र-तट पीछे छूटने लगा, सैकड़ों नावों के बीच से गुज़र कर हमारी नौका अरनाला द्वीप के तट पर जा पहुँची. नौका के, समुद्र के अन्दर रुकते ही, यहाँ भी वही धक्कम-पेल शुरू हो गई. उतरने वाले यात्रियों के जोश से और चढ़ने वाले यात्रियों के वेग से पूरी नाव डगमगा कर एक तरफ़ झुकने लगी, मानों अब पलट कर गिरना ही चाहती हो. नाव के झुकते ही यात्रीगण, जिसे जहाँ से सुविधा हुई, कूद-कूद कर समुद्र में उतरने लगे. मैंने भी इसी प्रकार उतरने की कोशिश करनी चाही. परन्तु कहाँ उनका वर्षों का अनुभव और कहाँ मैं बिलकुल नौसिखुवा. मुझे तो समुद्र में कितना पानी था, उसका कोई अहसास ही नहीं था. बस, नाव के दूसरी तरफ कूदते ही पता चला कि मैं कमर-भर पानी में हूँ. वह तो अच्छा हुआ कि मोबाइल ऊपर शर्ट की जेब में था, अन्यथा चंद हज़ार रुपयों के साथ-साथ तस्वीरों में कैद सारी यादें भी पानी में गई ही थीं. चलिए, सबकुछ सही-सलामत रहा. पर, यह समझ में नहीं आ रहा था कि अरनाला द्वीप का किला का रास्ता किधर से है. गाँव के समीप जाने पर कुछ मछुआरे मिले जो जाल की सफाई कर रहे थे. पूछने पर उन्होंने मुझे साथ में ले लिया और हमलोग उस मछुआरों के गाँव में प्रवेश कर गए.
मछुआरों के गाँव से यह मेरा प्रथम परिचय था. खैर, उस गाँव के बीच से गुज़र कर मैं अरनाला किले तक आ गया. यह एक चौकोर किला था, जिसकी बाहरी ऊँची दीवारें तो अब तक खड़ी हैं, परन्तु अन्दर के महल या भवन इत्यादि तो नष्ट हो चुके हैं. किले के अन्दर की जमीन में स्थानीय लोगों ने सब्जियों की खेती करनी शुरू कर दी है. अहाते के अन्दर एक शिवालय और एक दरगाह भी है. साथ ही एक अष्टभुजाकार पानी का छोटा तलाब है, जिसमें मीठा पानी आता है. हालाँकि इस तालाब का पानी गन्दा था, उसमें कछुए भी तैर रहे थे, फ़िर भी ५०० वर्ष पुराने उस तालाब में पानी देख कर आश्चर्य होता था. इस किले की दीवारों पर चढ़ने में बहुत मज़ा आता है. बाद में, जब मैंने, उस किले के इतिहास के बारे में खोज की तो पता चला कि सन १५१७ में एक मुस्लिम शासक ने अरनाला द्वीप पर एक किले की परिकल्पना और निर्माण किया था. सन १५३० के आसपास, पुर्तगालियों ने, इस द्वीप को जीत लिया और उनके द्वारा नियुक्त शासक ने यहाँ इस चौकोर किले का निर्माण करना शुरू किया. पुर्तगाली, इस द्वीप पर, करीब २०० वर्षों तक रहे. सन १७३७ ने मराठा सेना ने इस द्वीप पर अधिकार कर लिया और पुर्तगालियों को खदेड़ दिया. मराठों के शासन के कुछ वर्षों के पश्चात् सन १८१७ के आसपास तृतीय ब्रिटिश-मराठा युद्ध में ब्रिटिश फौज ने इस द्वीप पर भी कब्ज़ा जमा लिया. यह सब पढ़ कर मैं हैरान था कि एक शांत मछुआरों के गाँव में इतना बड़ा ऐतिहासिक खज़ाना छुपा हुआ था.
किले के उत्तरी द्वार पर किले का मुख्य दरवाज़ा जो, समुद्र की तरफ़ खुलता था. किसी जमाने में उस समुद्री तट पर पुर्तगाली और ब्रिटिश नौसेना तैनात रही होगी. उस दिशा में समुद्र दूर-दूर तक फैला दिखाई देता था और यह साफ़ दिख रहा था कि सामरिक दृष्टि से अर्नाले के किले का महत्त्व कितना था. इसी दरवाज़े के ऊपर मराठों की पुर्तगालियों पर विजय के बारे में एक शिलालेख भी अंकित था. साथ ही किले की दीवारों पर शेर और हाथी जैसे प्रतीक चिन्ह भी उकृत थे. वहीँ पर एक वर्तमान अभिलेख भी अंकित था की मार्च २००१ में तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री ने किले के विद्युतीकरण का उद्घाटन किया था. इस अभिलेख को देख कर मैं हँसे बिना नहीं रह पाया. खैर, ऐसा भी होता है, यही सोच कर मैं आगे समुद्र-तट के तरफ बढ़ा.
शाम भी ढल रही थी ऐसे द्वीपों में शाम ढलने के बाद नौका का बंद हो जाना स्वाभाविक होता है. पर रास्ते में एक घर के सामने बैठी तीन-चार स्त्रियाँ खाना बना रहीं थीं. लकड़ी के चूल्हा जला हुआ था और उसकी आंच पर चावल के आटे की रोटी पकाई जा रही थी. रोटी का आकार बहुत ही बड़ा था. उसे बेलने के लिए कोई भी बेलन इत्यादि का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा था. सिर्फ हाथ से ही एक स्त्री गुंथे हुए आटे को लकड़ी से बने पात्र में फैलाती जाती थी. पूरा आकार बन जाने पर उसे हाथ से उठा कर बड़े-से तवे पर पका देती थी. यह दृश्य देख कर मैं वहीँ रुक गया. केरे कौतुहल को देख कर उन स्त्रियों ने मुझे एक रोटी खाने को दी. हालाँकि उस समय तक उनकी मछली नहीं पकी थी, फिर भी सिर्फ रोटी खा कर ही मन प्रसन्न हो गया.
आग्रह तो और भी रोटियां खाने का हो रहा था, परन्तु शाम ढलने के बाद यदि नौका नहीं मिलती तो क्या होता? यही समझदारी से मैं समुद्र-तट पर वापस आ गया. पर इस बार, दूसरी दिशा से आने वाली नौका, वहां नहीं रुकी, जहाँ पिछले बार मैं उतरा था. यह उस दिन की आखरी फेरी थी. चढ़ने और उतरने वाले यात्रियों के बीच फ़िर एक घमासान हुआ. इतनी भीड़ थी कि पूरी नाव तुरंत भर गई और मेरी अरनाला द्वीप से वापसी यात्रा शुरू हो गई. उस वक़्त द्वीप पर सूरज डूब रहा था. नारियल के वृक्षों के पीछे डूबते सूरज से मनमोहक छवि बन रही थी. आकाश का नारंगी रंग धीरे-धीरे गहराता जा रहा था. ऐसे में, मैं यकीन से कह सकता हूँ कि उस दिन मुझे मुंबई वापस लौटने का मन नहीं कर रहा था.
Small yet beautiful place. Thank you for taking us through it.
Warm regards,
Kaveri
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Dono hi jagah ghum liya but apka ye post padhke bahut acha laga… Vistar se likha hai ek ek bat.