लेह – पैंगोंग – लेह…………… भाग6

आज हमे “पैंगोंग” जाना था। बीते दिन “नुब्रा वैली” मे काफी मस्ती करी थी। थोड़ी थकान होने की वजह से आज हम सुबह के 06:00 बजे उठे थे। किसी नमे भी गर्म पानी से स्नान करने की हिम्मत नहीं थी। सबने नित्य काम निपटा कर हाथ-मुह धोए, दन्त मंजन किया और तैयार होकर गाड़ी मे जा बैठे। मुझे तो अभी से भूख लग रही थी लेकिन मे अभी चुप ही रहा। आज भी हमे पूरा दिन लगने वाला था। लेह से “पैंगोंग” का राउंड ट्रिप करीब 350km है। हम लेह-मनाली हाईवे पर निकल पड़े। कारू तक सड़क एक दम मस्त थी। यहीं से हम दाएँ हाथ मुड गए। कुछ दूर चलने के बाद “शक्ति” नाम का एक गाँव आया। आज सूर्य देव ने अभी तक दर्शन नहीं दिए थे। मौसम के हाल-समाचार ठीक नहीं लग रहे थे। हम लोग को ये डर था की कहीं रास्ते से वापस ना लौटना पड़े। और आगे बढ़ने पर बारिश के कुछ छीटें भी पड़ने लगी। सोच लिया था की अगर बारिश तेज़ हुई तो गाड़ी को वापस घुमा लिया जायेगा। क्यूँकि “चांग ला” जाने के लिए चढ़ाई एक दम कड़ी है और पता चला था की रास्ता भी टूटा हुआ है। तेज़ बारिश मे आगे बढ़ने मे कोई समझदरी नहीं थी। लेकिन किस्मत हमारे साथ थी और बारिश थम गयी। आगे सड़क के हाल बहुत ही बुरे थे। जैसे मनाली से रोहतांग जाते वक़्त कीचड़ की सड़क थी यहाँ पर ठीक वैसे ही पत्थर की सड़क थी। बुरी तरह झटके लग रहे थे। जैसे-जैसे हम चढ़ते जा रहे थे मेरी हालत पतली होती जा रही थी। मुझे सर दर्द शुरू हो गया था और उल्टी करने का मन कर रहा था। मैं समझ गया था ये कम ऑक्सीजन होने की वजह से हो रहा था पर मैं कर भी सकता था। मैं भगवान से प्रार्थना कर रहा था की जल्दी से “चांग ला” आए ताकि हम फिर से नीचे उतरने लगें। मैंने हाथों मे दस्ताने पहने और सर नीचे करके इंतज़ार करने लगा। जब तबीयत खराब हो तो इंतज़ार लंबा हो जाता है ठीक ऐसा ही मेरे साथ हुआ था। आखिर हम लोग “चांग ला” पहुँच गए।

चांग ला

चांग ला



मैंने बिना रुके चलने की सलाह दे डाली जो की सबने ठुकरा दी, ऐसा समझो की कोई राह चलता कुत्ता आपके पास आ रहा हो और आप उसे खींच के लात दे मारो कुछ ऐसी हो हालत मेरी भी हुई थी। इसमें बाकी लोगों का दोष नहीं था मैंने किसी को नहीं बताया था की मुझ पर क्या बीत रही है। “चांग ला” की ऊँचाई 17380 फीट (5360 मीटर) है।

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धुप ना होने की वजह से यहाँ पर ज़बरदस्त ठंड लग रही थी। मुझे छोड़ कर सब नीचे उतर गए। मेरी तो पहले से ही लगी पड़ी थी और गरम सीट को छोड़ कर बाहर ठंड मे जाने का मेरा कोई विचार नहीं था। तभी हरी ने कहा की चाय बनवा ली है और यहीं पर कुछ खा भी लेते हैं। मैंने मन मे सोचा यहाँ तो पत्थर ही मिलेंगे खाने को। मरा हुआ मन लेकर मैं हरी के साथ चल दिया। अरे वाह क्या बात है यहाँ तो मुफ्त का एक डिसपेंसरी थी, “चांग ला” बाबा का मंदिर और एक रेस्त्रौंत था। गाड़ी से बाहर निकल कर अच्छा लगा और हरी के साथ मैं रेस्त्रौंत मे घुस गया। यहाँ एक बोर्ड पर लिखा था “1st Highest Cafeteria in the world”.

आप भी देख लीजिये।

आप भी देख लीजिये।

मेरे बाहर उतरते ही यहाँ पर स्नो फॉल शुरू हो गई। ये देख कर मैंने सबको बोला देख लो यहाँ पर रुकते नहीं तो स्नो-फॉल से बच जाते। मुझे तो अपनी पड़ी थी बाकि सब तो मजे कर रहे थे।

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चाय तैयार हो गई साथ मे बिस्कुट भी मंगवा लिया। बुझे हुए मन से मैंने भी एक बिस्कुट उठा लिया। फिर एक फेन और ब्रेड भी खा ली। कुछ देर आग भी सेक ली। अब कुछ अच्छा सा महसूस होने लगा था। जैसे की “प्रवीण वाधवा जी” ने दूध मे शिलाजीत मिला कर पिला दिया हो। रास्ते के लिए कुछ चॉकलेट भी खरीद लिए। अब मेरे तेवर बदल चुके थे। अंकल से गाड़ी की चाबी लेकर मैं सारथी बन बैठा था। समझ मे आ गया था की सुबह से भूख लगने की वजह से पेट मे गैस बन गई थी इसी वजह से बेचैनी हो गयी थी। अब तो मानो चिड़िया के पंख लग गए हो और वो सात समुंदर पार उड़ने को तैयार हो।

यहाँ से अब हम “पैंगोंग” की और निकल पड़े। पेट भर जाने के बाद मैं “शक्तिमान” बन गया था। अंकल भी अपने शयन-कक्ष मे चले गए थे। और हरी अब सबसे ज्यादा एन्जॉय करने लगा था। रास्ता अभी भी कच्चा था पर पहले से काफी बेहतर था। हम नीचे उतर रहे थे। तभी देखा की आगे सड़क बंद है। गाड़ी को किनारे लगाया पता चला की सड़क पर आगे चारकोल लगाया जा रहा है। 30 मिनट के बाद हमे आगे जाने दिया गया। अगला मोड लेते ही रोड-रोलर खड़ा था चारकोल बिछाने वाली मशीन और कुछ लेबर लोग थे। सड़क बिलकुल नयी थी और गाड़ी चलने के कारण नयी सड़क पर बिछे हुए कंकड़ लगातार टकरा रहे थे जिससे काफी शोर मच रहा था। अब हम बिना रुके आगे बढ़ रहे थे। बीच मे 1-2 गाँव आए पर वहां भी आर्मी की मौजूद थी। अब सड़क एक दम मस्त थी मक्खन जैसी। सड़क के दोनों और आर्मी की छावनी बनी हुई थी। यहाँ पर भी एक जगह परमिट चेक हुआ था। पहाड़ पर कच्चे रास्तों पर आर्मी के ट्रक दौड़ रहे थे। ऐसा लग रहा था की उन रास्तों पर सिर्फ आर्मी ही जा सकती थी। पहाड़ों पर कौन जाने कहाँ-कहाँ पोस्ट बना रखी हों। हम लोग तो सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं और असलियत तो हमारी कल्पना से भी बाहर है।

पैंगोंग की ओर जाते हुए।

पैंगोंग की ओर जाते हुए।

दो पहाडों को जोड़ता हुआ लोहे का पुल।

दो पहाडों को जोड़ता हुआ लोहे का पुल।

पुल पार करते हुए।

पुल पार करते हुए।

इस पुल को पर करने के बाद सड़क और संकरी हो गई थी। गाड़ी बड़ी ही सावधानी से चलानी पड़ रही थी। कई बार तो सामने से आने वाली गाड़ी को देख गाड़ी रोकनी पड़ी। पहाड़ों मे ड्राइव करते वक़्त हमेशा ऊपर चढ़ती हुई गाड़ी को साइड देनी होती है। इसी बात का ध्यान रखते हुए हम लोग आगे बढ़ रहे थे। हमें “पैंगोंग” के पहले दर्शन हुए। लेकिन अभी कोई भी उत्साहित नहीं हुआ। यहाँ से कुछ ज्यादा नज़र भी नहीं आ रहा था। एक सदारहण सी झील ही दिख रही थी। नीचे फ़ोटो मे दिख रहे साइन बोर्ड के मुताबिक हमे 1 km और आगे जाना था। वो कहावत है ना “अब दिल्ली दूर नहीं थी”। हम सबने कहा लो जी आज “पैंगोंग ” भी पहुँच गए।

फ़ोटो मे साइन बोर्ड के पीछे से “पैन्गोंग” की हल्की सी झलक।

फ़ोटो मे साइन बोर्ड के पीछे से “पैन्गोंग” की हल्की सी झलक।

प्लान के मुताबिक वो जगह ज़रूर देखनी थी जहाँ पर “3 idiot” की शूटिंग हुई थी। क्यूँकि फिल्म मे तो “पैंगोंग” बहुत ही शानदार लगी थी। पहाड़ों के बीच मे बिलकुल नीले रंग जैसी।

दूर से पैंगोंग की एक और झलक।

दूर से पैंगोंग की एक और झलक।

यहाँ पर हमसे पहले और भी पर्यटक मौजूद थे। यहाँ पर टैक्सी मे सबसे ज्यादा महिंद्रा स्कार्पियो चल रही थी। कुछ लोग मोटरसाइकिल से भी आए हुए थे। “पैंगोंग” का पहला फ़ोटो हमने इन मोटरसाइकिल के साथ ही लिया। नीचे लगा हुआ फ़ोटो राहुल ने अपने SLR कैमरे से लिया है।

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यहाँ पर 2-3 खाने पीने की दुकाने थी। फिर से जोरों की भूख लग रही थी। गाड़ी को पार्किंग मे लगा कर हम सब टेंट के अंदर जा बैठे। खाने का अच्छा इंतज़ाम था। ब्रेड-बटर से लेकर दाल-चावल सब मिल रहा था। अंकल ने अपनी आदत के मुताबिक आलू के परांठे और दही मंगवा ली। हम सबने भी अंकल की देखा-देखी कर परांठे ही मंगवा लिए। दो पानी की बोतल और सबने कुछ ना कुछ ठंडा पिया। आज सुबह से पानी नहीं पिया था इसीलिए शायद शरीर तरल पदार्थ की माँग कर रहा था। ऊपर से परांठे भी पेल दिए थे। कुछ देर धूप मे बैठ कर झील को निहारते रहे। बार-बार पानी का रंग बदल रहा था। पहाड़ों की परछाई और नीले आसमान के होने की वजह से पानी का रंग गहरे नीले रंग जैसा था।

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झील का पानी बहुत ही ठंडा और नमकीन था (salt water lake). आज का दिन हुन्डर जैसा न हो इसीलिए एक बैग मे अंडरवियर रख लिए थे। पर मैं इतना पागल नहीं था की इस ठंडे पानी मे चला जाता। तभी देखा की एक गाड़ी यहाँ से भी आगे जा रही है और इसमें कुछ लोकल सवारी बैठी है। टूरिस्ट लोग तो सब यहीं पर मजे कर रहे थे। लेकिन हम सब यहाँ से और आगे चल दिए। यहाँ से करीब 6-7 km बाद spangmik नाम की जगह है। सीधे शब्दों मे कहूं तो वो एक गाँव है जो की इसी झील के पास बसा हुआ है। हम वहां तो नहीं गए पर काफी आगे निकल गए थे। यहाँ पर हमारे अलावा कोई भी नहीं था। बिलकुल शांति थी। मैं गाड़ी को झील के किनारे ले जाना चाहता था। ऐसा करने के लिए हम पथरीला रास्ता छोड़ कर रेत पर चलने लगे। तभी ड्राईवर साइड का अगला टायर रेत मे धस गया। इस बात को नज़र-अंदाज करके मैंने पहला गियर डाल कर एक्सीलेटर दबा दिया। जो की मेरी बहुत बड़ी गलती थी। ऐसा करने से टायर रेत मे करीब आधा फुट नीचे धस गया। अब हमारे सुपरमैन की बारी थी। अंकल बोले तू नीचे उतर तेरे बस की बात नहीं है मैं निकालता हूँ इसको एक झटके मे। अंकल ने पहले बैक गियर डाला कुछ नहीं हुआ। फिर उन्होंने मेरी तरह पहला गियर डाला और कमाल हो गया। टायर अब पूरी तरह रेत मे धस गया गाड़ी की चसिस रेत पर टिक गई। हम लोग हँस-हँस कर पागल हो गए। इस बार तो अंकल भी हँस पड़े। अंकल बोले कैसे नहीं निकलेगा एक बार और ट्राई करते हैं। बोले की जब मैं बोलूँ तब एक साथ पीछे से धक्का लगाना। मुझे पता था की कुछ नहीं होगा। हम लोगों की हँसी ही नहीं रुक रही थी। अंकल ने जैसे ही बोला “लगाओ धक्का” सब पेट पकड़ कर हँसने लगे। इतनी हँसी आ रही थी की धक्का लगाते वक़्त ज़ोर ही नहीं लग रहा था। अब क्या करे ये सॊच कर हमने चारों टायर के आस-पास की रेत को हटाना शुरू कर दिया। मैंने एक गाड़ी रुकवाई वो बोला की खींचने के लिए उसके पास कोई रस्सी नहीं है। मैं हताश होकर वापस लौट आया। कुछ देर के बाद वहाँ एक Ford figo आई। हमे देख कर उन्होंने गाड़ी दूर ही रोक ली। पंजाब नंबर की गाड़ी थी। उसमे से तीन सरदारजी उतरे। हमारे ही हम-उम्र के लग रहे थे। वो चल कर हमारे पास आए और चारों तरफ से गाड़ी को देखा। उन्होंने कहा रेत हटाकर टायर के आगे और पीछे छोटे-बड़े पत्थर और घास ठूस दो। फिर हम धक्का लगाएँगे। मैंने कहा भाईयों धक्के से कुछ नहीं हो रहा है। वो बोले तुम चार और हम तीन, अगर धक्के से नहीं निकलेगी तो हम सात बंदे हैं Xylo को उठा कर फैंक देंगे। उनकी बात सुनकर जोश आ गया था। उन्होंने जैसा बोला हमने वैसा ही किया। अंकल फिर से कॉकपिट मे जाकर बैठ गए। तीन लोगों ने पीछे से और बाकी चारों ने एक-एक दरवाजे के पिलर से धक्का लगाया और गाड़ी एक ही झटके मे बाहर आ गई। सही मे अगर सरदार लोग नहीं आते तो ना जाने हम लोगों का क्या होता। उन लोगों को दिल से धन्यवाद दिया। अंकल ने मैं गाड़ी को ठीक जगह पार्क कर देता हूँ। पर मेरा दिल नहीं माना। मैंने कहा अंकल आप बाकी लोगों के साथ पैदल आओ मैं गाड़ी लगा दूँगा। अंकल तो एक झटके मई गाड़ी निकलने वाले थे। पता लगता की फिर से रेत मे फँसा दी। इस बार मैंने गाड़ी को धीरे-धीरे चलाई और झील के किनारे खाड़ी कर दी। अब जाकर तस्सली हुई थी।

राहुल और मैं गाड़ी पार्क करने के बाद।

राहुल और मैं गाड़ी पार्क करने के बाद।

मुझे और अंकल को छोड़ कर बाकी तीनों ने अपनी-अपनी बंदूकें निकाल कर गोली-बारी शुरू कर दी मेरा मतलब कैमरे निकाल कर फोटोग्राफी शुरू कर दी। ये जगह है ही इतनी सुंदर अगर मेरे पास भी कैमरा होता तो मैं भी यही करता। बहुत देर तक ये लोग क्लिक करते रहे।

फोटो मे फोटो लेते हुए मनोज और अंकल।

फोटो मे फोटो लेते हुए मनोज और अंकल।

इस झील मे बहुत से प्रवासी पक्षी भी थे जो गर्मियों मे यहाँ आते हैं। कुछ झील मे तैर रहे थे तो कुछ आसमान मे उड़ रहे थे।

बतख जैसा दिख रहा था।

बतख जैसा दिख रहा था।

असमान मे उड़ता हुआ एक पक्षी।

असमान मे उड़ता हुआ एक पक्षी।

निचे उतरता हुआ।

निचे उतरता हुआ।

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राहुल और हरी ने अपने कैमरे अंकल के पास छोड़ दिए और मेरे पास आकार बोले की चल स्नान करते हैं। मैंने कहा पहले पानी को छुकर तो देखो। राहुल ने छुआ और कहा ठीक है कोई बात नहीं। पहली बार ही ठंड लगेगी फिर कुछ नहीं होगा। हरी ने भी पानी छुआ और कहा “hey rahul it is really very cold. Bathing is not a good idea”. राहुल ने हरी से कहा “let us try. We will come back if it is unbearable”. यह सुनकर हम तैयार हो गया। और क्यूँ ना होते आज तो बदलने के लिए अंडरवियर भी थे। मैंने अपने जूते, जैकेट निकल ली थी तब तक हरी और राहुल पानी मे चले गए और चिल्ला पड़े। बोले सही मे बहुत ठंडा है। मैं अपनी पैंट उतारने ही वाला था और इन दोनों को देख कर मैंने वापस चढ़ा ली। मुझे देख कर राहुल बोला अबे मज़ाक कर रहा हूँ इतना ठंडा नहीं है। पर मुझे हरी की हालत दिख रही थी ठंड के मारे उसने राहुल को पकड़ा हुआ था। राहुल मुझे लेने के लिए बाहर आया तो मे दूर भाग गया। कुछ देर के बाद मैंने भी हिम्मत करी और पानी मे दोनों पैर रखते ही वापस बाहर आगया। मैंने फिर से पानी मे जाने की हिम्मत नहीं की।

मैं हरी की फोटो लेते हुए और राहुल हम दोनों की।

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एक फोटो अंकल का भी।

एक फोटो अंकल का भी।

यहाँ पर करीब 2 घंटे बिताने के बाद हम वापस चल दिए। लौटते वक़्त एक फौजी भाई ने हाथ दिया उसे भी लेह जाना था और गाड़ी मे जगह भी बहुत थी तो हमने बिना संकोच कर उसको बिठा लिया। शाम के करीब 6 बजे हम वापस पहुँच गए। आज लेह मे हमारा आखरी दिन था। कल दोपहर मे हमे घर के लिए वापस निकलना था। रूम मे पहुँच कर थकान मिटाई गई और फिर लेह बाज़ार की ओर पैदल निकल पड़े। अंकल नहीं आए। बहुत दिन हो गए थे अच्छा खाना खाए सो एक बढ़िया से रेस्टोरेंट मे दम-आलू और मटन रोगन जोश मंगवाया। डिनर के बाद सीधे रूम पर जाकर सो गए। इतने दिनों मे आज पहली बार अलार्म नहीं लगाया। कल सुबह जल्दी उठने का कोई प्रोग्राम नहीं था। हम कल लंच के बाद निकलने वाले थ…………..

12 Comments

  • Maza aa raha hai ……bahuth khub….

  • Surinder Sharma says:

    Good photos nice descripton. Shilajit can work if it is pure but ………..

  • Dr.Rakesh Gandhi says:

    Thanks a Lot, Anoop Gusain ji,You provided wonderful n amazing information.Congrats.While reading post i was imaging that i m also travelling with you,Again Thanks

  • Harish Bhatt says:

    Pictures are wonderful and the narration is alive…Beautiful…

  • Nandan Jha says:

    Pictures are awesome Anoop.

    Your description of pretty vivid. Having a lot of fluids is helpful during AMS. The photo of two bikes and the blue blue lake is award winning stuff.

    Guess you guys had a great time and all of you are going to remember this trip for many more miles. The incidents like getting stuck in sand is going to be helpful to keep this in memory. :-) Right in the beginning, take the foot-mat out and stick it in front of wheel, sort of helping the wheel to get some grip and build some friction. If you are carrying a pump then deflating the tyre is further helpful. Stones/Grass are helpful in building traction.

    So this finished the great Leh. I am sure more interesting things would have happened on the way back. :-) Cheers.

  • Gaurav says:

    Gusain sahab, try your hands in commercial writing. You are not narrating your journey, you are making us go through it.

    • asg says:

      Commercial Writing – no way. Writers doesn’t get a good pay cheque.

      IT sector is better atleast one get the salary every month for paying the EMIs, utility bills, etc and by the 15th of every month your account is almost NIL and the remaining days passes waiting for the month end.

      :-)

  • Saurabh Gupta says:

    Again a very good post and pictures are awesome.

    Thanks Gusain Ji for sharing this wonderful trip,

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