आज का कार्यक्रम बद्रीनाथ के आसपास कुछ कम भीड़भाड़ वाले खूबसूरत स्थलों मे विचरण करने और शाम को बसेरे के लिए जोशिमठ पहुँचने का था. कल रात सोने से पहले सबने सुबह जल्दी उठने का वादा किया था, पर थकान के मारे सब ऐसे चूर थे की आँख खुलने के बाद भी बस थोड़ी देर और, बस थोड़ी देर और करते करते वाकई देर हो गयी. चलो कोई बात नही, उठे तो सही! इस बार बद्रीनाथ आने की एक ख़ास वजह थी ना सिर्फ़ भारतीय सीमा पर बसे अंतिम ग्राम माणा को देखना बल्कि उससे भी परे कुदरत के एक अनमोल रत्न वसुधारा जल प्रपात के दर्शन करना. चूँकि बद्रीनाथ से वसुधारा की दूरी थोड़ा ज़्यादा (लगभग 8 किमी) थी और हम सब लोग पैदल यात्रा करने वाले थे, इसलिए साथियों को सुबह केवल ये ही सूचना दी गयी की हम 3 किमी दूर बसे अंतिम ग्राम माणा और उसके आसपास के दर्शनीय स्थलों को देखेंगे और फिर जोशिमठ वापस चलेंगे. ऐसा कहने की एक वजह थी उच्च पर्वतीय स्थलों पर पैदल चलने से होने वाली थकान और 8 किमी सुनकर तो मेरे साथी वैसे ही मना कर देते, इसलिए सोचा के माणा की ओर बढ़ते बढ़ते जैसे जैसे दूरी कम होगी और खूबसूरत नज़ारे अपना घूँघट उठा रहे होंगे तो मैं भी मौके का फ़ायदा उठाकर वसुधारा की तारीफों के ऐसे पुल बाँधूंगा के देखे बिना कोई भी वापिस जाने की बात नही करेगा और हुआ भी कुछ ऐसा ही. जल्दी से रोजाना की ज़रूरी गतिविधियों को अंजाम देकर, अपने बहादुर सिपाही तैय्यार थे किला फ़तेह करने को. मौसम कल रात की तरह ही सर्द था और चलते चलते हम लोग जल्दी ही माणा जाने वाली सड़क पर पहुँच गये. चूँकि ये इलाक़ा भारत-तिब्बत सीमा के पास का है, इसलिए यहाँ सेना के लोगों की चहलकदमी होना कोई आश्चर्य की बात नही और उनकी यहाँ उपस्तिथि की वजह से ही माणा तक की ये सड़क काफ़ी चौड़ी व पक्की है. यहाँ से बीआरओ ने माणा पास (5608 मीटर) जो की यहाँ से लगभग 50 किमी दूर भारत-तिब्बत की सीमा पर है, तक भी एक सड़क बनाई है जिसे हाल ही मे बीआरओ द्वारा ‘विश्व की सर्वाधिक उँचाई पर बनी गाड़ी चलाने योग्य सड़क’ का दर्जा दिया गया है. ऐसा कहा जाता है कि सन्न 1951 तक इसी रास्ते गढ़वाल और तिब्बत के बीच व्यापार हुआ करता था जिसे बाद मे चीनी सरकार ने आधिकारिक तौर पर बंद कर दिया. इसी माणा पास के नज़दीक एक खूबसूरत झील है देवताल जिसे सरस्वती नदी का उद्गम स्थल माना जाता है.
आज सुबह की पहली फोटो खींचते ही मेरे कैमरे ने तो दम तोड़ दिया और अब हमारा सहारा था केवल पुनीत का कैमरा जिसमे भी कुछ ज़्यादा जान बाकी नही थी क्योंकि हम लोगों ने इतने दिन से अपने कैमरों की बैटरी रीचार्ज नही की थी. खैर माणा गाँव से थोड़ा पहले रुककर हम लोगों ने इस ठंडे मौसम का मज़ा चाय की चुस्कियों और कुछ बिस्कुटों के साथ लिया और फिर आगे निकल पड़े. माणा (3118 मी) एक छोटा सा गाँव है जहाँ की औरते विशेष परिधान व आभूषणों से सज्जित रहती है जो गढ़वाल के अन्य इलाक़ों से भिन्न दिखता है. गाँव के पास ही एक टूटाफूटा सा बोर्ड दिखाई देता है जिस पर आसपास घूमी जा सकने वाली जगहों के नाम लिखे हैं इनमे प्रमुख हैं i) उपर की ओर गणेश गुफा (30 मी), व्यास गुफा (150 मी), मुचुकूंद गुफा (3 किमी), देवताल, राक्षस ताल और वशिष्ट ताल (40 किमी) और ii) नीचे की ओर है भीम पुल व सरस्वती धारा (100 मी), अलकनंदा व सरस्वती का संगम – केशव प्रयाग (600 मी), वसुधारा (5 किमी), लक्ष्मीवन (8 किमी), सतोपन्थ (25 किमी) आदि. इस बोर्ड को देखते हुए सबसे पहले हमने प्राचीन व्यास गुफा के दर्शन किए जहाँ बैठकर महर्षि वेद व्यास जी ने महाग्रंथ महाभारत व अन्य पुराणों की रचना की थी. व्यास गुफा की बाहरी दीवारों जिनपर ‘व्यास पोथी’ लिखा हुआ है एक पोथी के समान ही प्रतीत होती हैं, वाकई रोचक स्थान है यह! व्यास गुफा के पास ही एक दुकान सहसा ही आपका ध्यान अपनी और आकर्षित करती है जिस पर लिखा होता है ‘भारत की आख़िरी चाय की दुकान’ यहाँ हमने चाय तो नही पी लेकिन नीचे जाने से पहले कुछ तस्वीरें ज़रूर खींची. अगला स्थान था गणेश गुफा जो की देखने मे तो एक साधारण सा मंदिर लगता है पर अंदर जाकर गुफा का असली एहसास होता है. भगवान गणेश ने यहीं बैठकर वेदव्यास जी द्वारा बाँची गयी महाभारत को लिखित रूप दिया था.
चलो अब चलते हैं मुचुकूंद गुफा, ‘अरे नही यार ये तो बहुत उपर लगता है’ दीपक बोला. ‘अरे नही भाई, पास ही तो है’, मैं बोला. ‘3 किमी तो दूर है भाई, फिर हम लोग वसुधारा नही जा पाएँगे, देख लो’, पुनीत बोला. बात सबको ठीक लगी, हम लोग वसुधारा को नही छोड़ना चाहते थे, गुफ़ाएँ तो सबने देख ही ली थी अब वसुधारा के दर्शन करने को सब बड़े बेकरार थे. इसलिए बिना समय गवाए हम लोग नीचे भीम पुल की ओर बढ़ चले. भीम पुल के पास आकर सबसे पहले एक बड़ी भ्रांति टूटी जो थी ‘सरस्वती के लुप्त हो जाने की’, हमने तो सरस्वती दर्शन से पहले केवल यही सुन रखा था की यह नदी अब विलुप्त हो चुकी है और शायद भूमिगत होकर बहती है. लेकिन यहाँ आकर सरस्वती का जो रूप देखने को मिलता है वो बिल्कुल मंत्रमुग्ध कर देने वाला होता है देखने मे सरस्वती जैसी सफेद और गर्जना मे काली जैसी भयंकर. ऐसी मान्यता है की स्वर्ग की ओर बढ़ते हुए पांडवों के साथ द्रौपदी जब सरस्वती के तीव्र बहाव को देखकर यकायक रुक गयी तो महाबली भीम ने दो पत्थरों को जोड़कर इस भीम पुल का निर्माण किया. यहाँ मेरे लिए एक और आश्चर्य छुपा था, इसी भीम पुल के साथ ही दाँयी ओर एक छोटी सी धारा बहती दिखाई है, कहा जाता है कि ये धारा तिब्बत की मानसरोवर झील से आती है. इसे सुनकर अत्यंत खुशी हुई क्योंकि भारत के सभी कैलाश दर्शन करने के बाद तिब्बत जाकर कैलाश और मानसरोवर देखने की बड़ी तमन्ना है, जिसे यहाँ थोड़ा सा बल मिला.
अब बारी थी आज की यात्रा के सबसे महत्वपूर्ण स्थान वसुधारा की ओर बढ़ने की. माणा से वसुधारा की दूरी 5 किमी, माणा वापस आने के 5 किमी और फिर माणा से बद्रीनाथ तक 3 किमी, कुल मिलकर लगभग 13 किमी की पैदल यात्रा थी और शाम तक जोशिमठ भी पहुँचना था वो भी गेट बंद होने से पहले. तो शुरुआती कदम तेज़ तेज़ बढ़ाते हुए और कुदरत के नज़ारों का मज़ा लेते हुए हम लोग बढ़े चले जा रहे थे. शुरुआत मे ही हमे लगभग 10 लोगों का एक दल मिला जो सतोपन्थ की यात्रा पर जा रहा था, उन्हे देखकर एक बार तो मन किया कि होलो इनके साथ! खैर भीम पुल से वसुधारा तक एक पैदल चलने योग्य ठीक ठाक सीधा रास्ता बना हुआ है जिसकी वजह से यहाँ आपको किसी गाइड की आवश्यकता नही पड़ती. इस मार्ग पर ज़्यादातर रास्ता पथरीला है जहाँ थोडा संभलकर चलने की ज़रूरत होती है, लोग अक्सर खुशनुमा नज़ारे देखते हुए इस बात की अनदेखी कर देते हैं और ऐसे मे अपनी टाँग तुड़वा बैठते हैं. शुरुआती 2/3 किमी की यात्रा एक सीधे रास्ते पर बड़ी आसान सी मालूम पड़ती है लेकिन उसके बाद थोड़ी उँचाई बढ़ती चली जाती है और थकान भी होने लगती है. वसुधारा तक पहुँचते पहुँचते हमने शायद 3 या 4 छोटे छोटे हिमनद पार किए जिनपर कई जगह चलने मे तो बड़ा डर सा लग रहा था. हमने अभी पहले हिमनद पर कुछ फोटो खींची ही थी की हमारे साथ चल रहे दूसरे केमरे ने भी जवाब दे दिया.
लो जी अब हमलोग फोटो खींचने की चिंता से मुक्त होकर सिर्फ़ वहाँ एकांत मे बैठी प्रकृति को निहारते हुए, हिमालय की अचनाक से प्रकट होती हुई बर्फ़ीली चोटियों को मंत्रमुग्ध होकर देखते हुए और छोटे छोटे हिमनदों पर मुफ़्त स्केटिंग का मज़ा लेते हुए आख़िरकार एक छोटे से मंदिर के पास पहुँच ही गये. यहाँ से लगभग 150 मीटर दूर वसुधारा का नज़ारा ऐसा लग रहा था मानो अपने नीचे फैले विशाल हिमनद को जैसे ये प्रपात अपनी हवाई बूँदों के जल से पोषित कर रहा हो, अद्भुत नज़ारा था वो जिसे सिर्फ़ हमारी आँखे ही क़ैद कर पाई, शायद हमारे कैमरे की किस्मत मे ये नज़ारा देखना और उसे संजोए रखना नही लिखा था. वसुधारा मे जल लगभग 125 मीटर की उँचाई से गिरता है, ऐसा कहा जाता है की स्वर्ग की ओर बढ़ते हुए पांडवों ने इस स्थान पर स्नान किया था. वसुधारा को देखते ही सभी इंद्रियाँ जैसे जागृत सी हो गयी और शरीर मे एक नई चेतना का संचार सा हो गया. पर यहाँ पहुँचते पहुँचते भूख प्यास से बुरा हाल हो चुका था. भीम पुल के पास ‘भारत की अंतिम चाय की दुकान के बाद यहाँ तक कोई दुकान नही है इसलिए खाने पीने का सामान साथ रखना ज़रूरी होता है. खैर जब ऐसा भव्य नज़ारा सामने हो तो भूख प्यास सब गायब हो जाती है. जैसे ही हम प्रपात के नीचे फैले हिमनद पर पहुँचे तो सबसे पहले हिमनद से निकलते शीतल जल से अपनी प्यास बुझाई. हम यहाँ बैठे जल का आनंद ले ही रहे थे की हमे सामने से एक बुजुर्ग जिनकी उमर करीब 60/70 बरस रही होगी आते हुए दिखाई दिए. इनके शरीर पर सिर्फ़ एक धोती और एक गमछा था, पूछने पर पता चला के महाराज प्रपात मे स्नान करके आ रहे हैं. प्रपात के नीचे हिमनद के कारण उसकी बूँदें कभी कबार ही लोगों पर गिरती हैं. इसलिए इन बुजुर्ग महाशय की जवानी देखकर हमे भी स्नान करने का मन किया. नीचे से इस प्रपात की ओर देखते हुए उपर कुछ काली सी गुफ़ाएँ दिखाई देती है, नीचे से ही ये सोच कर चले की गुफा तक जाएँगे. चलने लगे तो थकान के मारे बेहाल दीपक ने जाने से मना कर दिया और मैं और पुनीत उपर प्रपात की ओर बढ़ चले. एक लगभग 50 मीटर छोटी सी पहाड़ी चढ़ते ही हम प्रपात के नीचे आ गये, हमारे उपर था एक विशाल प्रपात और नीचे की ओर एक विशाल हिमनद. यहाँ पहाड़ी और हिमनद के बीच एक चौड़ा सा खोखला स्थान था, अगर ग़लती से कोई नहाते हुए पहाड़ी से नीचे गिर जाए तो वो हिमनद पर ना गिरके इस बीच वाली चौड़ी खोखली जगह मे गिर पड़ेगा जहाँ बचने की संभावना बहुत कम लग रही थी. हम लोग अपने कपड़े और अन्य सामान एक पत्थर पर रखकर सावधानी से इस कुदरती शॉवर का आनंद लेने लगे. यहाँ प्रकृति का एक सतरंगी रूप भी प्रपात के पास एक विशाल इंद्रधनुष के रूप मे देखने को मिला, वास्तव मे अलौकिक अनुभव था यह! यहाँ हमे अपने कैमरे की कमी बहुत खल रही थे. थोड़ी देर स्नान करने के बाद लगभग 50 मीटर उँचाई पर दिख रही गुफा की ओर बढ़ने लगे. नीचे से पास दिखाई देने वाली ये गुफा अब यहाँ से दूर दिखाई दे रही थी इसलिए बड़ी गुफा को छोड़कर उससे पहले बनी एक छोटी गुफा तक जाने का फ़ैसला लिया गया. शुरुआत मे तो हम जोश मे जल्दी जल्दी उपर की ओर चढ़ गये लेकिन गुफा से लगभग 10 मीटर की दूरी पर पानी के कारण मिट्टी भुरभुरी सी हो गयी थी और वहाँ पकड़ बनाना काफ़ी मुश्किल हो रहा था. यहाँ एक जगह पर मैं ऐसी परेशानी मे फँस गया की ना तो उपर ही जा पा रहा था और ना ही नीचे जैसे बीच मे अटक सा गया था. जैसे ही उपर चढ़ने के लिए पैर पर ज़ोर देने की कोशिश करता, पेर के तले से मिट्टी खिसकती जाती और मेरे हाथ भी एक कच्ची पकड़ वाली घास पर थे. चूँकि पुनीत मेरे आगे चल रहा था और मुझसे थोड़ा दूर था उसके लिए भी वहाँ पर 2/3 कदम पीछे आना थोड़ा मुश्किल था. ऐसे वक्त मे नीचे फैली खोखली खाई को सोचकर मन मे तरह तरह के नकारात्मक विचार भी आने लगे. मैं वहाँ लगभग 5 मिनट तक ऐसे ही फँसा रहा, ऐसे मे उपर पहुँचे पुनीत ने कुछ उत्साह बढ़ाया और मन को शांत करके धीरे धीरे उपर बढ़ने का प्रयास करते करते आख़िरकार उस ख़तरनाक जगह से निकल ही गया. उपर चढ़ते ही राहत की साँस ली और गुफा मे प्रवेश किया. इसकी दीवारों से शुद्ध जल रिसकर आ रहा था जो वहाँ किसी अमृत से कम नही लग रहा था. गुफा मे बैठे बैठे मुझे अचानक किसी चीज़ की कमी महसूस हुई, देखा तो मेरी दो आँखे यानी मेरा चश्मा शायद प्रपात के पास नहाते वक्त वहीं छूट गया था, सोचा चलो कोई बात नही जाते समय उठा लेंगे. उतरते समय हम बैठ बैठ कर पहाड़ों की दीवारों से सटकर उतर रहे थे ताकि एक मजबूत पकड़ मिल सके और थोड़ी ही देर मे हम नहाने वाले स्थान पर पहुँच कर चश्मा ढूँढने लगे. थोड़ी देर ढूँढने पर भी जब नही मिला तो हम लोग नीचे उतरने लगे. उतरते समय हमे एक महाशय अपने नन्हे बच्चों के साथ उपर की ओर आते मिले, सोचकर लगा की ऐसी जगह पर बच्चों को लाना थोडा ख़तरनाक सा था. लेकिन पूछने पर पता चला की भाई साब सेना के जवान थे और बच्चों का कुदरत के इस रूप से परिचय कराने लेकर आए थे. नीचे उतरकर हम लोग दीपक को देखने लगे तो वो दूर मंदिर के पास बैठा हुआ दिखाई दिया.
इतने परिश्रम के बाद भूख अपने चरम पर थी, जैसे ही मंदिर पर पहुँचे तो दीपक ने हमारे लिए कुछ खाने का इंतज़ाम कर रखा था. दीपक को यहाँ घूमने आए कुछ मराठी भाइयों की एक टोली मिल गयी जिनसे दीपक ने 2/3 मुट्ठीभर भीगे चने माँग लिए थे और हम भी चने देखते ही उन पर टूट पड़े, ऐसा लग रहा था मानो बरसों के भूखे हों. चने जेब मे भरकर हम लोग दीपक को अपनी उपर की कहानी और वो हमे अपनी नीचे की कहानी बताते हुए तेज़ी से कदम बढ़ाते हुए वापिस जाने लगे. उतरते समय पथरीले रास्ते पर चलना बड़ा मुश्किल सा लग रहा था, कई जगह पर पत्थरों पर पैर रखते हुए हमारे पैर मुड़ भी गये थे. ऐसे मे आगे बढ़ते हुए अचानक से पीछे से चीखने की आवाज़ आई, पीछे मुड़कर देखा तो ये तो अपना पुनीत था जो दर्द से कराह रहा था. पास आए तो पता चला की उसके टखने मे मोच आ गयी थी, ऐसे समय मे उसका साहस बढ़ाते हुए हम लोग जैसे तैसे माणा पहुँच गये. पुनीत दर्द से कराह रहा था और ऐसे मे लग रहा था की आज हमे बद्रीनाथ मे ही रूकना पड़ेगा. हम जैसे ही माणा से बाहर निकलने लगे तो जोशिमठ मे मिले विदेशी युगल हमसे रास्ते मे टकरा गये जो की वापिस बद्रीनाथ जा रहे थे. पुनीत की ऐसी हालत देखकर उन्होने हमे बद्रीनाथ तक अपनी गाड़ी मे छोड़ दिया. गाड़ी मे जाते वक्त पता चला कि ये दोनो भारत आने से पहले एक दूसरे से अंजान थे और इनकी मुलाकात ऋषिकेश मे एक कैफ़े मे हुई थी. चूँकि दोनो अकेले सफ़र कर रहे थे तो उन्होने साथ सफ़र करने का फ़ैसला लिया. बातें करते करते हम लोग गेट बंद होने से पहले बद्रीनाथ पहुँच गये और यहाँ जीप स्टैंड पर उतर गये. यहाँ पता करने पर बिना बुकिंग के कोई भी जीप वाला जोशिमठ जाने को राज़ी नही हुआ. ऐसे मे जीप के बजाय अब हम लोग जोशिमठ जाने वाली सवारियों की तलाश मे लग गये और गेट बंद होने से पहले हमने जीप वाले के लिए कुछ सवारियाँ जुटा ही ली और हम लोग चल पड़े जोशिमठ की ओर.
जोशिमठ पहुँचते ही हम लोग एक डौरमेट्री मे बिस्तर लेकर, अपना सामान वहीँ छोड़कर, पुनीत को एक क्लिनिक मे ले गये. यहाँ मौजूद डॉक्टर साब ने पुनीत को सिर्फ़ एक गरम पट्टी चढ़ाई और अब पुनीत को कुछ अच्छा महसूस हो रहा था. वापस डौरमेट्री मे जाने से पहले हम दिन भर के भूखे प्राणियों ने जी भरकर भोजन किया. डौरमेट्री पहुँचकर दीपक और पुनीत अपने अपने बिस्तर पर लेट कर दिन भर की घटनाओं की याद कर रहे थे और मैं ऋषिकेश बस अड्डे से खरीदी गढ़वाल के तीर्थस्थलों की जानकारी देती एक किताब मे वसुधारा का वर्णन पढ़ रहा था कि मेरे दिमाग़ मे दीपक के लिए एक प्रश्न आया. मैंने दीपक से पूछा “यार एक बात बता, जब हम वसुधारा के नीचे खड़े थे, तो क्या उस वक्त तेरे उपर झरने का पानी गिरा था क्या?” उसका जवाब ना मे सुनकर मेरे हंस हंस के पेट मे दर्द होने लगा. मुझे इस तरह हंसते देखकर जब पुनीत ने मुझसे कारण पूछा तो मैंने उसे किताब मे वसुधारा का वर्णन पढ़ने को कहा, जिसे पढ़कर वो भी ज़ोर ज़ोर से हँसने लगा. हम दोनो को ऐसे हंसते देख दीपक भी अब उस किताब को पढ़ने को बड़ा बेताब था. हमने उसे किताब थमाई और उसे पढ़कर उसके चेहरे पर भी मुस्कान सी दौड़ गई. इस किताब मे वसुधारा के महत्व के बारे मे कुछ ऐसा लिखा था “यदि इस प्रपात की बूँदें आप पर पड़े तो आप पुण्यात्मा हैं, अन्यथा पापी.” खैर ये एक मज़ाक था और जिसे याद करके हम आज भी खूब हंसते हैं. पुनीत की ज़ख्मी टाँग के साथ ये रोमांचक सफ़र आगे भी जारी रहेगा…
Very interesting and beautiful photos. You all ghumakkar needs shoes with Good sole. Thanks a lot for sharing wonderful journey.
Thank you Surinder ji. Most of the time, we travel footloose…:)…on easy walks we prefer floaters (it gives a feeling of freedom) & on rough terrains or hikings we use shoes…
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I would love to travel with you guys some day.
??????????? ?? ??? ???? ???? ????????, ????? ??. Would be a pleasure & honour to wander with you sirji…:)…
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Dear Vipin, Ghumakkari at its best!!!! no advance planning, no bookings, no schedules and no driving the result!! limited risk unlimited fun and knowledge. While going through the entire series of this enormous journey of yours I literally went back to my college days (almost 30 years back) and felt nostalgic with such adventurous attitude. But overall it was learning for everybody who went with you and those who have read the post. Beyond Mana everything is so mysterious and fascinating that exploring such places is not everybody’s game. The simplicity of expressions, the unanimity of opinions made it seem very interesting and enjoyable journey but I am sure in actuality it was not at all that easy. complements to the trio for achieving something real worthy of ghumakkari. God bless you dear Ganguly
Dear Biswajit Ji, your kind blessings are what keeps us motivated and help us travel footloose…I am very happy that this story could bring back some nostalgic moments of yours…
There are places beyond Mana which takes my breath away when I see (on internet) or read about these places like the Satopanth Tal or Deo Tal etc., it’s my dream to visit these heavely lakes someday…Thank you very much for going through the posts and liking it…:)
Vipin…a very well written post…today, I once again read all the four parts from the beginning and always felt if I was a few years younger than today…I still want to do things like this even now – just waiting for the right opportunity once everyone will be going home for two weeks in March 2013 during holiday in school – I will be at my best – just keeping my fingers crossed…
A very nice post indeed…
Hi Amitava Ji, so wonderful to know that you enjoyed the story…& it could help you feel younger…:)…where are you planning to be wondering in March, any plans?…Would be wonderful to join you if time allows! Thank you so much for going through all the posts and encouraging…
Hi Vipin,
Stunning Visuals!
I suddenly have this longing for fresh, crisp mountain air.
Hi Nirdesh Ji, thank you for liking the photos. May you soon get to experience the fresh crisp mountain air!
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Hi Vipin,
Totally outstanding post and a wonderful read. Love the fact that you went with the flow without planning things down to the last detail!!
Loved your pictures and can relate well to the place and the beauty you have described. I dearly would love to do the Vasudhara falls but couldn’t make it this time… Hopefully sooner than later. Your post has motivated me to plan this destination again soon!
Keep exploring and writing!!
Cheers!
Thank you so much, Naturebuff Ji (we all are nature buffs…:)) for taking out time to read an older account. Inshallah, you will make it to Vasudhara soon…this entire series is full with such gems…though i liked all, but my best was Bhavishya Badri…do read if time allows…it’s divine…:)